चेर शासकों ने 27 ईस्वी से 233 ईस्वी तक कुल 207 वर्ष केरल में राज्य किया। इस वंश के संस्थापक उदयन केरल थे। ईलम केरल इसम्पोरइ इस वंश के अन्तिम शासक थे। यवन यात्री टालेमी ने भी इनका वर्णन किया है।"
चोल वंश दक्षिण भारत का एक अत्यन्त प्रतापी वंश था, जो ईसा की प्रथम शताब्दी से ही तमिलनाडु में शासन कर रहा था। चोल वंश के प्रथम नरेश करिकाल थे और उनका सिंहलों (श्रीलंका) से वर्षों युद्ध चला। उन्होंने कावेरी नदी के तट पर 150 किलोमीटर लम्बे तटबंध का निर्माण किया और कावेरीपत्तनम् को राजधानी बनाया। पल्लवों और पांड्यों से हुए युद्ध में इनका राज्य घटता-बढ़ता रहा, परन्तु 9वीं शताब्दी से इनकी शक्ति का फिर से उत्कर्ष हुआ और ये 13वीं शताब्दी ईस्वी के अन्त तक शासन करते रहे। अशोक के अभिलेखों में भी चोल मण्डलम् को एक स्वतंत्र राज्य कहा है।"
विजयालय, आदित्य, परांतक प्रथम, राजराज प्रथम, राजेन्द्र प्रथम, राजादित्य प्रथम, राजाधिराज प्रथम, वीर राजेन्द्र, राजेन्द्र द्वितीय एवं राजेन्द्र तृतीय तथा राजेन्द्र चतुर्थ, कुलोत्तुंग प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये चौदह प्रसिद्ध चोल सम्राट हुए। राजराज प्रथम का शासन मैसूर, कुर्ग, तमिलनाडु और श्रीलंका तक था। उसकी राजधानी तंजौर थी जहाँ उसने राजराजेश्वर नामक प्रसिद्ध शिवमन्दिर बनाया। 11वीं शताब्दी के चोल सम्राट राजेन्द्र प्रथम के पास अत्यन्त शक्तिशाली नौसेना थी। उन्होंने राज्य की सीमाएँ बढ़ाते हुए अण्डमान निकोबार द्वीप समूह को जीता तथा बंगाल और बिहार को भी जीता एवं मगध पर आधिपत्य कर लिया। बीच में उनका पराभव हुआ। बारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भ में चालुक्यों और चोलों का वंश एक ही हो गया। तब से उन्होंने कलिंग पर पुनः आधिपत्य स्थापित कर लिया। 14वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति से हुए बड़े युद्ध के बाद से चोल वंश का शासन बिखर गया, परन्तु कुछ ही समय बाद उस पूरे क्षेत्र पर फिर से हिन्दुओं का नया साम्राज्य विजयनगर साम्राज्य स्थापित हो गया।"
दक्षिण भारत के अन्य प्रतापी राजवंश हुए पल्लव वंश, पांड्य वंश और राष्ट्रकूट वंश जैसा ऊपर उल्लेख है चेर वंश ने केरल क्षेत्र में शताब्दियों तक राज्य किया।" पल्लव वंश ने तमिलनाडु क्षेत्र के बड़े हिस्से में पहली शताब्दी ईस्वी से 9वीं शताब्दी तक राज्य किया।" इन्हीं पल्लव नरेशों ने महाबलिपुरम् की स्थापना की और वहाँ पाँच भव्य रथमन्दिर बनाये। इनकी राजधानी कांची मन्दिरों का नगर ही हो गई थी।"
पांड्यों ने आधुनिक मदुरा से त्रावणकोर तक के क्षेत्र में पहली शताब्दी ईस्वी से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक राज्य किया।" इनकी राजधानी मदुरा थी। 13वीं शताब्दी ईस्वी में मार्को पोलो चीन से वापसी में भारत भी आया और उसके यात्रा-वृत्तान्त में पांड्य देश की समृद्धि का वर्णन है।" पांड्यों के बाद यह क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य का अंग हो गया ।" इस प्रकार वस्तुतः यह क्षेत्र ईसा के बाद भी छोटे इलाकों को छोड़कर 2000 वर्षों तक हिन्दू शासन में ही रहा। उसके पहले 50000 वर्षों तक तो था ही।
राष्ट्रकूट वंश की राजधानी नासिक थी। बाद में वह मालखंड हुई। दंतिदुर्ग ने 736 ई. में राष्ट्रकूट वंश की स्थापना की 10वीं शताब्दी ईस्वी तक राष्ट्रकूटों ने दक्षिण भारत के एक बड़े क्षेत्र में राज्य किया
600 वर्षों तक अखण्ड रहा महान विजयनगर साम्राज्य
इस प्रकार चोलों ने पहली से चौदहवीं शती पूर्वार्ध तक 1350 वर्ष राज्य किया। पल्लव, राष्ट्रकूटों आदि के भी राज्य रहे। पाण्ड्यों ने 1800 वर्ष राज्य किए। चोलों के बाद विजयनगर साम्राज्य एक बड़ा राज्य बना 14वीं शताब्दी ईस्वी से दक्षिण भारत में महान विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई, जो 300 वर्षों तक दक्षिण भारत की सबसे बड़ी शक्ति बनी रही।" इसकी राजधानी विजयनगर थी। विजयनगर के महान शासकों ने दक्षिण भारत के अनेक मुस्लिम राज्यों को परास्त कर नष्ट किया और उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। वस्तुत: विजयनगर साम्राज्य उसके बाद भी निरन्तर अपने घटते-बढ़ते क्रम में बना रहा और उसके उत्तराधिकारी मैसूर के राजा चामराज वाडियार ने स्वेच्छा से भारत संघ में अपने राज्य का विलय राष्ट्रभक्ति की प्रचण्ड भावना से कर दिया। इस प्रकार, थोड़े व्यवधानों के साथ 600 वर्षों तक यह अखण्ड हिन्दू साम्राज्य छाया रहा।" चोलों, चेरो, पाण्ड्यों, पल्लवों, राष्ट्रकूटों, सातवाहनों आदि के द्वारा 2000 वर्षों में भी हिन्दू शासन की निरन्तरता बनी रही।
जो लोग भारत के कुछ हिस्से में दो-ढाई सौ वर्षों तक या कहीं-कहीं उससे कुछ अधिक समय तक भारतीय मूल के तथा हिन्दू कुलों में उत्पन्न इस्लाम मतावलम्बियों के शासन को हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म तथा हिन्दू राजनीति का विशेष दोष मानते और देखते हैं और महाभारत से बीसवीं शती ईस्वी तक के पाँच हजार वर्षों में व्यापक क्षेत्रों में हिन्दू साम्राज्यों की व्याप्ति को हिन्दू धर्म, समाज एवं राजनीति की यशोगाथा के रूप में नहीं देखते, वे सम्भवतः किसी प्रकार की विचित्र देशभक्ति से प्रेरित हो सकते हैं। परन्तु उनकी यह देशभक्ति की भावना तथ्यों पर आधारित न होकर या तो हिन्दुत्व से द्वेष पर आधारित है, जो व्यवहार में भारतद्रोह और सामडोह दोनों ही सिद्ध होती है या फिर वे हिन्दुत्व को लेकर किसी ऐसे मूढ़ तामसिक अहंकार से प्रेरित है, जिसमें कालप्रवाह और सृष्टि चक्र का कोई भी ज्ञान शेष नहीं है। न तो उन्हें निरन्तर चलने वाले देवासुर संग्राम की गाथा का कोई ज्ञान है और न ही सृष्टि चक्र के आरोही अवरोही क्रम का
दोषदर्शी दुःखी लोग हिन्दुओं का वैभव नहीं याद रख पाते
जिस अवधि में भारत की कुछ जागीरों पर भारतवंशी मुसलमानों के कब्जे से दुखी ये भावुक लोग हिन्दू धर्म के दोषों की खोज में जुट जाते हैं, उसी अवधि में वही हिन्दू धर्म तिब्बत, खोतान, कम्पूचिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, कालीमर्दन (बोर्नियो), स्याम (थाईलैंड), मलयेशिया आदि में किस प्रकार अपना प्रभाव फैलाता रहा था, इसका तो मानो इन दुखकातर दोषदर्शी हिन्दुओं द्वारा कोई स्मरण ही नहीं रखा जाता।
इस अवधि में स्वयं अरब में 7वीं से 10वीं शताब्दी तक जिस प्रकार हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति ने व्यापक प्रभाव डाला, उसका तो मानो कोई संज्ञान ही नहीं लिया जाता ऐसी बौद्धिक होनता की दशा में चीन, जापान, मैक्सिको, मिस्र और सुमेर सभ्यता पर पड़े हिन्दू प्रभावों का स्मरण तो हीनग्रन्थि से भरे आधुनिक विद्वानों के लिए सम्भव ही नहीं है। यहाँ इन प्रभावों का संक्षेप में स्मरण उचित होगा।
भारत का चीन पर प्रभाव
चीन पहले भारतवर्ष का ही अंग था। 15वीं शताब्दी तक चीन को समस्त यूरोपवासी व अरब लोग इंडी या भारत का ही हिस्सा कहते मानते थे। चीन भारत से सटा है और जब वहाँ का राज्य अलग था, तब भी वह सदा ही भारतीय संस्कृति का अंग रहा है। स्वाधीन भारत में बौद्धिक तमस शिक्षित जनों में व्याप्त है, जिससे वे यूरो-क्रिश्चियन बुद्धि के जोशीले अनुयायी हैं सम्भवत: पद, धन आदि के अतिशय लोभ में। इसीलिए वे पर्याप्त अध्ययन नहीं करते और तैयार माल के सेल्समैन या प्रचारक बन जाते हैं।
महाभारत काल में चीन भारत का राज्य था। बाद में भी, भारतीय विद्वान ही वहाँ विद्या का प्रसार करते रहे हैं। जब भारत में बौद्ध धर्म फैला तो भारत के इस सहज अंग रहे चीन देश में भी बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए पंडितों को आदरपूर्वक बुलाया जाने लगा। हानवंशी सम्राट मिती ने ईस्वी सन् 65 में अपने 18 विद्वान भारत की विद्या के अध्ययन के लिये भेजा क्योंकि उन दिनों भारत की विद्या की सम्पूर्ण विश्व में ख्याति थी।" चीन तो पहले भारत का सहज अंग और बाद में पड़ोसी मित्र ही रहा है।
ये विद्वान भारत आकर 11 वर्ष रहे और लौटते समय अपने साथ अनेक बौद्ध ग्रंथ तो ले ही गये, अनुरोधपूर्वक दो बौद्धभिक्षुओं को भी ले गये।" इन विद्वान बौद्धभिक्षुओं के नाम थे- काश्यप मातंग और धर्मरक्ष। जब ये बौद्धभिक्षु भगवान बुद्ध की प्रतिमा के साथ चीन की राजधानी अपने सफेद घोड़ों पर चढ़कर पहुँचे तो राजा मैंने इनकी अगवानी की और नगर के पश्चिममी द्वार के समीप बनवाये गये एक सुन्दर मन्दिर में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी। इस मन्दिर का नाम रखा गया- 'लोयङ्ग' जिसका अर्थ है- श्वेत अश्व या सफेद घोड़े।" काश्यप मातंग मगध के थे परन्तु उन दिनों गांधार में रह रहे थे।" धर्मरक्ष भी मगध के ही थे। मातंग तो चीन में एक वर्ष और जीवित रहे परन्तु धर्मरक्ष वहाँ अनेक वर्ष तक रहे और कई बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।"
