ঋগ্বেদ ১/১৬৪/৩১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

12 March, 2023

ঋগ্বেদ ১/১৬৪/৩১

 ঋষিঃ-দীর্ঘতমা ঔচধ্যঃ দেবতা-বিশ্বদেবাঃ। ছন্দঃ-নিচৃত্ত্রিষ্টুপ্। স্বরঃ-ধৈবতঃ।।

अप॑श्यं गो॒पामनि॑पद्यमान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। 

स स॒ध्रीची॒: स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

অপস্যং গোপামনিপদ্যমানমা চ পরা চ পথিভিশ্চরন্তম্। 

স সধ্রীচীঃ স বিষুচীর্বসান আ বরীবর্তি ভুবনেষ্বন্তঃ।।________ঋগ্বেদ-১/১৬৪/৩১


পদ০-অপশ্যম্। গোপাম্। অনিऽপদ্যমানম্। আ। চ। পরা। চ। পথিऽভিঃ। চরন্তম্। সঃ। সধ্রীচীঃ। বিষুচীঃ। বসানঃ।আ। বরীবর্তি। ভুবনেষু। অন্তরিতি।

পদার্থ-আমি ( গোপাম্) সকলকে রক্ষা করি ( অনিপদ্যমানম্) মন আদি ইন্দ্রিয়কে না প্রাপ্ত করি এবং ( পথিভিঃ) মার্গ দ্বারা ( আ,চ) সামনে এবং ( পরা,চ) পিছনে ( চরন্তম্) প্রাপ্ত হতে পরমাত্মা বা বিচরণ থেকে জীবকে ( অপশ্যম্) দেখেছি ( সঃ) সেই জীবাত্মা ( সধ্রীচীঃ)ওই জীবাত্মার সাথে প্রাপ্ত গতিকে ( সঃ) সেই জীব এবং ( বিষুচীঃ) নানা প্রকারের কর্মানুসার গতিকে ( বসানঃ) পরিধেয় বস্ত্রাদি ( ভুবনেষু) লোকান্তরের ( অন্তঃ) মধ্যে ( আ,বরীবর্ত্তি)নিরন্তর উত্তম প্রকার বর্তমান।।

ভাবার্থ-সকলকে দেখেছেন পরমেস্বরকে দেখতে জীব সমর্থ নয় এবং পরমেস্বর সবাইকে যথার্থ ভাব দ্বারা দেখছেন। যেমন বস্ত্র আদি দ্বারা আবৃত পদার্থকে দেখা যায় না তেমনি জীবও সূক্ষ্ম হওয়াতে দেখা যায় না। এই জীব কর্মগতি দ্বারা সমস্ত লোকে বিভ্রান্ত হয়। তাদের ভিতর-বাহির পরমাত্মা স্থিত এবং পাপপুণ্যের ফল দানরূপ ন্যায় থেকে সকলকে সর্বত্র জন্ম দেন।

अन्वयः

अहं गोपामनिपद्यमानं पथिभिरा च परा च चरन्तमपश्यं स सध्रीचीः स विषूचीर्वसानो भुवनेष्वन्तरावरीवर्त्ति ॥  ऋग्वेद १.१६४.३१

पदार्थः

(अपश्यम्) पश्येयम् (गोपाम्) सर्वरक्षकम् (अनिपद्यमानम्) यो मन आदीनीन्द्रियाणि न निपद्यते प्राप्नोति तम् (आ) (च) (परा) (च) (पथिभिः) मार्गैः (चरन्तम्) (सः) (सध्रीचीः) सह गच्छन्तीः (सः) (विषूचीः) विविधा गतीः (वसानः) आच्छादयन् (आ) (वरीवर्त्ति) भृशमावर्त्तते (भुवनेषु) लोकलोकान्तरेषु (अन्तः) मध्ये ॥ 


भावार्थः नहि सर्वस्य द्रष्टारं परमेश्वरं द्रष्टुं जीवाः शक्नुवन्ति परमेश्वरश्च सर्वाणि याथातथ्येन पश्यति। यथा वस्त्रादिभिरावृतः पदार्थो न दृश्यते तथा जीवोऽपि सूक्ष्मत्वान्न दृश्यते। इमे जीवाः कर्मगत्या सर्वेषु लोकेषु भ्रमन्ति। एषामन्तर्बहिश्च परमात्मा स्थितस्सन् पापपुण्यफलदानरूपन्यायेन सर्वान् सर्वत्र जन्मानि ददाति ॥ 


पदार्थ

मैं (गोपाम्) सबकी रक्षा करने (अनिपद्यमानम्) मन आदि इन्द्रियों को न प्राप्त होने और (पथिभिः) मार्गों से (आ, च) आगे और (परा, च) पीछे (चरन्तम्) प्राप्त होनेवाले परमात्मा वा विचरते हुए जीव को (अपश्यम्) देखता हूँ (सः) वह जीवात्मा (सध्रीचीः) साथ प्राप्त होती हुई गतियों को (सः) वह जीव और (विषूचीः) नाना प्रकार की कर्मानुसार गतियों को (वसानः) ढाँपता हुआ (भुवनेषु) लोकलोकान्तरों के (अन्तः) बीच (आ, वरीवर्त्ति) निरन्तर अच्छे प्रकार वर्त्तमान है ॥ 

भावार्थ

सबके देखनेवाले परमेश्वर के देखने को जीव समर्थ नहीं और परमेश्वर सबको यथार्थ भाव से देखता है। जैसे वस्त्रों आदि से ढंपा हुआ पदार्थ नहीं देखा जाता वैसे जीव भी सूक्ष्म होने से नहीं देखा जाता। ये जीव कर्मगति से सब लोकों में भ्रमते हैं। इनके भीतर-बाहर परमात्मा स्थित हुआ पापपुण्य के फल देनेरूप न्याय से सबको सर्वत्र जन्म देता है ॥ 

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