সামবেদ ১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

17 August, 2023

সামবেদ ১

ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यःदेवता - अग्निःछन्दः - गायत्रीस्वरः - षड्जःकाण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्

अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । 

नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१॥

অগ্ন আ যাহি বী তয়েগৃণানো হব্যদাতয়ে।

নি হোতা সৎসি বর্হিষি।। ১।।


পদার্থঃ (অগ্নে) হে স্বপ্রকাশসর্বব্যাপকসকলের নেতাপরমপূজ্য পরমাত্মা ! (বর্হিষি) তুমি আমাদের জ্ঞানযজ্ঞরূপ ধ্যান দ্বারা (আ য়াহি) প্রাপ্ত হও। (গৃণানঃ) তোমার স্তুতি করা হয়েছে, (হোতা) তুমিই দাতা। (বীতয়ে) তুমি আমাদের হৃদয়ে জ্ঞানের প্রকাশ করার জন্য তথা (হব্যদাতয়ে) ভক্তিপ্রার্থনাউপাসনার ফল প্রদান করার (নি সৎসি) বিরাজিত হও। 

ভাবার্থ -

ভাবার্থঃ পরম কৃপাময় পরমাত্মা বেদ দ্বারা আমাদেরকে প্রার্থনা করার পদ্ধতি বলছেন। হে জগৎপতি! তুমি জ্যোতিস্বরূপআমাদের হৃদয়ে জ্ঞানের প্রকাশ কর। তুমি সদা যজ্ঞে বিরাজিত। জ্ঞানযজ্ঞরূপ ধ্যানের দ্বারা আমরা তোমাকে প্রাপ্ত হই । তোমাকেই বেদ এবং বেদদ্রষ্টা ঋষিগণ স্তুতি করেনআমাদের স্তুতিও কৃপাপূর্বক শ্রবণ করে আমাদের প্রতি প্রসন্ন হও। তুমিই সমস্ত পদার্থ ও সুখ প্রদানকারী।।১।।

রামনাথ বেদালঙ্কারকৃত হিন্দি ভাষ্যঃ

पदार्थ

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) सर्वाग्रणी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! आप (गृणानः) कर्तव्यों का उपदेश करते हुए (वीतये) हमारी प्रगति के लिए, हमारे विचारों और कर्मों में व्याप्त होने के लिए, हमारे हृदयों में सद्गुणों को उत्पन्न करने के लिए, हमसे स्नेह करने के लिए, हमारे अन्दर उत्पन्न काम-क्रोध आदि को बाहर फेंकने के लिए और (हव्य-दातये) देय पदार्थ श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ धन आदि के दान के लिए (आ याहि) आइए। (होता) शक्ति आदि के दाता एवं दुर्बलता आदि के हर्ता होकर (बर्हिषि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (नि सत्सि) बैठिए ॥ 


द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। विद्वान् भी अग्नि कहलाता है। इसमें विद्वान् अग्नि है, जो ऋत का संग्रहीता और सत्यमय होता है।’ ऋ० १।१४५।५।, विद्वान् अग्नि है, जो बल प्रदान करता है। ऋ० ३।२५।२ इत्यादि मन्त्र प्रमाण हैं। हे (अग्ने) विद्वन् ! (गृणानः) यज्ञविधि और यज्ञ के लाभों का उपदेश करते हुए आप (वीतये) यज्ञ को प्रगति देने के लिए, और (हव्य-दातये) हवियों को यज्ञाग्नि में देने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) होम के निष्पादक होकर (बर्हिषि) कुशा से बने यज्ञासन पर (नि सत्सि) बैठिए। इस प्रकार हम यजमानों के यज्ञ को निरुपद्रव रूप से संचालित कीजिए। ॥ 


