गायत्री की महिमा - ধর্ম্মতত্ত্ব

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21 May, 2023

गायत्री की महिमा

 " गायत्री की महिमा महान् है प्राचीन और अर्वाचीन सभी ऋषि-मुनियों, महापुरुषों, लेखकों, विचारकों और चिन्तकों ने गायत्री के गौरव का गान किया है। मनु आदि स्मृतियों, ब्राह्मणग्रन्थों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि इतिहास एवं काव्यग्रन्थों, भागवत आदि अठारह पुराणों में – सर्वत्र गायत्री के महत्त्व का वर्णन हुआ है। इसके गायत्री, सावित्री, वेदमाता, वेदमुख, गुरुमंत्र आदि अनेक नाम भी इसके महत्त्व को सूचित करते हैं।


गायत्री मंत्र में ज्ञान, कर्म और उपासना -तीनों का सम्मिलन होने से यह त्रिवेणी बन गई है। इसके ऋषि, देवता और छन्द सभी में विशेषता होने के कारण इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है।


जिन्होंने भी गायत्री मंत्र का अनुष्ठान किया है, इसका जप किया है, वे सभी लाभान्वित हुए हैं और जो इसका जप करेंगे वे भी निश्चय ही लाभान्वित होंगे। वस्तुतः जपने के लिए एकमात्र मंत्र गायत्री ही है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगिराज श्रीकृष्ण आदि महापुरुष इसका जप करते थे। सीता माता भी इस पवित्र मंत्र का जप करती थीं।


गायत्री मंत्र बहुत छोटा-सा है परन्तु इसका अर्थ बहुत विस्तृत है अनेक विद्वानों ने गायत्री पर लेखनी उठाई है और इसके महत्व पर प्रकाश डाला है परन्तु इस मंत्र की पूर्ण व्याख्या नहीं हो सकी।


श्री शिवपूजनसिंह कुपावाह ने भी गायत्री मंत्र पर यह लघु पुस्तिका सिली है। इसमें जहाँ गायत्री के महत्व और गौरव सम्बन्धी प्रमाण प्रस्तुत किये है वहीं रावण, उब्बट, महीधर, सायण आदि पौराणिक और आर्यसमाज के विद्वानों के भाष्यों को एक स्थान पर एकत्र कर दिया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। सभी उद्धृत प्रमाणों के जो पते दिये हैं वे ठीक हैं ।


इसका सम्पादन करते हुए जहाँ कुछ त्रुटियाँ थीं उनका संशोधन कर दिया गया है। इस संस्कृत बहुल ग्रन्थ को दुर्गा मुद्रणालय के कार्य-निरीक्षक श्री सुरेशकुमार कटाराजी ने जिस कुशलता से शुद्धरूप में छापने में सहयोग दिया है तदर्थं उन्हें धन्यवाद देता हूँ" - जगदीश्वरानन्द सरस्वती

सभी वैदिक धर्मावलम्बी यह मानते हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसलिए गायत्री मंत्र परमात्मानिःश्वसित है, परन्तु 'गायत्री' मंत्र की रचना के सम्बन्ध में पौराणिकों का ऐसा विचार है कि जब विश्वामित्र ऋषि ने त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा तो इन्द्र ने उसे स्वर्ग से वापस कर दिया। इसपर विश्वामित्र ने क्रुद्ध होकर त्रिशंकु को वहीं आकाश में ठहराकर उसी समय नूतन सृष्टि करनी प्रारम्भ कर दी। त्रिशंकु की छाया 'कोकट' पर पड़ी, इसलिए वह क्षेत्र (मगधगया) अपवित्र माना जाने लगा तथा उनके मुख से लार टपकी जिससे कर्मनाशा नदी हुई और जल अपवित्र माना गया। श्री विश्वामित्र जी ने उसी समय केला, नारियल आदि वनस्पतियाँ तथा 'गायत्री' की रचना की। आगे चलकर विश्वामित्र व इन्द्र में सन्धि हो जाने से यह रचना अधूरी रही। यह कथानक बड़ा रोचक तथा लम्बा-चौड़ा है। यह सब नक्षत्रों के सम्बन्ध में आलंकारिक वर्णन है ।


वास्तव में 'गायत्री' मंत्र का साक्षात्कार सबसे पहले विश्वामित्र ऋषि ने ही किया था। इसीलिए उनके नाम से यह मंत्र चला आता है। उन्होंने उसमें विद्यमान विश्व का कल्याण करनेवाली शक्ति के रहस्य का उद्घाटन किया।


गायत्री के भिन्न-भिन्न नाम


गुरुमंत्र – जब बालक — ब्रह्मचारी सर्वप्रथम गुरुकुल में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास जाता है तो सबसे पहले वेदारम्भ-संस्कार में 'गायत्री मंत्र' का उपदेश किया जाता है, इसलिए इसे 'गुरुमंत्र' कहते हैं। 