207 ईस्वी में बौद्ध भिक्षु धर्मपाल चीन गये और उन्होंने अनेक वर्ष लगाकर बौद्ध विनय-ग्रंथ 'प्रातिमोक्ष-सूत्र' का चीनी भाषा में अनुवाद किया। कुछ समय बाद दो अन्य भारतीय विद्वान चीन गये और उन्होंने वहाँ रहकर 'धम्मपद' का अनुवाद किया।" तीसरी शताब्दी के अंत से निरंतर वहाँ सैकड़ों भारतीय पंडित जाने लगे और चौथी शताब्दी में सम्पूर्ण उत्तरी चीन बौद्ध बन गया। 5वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कश्मीर नरेश के महामात्य का विद्वान पुत्र कुमारजीव चीन गया और वहाँ उसका बहुत स्वागत हुआ। उसने 12 वर्षों में संस्कृत और पालि के 100 ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। साथ ही, महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन की जीवनियाँ भी चीनी भाषा में लिखीं " कुमारजीव ने 1000 से अधिक चीनी शिष्य बनाये जिनमें से ही एक था- फाहियान जो अपने गुरु के जीवन काल में ही भगवान बुद्ध को जन्मभूमि भारत आया, यहाँ अनेक नगरों और तीर्थस्थानों की यात्रा की तथा लौटकर सजीव यात्रा का वृतांत लिखा
कुछ वर्षों बाद दक्षिणी चीन में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा तथा अनेक भारतीय विद्वान वहाँ रहकर संस्कृत और पालि भाषा के ग्रंथों के अनुवाद चीनी भाषा में करने लगे । छठी शताब्दी के आरम्भ में चीन में 3000 से अधिक भारतीय बौद्ध भिक्षु चीनी राजाओं द्वारा बनवाये गये विहारों में रह रहे थे।" सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय में चीनी यात्री व्हेनत्सांग भारत आये और 16 वर्षो तक यहाँ रहे।" लौटते समय भगवान बुद्ध की एक सवा तीन फुट ऊँची स्वर्ण प्रतिमा, साढ़े तीन फुट ऊँची दूसरी रजत प्रतिमा, सैकड़ों चंदन निर्मित प्रतिमाएँ, बोधगया में स्थापित वज्रासन के 115 ग्रेन टुकड़ें और 657 बौद्धग्रंथ ले गये उसके 42 वर्ष बाद उसी 7वीं शताब्दी में ईचिंग भारत आये और वे भी अपने साथ अनेक ग्रंथ ले गये।" 8वीं शताब्दी में चीनियों ने भारतीय पंचांग के अनुसरण में अपना पंचांग विकसित किया।" बीच में कुछ उतार-चढ़ावों के बाद 11वीं शताब्दी में पुनः बौद्धधर्म का कुछ प्रभाव बढ़ा।
महान मंगोल साम्राज्य में हिन्दू एवं बौद्ध धर्म का वैभव
फिर एक शताब्दी तक प्रगति रुकी रही परन्तु महान मंगोल सम्राट चिनगिजहान 13वीं शताब्दी में चीन के शासक बने और उन्होंने बौद्ध धर्म तथा सनातन धर्म को भरपूर राज्याश्रय दिया ।" उसके बाद कुवलय हान (कुबलाई खान) चीन के शासक हुए जिनका शासन चिगगिज हान की ही तरह चीन, मंगोलिया, बल्गेरिया, सर्बिया, हंगरी (हूणगिरि), रूस और नावे तक था।" हूणों और मंगोलों ने चीन पर 1700 वर्षों तक शासन किया।" उनके समय वहाँ राज दरबार में कश्मीरी शैव पंडितों और भारतीय बौद्ध भिक्षुओं की अत्यधिक प्रतिष्ठा रही। वस्तुत: यूरोईसाई विद्वानों ने भयवश मंगोलों और हूणों को अलग-अलग जातियों दिखाया है। हूण और मंगोल एक ही हैं। ये सनातनधर्मी हैं। बौद्ध मांचू भी हूण ही हैं और मिंग भी हूण या मंगोल ही हैं। इस बात की प्रचण्ड सम्भावना है कि ये सभी मूलतः भारतवंशी ही हैं। इस विषय में इतिहास की विशद शोध अपेक्षित है। हूण ही हान भी कहलाए। चीन में प्रारम्भ से हानों का शासन रहा। कम से कम 1700 वर्षों तक चीन हानों और मंगोलों तथा मांचुओं एवं मिंगों के अधीन रहा है।
महाकाल हैं मंगोलों के इष्टदेव
मंगोलों के इष्टदेव महाकाल हैं तथा गंगाजल वहाँ आज भी परम पवित्र माना जाता है। जैसा ऊपर उल्लेख हो चुका है, 15वीं शती ईस्वी तक चीन को हिन्द या भारतवर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। क्रिस्टोफर कोलम्बस जब 1492 में चीन और भारत की खोज में चला तो उसके लिए मार्गदर्शक के रूप में मार्को पोलो द्वारा लिखित वे यात्रा संस्मरण थे, जो उसने भारत और चीन पर लिखे थे। मार्को पोलो को रानी इसाबेल तथा फर्डिनांड से जो पत्र मिले थे, उनमें स्पष्ट लिखा था- 'महान कुबलइ खान सहित भारत के सभी राजाओं और लाईस के लिए'।
भारत चीन की अभिन्नता
सम्पूर्ण चीन में ईसा की पहली शताब्दी में ही बौद्ध धर्म फैल चुका था, क्योंकि प्राचीन भारत का चीन सहज अंग था। भारतीय पंडित तथा वीर महाभारत काल में ही वहाँ बड़ी संख्या में थे अर्जुन के उत्तर कुरु और चीन देश जाने का वर्णन है ही। चौथी शती ईस्वी में भिक्षु कुमारजी वहाँ गये। उन दिनों सम्पूर्ण मध्य एशिया में अनेक बौद्ध विद्या केन्द्र थे। कुमारजी वहाँ सभी जगह मान्य विद्वान थे। उन्होंने चीनी भाषा में एक सौ से अधिक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद किये। कश्मीर से सैकड़ों बौद्ध विद्वान चीन गये, जिनमें शीर्षस्थ थे- संघभूति, संघदेव, पुण्यत्राता, विमलाक्ष बुद्धयश, बुद्धजीव, धर्ममित्र और धर्मपरा इनमें से अधिकांश विद्वान ब्राह्मण ही थे। कासगर के राजा ने चौथी शती ईस्वी में एक समारोह में तीन हजार बौद्ध भिक्षुक बुलवाये थे।
इसी प्रकार क्षत्रिय कुल के श्री गुणवर्मन भी एक श्रेष्ठ बौद्ध भिक्षु हुए। उन्होंने कश्मीर से जावा और श्रीलंका तक बौद्ध धर्म का प्रचार किया। जावा के राजा उनके प्रभाव से बौद्ध बन गये। जब जावा पर पड़ोसी सेनाओं ने आक्रमण किया तो राजा ने आचार्य गुणवर्मन से पूछा कि बौद्ध धर्म क्या ऐसी स्थिति में युद्ध का आदेश देता है, गुणवर्मन ने कहा- 'हाँ, राजा का धर्म है शत्रुओं और दस्यु दलों का दमन'। राजा लड़े और विजयी हुए। बाद में आचार्य गुणवर्मन को स्वयं चीनी सम्राट ने सादर आमंत्रित किया। 431 ईस्वी में जब गुणवर्मन नानकिंग पहुँचे, राजा उनके स्वागत को स्वयं आये और उन्हें जैतवन विहार का मठाधिपति बनाया गुणवर्मन ने एक वर्ष में ग्यारह संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इसी समय पाँचवीं छठी शती ईस्वी में मध्यदेश से गुणभद्र, काशी से प्रज्ञारुचि, उज्जयिनी से उपशून्य तथा बंगाल- असम से ज्ञानभद्र, जिनयशस् तथा यशोगुप्त भी वहाँ गये। इसी समय कौशल नरेश ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया तब बुद्धभद्र और विमोक्षसेन ने उनका सामना श्रीरतापूर्वक किया। बाद में ये लोग स्वात घाटी में उड्डियान तथा गान्धार क्षेत्र में काबुल के पास बामियान के शासक हुए और बामियान में विराट बुद्ध प्रतिमा बनवाई, जो अभी कुछ दिनों पहले मजहबी उग्रवादियों ने ध्वस्त की है।
उज्जयिनी के आचार्य परमार्थ भी पाटलिपुत्र में रहने के कारण गुप्त राजाओं के द्वारा चीन भेजे गये थे। इस प्रकार चीन सहस्रों वर्षों से भारत का आत्मीय राज्य रहा है। फाहियान हुएनत्सांग आदि चीनी यात्रियों के विवरण भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य हैं।"
कोरिया और जापान में भारतीय संस्कृति का प्रसार
चौथी शताब्दी ईस्वी से भारतीय बौद्धभिक्षु कोरिया जाकर वहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार करने लगे। छठवीं शताब्दी से जापान में भारत का बौद्ध धर्म लोकप्रिय होने लगा। 8वीं और 9वीं शताब्दी में जापान में बौद्ध धर्म परम उत्कर्ष पर था और तब से आज तक जापान और कोरिया में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार है।
तिब्बत, खोतान, कम्पूचिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड (स्याम ) और जावा सुमात्रा में भारतीय संस्कृति का प्रसार
तिब्बत में भारतीय संस्कृति का प्रभाव ईसा की पहली शताब्दी के पहले से है। चौथी से वहीं भारतीय बौद्ध विद्वान जाने लगे। 7वीं शताब्दी से वहाँ बौद्धधर्म का व्यापक प्रसार हो गया महान भारतीय विद्वान शांतिरक्षित पद्मसंभव और कमलशील ने तिब्बत में बौद्ध धर्म तथा तंत्र का व्यापक प्रचार किया 11वीं शताब्दी में वहाँ अनेकों कश्मीरी पंडित गये तथा प्रतिभाशाली बौद्धाचार्य अतिशा भी वहाँ इसी शताब्दी में पहुँचे जिनकी अनेक चमत्करी कथाएँ तिब्बत में आज तक प्रचलित हैं।" उनके शिष्यों के प्रभाव से कुछ समय बाद तिब्बत का राष्ट्रधर्म बौद्धधर्म होगया। कर्मफल और पुनर्जन्म का सिद्धान्त वहाँ सर्वमान्य हो गया। बाद में मंगोल शासकों की अधीनता में भी तिब्बत में बौद्ध धर्म फलता-फूलता रहा 15वीं शताब्दी ईस्वी से वहाँ ताले- लामा या दलाई लामा या प्रमुख लामा के अवतार का सिद्धान्त सर्वमान्य हो गया तब से अब तक 13 ताले-लामा या दलाई लामा हो चुके हैं और 14वें की भी प्रतिष्ठा हो चुकी है।" कम्युनिस्ट चीन वहाँ सर्वनाश का प्रयास कर रहा है परन्तु तिब्बत का राष्ट्र धर्म बौद्ध धर्म ही है।
खुतन या खोतान (कुस्तन )
चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के हरे- भरे मैदान को खोतन देश कहा जाता है। यह क्षेत्र तिब्बत और सोवियत संघ के यारकंद क्षेत्र के मध्य में है। उसके दक्षिण-पश्चिम में गांधार (अफगानिस्तान) और दक्षिण में भारतवर्ष है। चीनी यात्री व्हेनत्सांग के अनुसार इस क्षेत्र का प्राचीन नाम 'कुस्तन' है। 'कु' का अर्थ है भूमि या पृथ्वी इस प्रकार, पृथ्वी ही जिसका स्तन है, उस राज्य का नाम 'कुस्तन' पड़ा। कहानी यह है कि भारत के एक प्राचीन राजा ने यहाँ वैश्रवण देवता के मन्दिर में पुत्र की याचना की थी जिससे उन्हें पुत्र लाभ हुआ था। इस राजपुत्र को पृथ्वी ने स्वयं ही वैश्रवण देवता के आदेश से स्तनपान कराया था। तभी से इस देश का नाम 'कुस्तन हुआ। इस प्रकार, कुस्तन पर समय- समय पर कभी भारतीय और कभी चीनी सम्राटों का आधिपत्य रहा। आज भी वहाँ के आधे निवासी चीनी हैं और आधे भारतीय। यह तो निर्विवाद है कि सम्राट अशोक का इस देश पर राज्य था। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में यहाँ विजयसम्भव नामक राजा राज्य करते थे। उन दिनों वहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ। राजा विजयसम्भव के वंश में आठवें राजा हुए- विजयवीर्य । इसी वंश में ग्यारहवें राजा हुए विजयजय इन्होंने चीन की राजकुमारी से विवाह किया था। विजयजय के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र भिक्षु बन गया और वह धर्मानंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा पुत्र विजयधर्म राज्य का स्वामी बना छठी शताब्दी में खोतन एक शक्तिशाली राष्ट्र था। विजयधर्म का पुत्र विजय सिंह उस शताब्दी में एक प्रतापी राजा हुआ। विजय सिंह के पुत्र विजय कीर्ति के समय यहाँ विदेशी आक्रमण हुआ। इन दिनों यह क्षेत्र चीन के प्रभाव में था। 5वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाहियान भारत यात्रा के समय खुतन या खोतान भी गया था उसने तत्कालीन खोतान की समृद्धि का वर्णन किया" फाहियान के विवरण से खोतान भारतवर्ष के ही एक राज्य की तरह दिखता है। उसने वहाँ जगन्नाथपुरी की प्रसिद्ध रथ यात्रा की ही तरह एक रथ यात्रा उत्सव को अपनी यात्रा के समय देखा था जिसका विस्तृत वर्णन किया है। उसने यह भी बताया है कि कुस्तन में चार बड़े संघाराम है। फाहियान के मूल चीनी संस्करण में इन संघारामों की संख्या चौदह बतायी गयी है। भारतीय अनुवाद में सम्भवत: राहुल सांकृत्यायन ने इसे घटाकर चार कर दिया।
7वीं शताब्दी के मध्य में व्हेनत्सांग भारत के साथ खोतान भी गया था। व्हेनत्सांग के अनुसार खोतान के राजा भारतीय सम्राट वैरोचन के वंशज हैं।" वत्सराज उदयन ने भगवान बुद्ध के जीवनकाल में ही यहाँ एक भव्य मन्दिर बनवाया था। यहाँ पूरी तरह भारतीय संस्कृति का ही प्रसार था। 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण किया और इसे जीतकर 25 वर्षों तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हैं। परन्तु उनमें भारतीय संस्कार शताब्दियों तक बने रहे " 13वीं शताब्दी ईस्वी में चीन और मंगोलिया से आस्ट्रिया तक फैले विशाल मंगोल साम्राज्य के सनातनधर्मी राजाओं का आधिपत्य यहाँ के मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया था। मंगोलों ने इनकी उपासना पद्धति को बदलने की कभी इच्छा नहीं की।" इतालवी यात्री मार्को पोलो ने 13वीं शताब्दी ईस्वी के खोतान की समृद्धि का वर्णन किया ।" यहाँ पर खुदाई से मध्यकालीन भारतीय राजाओं के कई सिक्के मिले हैं। साथ ही, यक्षिणियों और गन्धर्वो की तथा गोमाता की मूर्तियाँ और मोहरें भी मिली हैं। तथागत बुद्ध की एक मूर्ति भी प्राप्त हुई है। एक भित्ति के अवशेष पर भगवान बुद्ध की 'मार- विजय' के चित्र भी अंकित मिले हैं। खोतान देश की राजधानी खोतान नगर से लगभग 30 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक पर्वत की गुफा में भोजपत्र पर खरोष्ठी लिपि में लिखे 'धम्मपद' की प्रति भी मिली है और वहाँ से कुछ दूर एक स्तूप भी मिला है। सम्पूर्ण खोतान क्षेत्र में पुरातात्विक खुदाई में अनेक बौद्ध विहार और मन्दिर तथा मूर्तियाँ और मोहरें मिले हैं।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि चौथी शती ईस्वी के इन चीनी तीर्थयात्री फाहियान का मूल नाम 'कुंग' है। फाहियान का अर्थ है धर्माचार्य फाहियान ने तिब्बत, स्याम, म्यांमार, गोवी मरुस्थल, मंगोलिया, कुस्तन (खोतान), तुर्किस्तान, समरकन्द, पामीर पठार, गान्धार, कैकय, खुश, दरद, शिवि, तक्षशिला, पुरुषपुर (पेशावर), हिदा (हेला), स्वात प्रदेश से लेकर मथुरा, कन्नौज, श्रावस्ती, कपिल वस्तु, कुशीनगर, पटना, गया, काशी, उड़ीसा होते हुए, श्रीलंका तक की यात्रा की थी। भारत से सटे इन सभी इलाकों में तब हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म का व्यापक प्रभाव था।
पुः नान एवं कम्बुज राष्ट्र
ईसा की प्रथम शताब्दी में ही सम्पूर्ण हिन्द चीन, म्यांमार, थाई देश, मलेशिया, जावा - सुमात्रा में हिन्दू राज्य थे जिसे इन दिनों कम्बोडिया या कम्पूचिया कहा जाता है, वह उन दिनों कम्बुज राष्ट्र कहलाता था। चीनी लोग इसे पुःनान कहते थे। पुःनान में वर्तमान चीन का एक अंश, लाओस, स्याम और मलाया भी समाहित थे। इस सम्पूर्ण पुनान पर 600 वर्षों तक हिन्दू राज्य रहा। बाद में इसके खण्ड हो गये। उन खण्डों पर भी अगले 900 वर्षों तक हिन्दू राज्य रहा। इस प्रकार 1500 वर्षों तक इस सम्पूर्ण क्षेत्र में हिन्दू राज्य रहे। यह वह अवधि है, जिसमें उत्तर भारत के एक छोटे से क्षेत्र में मुस्लिम जागीरे हो जाने पर कतिपय अनपढ़ लोग उसे भारत में मुस्लिम काल या हिन्दू पराजय का काल कहते हैं और इन्हीं आधारों पर हिन्दू धर्म की निन्दा करते हैं।
दक्षिण भारतीय ब्राह्मण नरेश कौडिन्य ने ईसा की पहली शताब्दी में यहाँ सोमवंशी शासन की स्थापना की। कौडिन्य की पत्नी राजकुमारी सोमा नागवंशी कन्या थी। कहा जाता है कि सोमा से उत्पन्न होने से यहाँ के शासक सोमवंशी कहलाए परन्तु यह सम्भावना भी प्रबल है कि कौडिन्य सोमवंशी ही हों, क्योंकि सोमवंशियों के दक्षिण भारत में शताब्दियों तक राज्य रहे हैं। इसी सोमवंश में तीसरी शताब्दी ईस्वी में चन्द्रवर्मा नामक प्रसिद्ध राजा हुए 5वीं शताब्दी में यहाँ जयवर्मा का राज्य था जिनके शैव होने की चर्चा चीनी वृतांत में मिलती है। वृतांत से पता चलता है कि वहाँ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों को समान संरक्षण प्राप्त था। इस देश में 1500 वर्षों तक हिन्दू राजाओं ने राज्य किया। कम्बोडिया में हुए अन्य प्रतापी हिन्दू राजा हैं- श्रुतवर्मा, श्रेष्ठवर्मा (छठी शताब्दी ईस्वी), रुद्रवर्मा, भववर्मा, महेन्द्रवर्मा, ईशानवर्मा (सातवीं शताब्दी), इन्द्रवर्मा (नौवीं शताब्दी) यशोवर्मा 9वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध) ( रुद्रवर्मा के शासनकाल में अनेक प्रसिद्ध हिन्दू विद्वान वहाँ हुए, ऐसा एक राजकीय अभिलेख से पता चलता है ।" भववर्मा ने अनेक भव्य शिवमन्दिर एवं विष्णुमन्दिर बनवाये । राजा महेन्द्रवर्मा के एक अभिलेख से पता चलता है कि उन्होंने भारत में प्रसिद्ध गया के विष्णुपाद की ही तरह एक शिवपाद की स्थापना की थी। राजा ईशानवर्मा के शासन में हिन्दू संन्यासियों के लिए अनेक मठ और आश्रम बनवाये गये। साथ ही, कई नये भव्य मन्दिर भी बनवाये गये। इसी प्रकार, राजाधिराज इन्द्रवर्मा के शासन में भी अनेक शिव मन्दिर, दुर्गा मन्दिर तथा हिन्दू संन्यासियों के लिए आश्रम बनवाये गये राजाधिराज यशोवर्मा ने अड्कोर थोम् नामक एक प्रसिद्ध नया नगर बसाया और उसे ही अपनी राजधानी बनाया । राजधानी का सबसे विशाल और भव्य भवन था नगर के मध्य में स्थित तीन खण्डोंवाला विराट शिव मन्दिर जिनके भग्नावशेष अभी भी हैं।" जो दीवारें बच रही हैं उनमें अत्यन्त सुन्दर, सजीव और कलात्मक चित्र हैं।
10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से कम्बोडिया के हिन्दू राजाओं ने बौद्ध धर्म को विशेष संरक्षण दिया। 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वहाँ सूर्यवर्मा द्वितीय सिंहासन पर बैठे जिन्होंने अड्कोर वत् का विश्वविख्यात वैष्णव मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत की पचासों घटनाएँ कलात्मक रूप में चित्रित हैं। भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्द्धन धारण, नरकासुर वध, स्यमंतक मणिहरण आदि के चित्र भी थे। भगवान शिव द्वारा कामदहन का भी बहुत आकर्षक चित्र था। देवासुर संग्राम, समुद्र मंथन और शेषसायी विष्णु के चित्र भी इन दीवारों में मिले हैं। बाद में बौद्धों ने इस मन्दिर में भगवान विष्णु के स्थान पर भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित की। 19वीं शताब्दी ईस्वी तक यहाँ बौद्धों ने शासन किया। हिन्दू राजाओं के शासन काल में कम्बोडिया में अनेक संस्कृत विद्यालय भी चलते थे। वेद-वेदांगों के अध्ययन, संन्यासियों के आश्रमों के प्रबंध तथा रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत के अखण्ड पाठ यहाँ होते रहते थे और साथ ही अनेक वैदिक यज्ञ भी होते थे, ऐसा अभिलेखों से पता चलता है। इन्हीं अभिलेखों से मन्दिरों की व्यवस्था का भी विवरण मिलता है। 10वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में आये अरब देश के एक यात्री मसूही ने लिखा कि 'कम्बोडिया भारत का ही हिस्सा है।
