सीता परित्याग सत्य या मिथक ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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11 June, 2023

सीता परित्याग सत्य या मिथक ?

 

सीता परित्याग सत्य या मिथक ?

लेखक - यशपाल आर्य

भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक होने के पश्चात् उनके राज्य में सीता जी के विषय में लोकापवाद फैलता है, जिसके कारण वे सीता जी का परित्याग करके लक्ष्मण जी से उन्हें तमसा नदी के तट पर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के पास वन में छोड़ने को कहते हैं। इस प्रसंग को रामायण में देखें-


(उत्तरकांड सर्ग ४५)

यहां भगवान् श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते हैं कि लोकपवाद के भय से मैं अपने प्राण और तुम्हें (लक्ष्मण जी को) भी त्याग कर सकता हूं फिर सीता का त्याग करना कौन सी बड़ी बात है? विचारें, क्या धीर पुरुषों का यही लक्षण होता है? नहीं, किन्तु धीर पुरुषों का लक्षण होता है कि कोई निंदा करे या स्तुति किंतु वे कभी भी सत्य मार्ग से विचलित नहीं होते। महात्मा भर्तृहरि जी ने उचित ही कहा है-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,

लक्ष्मीः समाविशतु, गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।

(नीतिशतकम् श्लोक ८४, चौखंभा प्रकाशन)

भगवान् श्रीराम के लिए देवर्षि नारद जी जैसे विद्वान् कहते हैं

समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव॥

(गीता प्रेस व दाक्षिणात्य संस्करण १.१.१७)

पश्चिमोत्तर संस्करण १.१.२०


(बंगाल संस्करण १.१.२०)

(Critical edition १.१.१६)


क्या वे भगवान् श्रीराम ऐसा अधीरता पूर्वक निर्णय लेंगे?

जिस भगवान् श्रीराम देवर्षि नारद जी ने को प्रजापति अर्थात् ईश्वर के सदृश जीवों के पालक कहा है, अर्थात् जैसे परमात्मा बिना पक्षपात के सबको न्यायपूर्ण तरीके से फल देता है वैसे ही भगवान् श्रीराम भी करते थे। क्या वे बिना सत्य पर विचार किए केवल लोकापवाद मात्र से ही किसी को उस अपराध का दण्ड दे देंगे, जिसने वह अपराध किया ही नहीं? भगवती सीता जी की अग्नि परीक्षा लेने के पश्चात् भगवान् श्रीराम घोषणा करते हैं-

विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा।

(६.११८.२० गीता प्रेस, ६.१२१.२१ दाक्षिणात्य पाठ)

जब प्रमाण से यह सिद्ध हो गया कि भगवती सीता जी पूर्णतः शुद्ध हैं, तो लोकापवाद मात्र से उन्हें अयोध्या से निष्कासित कर देंगे? न्याय का अर्थ महर्षि वात्स्यायन लिखते हैं “प्रमाणैरर्थपरीक्षणम् न्यायः” (न्या. द. वात्स्या. भा. १.१.१) अर्थात् प्रमाण से वस्तु का परीक्षण करना न्याय है, जब प्रमाण यह बोल रहा है कि सीता जी शुद्ध हैं तो वे उन्हें राजमहल से कैसे निष्कासित कर सकते हैं? भगवान् श्रीराम के सत्य के जीवन का सत्य एक अभिन्न अंग था, इसीलिए देवर्षि नारद जी कहते हैं -

सत्ये धर्म इवापरः। (१.१.१९ गीता प्रेस, १.१.१८ दाक्षिणात्य संस्करण, १.१.१८ critical edition) पश्चिमोत्तर संस्करण (१.१.२२) में इसके स्थान पर “सत्ये चानुपमद्युतिः” व बंगाल संस्करण (१.१.२१) में “सत्येऽप्यनुपमः सदा” पाठ मिलता है।

जब भगवान् श्रीराम पिता के वचन का मान रखने हेतु वनवास जाने के लिए तैयार होते हैं और माता सीता को अयोध्या में ही रुकने हेतु कहते हैं, तो देवी सीता इसके लिए तैयार नहीं होतीं, वे उनके साथ ही चलने वाले मत पर अडिग रहती हैं। तब भगवान् श्रीराम उन्हें अपने साथ चलने हेतु कहते हैं। इसमें भगवान् श्रीराम का यह कथन द्रष्टव्य है-

न देवि बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये।।२७।।

(अयोध्याकांड सर्ग 30 गीता प्रेस)

अर्थात् देवि! तुम्हें दुःख देकर मुझे स्वर्गका सुख मिलता हो तो मैं उसे भी लेना नहीं चाहूँगा।

पश्चिमोत्तर संस्करण २.३३.२९

बंगाल संस्करण २.३०.२९

Critical edition 2.27.25

सीता जी की अग्नि परीक्षा (अग्नि परीक्षा की सत्यता जानने हेतु हमारा विकास दिव्यकीत्ति द्वारा भगवान् श्रीराम पर लगाए आक्षेपों के उत्तर वाला लेख पढ़ सकते हैं) के पश्चात् भगवान् श्रीराम कहते हैं-

न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा।।२०।।

(६.११८.२० गीता प्रेस, ६.१२१.२१ दाक्षिणात्य पाठ))

अर्थात् भगवान् राम कहते हैं कि मैं देवी सीता को उसी तरह नहीं त्याग सकता जैसे कोई मनस्वी पुरुष अपनी कीर्ति को।