गायत्री — गायत्री छन्द में होने के कारण इसको 'गायत्री' कहते हैं।


'स्तुत्यबंक''' धातु से 'अवन्' प्रत्यय। अतः ऋग्वेदीय प्रारम्भिक मंत्र 'अग्निमीळे' से पदार्थ-स्तवन का प्रारम्भ होता है, अतः उस छन्द का नाम 'गायत्री' पड़ा ।


"गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः, त्रिगमना वा विपरीता, गायतो


मुखादुदपतदिति च ब्राह्मणम्” – [ निरक्त, दैवतकाण्ड ७।१२] भाष्य - 'गायत्री छन्द:' 'गायतेः स्तुतिकर्मणः' 'गायति अर्चति कर्मा" (निघं० ३ । १४) ततः 'अमिन क्षियजिबधिपतिभ्योऽनन्' (उणा० ३।१०५) धातोर्बाहुलकात् अन् प्रत्ययः, स च टिद्धर्मवान् । गायत्री स्त्रियाम् 'त्रिगमना विपरीता' त्रिगमना त्रिभिः पादमनं प्रापणं यस्याः त्रिगमना, त्रिगाया गायो गमनं त्रिगाया विपरीता गाय गायत्री, अथ गायतो मुखादुदपपत् वेदज्ञानं गायत उपदिशतः परमेश्वरस्य मुखात् सर्वप्रथमम् "अग्निमीळ े पुरोहितम् ०" इति उदगच्छत तस्माद् गायत्री- इत्यालंकारिकं कथनमिति ब्राह्मणम् ।""


अर्थ – 'गायत्री' - (क) स्तुत्यर्थक '' धातु से 'अत्रन्' प्रत्यय अतः, ऋग्वेदीय प्रारम्भिक मंत्र 'अग्निमीळ 'से पदार्थ-स्तवन का प्रारम्भ होता है, अतः उस छन्द का नाम 'गायत्री' पड़ा।


(ख) अथवा, यह छन्द (त्रिगमन) तीन पादोंवाला होता है। अतः गम और


'त्रि' के विपर्यय से 'गायत्री' निष्पन्न हुआ त्रिगम गमत्रि – गायत्री (ग) ब्राह्मण कहता है कि गान करते हुए परमेश्वर के मुख से सबसे पूर्व यह छन्द निकला। अतः इसका नाम 'गायत्री' है। गे + यत् से 'रक् प्रत्यय', गायत्र- गायत्री।""


मम्बराज - सम्पूर्ण फलदायी मंत्रों में इसे हो सर्वश्रेष्ठ, शीघ्र फलदायक व अवश्य फलदायक पाया गया। इसको सिद्ध कर लेने पर अन्य मंत्रों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं, अतः इसे मन्त्रराज कहा गया। कामधेनु - गायत्री मंत्र के सिद्ध कर लेने पर जो चाहिए वह प्राप्त होता है।

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१. स्वामी ब्रह्ममुनि जी परिव्राजक 'विद्यामार्तण्ड' कृत "निरुक्त सम्मः" पृष्ठ ५७८ [संवत् २०२३ वि० सन् १९६६ ६० प्रथम संस्करण, आर्य साहित्य मण्डल लि०, अजमेर से प्राप्य ]


२. पं० चन्द्रमणि जी विद्यालंकार कृत "निरुक्त भाष्यम्" उत्तराउं, पृष्ठ ४६३ [ यंत्र १९८२ वि०, दयानन्दाब्द १०२ मार्च १९२६६०, प्रथमावृत्ति ]

अतः इसका नाम कामधेनु है वसिष्ठ ऋषि के पास शायद यही गायत्रीरूपी कामधेनु थी । महर्षि दयानन्द जी सरस्वती ने स्वयं लिखा है-"अनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः । "


धर्म- जो सत्य न्याय का आचरण करना है, अर्थ- जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना है, काम — जो धर्म और अर्थ से इष्ट-भोगों का सेवन करना है और मोक्ष - जो सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना है। इन चार पदार्थों की सिद्धि हमको शीघ्र प्राप्त हो।""


अतः इस मंत्र का नाम 'कामधेनु' है


गुरुमंत्र - वेदारम्भ संस्कार में गुरु अपने शिष्य को इसका उपदेश करता है, अतः इस मंत्र का नाम 'गुरुमंत्र' पड़ा। वेदमुख – यह गायत्री मंत्र वेदों में मुख्य मंत्र है, अतः इसको 'वेदमस' भी कहते हैं।