चम्पा और हिन्द-चीन क्षेत्र में 1800 वर्षों तक रहा हिन्दू शासन
हिन्द-चीन क्षेत्र में भी पहली शताब्दी ईस्वी से 16वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक हिन्दू राजाओं का ही राज्य था। जिसे आज वियतनाम कहा जाता है, 1600 वर्षों तक उसका नाम चम्पा था। चम्पा राज्य की राजधानी का नाम भी चम्पा ही था। चम्पा के प्रसिद्ध हिन्दू सम्राटों में प्रमुख हैं- श्रीमार, धर्मराजश्री, श्रीभद्रवर्मा, गंगाराज, पांडुरंग और इन्द्रवर्मा द्वितीय भद्रवर्मा ने 'मोसन' में एक विशाल शिव मन्दिर बनवाया था जो शताब्दियों तक चम्पा का राष्ट्रीय तीर्थस्थल रहा। श्रीभद्रवर्मा चारों वेदों का प्रकांड पंडित भी था। उनके उत्तराधिकारी गंगाराज भी एक प्रतापी राजा थे। अंतिम अवस्था में गंगा के तट पर रहने के लिए वे भारत चले आये। जिससे मौका देखकर चीन ने जल और थल दोनों मार्गों से चम्पा पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे हारना पड़ा। बदला लेने के लिए चीनियों ने कुछ समय बाद दुबारा आक्रमण किया और विजय पाने पर चम्पा की सोने चाँदी की हजारों मूर्तियों को गलवा कर एक लाख सेर सोना और कई लाख सेर चाँदी साथ ले गए। बाद में अन्य राजाओं ने चम्पा में पुनः भव्य मन्दिर बनवाये। 12वीं शताब्दी के मध्य में चम्पा और कम्बोजिया में युद्ध हुआ जिससे दोनों ही हिन्दू राज्यों को क्षति पहुँची।
13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस पर मंगोलों ने अधिकार कर लिया। परन्तु सनातनधर्मी मंगोलों ने यहाँ के मन्दिरों और वैदिक अध्ययन तथा यज्ञ परम्परा को कोई क्षति नहीं पहुँचायी। 16वीं शताब्दी के बाद से चम्पा का हिन्द- चीन के दूसरे क्षेत्रों से युद्ध तीव्र होने लगा और 19वीं शताब्दी से यहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार व्यापक हो गया। कम से कम 1800 वर्षों तक चम्पा में हिन्दुओं का भव्य शासन रहा। जहाँ अभी 200 वर्षों पूर्व तक हिन्दुओं का शासन था और आज भी भारत से गये लोगों का ही बौद्धों के रूप में शासन है तथा प्रजा भी मूलतः भारतवंशियों के ही समान वंश वाले हैं, उस देश के प्रति भारत शासन और हिन्दू समाज में कोई भी भावपूर्ण स्मृति तथा आत्मीयता आज नहीं दिखती, यह आत्मविस्मृति का दुःखद लक्षण है।
हिन्दू स्याम देश
वर्तमान थाइलैंड या थाईदेश शताब्दियों तक स्याम कहा जाता था और वहाँ हिन्दू राजा राज्य करते थे। ईस्वी सन् के प्रारम्भ से बहुत पहले से 16वीं शताब्दी तक इसका नाम स्याम ही था। इसकी राजधानी का नाम तब अयोध्या था। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में डचों ने अयोध्या में कोठी बनायी। बाद में वहाँ स्पेनिश, अंग्रेज, फ्रेंच और पुर्तगीज व्यापारी भी आ बसे । उनके साथ ईसाई पादरी बड़ी संख्या में आये। उधर हिन्दू राजा ने इन्हें चर्च बनाने और ईसाइयत के प्रचार की अनुमति दी। बाद में इन लोगों ने मिलकर स्याम को थाइलैंड के रूप में प्रचारित किया। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से स्याम के नवशिक्षित लोग भी अपने देश को सकारात्मक रूप में थाइलैंड कहने लगे यद्यपि देश के भीतर अभी भी स्याम नाम प्रचलित है और वहाँ अभी भी हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का प्रभाव है। अंग्रेजी शिक्षित स्याम जनों ने 1948 ईस्वी में पहली बार इसे औपचारिक तौर पर थाइलैंड कहा। 'थाइ' का स्याम की भाषा में अर्थ है स्वतन्त्र 'लँड' शब्द अंग्रेजी से लिया गया
स्याम देश में अब तक मिले शिलालेखों में पहला लेख पूर्वी शताब्दी ईस्वी का है। जिसमें वैष्णव व्यापारियों के एक समूह द्वारा विष्णु मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। उससे तब तक वहाँ भारतीयों के व्यवस्थित रूप से बसने का प्रमाण मिलता है। कौन्डिन्य का शासन स्याम देश पर भी था। सम्भवत: बहुत बाद में स्याम एक स्वतन्त्र राष्ट्र बना। राजा इन्द्रादित्य प्रथम ने सुखोदय को स्वतन्त्र स्याम राष्ट्र की राजधानी बनाया। 13वीं शताब्दी के एक अभिलेख से पता चलता है कि इन्द्रादित्य प्रथम 1218 ईस्वी में राज्यारूढ़ हुआ। बाद में स्याम देश की राजधानी अयोध्या हो गयी। 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक अयोध्या ही स्याम देश की राजधानी रही। 17वीं शताब्दी के ईस्वी के उत्तरार्द्ध में बैंकॉक को राजधानी बनाया गया। इन्द्रादित्य के बाद हुए श्रेष्ठ स्वामी नरेश हैं- रामराजा (13वीं शती ई.), सूर्यवंश राम, रामाधिपति, रामराजा द्वितीय (तीनों 14वीं शताब्दी ई.), परमराजाधिराज (15वीं शती ई.), वरधीरराज ( 16वीं शती ई.) और इन्द्रराज (17वीं शती ई.) 17वीं शती ई. से यह देश विभिन्न यूरो-क्रिश्चियन व्यापारियों एवं पादरियों का शिकार होने लगा। तब भी यहाँ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म का प्रभाव बना रहा। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यहाँ भूमिबल अतुल्यतेज का शासन था।
सूर्य, विष्णु, गणेश, शिव, लक्ष्मी और बुद्ध का उपासक
देश यहाँ के प्रसिद्ध मन्दिरों में अरुण मन्दिर (अरुणवत्) जो सूर्योदयकालीन उपासना का मन्दिर है; पंचपुरीमन्दिर, माँङ-सिंह मन्दिर आदि प्रसिद्ध हैं। " स्याम देश की विशेषता यह है कि यहाँ के हिन्दू मन्दिरों में भगवान बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार ही दर्शाया गया है। अनेक हिन्दू मन्दिरों में बाद में बौद्ध प्रतिमाएं स्थापित कर दी गयीं।" देवनगर में एक प्रसिद्ध मन्दिर में गणेश, शिव, विष्णु और लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं और साथ ही भगवान बुद्ध की अनेकों मूर्तियाँ भी हैं। स्याम देश का शासन शताब्दियों तक मनुस्मृति में वर्णित शासन व्यवस्था से साम्य रखने वाले रूप में चलता रहा है। राजा, सेनापति, मंत्री, पुरोहित, अग्रमहिषी (पटरानी), न्यायाधीश, प्रधानमंत्री (सुरिज वंश), कोषाध्यक्ष या राजकोषाधिपति आदि इस व्यवस्था के प्रमुख अंग थे। राजा वर्ष में एक बार तीर्थयात्रा अवश्य करते हैं और नंगे पैर जाकर ही मन्दिरों में पूजा करते हैं।" नामकरण, मुंडन, कर्ण-भेद आदि के संस्कार भी वहाँ प्रचलित हैं। बौद्ध भिक्षुओं की संख्या भी विशाल है जो विहारों में रहते हैं। विहारों का प्रबंध राज्य करता है।
म्यांमार या ब्रह्म देश पर शताब्दियों रहा है हिन्दू शासन
म्यांमार या वर्मा का सम्बन्ध भी पहली शताब्दी ईस्वी के भी काफी पहले से भारत से रहा है। 4. 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक यहाँ भारतीय राजा राज्य करते थे। मंगोलों के आक्रमण के बाद उनका राज्य कमजोर हुआ और तब स्याम देश के राजा बर्मा के बड़े हिस्से में राज्य करने लगे। 16वीं शताब्दी से बर्मा पुनः भारतवंशी राजाओं के शासन में रहा। इस बीच वहाँ अंग्रेजों, डचों, पुर्तगीजों ने अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की। 19वीं शताब्दी में बर्मा के अलग-अलग हिस्सों में ब्रिटिश एवं फ्रेंच नियंत्रण तथा प्रभाव बढ़ने लगा। 1948 में बर्मा एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया। 1961 में बर्मा के कुछ हिस्सों पर चीन ने कब्जा कर लिया। बर्मा में आज भी हिन्दू संस्कृति एवं बौद्ध संस्कृति की गहरी छाप है।
मलय राष्ट्र में हिन्दू वैभव
मलयेशिया में भी ईसा पूर्व से भारतीय प्रभाव रहा है।" यहाँ का प्राचीन नाम सुवर्णभूमि रहा है इससे जुड़े क्षेत्र कालीमर्दन, जावा एवं सुमात्रा द्वीप, जो सुवर्णद्वीप कहलाते थे" अब ये इंडोनेशिया का अंग हो गए हैं। कासरित्सागर और जातक कथाओं में सुवर्णद्वीप भारत का अंग ही वर्णित है। 5वीं शताब्दी ईस्वी के एक अभिलेख के अनुसार, उस समय यहाँ एक हिन्दू राजा राज्य कर रहे थे। आठवीं शती ईस्वी से यहाँ भारत से आए शैलेन्द्रवंशी राजाओं ने राज्य किया।" शैलेन्द्र वंश का शासन यहाँ चौदहवी शती ईस्वी तक रहा। शैलेन्द्रों के शासन में मलयेशिया ने बहुत उन्नति की एवं अत्यधिक समृद्धि प्राप्त की।" 9वीं एवं 10 वीं शती ईस्वी के अरब यात्रियों ने इसकी समृद्धि के वर्णन किए हैं। चीनी लेखकों ने भी यहाँ की तत्कालीन समृद्धि का वर्णन विस्तार से किया है। स्याम देश के दक्षिण में स्थित मलयेशिया में मलय राज्य (मलका) सबाह एवं सरावाक सम्मिलित हैं। मलयेशिया 13 राज्यों का संघ है। जोहोर, केदाह (केदार), नगरी पलंग, तरंगनु, पीनांग आदि डच राज्य हैं। आज भी यहाँ 10 प्रतिशत से अधिक भारतीय हैं। मलाया प्रायद्वीप में शताब्दियों तक हिन्दू शासन रहा। वहाँ शिव, गणेश, पार्वती, नंदी आदि की पूजा की मूर्तियों सहित अनेक चिन्ह मिले हैं। 'फः नो' पर्वत पर एक वैष्णव मन्दिर के भग्र अंश मिले हैं।
