सूक्त - ब्रह्मादेवता - वृषभः, स्वापनम्छन्दः - अनुष्टुप्सूक्तम् - स्वापन सूक्त
स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्। तेना॑ सह॒स्ये॑ना व॒यं नि जना॑न्त्स्वापयामसि ॥সহস্রশৃঙ্গো বৃষভো য়ঃ সমুদ্রাদুদাচরৎ।
তেনা সহস্যেনা বয়ং নি জনান্তস্বাপয়ামসি।।১।।
विषय
सूर्यास्त के साथ सोने की तैयारी
पदार्थ
१. (सहस्त्रशंग:) हज़ारों रश्मियोंवाला (वृषभ:)-वृष्टिजल का वर्षक य:-जो सूर्य समुद्रात् उदयाचल के परिसरवर्ति [समीपस्थ] अन्तरिक्ष प्रदेश से (उदाचरत्) = उदित होता है, (तेन) = उस (सहस्येन) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बल को प्राप्त कराने में उत्तम सूर्य के साथ (वयम्) = हम (जनान्) = लोगों को (निस्वापयामसि) = सुलाते हैं, अर्थात् सूर्यास्त होता है-सूर्य सोता-सा है और हम लोगों को भी सुला देता है। २. राजा राष्ट्र में ऐसा प्रयत्न करे कि प्रजा सूर्योदय के साथ जाग उठे और सूर्यास्त के साथ कार्य-विरत हो सोने की तैयारी करे। इस स्वाभाविक जीवन के परिणामस्वरूप लोग न केवल शरीर में अपितु मन में भी स्वस्थ बने रहेंगे।
भावार्थ
राजा राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था करे कि सभी प्रजा सर्यास्त होने पर सोने की तैयारी करे। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है।
पदार्थ
(यः) जो (वृषभः) सुख बरसानेवाला (सहस्रशृङ्गः) सहस्रों तेज अर्थात् नक्षत्रोंवाला चन्द्रमा [अथवा सहस्रों किरणोंवाला सूर्य] (समुद्रात्) आकाश से (उदाचरत्) उदय हुआ है, (तेन) उस (सहस्येन) बल के लिये हितकारक [चन्द्रमा] से (वयम्) हम लोग (जनान्) सब जनों को (नि स्वापयामसि) सुलादें ॥१॥
भावार्थ
माता पिता आदि बच्चों को चन्द्रमा के दर्शन कराते हुए सुलावें, जिससे उनके शरीर की पुष्टि और नेत्रोंकी ज्योति बढ़े [(सहस्रशृङ्गः) का अर्थ सूर्य भी है, अर्थात् सूर्य का प्रकाश आने से यह घर स्वास्थ्यकारक है। हम सब सोवें] ॥१॥ इस सूक्त के चार मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद म० ७। सू० ५५ के हैं, जिनका इन्द्र देवता है, इससे यहाँ भी सूक्त का इन्द्र ही देवता है। यह मन्त्र उक्त सूक्त का मन्त्र ७ है ॥ पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
टिप्पणी
१−(सहस्रशृङ्गः) सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थे। सहस्रं बहुनाम-निघ० ३।१। शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। इति शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुडागमः। शृङ्गाणि ज्वलतोनामसु-निघ० १।१७। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा निरु० २।७। सहस्राणि बहूनि शृङ्गाणि तेजांसि नक्षत्राणि किरणा वा यस्य स बहुतेजाः। अंसख्यातनक्षत्रः। चन्द्रः। सूर्यः (वृषभः) ऋषिवृषिभ्यां कित् उ० ३।१२३। इति वृषु सेचने-अभच्। यद्वा, वृह वृद्धौ-अभच, हस्य षकारः। वृषभः प्रजां वर्षतीति वातिवृहति रेत इति वा तद् वृषकर्मा वर्षणाद् वृषभः-निरु० ९।२२। किरणद्वारा सुखस्य वर्षकः (यः) (समुद्रात्) अ० १।३।८। अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। (उत्+आ+अचरत्) उदागात् (तेन) प्रसिद्धेन तादृशेन (सहस्येन) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति सहस्-यत् सहसे बलाय हितेन चन्द्रेण (वयम्) (नि) नित्यम्। सर्वथा (जनान्। गृहस्थप्राणिनः (स्वापयामसि) स्वापयामः। निद्रापयामः ॥- पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
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