सावित्री - इस मंत्र में 'सविता' से प्रार्थना की गई है और इसका देवता भी सविता' है, अतः यह सावित्री कहलाती है। मनुस्मृति २२८३ में इसे 'सावित्र्यास्तु' कहा है।


वेदमाता—उपनिषत्काल में गायत्री का माहात्म्य इतना अधिक बढ़ गया था कि लोग 'गायत्री' को 'वेद की माता' या 'छन्दों की माता' कहने लग गये थे। अथर्ववेद काण्ड १६ सूक्त ७१ मन्त्र १ में भी इसे 'वेदमाता' कहा गया है वेदादि सच्छास्त्रों में गायत्री मंत्र


श्रश्म् भूर्भुव॒ः स्व॒ः तत् स॑वि॒तुर्वरेण्यं॒ भर्गो दे॒वस्य॑ धीमहि धियो॒ यो नः प्रचो॒दया॑त् ॥


ऋग्वेद मण्डल सूक्त ६२ मंत्र १०; यजुर्वेद अ० ३ मंत्र ३५; २२; ३०।२; ३६।३; सामवेद उत्तराधिक १४६२] तैत्तिरीय संहिता; १२५२६२४;

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१. "पंचमहायज्ञविधिः" पृष्ठ ८६६ [ दयानन्दप्रन्थमाला, पाताब्दी संस्करण, प्रथमभाग, दयानन्दाब्द १००, संवत् १९८१ वि० सन् १९२५ में मंत्री, परोपकारिणी सभा, अजमेर द्वारा प्रकाशित ] -

४|१|११|१; तैत्तिरीयारण्यक १।११।२; १०।२७।१; तैत्तिरीयारण्यक (आन्ध्र) १०।३५ मं० [सं० ४।१०१३: ऐतरेय ब्राह्मण ४।३२।२; ५५२६ ५१३८ ५१६८ कौषीतकी ब्राह्मण २३।३; २६।१०; गोपथ ब्राह्मण १।१।३४; दैवत ३।२५ शतपथ ब्रा० २।३।४।३६; १३६ २६ १४६ ३ । ११; ते० आ० ४।११।२; १०।२७।१; ते० आ० (आन्ध्र) १०1३५, बृह० उ० ६।३।११; जं० उ० प्रा० ४।२८।१; दवे० उ० ४।१८; आश्व० श्री० ७६६; ८|१|१८; शांखा० श्री० २।१०।२; २।१२।२; १०।६।१७ १०।६।१६: आप० श्री० ६।१८ १; शांखा० गु० २।५।१२; २२७ १६; ६४८; कौशिकसूत्र ११६; साममंत्र- ब्राह्मण १।६।२६; बौधायनधर्मशास्त्र २।१०।१७। १४; खादिरगृह्य सू० २।४।२१; आपस्तम्ब गृ० सू० ४।१०१६-१२; आपस्तम्ब श्री० २०१२४।६; मानव श्रौ० ५२।४।४३; ऋग्विधान १।१२।५


महर्षि दयानन्द जी सरस्वती ने 'पंचमहायज्ञविधि' में जहां गायत्रीमंत्र लिखा है वहाँ उन्होंने यह भी लिखा है कि- "एवं चतुर्षु वेदेषु समानो मंत्रः " ।' चारों वेदों में यह मंत्र (गायत्री) समान है परन्तु वर्तमान उपलब्ध अथर्ववेद में यह गायत्री मंत्र नहीं है।


कुछ पौराणिक व कुछ आसामाजिक विद्वानों ने अथर्ववेद से 'गायत्री' मंत्र प्रदर्शित करने का प्रयास भी किया है। यथा- श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचायं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वद्वरिष्ठ कनखल बंगला-


मठाधीश- १०८ स्वामी श्री महेश्वरानन्द जी गिरि महामण्डलेश्वर महाराज ने "गायत्री मीमांसा" में अथर्ववेद का पता दिया है- "अथर्व० ३।१०।२”*


परन्तु 'अथर्ववेद संहिता' में इस पते पर गायत्री मंत्र नहीं है


आचार्य विश्वश्रवाः वैदिक रिसचं स्कॉलर की पत्नी श्रीमती देवी शास्त्रिणी ने अथर्व ० १६।७१।१ के "स्तुत मया बरवा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं कोति द्रविणं ब्रह्मवचंसम् मह्यं वस्या व्रजत ब्रह्मलोकम्" को ही गायत्री मंत्र माना है। वे लिखती हैं- "वेदमाता गायत्री को ही कहते हैं।....""

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१. वही, पृष्ठ ८६५ • "गायत्री-मीमांसा" पुष्ट २


२. "पंचमहायज्ञविधिभाष्यम्" भूमिका पृष्ठ ३८

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