हिन्दू संस्कृति का उत्कर्ष बोर्नियो में
बोर्नियो में मिले प्राचीन शिलालेखों से वहाँ हिन्दू संस्कृति का साक्ष्य मिला है 140 लेखों में ब्राह्मणों को गोदान एवं भूमिदान का उल्लेख है।" सभी प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एवं मन्दिर- अवशेष यहाँ मिले हैं।42 मलयेशिया में पन्द्रहवीं शती ईस्वी में पहली बार कुछ मुसलमान व्यापारी भारत से गए। शीघ्र ही, उन्होंने वहाँ मुस्लिम आक्रमण की पृष्ठभूमि बनाई।
क्रमशः ऐसे फैला मलयेशिया में इस्लाम
मलय देश के एक राजा परमेश्वर के पुत्र को मुसलमानों ने मुसलमान बनाने में सफलता पा ली। उसे एक मुस्लिम सुन्दरी से प्यार हो गया था। विवाह की शर्त थी इस्लाम कबूलना। राजकुमार मुसलमान बन गया और उसका नाम पड़ा सिकन्दर शाह। सिकन्दर शाह के वंशजों में मुजफ्फर शाह, मंसूर शाह और अलाउद्दीन हुए, जिन्होंने आक्रमण कर एक इलाके में कब्जा कर उसे मलक्का का नाम दिया।" फिर स्वयं को मलक्का का सुलतान घोषित कर वे शेष मलयेशिया को दार-उल- इस्लाम बनाना अपना फर्ज बताने लगे और धीरे-धीरे 16वीं शताब्दी में मलयेशिया पर अपना कब्जा जमा लिया।" अंग्रेज़ व्यापारियों को रियायतें देकर इन्होंने ब्रिटेन से दोस्ती बढ़ाई। ब्रिटिश व्यापार एवं प्रभाव बढ़ता रहा।" मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर मुख्य ध्यान दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में मलाया में कम्युनिस्टों के विद्रोह हुए, जिन्हें दबाने के लिए अंग्रेजों ने मुसलमान जागीरदारों का साथ दिया। अंग्रेजी प्रोत्साहन से मलयेशिया 1963 में एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाए, जिसमें मुस्लिम तुंकु अब्दुर्रहमान प्रधानमंत्री बने। इधर वहाँ इस्लामी उग्रवादी लगातार हिन्दुओं, बौद्धों आदि का सफाया करने में लगे हैं। भारतवर्ष में कोई निष्ठावान हिन्दू प्रधानमंत्री नहीं होने से मलयेशिया में हिन्दू हितों की रक्षा नहीं हो रही है। वस्तुतः सम्पूर्ण मलयेशिया पर एक दिन के लिए भी मुस्लिम राज्य नहीं रहा है। परन्तु भारत के पंथ निरपेक्ष हिन्दू शासकों को मलयेशिया के इतिहास का भी ध्यान नहीं है। वर्तमान में यहाँ के प्रधानमंत्री अब्दुख बिन अहमद बदामी हैं। मलयेशिया में प्राचीन मलाया, बोर्नियो एवं सरावाक राज्य सम्मिलित हैं। 1940 ईस्वी में मलाया में ब्रिटिश शासन के अधीन जो जनगणना हुई थी, उसमें 45 प्रतिशत लोग चीनी थे, 11 प्रतिशत भारतीय तथा 34 प्रतिशत मलय जिनमें से 20 प्रतिशत ही मुस्लिम थे। अतः बीसवीं शती ईस्वी तक वहाँ कभी मुस्लिम शासन था ही नहीं। इसलिए जो भारतीय नेता मुस्लिम मलयेशिया में भारतीय संस्कृति का स्थान देखते हैं, उनके अज्ञान को क्या कहा जाए? बीसवीं शती ईस्वी में भी वहाँ बौद्ध और हिन्दू मिलकर मुसलमानों से अधिक हैं, फिर भी इस्लामी उग्रवाद हिन्दुओं एवं बौद्धों के दमन में लगा है।
20 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहली बार मुस्लिम राष्ट्र बने हैं मलयेशिया, पाकिस्तान, बांगलादेश
इस प्रकार हम पाते हैं कि मलयेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहली बार बने इस्लामी राष्ट्र हैं। जबकि इन क्षेत्रों में शताब्दियों तक हिन्दू प्रभुत्व रहा है।
पचास वर्षों से पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं का सफाया करने की उग्रवादी रणनीति चली। जबकि मलयेशिया में अभी टकराव चल रहा है। इन दिनों इंडोनेशिया के अंग बने सुमात्रा एवं जावा तथा कालीमर्दन (बोर्नियो ) 16वीं शताब्दी तक हिन्दू राज्य थे। यद्यपि तेरहवीं शताब्दी में जब मार्को पोलो सुमात्रा गए, तब वहाँ एक बड़े हिस्से 'फलक' क्षेत्र में इस्लाम फैल चुका था। 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में सम्पूर्ण सुमात्रा इस्लामी राज्य बन गया। 18वीं शती ईस्वी से वहाँ से बोर्नियो (कालीमर्दन) आदि में इस्लामी प्रचारक जाने लगे। पन्द्रहवीं शती ईस्वी में पहली बार जावा में इस्लाम का प्रचार शुरू हुआ। जबकि पहली शती से 15वीं शती तक वहाँ हिन्दू शासन ही था। प्रारम्भ में मुसलमान समुद्री तट पर हिन्दू राजा की अधीनस्थ प्रजा बनकर बसे। बीच-बीच में वे विद्रोह कर उठते सोलहवीं शती ईस्वी में उन्होंने शक्ति बढ़ाकर जावा में अचानक सत्ता हथिया ली। इस प्रकार 1500 वर्षों तक चले हिन्दू राज्य का वहाँ भी अन्त हो गया। हिन्दुओं को भागकर बाली द्वीप में शरण लेनी पड़ी। परन्तु बाली के राजवंश का भी जावा के मुसलमान शासकों ने अन्त कर दिया। 18वीं शती ईस्वी में कालीमर्दन पर भी मुस्लिम शासन स्थापित हो गया। इस प्रकार सुवर्ण भूमि एवं सुवर्ण द्वीप दोनों ही मुस्लिम कब्जे में चले गए। परन्तु जिसे भारत में मुस्लिम काल कहा जाता है, उस सम्पूर्ण अवधि में जावा, सुमात्र, बोर्नियो एवं मलयेशिया में हिन्दू राज्य था, यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जावा में बोरोबुदुर और प्रापावान मंदिर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के गौरवस्तम्भ हैं बोरोबुदर मंदिर अत्यंत विशाल एवं भव्य है तथा विश्वविख्यात है।
शताब्दियों हिन्दू रहा है इंडोनेशिया
6000 द्वीपों में बसे इंडोनेशिया में वस्तुतः ईसा के हजारों वर्षों पहले से ही हिन्दू राज्य रहा था। इसमें पाँच बड़े द्वीप हैं, जिनमें से सुमात्रा, जावा एवं कालीमर्दन (बोर्नियो) का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दूसरी शती ईस्वी पूर्व में यहाँ हिन्दू नरेश देववर्मन का राज्य था। चौथी शती से प्रारम्भ श्रीविजय राज्य का विस्तार इंडोनेशिया से मलाया एवं सुमात्रा, जावा तक था। तेरहवीं शती ईस्वी का कीर्तिनगर राज्य और चौदहवीं शती ईस्वी का मध्योपहित राज्य इंडोनेशियाई इतिहास के अत्यन्त समृद्ध राज्य हुए हैं। पन्द्रहवीं शती ईस्वी से सुमात्रा से कुछ मुसलमान प्रचारक इंडोनेशिया पहुँचे और क्रमशः वहाँ अपना समूह बढ़ाने लगे।" इसी अवधि में वहाँ डच, पुर्तगीज और अंग्रेज़ व्यापारी एवं ईसाई पादरी भी पहुंचे। 17वीं शती ईस्वी में डचों ने इंडोनेशिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभाव फैला लिया।" उन्होंने इंडोनेशिया की आर्थिक और राजनैतिक संरचनाएँ बलपूर्वक बदलीं। कम्युनिस्टों एवं मुस्लिम समूहों का विद्रोही रूपों में उभार हुआ, तभी यूरोपीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। जापान ने इंडोनेशिया पर कब्जा कर लिया। 1949 में सुकणों के नेतृत्व में इसे स्वाधीनता मिली। 1950 में वहाँ स्वतंत्र गणराज्य बना। 1965 में कम्युनिस्टों ने सत्ता उलटनी चाही तो सेना ने कम्युनिस्टों का व्यापक संहार किया। 1968 में सेनापति सुहत राष्ट्रपति बने" आज भी अनेक प्रमुख इंडोनेशियाई नेताओं के नाम वहाँ हिन्दू प्रभाव के परिचायक हैं- सुकर्णपुत्री मेघावती, अतिबल आदि इंडोनेशिया की राष्ट्रभाषा को 'भाषा' ही कहा जाता है। वह आठ करोड़ लोगों की भाषा है। यूरो-क्रिश्चियन प्रभाव से उसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। इन दिनों वहाँ का राजधर्म इस्लाम है, परन्तु 1500 वर्षों तक वहाँ हिन्दू संस्कृति का प्रभाव था तथा शताब्दियों तक वहाँ हिन्दू राजाओं के राज्य थे। आज भी वहाँ मुसलमानों के अतिरिक ईसाई एवं हिन्दू बड़ी संख्या में है। ईसाई मुसलमानों के बीच दंगे अक्सर भड़कते रहते हैं। वर्तमान में श्री सुशील बमबांग युधयान राष्ट्रपति हैं।
मुस्लिम रणनीति से हिन्दू लोग सीखें
स्पष्ट है कि आज मुस्लिम बने इन अनेक देशों में शताब्दियों हिन्दू शासन रहा है। अतः हिन्दू राष्ट्रों को क्रमशः मुस्लिम राष्ट्र में किस प्रकार रूपान्तरित किया जाता है, इसके अध्ययन के लिए इंडोनेशिया, मलयेशिया, पाकिस्तान और बांगलादेश के इतिहास का गहरा अध्ययन अपेक्षित है। इसी में से भविष्य के विश्व में हिन्दुओं के कर्तव्य का स्वरूप भी निश्चित होगा। यह विचार मुख्यतः धर्माचार्यों द्वारा ही - करणीय है।
जहाँ तक अभी के भारतीय राजपुरुषों की बात है, यह गहरे दुःख की बात है कि वे इतिहास और संस्कृति के विषय में इतना कम जानते हैं कि हृदय फटने लगता है। स्वयं भारतीयता के पक्षधर राजपुरुष भी भारत के मुसलमानों को इण्डोनेशिया और मलयेशिया के मुसलमानों जैसा बनने का उपदेश कुछ इस तर्ज में देते हैं मानो ये दोनों देश 12-1300 वर्षों से मुसलमान हैं और फिर भी यहाँ रामकथा तथा हिन्दू धर्म के मन्दिर या बौद्ध मन्दिर आदि बचे हुए हैं। ऐसे लोगों को क्या कहा जाये ?