तृतीय—राजा के पक्ष में। राजा भी अग्नि कहलाता है। इसमें हे नायक ! तुम प्रजापालक, उत्तम दानी को प्रजाएँ राष्ट्रगृह में राजा रूप में अलंकृत करती हैं। ऋ० २।१।८, राजा अग्नि है, जो राष्ट्ररूप गृह का अधिपति और राष्ट्रयज्ञ का ऋत्विज् होता है। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादि प्रमाण है। हे (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! आप (गृणानः) राजनियमों को घोषित करते हुए (वीतये) राष्ट्र को प्रगति देने के लिए, अपने प्रभाव से प्रजाओं में व्याप्त होने के लिए, प्रजाओं में राष्ट्र-भावना और विद्या, न्याय आदि को उत्पन्न करने के लिए तथा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को परास्त करने के लिए, और (हव्य-दातये) राष्ट्रहित के लिए देह, मन, राजकोष आदि सर्वस्व को हवि बनाकर उसका उत्सर्ग करने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) राष्ट्रयज्ञ के निष्पादक होकर (बर्हिषि) राज-सिंहासन पर या राजसभा में (नि सत्सि) बैठिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तये, तये में छेकानुप्रास है ॥१॥


भावार्थ

जैसे विद्वान् पुरोहित यज्ञासन पर बैठकर यज्ञ को संचालित करता है, जैसे राजा राजसभा में बैठकर राष्ट्र की उन्नति करता है, वैसे ही परमात्मा रूप अग्नि हमारे हृदयान्तरिक्ष में स्थित होकर हमारा महान् कल्याण कर सकता है, इसलिए सबको उसका आह्वान करना चाहिए। सब लोगों के हृदय में परमात्मा पहले से ही विराजमान है, तो भी लोग क्योंकि उसे भूले रहते हैं, इस कारण वह उनके हृदयों में न होने के बराबर है। इसलिए उसे पुनः बुलाया जा रहा है। आशय यह है कि सब लोग अपने हृदय में उसकी सत्ता का अनुभव करें और उससे सत्कर्म करने की प्रेरणा ग्रहण करें ॥१॥


স্বামী ব্রহ্মমুনি পরব্রাজক হিন্দি ভাষ্যঃ

पदार्थ

(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (वीतये) अपने अन्दर तेरी व्याप्ति—प्राप्ति के लिए “वी गतिव्याप्ति………” [अदादि॰] एवं (हव्यदातये) निज को तेरी भेंट देने के लिए (गृणानः) स्तुत किया जाता हुआ [कर्मणि कर्तृप्रत्ययः] (आयाहि) आ—मेरी ओर गति कर (होता बर्हिषि नि सत्सि) मेरे अध्यात्म यज्ञ का होता—सम्पादन करनेवाला ऋत्विक् बना हुआ अध्यात्म यज्ञ के सदन हृदयाकाश में [बर्हिः-अन्तरिक्षम् निघण्टु १।३] हृदयासन पर विराजमान हो।


भावार्थ

प्रिय परमात्मन्! तू स्तुत किया जाता हुआ मेरी ओर आ, मेरा स्वार्थ है मेरे अन्दर अपने ज्ञानप्रकाशस्वरूप से व्याप्त प्राप्त होजा, परन्तु परमात्मन्! मैं केवल अपने ही स्वार्थ के लिए तो नहीं बुला रहा हूँ तेरा भी स्वार्थ है निज समर्पण का, तू चेतन है और मैं भी चेतन हूँ, चेतन को चेतन से प्यार होता है चेतन का चेतन सजातीय है, चेतन की चेतन के साथ आत्मीयता होती है। कृपा करके मेरे हृदयगृह में आ, विराजमान हो मुझे अपना बना मेरा समर्पण स्वीकार कर, मैं तेरे अर्पित हूँ, स्वीकार कर, समर्पित हूँ, मुझे अपने स्वरूप से प्रभावित कर, ज्ञानप्रकाश से प्रतिभासित कर “आत्मनात्मानमभिसंविवेश” [यजुः॰ ३२।११] स्वात्मा से मैं तुझ परमात्मा में समाविष्ट होऊँ इस आकांक्षा को पूरी कर॥१॥


टिप्पणी

[*1. “वाजयति— अर्चतिकर्मा” (निघण्टुः ३।१४) तथा “वाजं बलम्” (निघण्टुः २।९) वाजमर्चनं तद् बलं च भरन् यः स भरद्वाजः।“राजदन्तादिषु परम्” (अष्टाध्यायी २।२।३१)।]


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