(पश्चिमोत्तर संस्करण ६.९९.२५)

(बंगाल संस्करण ६.१०३.२१)

(Critical edition ६.१०६.१८)

भगवान् श्रीराम स्वयं के विषय में कहते हैं-

रामो द्विर्नाभिभाषते। (गीता प्रेस अयोध्याकांड सर्ग 18, श्लोक 30, critical edition में भी यही पाठ है) यहां पश्चिमोत्तर संस्करण में “रामो ऽसत्यं न भाषते।” (२.१९.३३) पाठ है। अब तो भगवान् श्रीराम के वचन से भी यह सत्य हो गया कि उन्होंने सीता जी का कभी परित्याग किया ही नहीं था।

पिछले लेख में हमने सिद्ध किया कि उत्तरकांड बाद के लोगों ने स्वार्थ पूर्ति हेतु मिलाया है, उन हेतुओं को भी यहां समझ लेवें। जब उत्तरकांड ही प्रक्षिप्त है तो सीता परित्याग स्वतः ही असिद्ध हो जाता है।

Spitzer Manuscript जिसका काल विद्वानों ने 130ce माना है। उसमें महाभारत के 100 पर्वों का नाम है। इसमें हरिवंश पुराण के हरिवंश व भविष्य का उल्लेख है किन्तु विष्णु पर्व नहीं है, अर्थात् ये दोनों पर्व 130ce से प्राचीन हैं-


हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व में भगवान् श्रीराम की जीवनी है, किन्तु यहां भी सीता परित्याग का अभाव है।



(हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय 41)

विष्णु पुराण में भगवान् श्रीराम की जीवनी है, किन्तु वहां भी सीता परित्याग नहीं है।


(विष्णु पुराण चतुर्थ अंश चतुर्थ अध्याय)

इसी प्रकार नरसिंह पुराण में भी रामकथा है किन्तु वहां भी सीता परित्याग नहीं है।


(नरसिंह पुराण अध्याय ५२)

पुराणों के इन प्रसंगों का अवलोकन करें तो ऐसा लगता है कि रामायण के नाम से अनेक कल्पित कथाएं काल काल में प्रचलित होती गईं, कथाओं का विस्तार होता गया। अनेक कथाएं कुछ विशेष क्षेत्रों तक ही प्रचलित थीं जैसे लावणासुर की कथा हरिवंश में है, किन्तु नरसिंह व विष्णु पुराण में नहीं है, नगरवासियों का भगवान् श्रीराम के साथ ही उनके धाम जाने की कथा नरसिंह और विष्णु पुराण में है किन्तु हरिवंश पुराण में अभाव है, विद्वान् जन ऐसे ही और भी ग्रंथों की तुलना करके समझ सकते हैं। बाद में उन सब कथाओं को एकत्र कर के एक काण्ड का रूप दे दिया गया जो अपने प्रारंभ में खिल रूप में विद्यमान हो सकता है किन्तु बाद में रामायण का भाग समझा जाने लगा।

प्रश्न - तन्त्रवार्तिक में आचार्य कुमारिल भट्ट जी सीता परित्याग को सही ठहराने का यत्न किया है फिर आप यह कैसे कह सकते हैं कि यह मिलावट है?


(मीमंसा दर्शन १.३.७ पर भाष्य)

उत्तर - यहां आचार्य कुमारिल भट्ट जी ने इस कथा में लगे दोषारोपण को असत्य सिद्ध करने हेतु अपना तर्क रखा है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह कथा उस काल में वाल्मीकि रामायण में विद्यमान थी क्योंकि हम पिछले लेख में यह प्रमाण दे चुके हैं कि महाभारत के रामोपाख्यान पर्व में उत्तरकांड का लेशमात्र भी वर्णन नहीं है व नरसिंह पुराण आदि इनके उत्तरवर्ती ग्रंथों में भी नहीं मिलता। इससे यह अनुमान होता है कि यह केवल लोककथा रूप में उनके क्षेत्र में ही प्रचलित थी, जो वाल्मीकि रामायण में होती तो इन ग्रंथों में भी वर्णन मिलना चाहिए किन्तु नहीं मिलता। कुमारिल भट्ट जी से भी यहां छोटी सी त्रुटि हो गई कि उन्होंने एक अनार्ष रचना का खंडन न करके उसके समर्थन में तर्क दिया। फिर भी दोष वहीं का वहीं रहता है कि निर्दोष सीता जी को दंड क्यों, श्रीराम के द्वारा उनके चरित्र के विरुद्ध आचरण आदि दोषों का निवारण नहीं होता। मनुष्य अल्पज्ञ होता है उससे त्रुटि हो जाए उसे सुधार लेना चाहिए यही मनुष्यता का लक्षण है।


संदर्भित एवं सहायक ग्रंथ

  • वाल्मीकि रामायण (गीता प्रेस)
  • वाल्मीकि रामायण पश्चिमोत्तर संस्करण
  • वाल्मीकि रामायण बंगाल संस्करण
  • वाल्मीकि रामायण Critical edition
  • नीतिशतकम् (चौखंभा प्रकाशन)
  • विष्णु पुराण
  • नरसिंह पुराण
  • हरिवंश पुराण
  • तन्त्रवार्तिकम्
  • The English Translation of TantraVartika
  • Mahabharat parvan list in Spitzer Manuscript (Deiter Schlingloff)

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