वस्तुत: ये देश अभी 200 वर्ष पूर्व तक हिन्दू बहुल थे। इसीलिए यहाँ हिन्दू मन्दिर बचे हुए हैं और रामकथा भी शेष है। हिन्दू, बौद्ध और ईसाई मिलकर आज भी वहाँ बहुत बड़ी संख्या में हैं। स्वयं इस्लाम की किसी भी बड़ी या मुख्य धारा में गैर-इस्लामी किसी पंथ के प्रति उस समय तो आज तक सहिष्णुता नहीं देखी गयी, जब वे बहुमत में हों और उनका ही शासन हो। सारी सहिष्णुता केवल वहीं देखी जाती है, जहाँ भित्र पंथ और धर्म के लोग प्रबल हैं और उनका शौर्य जीवन्त है। जैसे-जैसे इस्लाम की आज तक मुख्य धारा रही प्रवृत्तियाँ किसी भी देश में प्रबल हो उठती हैं, वैसे-वैसे वे हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म जैसे धर्मों का समूल नाश करने का यत्न करती देखी जाती हैं। यद्यपि जागृत अन्तर्राष्ट्रीय जनमत के दबाव से और विश्व नागरिकता के सिद्धान्त के वास्तविक प्रचार से सम्भव है कि इस्लाम की भी ऐसी कोई धारा कल को मुख्य धारा बन जाये, जो हिन्दू धर्म से समायोजन और समता में श्रद्धा रखे। आखिर करोड़ों भारतीय मुसलमान अपने दैनन्दिन जीवन में शेष हिन्दुओं से बराबरी का ही व्यवहार करते देखे जाते हैं। यद्यपि तबलीग के बाद या किसी कट्टरता के उभार के दौर में उनके व्यवहार में भयंकर हिंसा और क्रूरता का दिखना भी उतना ही व्यापक तथ्य और सत्य है। हिन्दुओं को मुस्लिम कार्यनीति एवं रणनीति का अध्ययन कर उससे आत्मविस्तार की पद्धति सीखनी चाहिए। इसमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए।
हिन्दू एवं बौद्ध श्रीलंका
श्रीलंका में आज भी बौद्ध संस्कृति है। वहाँ के सिंहली भी मूलतः भारतीय हैं और तमिल भी तमिल मुख्यतः हिन्दू हैं और सिंहली बौद्ध बौद्ध शासन सेना और हिंसा में पूरी श्रद्धा रखता है और हिन्दू तमिलों के शस्त्रधारी लड़ाकुओं के संगठन का हाल ही में व्यापक संहार किया है।
सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं चार संन्यासियों को 'सद्धर्म' के प्रचार हेतु श्रीलंका भेजा था। लंकानरेश तिष्य ने 'सद्धर्म' की दीक्षा ग्रहण की। बाद में राजकुमारी संघमित्रा भी लंका गईं। अशोक के समय इसे तामपर्णी कहा जाता था।
ईसा पूर्व दूसरी शती से दूसरी शताब्दी ईस्वी तक लंका पर तमिलों का राज्य था। ये हिन्दू सम्राट थे। कुछ समय बाद वहाँ बौद्ध सिंहली राजा राज्य करने लगे। गया के विद्वान ब्राह्मण बुद्धघोष बुद्धवचन से प्रभावित हो बौद्ध बने। उन्होंने लंका जाकर त्रिपिटक की टीकाओं का पाली में अनुवाद किया। पाँचवीं शती तक वहाँ बौद्ध राजा हुए।
छठी शती में वहाँ के राजा पुनः हिन्दू हो गए। 11वीं शती ईस्वी तक वहाँ हिन्दू राज्य रहा। फिर बारहवीं शती से वहाँ पुनः बौद्ध शासन हुआ। सत्रहवीं शती में वहाँ कैथोलिक पुर्तगालियों ने डरा-धमकाकर और लालच देकर बड़े पैमाने पर लोगों को ईसाई बनाया। बाद में प्रोटेस्टेंट डच पहुँचे। तब भी 18वीं शती ईस्वी में वहाँ कीर्ति श्री राजसिंह राजा थे। वे हिन्दू थे और बौद्धों को पूरा संरक्षण देते थे। 16वीं से 18वीं शती तक बड़े हिस्से में हिन्दुओं का और शेष में बौद्धों का शासन रहा। इस प्रकार विगत 2200 वर्षों में श्रीलंका में 1300 वर्षों तक हिन्दुओं का और 900 वर्षों तक बौद्धों का शासन रहा है।
श्रीलंका में आज भी हिन्दुओं के कई विशाल मन्दिर हैं। तमिल भाषी हिन्दू वहाँ एक चौथाई हैं। अनेक बौद्ध मन्दिरों में भी ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और कार्तिकेय की मूर्तियाँ हैं। श्रीलंका की आधी आबादी बौद्ध है।" वहाँ सैकड़ों बौद्ध विहार हैं। वहाँ सुदृढ़ बौद्ध संघ हैं। श्रीलंका में समन्तकूट पर प्रसिद्ध विष्णु पद है।" बौद्ध लोग उसे 'बुद्धपद' कहते हैं। मुसलमान ईसाई उसे 'आदम का पैर' कहते हैं। बौद्धों के अनुसार जब भगवान बुद्ध लंका पधारे तो पहला चरण यहीं धरा था। प्रतिवर्ष चैत्र मास में नववर्ष उत्सव में बौद्ध इसका दर्शन-पूजन करते हैं और हिन्दू भी इसे विष्णुपद मानकर पूजते हैं।
अनुराधापुर, कल्याणी एवं काण्डि या श्रीखंड में अनेक मठ, मन्दिर एवं विहार हैं। अनुराधापुर में ही सीता माता से जुड़े अनेक स्थल भी हैं- अशोकावाटिका, अग्रिपरीक्षा-स्थल आदि। श्रीखंड (काण्डि) में भगवान बुद्ध का एक पवित्र दाँत भी सुरक्षित है। मन्दिर के द्वार पर संस्कृत में लिखा है- "सद्धर्म के पारिजात इस पवित्र श्रीदन्तधातु को हम भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। इस मन्दिर की तीन चाभियाँ हैं - एक सीलोन के राज्यपाल के पास रहती है, दूसरी श्रीखंड के महानायक के पास, तीसरी एक बौद्ध गृहस्थ के पास गुरु पूर्णिमा पर इसका विशेष दर्शन किया जाता है और हाथी पर स्वर्णपात्र में दाँत को रखकर जुलूस निकाला जाता है। मन्दिर की दीवार पर अनेक सुन्दर चित्र हैं। जो पाप-पुण्य के फलों को तथा नरक के दंडों को दर्शाते हैं।
सातवीं से सत्रहवीं शती ईस्वी हिन्दू विस्तार की अवधि है
इस प्रकार यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि जिन दिनों भारत के में भारतीय मुसलमान इस्लाम फैला रहे थे, उन्हीं दिनों भारत के बहुतांश पर हिन्दू धर्म का वैभव छाया था तथा इंडोनेशिया, मलयेशिया, जावा, सुमात्रा, वियतनाम, कुछ क्षेत्रों कम्पूच्या, कोरिया, चीन, जापान, तिब्बत, श्रीलंका, म्यांमार आदि में हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म का महान विस्तार भी हो रहा था। अतः उस अवधि को हिन्दू पराजय या हिन्दू संकुचन की अवधि मान पाना सम्भव नहीं है। अपने भारतीय भिन्नधर्मियों या विधर्मियों के प्रभाव को अनावश्यक एवं अतिरंजित रूप में विकराल दिखाना न तो मुसलमानों के साथ न्याय है, न हिन्दुओं के साथ हिन्दु विस्तार एवं संकोच के परिदृश्य का संकेत 'परिशिष्ट-5' में द्रष्टव्य है।
अरब शताब्दियों तक हिन्दू प्रभाव में रहा
स्वयं अरब में शताब्दियों तक हिन्दू प्रभाव रहा है। पैगम्बर मोहम्मद के पहले अरब में तो सनातन धर्म का विस्तार था ही, इस्लाम के उदय के बाद भी अरब पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा। मुसलमानों में चार मुख्य श्रेणियाँ गिनायी जाती हैं- शेख, सैयद, मुगल और पठान। इनमें से सैयद वंश के प्रवर्तक हैं- जैनुल आबदीन। जो एक भारतीय माता की संतान हैं। उनकी माँ सिन्धु देश की हिन्दू थीं। सैयद वंश का विस्तार इन्हीं जैनुल आबदीन के वंश से हुआ ।" प्रमुख वंश इसी सैयद वंश के लोग दक्षिण में बहमनी राज्य के संस्थापक बने वे सिन्धु क्षेत्र के थे, भारतीय मूल के थे। इसीलिए उनका शासन भी विधर्मी का शासन तो है, विदेशी का नहीं।
इस्लाम के उदय के शताब्दियों पहले विश्वभर में व्यापार का आदान-प्रदान था। विशाल समुद्री नौकाएँ एवं यान इस व्यापार के मुख्य माध्यम थे। भारतीय सामान विशेषकर यहाँ के वस्त्र, मसाले और रत्न अरब में अत्यन्त लोकप्रिय थे। भारत के विद्वानों और वैद्यों का अरब में बहुत सम्मान था।
मक्का के मन्दिरों में ब्राह्मण पुजारी होते थे
बाह्रीक भारत का एक प्रमुख जनपद था जिसे अब बल्ख कहते हैं। वहाँ नौबहार (नव वसंत) नामक एक प्रसिद्ध मन्दिर था जहाँ वैदिक यज्ञ होते रहते थे इस मन्दिर में हरे रंग की रेशमी पताकाएँ बहुत ऊँचाई तक लहराती रहती थीं। वस्तुतः झण्डों का यह हरा रंग ही बाद में भी मुसलमानों में चलता रहा जो उन्होंने बलख के हिन्दुओं से ही लिया है। यज्ञ में प्रधान पुरोहित को ब्रह्मा कहते हैं। इसे ही अरबों ने ब्रह्मका या बरमका कहा है। मक्का के मन्दिरों के प्रधान पुजारी को भी बरमका कहा जाता था। शेष ब्राह्मण पुजारियों को मुस्लिम अरबों ने बरमक लिखा है जो ब्रह्मक का ही वहाँ प्रचलित रूप है
प्रसिद्ध मुस्लिम अरबी लेखक इबुनुल फकीह ने अपनी पुस्तक 'किताबुल बुल्दान' में लिखा है कि 'बलख के उस विश्वविख्यात नवबहार मन्दिर में भारत चीन और काबुल (गांधार) के बादशाह (सम्राट) भी दर्शन के लिए आते थे और देव प्रतिमाओं को प्रणाम करते थे।' यह भी वर्णन है कि यहाँ वसंतोत्सव बड़े उल्लास से होता था। अनेक अन्य अरबी लेखकों ने भी इसका वर्णन किया है। कतिपय ईसाई लेखकों के अनुसार यह मन्दिर बाद में बौद्ध मन्दिर बन गया था।
इराक में भारतीय विद्वानों का सम्मान
जब 7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बलख या बलख पर आक्रमण किया तब इस मन्दिर को मस्जिद बना दिया और पुजारियों तथा पंडितों को पकड़कर मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये वहाँ बगदाद के खलीफा ने इन पंडितों को भारतीय चिकित्सा शास्त्र (आयुर्वेद), ज्योतिष, साहित्य और पंचतंत्र, हितोपदेश आदि नीतिग्रंथों का अरबी में अनुवाद करने कहा 204 पंडितों ने शीघ्र ही अरबी सीख ली और यह कार्य किया। उन दिनों जो खलीफा थे उनका नाम मंसूर था जिन्होंने इन पंडितों से ज्ञान साधना ग्रहण कर 'अनल हक' का वह प्रसिद्ध वाक्य कहना प्रारम्भ किया जो 'अहं ब्रह्मास्मि' का अरबी अनुवाद है। जिसके विरुद्ध तत्कालीन कई मौलानाओं ने फतवे दिये थे। जिससे मुस्लिम प्रजा के विद्रोह का ध्यान रख मंसूर ने 'अनलहक' कहना छोड़ दिया। परन्तु उनके समय से गणित और ज्योतिष के अनेक भारतीय विद्वान बगदाद बुलाये जाने लगे। उनके द्वारा किये गये अनुवादों के प्रभाव से अरब और इराक में चिकित्सा, गणित, नीति-शास्त्र, दर्शन और साहित्य का विकास हुआ।
मंसूर के बाद हुए खलीफा हारून रशीद जब बीमार पड़े तो उनकी चिकित्सा के लिए भारत से ही वैद्य बुलाये गये इन नदीम की किताब 'किताबुलफेहरिस्त' के मुताबिक चाणक्य की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक का भी अरबी में अनुवाद किया गया था। साथ ही अनेक तंत्र ग्रंथों का भी अरबी और फारसी में अनुवाद हुआ था। नीतिकथा पंचतंत्र का फारसी में नौवीं शताब्दी में 'कलेला दमना' नाम से अनुवाद हुआ था जो बाद में अरबी में भी अनुवाद हुआ। इसके काव्यात्मक अनुवाद के लिए हारून रशीद ने अरबी कवि अब्बान को एक लाख दरहम बख्शीश दी थी। अरबी और तुर्की मुसलमानों के जरिये पंचतंत्र यूरोप पहुंचा और उसका अनेक यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। वहाँ कवि अश्वघोष रचित 'बुद्धचरितम्' का अरबी में 'बोआसफ' नाम से 10वीं शताब्दी में अनुवाद हुआ। 'बोआसफ' बोधिसत्व का फारसी रूप है।" 8वीं शताब्दी में ही आर्यभट्ट की पुस्तक 'आर्यभटीयम्' का अरबी अनुवाद 'अरजबंद' और 'अरजबहर' नाम से हुआ। 8वीं शताब्दी से तीन शताब्दियों तक बगदाद में खलीफाओं के दरबार में हिन्दू ज्योतिषी रखे जाते रहे कई पीढ़ियों तक बगदाद में प्रधानमंत्री पद मुसलमान बने भारतीय पंडितों को ही दिया जाता था । जिन्हें तब भी बरामका (ब्रह्म) कहा जाता था।
