যজুর্বেদ ১/২ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

07 July, 2023

যজুর্বেদ ১/২

 বসোঃ পবিত্রমিত্যস্য ঋষিঃ স এব । য়জ্ঞো দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

বসোঃ॑ প॒বিত্র॑মসি॒ দ্যৌর॑সি পৃথি॒ব্য᳖সি মাত॒রিশ্ব॑নো ঘ॒র্মো᳖ऽসি বি॒শ্বধা॑ऽ অসি । প॒র॒মেণ॒ ধাম্না॒ দৃꣳহ॑স্ব॒ মা হ্বা॒র্মা তে॑ য়॒জ্ঞপ॑তির্হ্বার্ষীৎ ॥ ২ ॥

পদার্থঃ- হে বিদ্যাযুক্ত মনুষ্য! তুমি যে (বসোঃ) যজ্ঞ (পবিত্রম্) শুদ্ধির হেতু (অসি)(দ্যৌঃ) যাহা বিজ্ঞানালোকের হেতু এবং সূর্য্য-কিরণে স্থির থাকে, যাহা (পৃথিবী) বায়ু সহ দেশদেশান্তরে বিস্তীর্ণ হয়, যাহা (মাতরিশ্বনঃ) বায়ু কে (ধর্মঃ) শুদ্ধকারী, যাহা (বিশ্বধাঃ) সংসারের ধারক তথা যাহা (পরমেণ) উত্তম (ধাম্না) স্থান হইতে (দৃহস্ব) সুখ বৃদ্ধিকারক, এই যজ্ঞকে (মা) না (হ্বাঃ) ত্যাগ করিও । তথা (তে) তোমার (য়জ্ঞপতিঃ) যজ্ঞের রক্ষাকারী যজমানও তাহাকে (মা) না (হ্বার্ষীৎ) ত্যাগ করে । ধাত্বর্থের অভিপ্রায়ে যজ্ঞ শব্দের অর্থ তিন প্রকার হয় অর্থাৎ প্রথম যাহা ইহলোকও পরলোকের সুখের জন্য বিদ্যা, জ্ঞান ও ধর্মের সেবনের ফলে বৃদ্ধ অর্থাৎ বড় বড় বিদ্বান্, তাহাদের সৎকার করা । দ্বিতীয় ভাল প্রকার পদার্থগুলির গুণের সহযোগিতা ও বিরোধিতার জ্ঞান দ্বারা শিল্পবিদ্যা প্রত্যক্ষ করা এবং তৃতীয় নিত্য বিদ্বান্দিগের সমাগম অথবা গুভগুণ, বিদ্যা, সুখ, ধর্ম ও সত্যের নিত্য দান করা ॥ ২ ॥

ভাবার্থঃ- মনুষ্যগণ স্বীয় বিদ্যা ও উত্তম ক্রিয়া দ্বারা যে যজ্ঞের সেবন করিয়া থাকে তাহা হইতে পবিত্রতার প্রকাশ, পৃথিবীর রাজ্য, বায়ুরূপী প্রাণতুল্য রাজনীতি, প্রতাপ, সকলের রক্ষা, ইহলোক ও পরলোকের সুখের বৃদ্ধি, পরস্পর কোমলতা পূর্বক ব্যবহার করা এবং কুটিলতা ত্যাগ ইত্যাদি শ্রেষ্ঠ গুণ উৎপন্ন হইয়া থাকে এইজন্য সকল মনুষ্যকে পরোপকার তথা স্বীয় সুখের জন্য বিদ্যা ও পুুরুষকার সহ প্রীতিপূর্বক যজ্ঞের অনুষ্ঠান নিত্য করা আবশ্যক ।

अन्वय:

(वसोः) वसुः। अत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति प्रथमा विभक्तिर्विपरिणाम्यते। यज्ञो वै वसुः (शत꠶१.५.४.९)। (पवित्रं) पुनाति येन कर्मणा तत् (असि) भवति अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (द्यौः) विज्ञानप्रकाशहेतुः (असि) भवति (पृथिवी) विस्तृतः (असि) भवति (मातरिश्वनः) मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति आश्वनिति वा तस्य वायोः। श्वन्नुक्षन्꠶(उणा꠶१.१५७)। अनेनायं शब्दो निपातितः। मातरिश्वा वायुर्मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति मातर्य्याश्वनितीति वा (निरु꠶७.२६)। (घर्मः) अग्नितापयुक्तः शोधकः। घर्म इति यज्ञनामसु पठितम् (निघं꠶३.१७)। (असि) भवति (विश्वधाः) विश्वं दधातीति (असि) भवति (परमेण) प्रकृष्टसुखयुक्तेन (धाम्ना) सुखानि यत्र दधति तेन। बाहुलकाड्डुधाञ्धातोर्मनिन् प्रत्ययः (दृꣳहस्व) वर्धते। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् च (मा) निषेधार्थे (ह्वाः) ह्वरतु। अत्र लोडर्थे लुङ् (मा) निषेधार्थे (ते) तव (यज्ञपतिः) यज्ञस्य स्वामी यज्ञकर्त्ता यजमानः। धात्वर्थाद् यज्ञार्थस्त्रिधा भवति। विद्याज्ञानधर्मानुष्ठानवृद्धानां देवानां विदुषामैहिकपारमार्थिकसुखसंपादनाय सत्करणं सम्यक् पदार्थगुणसंमेलविरोधज्ञानसङ्गत्या शिल्पविद्याप्रत्यक्षीकरणं नित्यं विद्वत्समागमानुष्ठानं शुभविद्यासुखधर्मादिगुणानां नित्यं दानकरणमिति (ह्वार्षीत्) ह्वरतु ह्वर वा। अत्रापि लोडर्थे लुङ् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१.५.४.९-११) व्याख्यातः ॥२॥

যজুর্বেদ ১/২
पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन्मनुष्य ! त्वं यो वसोर्वसुरयं यज्ञः पवित्रमसि पवित्रकारकोऽस्ति। द्यौरसि सूर्य्यरश्मिस्थो भवति। पृथिव्यसि वायुना सह विस्तृतो भवति। तथा मातरिश्वनो घर्मोऽसि वायोः शोधको भवति। विश्वधा असि संसारस्य सुखधारको भवति। परमेण धाम्ना सह दृंहस्व दृंहते वर्धते। तमिमं यज्ञं मा ह्वार्मा त्यज। तथा ते तव यज्ञपतिस्तं मा ह्वार्षीत् मा त्यजतु ॥२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्याणां विद्याक्रियाभ्यां सम्यगनुष्ठितेन यज्ञेन पवित्रता प्रकाशः पृथिवी राज्यं वायुप्राणवद् राज्यनीतिः प्रतापः सर्वरक्षा अस्मिंल्लोके परलोके च परमसुखवृद्धिः परस्परमार्जवेन वर्त्तमानं कुटिलतात्यागश्च जायते। अत एव सर्वैर्मनुष्यैः परोपकाराय विद्यापुरुषार्थाभ्यां प्रीत्या नित्यमनुष्ठातव्य इति ॥२॥

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