9वीं और 10वीं शताब्दी में इन्हीं प्रधानमंत्रियों की आज्ञा से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का फारसी और अरबी में अनुवाद हुआ * पशु-चिकित्सा और सर्प विद्या के ग्रंथों का भी दोनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। भारतीय संगीत शास्त्र की पुस्तकों के भी अनुवाद हुए।" यरुशलम में एक अरबी विद्वान मुतहरीर ने 'किताबुल बिदअ-व-तारीख' (विद्या व इतिहास का ग्रंथ ) नामक पुस्तक में भारत के हिन्दू धर्म का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'हिन्दुस्तान में नौ सौ संप्रदाय हैं जिनमें से 45 मुख्य हैं जो दो मुख्य धाराओं में बँटे हैं- समनी (भ्रमण) और बरहमनी (ब्राह्मण) । ये हिन्दू लोग मुसलमानों को अपवित्र मानते हैं और मुसलमान जिस चीज को छू दें, उसे फिर ये नहीं छूते। गाय को ये माँ जैसी मानते हैं। ब्राह्मण लोग शराब और माँस को हराम समझते हैं। इस पुस्तक में अग्रिहोत्री ब्राह्मणों का पुनर्जन्म सिद्धांत का और शिव पूजा तथा दुर्गा पूजा का भी विस्तार से वर्णन है।
बाद में अनेक अरबी और तुर्क विद्वानों ने संस्कृत सीखी और भारत भी आये। जिनमें से याकूबी और अलबरूनी प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार, अरब के ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति पर भारत का बड़ा ऋण है ।
घनिष्ठ रहे हैं मिश्र -भारत सम्बन्ध
विदेशों में फैले भारतीय प्रभाव के प्रसंग में ईसापूर्व की तीन प्राचीन सभ्यताओं का उल्लेख भी सम्यक् एवं यथास्थान ही माना जाना चाहिए। ये हैं- प्राचीन मित्र, कार्थेज तथा मय सभ्यताएँ ।
प्राचीन मिश्र और भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध विश्वविदित है। इस बात के संकेत हैं कि पांड्य देश से ही गये लोगों ने मिश्री सभ्यता का विकास किया था हम ईश, शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य आदि देवताओं की पूजा मिश्र में भी होती थी । ब्रह्म के अर्थ में राम शब्द को मिश्र में 'रा' कहते थे वर्ण-व्यवस्था भी हिन्दुओं की ही तरह वहाँ थी उनके शिष्टाचार और उत्सव भी हिन्दुओं के सदृश थे वे सर्वप्रथम राजा 'मेनस' को मानते थे जो 'मनु' का ही मिश्री रूप है। वैसे भी भविष्य पुराण के अनुसार, महर्षि कण्व मिश्र गये थे और वहाँ उन्होंने दस हजार म्लेच्छों को संस्कृत का ज्ञान कराया था मिश्र की ममियों पर लिपटा हुआ वस्त्र भारतीय है और आबनूस की लकड़ी भारत से वहाँ जाती थी। नील नदी का उद्गम स्थान एक झील हैं। यह भी पुराणों में ही वर्णित है।
कार्थेज और मय सभ्यता भारतीय ही हैं
मैक्सिको की मय सभ्यता वस्तुतः भारतीय सभ्यता का ही रूप है, यह आज विश्व में अधिकांश विद्वान मानते हैं। मय मन्दिरों की भित्तियों पर हिन्दुओं की पौराणिक गाथाएँ उत्कीर्ण हैं। दक्षिणी यूरोप के इतिहास में सबसे बड़ी शक्ति रही कार्थेज सभ्यता भी भारत के पश्चिमी तट से गये पणियों द्वारा ही विकसित हुई थी। उत्तरी अफ्रीका से फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन और नार्वे तक किसी समय इनकी सत्ता थी । ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी से 7वीं शताब्दी ईस्वी तक के 1500 वर्षों तक कार्थेज एक बहुत बड़ी सभ्यता थी जिसकी संस्थापक थीं पणि साम्राज्ञी दीदो इन्होंने ग्रीकों और रोमनों को कई बार पराजित किया और सिसली पर कार्थेज का शताब्दियों तक कब्जा रहा। कार्थेज के विश्वविख्यात सेनापति हनिवाल ने रोमनों को कई बार हराया था जब रोमन अधीनता स्वीकार कर लेते तो उन्हें अपनी श्रद्धा के अनुसार राज्य चलाने के लिए अनुमति मिल जाती थी। ईसा पूर्व 44 में जूलियस सीजर ने कार्थेजों को पराजित किया। भारतवंशियों द्वारा विकसित कार्थेज सभ्यता सूर्योपासक एवं सनातन धर्मी थी।
विश्व से भारत का सम्बन्ध सदा से रहा है और है
ईसा पूर्व की शताब्दियों में भारत के अरब, अफ्रीका तथा रोम एवं अन्य वर्तमान यूरोपीय क्षेत्रों से सघन व्यापारिक सम्बन्ध थे। ये सम्बन्ध छठीं शताब्दी ईस्वी तक गहरे रहे, क्योंकि तब तक रोम भी सनातन धर्म का ही अनुयायी था। चौथी- पाँचवीं और छठी शताब्दी ईस्वी के रोमन शासकों के सिक्के दक्षिण भारत में खूब मिले हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत के व्यापारी रोम में अपना माल खूब भेजते थे और वहाँ से ये सिके प्राप्त करते थे। भारत के राजदूत रोम में निरन्तर रहे थे, इसके तथ्य मिले हैं" भारतीय माल पश्चिम एशिया के बाजारों में खूब बिकता था। चीन का सामान भी भारत के बन्दरगाहों से पश्चिमी एशिया एवं यूरोप में जाता था। पारसीक सभ्यता व्यापार में अति समृद्ध थी। पारसीक जहाज में ही इत्सिंग चीन से भारत आया था
भारतीय बौद्ध भिक्षु वज्रबोधि ने 720 ईस्वी के अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि जब वे श्रीलंका बन्दरगाह पहुंचे, तो वहाँ 35 पारसीक जहाज खड़े देखे PM वस्तुतः अरब तथा सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र से भारत का व्यापार ईसापूर्व से निरन्तर चलता रहा था तब कहीं न तो जीसस का अस्तित्व था, न पैगम्बर मोहम्मद का न कहीं ईसाइयत थी और न ही इस्लाम ईसाइयत और इस्लाम से बहुत पहले से भारत के लोग विश्व को और विश्व के लोग भारत को जानते थे। भारतीय इस्पात से बनी तलवार की प्राचीन अरबी साहित्य, जो इस्लाम से बहुत पहले का है, में बड़ी प्रशंसा है दूसरी ओर अदन में बना इत्र भारत आता था और विश्व भर के बाजारों में भी जाता था। भारतीय धान कर्णफूल के चावल विश्व भर में बिकते थे और अरब में उसे 'कुरनफूल' कहते थे ओमान या यमन का व्यापारिक केन्द्र दावा एक बड़े 1 बन्दरगाह भी था। वहाँ चीन, यवन राज्य, भारत और अरब से व्यापारी आते थे। एक बहुत बड़ा वार्षिक मेला भी वहाँ लगता था, जिसमें इन सब देशों के व्यापारियों के भाग लेने के ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं।
बसरा तक थी भारत की सीमा विश्वविख्यात थी।
भारतीय नौ सेना पारसीक धर्म के अनुयायी सम्राट खुसरू द्वितीय के समय पहलवी भाषा में लिखे गये एक वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि भारत के सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने खुसरू तथा उनके राजकुमारों को कुछ भेंट भेजी थी। भेंट उपहार का आपसी व्यवहार इनमें होता ही रहता था।
अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में से एक में भी सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की राजसभा में पारस के दूत सहित पारसीक नरेश खुसरू द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये गये हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समय भी भारत का पारस (फ़ारस) और अरब से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यह महाकवि बाणभट्ट लिखित 'हर्षचरितम्' से प्रमाणित है। वहाँ पारस, शकस्थान और तुरुष्क जनपदों का वर्णन है।
सदा से तेजस्वी रहे वीर भारतीय नरेश
भारतीय नरेश तब राजधर्म का पालन करते हुए दूरस्थ देशों पर आक्रमण करते ही रहते थे। इतिहासकार तवारी ने 9वीं शती ईस्वी में एक भारतीय नरेश द्वारा फिलिस्तीन पर आक्रमण का विशद वर्णन किया है। भारतीय नौसेना तो विश्वविख्यात ही रही है। उन दिनों 9वीं शती ईस्वी में भी बसरा को भारत का द्वार (देहलीज) कहते थे। तबारी ने लिखा है कि बसरा के रियासतदार को हमेशा युद्ध के लिए तत्पर रहना होता था कभी भारत के नौ सैनिक उसके क्षेत्र में बढ़ आते और कभी अरब के बहू लुटेरे
इस प्रकार हजारों वर्षों तक भारत वीरता का अतुलनीय उपासक, तेजस्वी और ज्ञान- सम्पन्न देश रहा है। इसके चक्रवर्ती सम्राट सदा ही विश्व भर में आधिपत्य के लिए जाते रहे हैं। यह अवश्य है कि सनातन धर्म की मर्यादा के अनुसार विजय के बाद वे स्थानीय लोगों को ही राज्य करने देते थे और अपना आधिपत्य मात्र मानने की अपेक्षा रखते थे। यही सनातन राजधर्म रहा है। इसी राजधर्म से प्रेरित होकर भारत के महान सम्राटों और वीर सैनिकों ने अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप (यूरोप तो वस्तुतः कोई अलग क्षेत्र कभी था ही नहीं, वह वृहत्तर भारत से सटा एक समुद्र की ओर धँसा हुआ इलाका मात्र रहा है, जिसे पहली बार यूरोप नाम 19वीं शताब्दी ईस्वी में ही दिया गया है), उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव (जो बहुत पहले पूरी तरह आबाद क्षेत्र थे और इस तथ्य को दर्शाने वाले नक्शे अन्वेषकों को मिल चुके हैं तथा उनके विषय में वैज्ञानिक छानबीन के बाद नक्शों की प्रामाणिकता स्वीकार की जा चुकी हैं) आदि विश्व के सभी भूभागों में समय-समय पर शौर्यपूर्ण अभियान किये थे और भारत के विद्वान मनीषी भी विश्व के प्रत्येक भाग में सनातन धर्म का सन्देश फैलाने जाते ही रहते थे।
ज्ञान, वीरता और तेजस्विता सदा से ही भारत के गुण रहे हैं। इस अर्थ में सचमुच ही भारत विश्व का जगद्गुरु रहा है। तेजस्वी, वीर और प्रज्ञा सम्पन्न भारत सनातन धर्म की चेतना का विश्व भर में प्रसार करता रहा है। यह एक तरह से आत्मज्योति का विस्तार था और ब्रहम ज्योति की साधना थी। विजय क्षत्रियों का सहज धर्म है, परन्तु विजय का अर्थ नृशंसता नहीं होता। इसी भाव से अवगत भारतीयों ने प्रारम्भ में खुद को मुसलमान या ईसाई कहने वाले लोगों का भी स्वागत किया और अगर वे भारत में सुशासन करते तो भारतीयों को उनसे कोई भी आपत्ति नहीं होती, क्योंकि सुशासन सनातन धर्म के पालन में ही है।
यदि ब्रिटिश लोगों ने, जैसा कि उनमें से अधिकांश चाहते भी थे, परन्तु मिशनरियों के उन्माद और दबाव के आगे बेबस थे, भारत में सनातन धर्म के अनुसार शासन किया होता, तो भारतीय निश्चय ही उन्हें भी भारत का ही एक अंग मान लेते, परन्तु तब न तो वे ईसाइयत के प्रसार का पापपूर्ण आग्रह करने की मूढ़ता और असभ्यता करने की स्थिति में होते और न ही भारत का धन ब्रिटेन ले जाने का पापपूर्ण कार्य करते। क्योंकि यदि सचमुच वे किसी विश्व सभ्यता और विश्व नागरिकता में विश्वास करते, तो फिर भारत के लोगों, भारत के धर्म और संस्कृति तथा भारतीय समाज-व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, विद्या-परम्परा और शिल्प-परम्परा का पोषण ही उन्हें भारत में अपना राजधर्म नजर आता।
जो लोग किसी एक पंथ या मजहब या रेलिजन या विचार को विश्व भर में थोपने की पापपूर्ण अभिलाषा रखते हैं, वे केवल पापी हैं और उनका वध धर्म है। आधुनिक यूरो-क्रिश्चियन विधि में भी उनके लिए प्राणदण्ड का ही प्रावधान है। आप यदि हमारे धर्म और संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं, तो आप आततायी हैं और सनातन धर्म यानी हिन्दू धर्म ने सदा ही यह प्रेरणा दी है कि आततायी का वध बिना किसी अधिक विचार या दुविधा में पड़े कर देना चाहिए, यही धर्म है, यही विधि है, 'लॉ' है जो हमारे देवताओं, हमारी ज्ञान परम्पराओं, हमार विद्या-परम्पराओं, हमारी पूजा पद्धतियों, हमारे मानदण्डों, हमारे धर्म केन्द्रों, हमारे तीर्थों और हमारे श्रद्धा केन्द्रों पर आघात का प्रयास करे, वह विश्व मानवता के समक्ष अपराधी है और अपराधी को दण्डित करना 'लॉ' है, धर्म है अभी जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि है, उसमें भी यह अपराध है।
यह अलग बात है कि उसमें न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया कुछ बहुत स्वस्थ नहीं है। विचारपूर्वक और विश्व के अनुभवों से सीखकर उसे स्वस्थ बनाया जा सकता है। अभी यह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक प्रक्रिया स्वस्थ नहीं है, इसीलिए यूरोप और अमेरिका संकट पड़ने पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में नहीं जाते, अपितु अपने-अपने देश और सभ्यता के शत्रुओं का खुलकर संहार करते हैं और समूल नाश की योजना बनाते हैं। कश्मीर के प्रश्न पर नेहरू जी का संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना किसी भी प्रकार न तो न्याय की भारतीय परम्परा के अनुकूल था और न ही अन्तर्राष्ट्रीय परम्पराओं के अनुरूप |
यह प्रचार कि भारतीय राज्य और राजागण अपनी सीमा से बाहर कभी भी आक्रमण नहीं करते रहे हैं, घोर अज्ञान से उपजा प्रचार है अथवा जानबूझकर किया जा रहा दुष्प्रचार है। भारत एक तेजस्वी देश है और जब भी यह पुनः तेज की साधना करेगा तो विश्व भर में एक श्रेष्ठ विश्व नागरिकता का समतामूलक प्रसार इसका सहज धर्म होगा। उसके लिए यदि सैन्य अभियान करने की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति नहीं होती, तो यह अच्छा ही है, परन्तु फिर उसके लिए ऐसी नयी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रचना में भारतीय मनीषा को भी अपना योगदान देना होगा, जो विश्व नागरिकता के स्वस्थ विकास के लिए प्रयास करे। यह बौद्धिक पुरुषार्थ होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार घोषणा-पत्र कई मामलों में अच्छा है। इसी प्रकार अन्य संस्कृतियों का संहार न करने के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय जनमत बना हुआ है। परन्तु इन सभी व्यवस्थाओं का लाभ भारत में कतिपय दस्यु दल उठाना चाहते हैं। उन्होंने साम्राज्यवादियों द्वारा प्रचारित आधारहीन कल्पनाओं जैसे आर्य आक्रमण - सिद्धान्त, आर्यों के किसी नस्ल विशेष का होने का सिद्धान्त, भारत में कोई विशेष विषमता होने का प्रचार, भारतीय समाज में कतिपय अभूतपूर्व दोष होने का प्रचार और भारत में वनवासियों के किसी अलग नस्ल के होने का प्रचार तथा उन्हें आदिवासी बताने का प्रचार आदि दुष्ट प्रचारों के द्वारा भारत में एक झूठा सांस्कृतिक विभाजन करने के लिए आकाश-पाताल एक रखा है जब इतिहास के तथ्य उनके विरुद्ध हो गये, तो उन्होंने मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) की आड़ में ब्रिटिश काल में समाज में उभरी विकृतियों का अतिरंजित प्रचार करने वाले प्रशिक्षित लोगों के मौखिक 'इंटरव्यू' कर भारतीय समाज में अति भयंकर छुआछूतवाद और भेदवाद होने का एक नकली इतिहास गढ़ना शुरू कर दिया है जिनसे 'इंटरव्यू लिए जा रहे हैं, वे अमेरिकी एवं कम्युनिस्ट खेमों द्वारा प्रशिक्षित लोग हैं, जो एक प्रकार की राजनैतिक बयानबाजी कर रहे हैं और वहाँ इतिहास के रूप में रिकार्ड किया जा रहा है।
यूरोप और अमेरिका में 19वीं शताब्दी ईस्वी तक जिन समाजों और स्त्रियों सहित जिन विभिन्न वर्गों के साथ भेदभाव हुआ है, उन सभी के साथ इसी प्रकार के न्याय की कोई अन्तर्राष्ट्रीय माँग उठे और आन्दोलन चले, तब तो ऐसे लोगों को सत्यनिष्ठ माना जा सकता है। परन्तु सदा ही विदेशों से धन और विचार लेकर फिर ऐसे सब विषयों को केवल भारत तक सीमित रखकर केवल भारत के विषय में बुराइयों का विशेष प्रचार करना और उससे जुड़ी विभेदकारी मांगें तथा विघटनकारी हलचलें करना किसी भी सच्ची भावना का परिणाम नहीं हो सकता। यह कंटक- वर्धन है।
राजधर्म की पुनः प्रतिष्ठा आवश्यक
कण्टक शोधन राजधर्म है और वर्तमान संविधान में भी उसके पर्याप्त प्रावधान हैं। 1947 ईस्वी के बाद अनेक बार भारत के राजपुरुषों ने भारत के अलग-अलग समूहों के नागरिक अधिकार पर्याप्त समय के लिए निलम्बित या स्थगित रखे हैं। अतः आज विभिन्न आतंकवादी समूह जो कुछ कर रहे हैं, उससे निपटने के लिए वर्तमान राज्य के पास भरपूर शक्ति है और भारतीय सेना तथा अर्धसैनिक बल इसमें सर्वथा समर्थ हैं। ऐसी स्थिति में यदि इन आतंकवादी समूहों रूपी राष्ट्र के कण्टकों का शोधन नहीं किया जाता और किसी न किसी बहाने इन कंटकों के द्वारा किये जा रहे जनवध को किसी नागरिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति का आवरण देकर खुले अपराध और अत्याचार के प्रति उदासीनता जारी रखी जाती है, तो यह राजधर्म का स्पष्ट उल्लंघन है और उसके लिए केवल राजपुरुष दोषी हैं। इन सब समस्याओं के लिए भारतीय नागरिकों में किसी राष्ट्र चेतना की कमी ढूंढ़ना और बता प्रज्ञापराध है। संसार भर में वहाँ के राज्य द्वारा अपने राष्ट्र के बहुसंख्यकों के रेलिन या मज़हब या मत का अधिकृत वैधानिक संरक्षण होता है। भारत विश्व का ऐसा एकमात्र राज्य है, जिसका संविधान यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दुओं के धर्म हिन्दू धर्म को अधिकृत वैधानिक संरक्षण नहीं देता। इस प्रकार हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति के विशेष संरक्षण के राजधर्म का पालन भारत में नहीं किया जा रहा है। इस विषय में प्रबुद्ध जनमत जाग्रत किया जाना चाहिए और वर्तमान संविधान के भाग-4, अनुच्छेद-38 में एक छोटा-सा संशोधन लाया जाना चाहिए कि 'भारत का राज्य भारतीय संस्कृति का संरक्षण करेगा और समाज में भारतीय सांस्कृतिक चेतना के उत्कर्ष के लिए काम करेगा।' इस प्रकार राजधर्म का पालन करता हुआ भारतीय राज्य भारत के गौरवशाली इतिहास को वर्तमान और भविष्य में भी चरितार्थ करना अपना धर्म मानेगा।
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सातवीं शताब्दी के बाद भारत
आधुनिक भारत में इतिहास के क्षेत्र में कार्यरत कई कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं सत्यों का के प्रचार से और उसे कांग्रेस शासन में मिले एकाधिकारपूर्ण संरक्षण से सर्वाधिक भ्रांति अरब और इस्लाम को लेकर फैली है। उस विषय में आधारभूत स्मरण आवश्यक है। हजारों साल से भारत और अरब का व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहा है। बसरा, मक्का, ओमान, अदन आदि समृद्ध व्यापारिक केन्द्र रहे हैं। अरब की प्राचीन सभ्यता भारत जैसी ही विकसित थी वहाँ दर्शन, साहित्य, कला, व्यापार, वाणिज्य, धर्म-संस्कृति, प्रतिमा निर्माण, मूर्ति-शिल्प, स्थापत्य, वास्तु एवं समाज व्यवहार की एक समृद्ध परम्परा थी। भारत की सीमा पहले अरब के सीमांत तक फैली थी। तब दोनों पड़ोसी राष्ट्र थे। अरब सहित सम्पूर्ण अफ्रीका से भारत के गहरे सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। यह अवश्य है कि अरब का बड़ा इलाका मरुस्थल होने से वहां जीवन कठिनाई से भरा था। परन्तु दक्षिणी हिस्सों में, हिन्द महासागर के अरब की खाड़ी से जुड़े इलाके से लेकर, फारस की खाड़ी तक तथा उत्तर में कृष्ण सागर, प्रशान्त महासागर और भूमध्य सागर से सटे इलाकों में भारत की ही तरह विश्व की प्राचीन सभ्यता रही है। मिस्र की प्राचीन सभ्यता तो प्रसिद्ध है ही, मेसोपोटामिया सभ्यता भी इसी क्षेत्र में थी। सिन्धु सारस्वत सभ्यता से इन सभ्यताओं का घनिष्ठतम संबंध था। मेसोपोटामियाई, मिली, चीनी और सैंधव लिपियां विश्व की प्राचीनतम लिपियां हैं। वन और कृति राष्ट्र में भी अतिप्राचीनकाल से लेखन होता रहा है। मेसोपोटामिया में ईसा के चार हजार वर्ष पूर्व के अभिलेख मिले हैं।'
बाबुल की सभ्यता के भी प्राचीन अभिलेख मिले हैं। वहां के शासक हमुरबि के लगभग 2000 ईसा पूर्व के अभिलेख मिले हैं। वह सूर्योपासक समाज था। मिस्र में ईसा पूर्व चौथी सहस्त्राब्दी के शासकों की वंशावलियां मिली है। यमन में व्यवस्थित राज्य ईसा की प्रारंभिक शताब्दी में ही था। बाद में वहां पारसीकों ने शासन किया। हिरा, किन्दा तामी, असद, खुफिया, सुलैम, हवाजिन, पत्र, गाजा, मसान, कल्ब आदि के राज्य वहां ईसा पूर्व में थे। लोबान, धूप, सुगंध और इत्र के विश्व विख्यात केंद्र वहां इस्लाम के जन्म से सैकड़ों साल पहले से थे।
इन सब से अनजान आधुनिक इतिहासकारों में से कुछ का कहना है कि सातवीं शताब्दी ईस्वी में ही पहली बार अरब जहालत से सभ्यता की ओर बढ़ा। ऐसे कहना प्राचीन समृद्ध और सुसंस्कृत अरब स्त्री-पुरुषों का अकारण अपमान है। स्वयं कुरैश कबीले की समृद्ध धार्मिक परंपरा का अज्ञान इसमें निहित है। सूर्य, शिव तथा विभिन्न देवियों के उपासक अरब लोग सुसंस्कृत लोग थे। भारत से उनका घनिष्ठ संबंध था। स्वयं मुहम्मद साहब के एक चाचा का नाम अब्दुल शम्श अर्थात सूर्यदास था। एक अन्य चाचा का नाम अब्दुल मनात अर्थात देवीदास था। पंडों का बेटा होने से ही मुहम्मद साहब के प्रति वहाँ का समाज शुरू में उदार रहा।
यह भी कहा जाता है कि सातवीं शताब्दी से ही भारत पर अरबों ने आक्रमण शुरु कर दिया था। यह असत्य एवं निराधार है। अरबों के पास मुस्लिम खलीफा की गद्दी बहुत थोड़े समय रही। वैसे भी इस्लाम वंश-परम्परा या कौमियत से ज्यादा महत्त्व मजहब को देता दिखता है। पैगम्बर के दामाद और गोद लिये बेटे हजरत अली की हत्या के बाद पैगम्बर साहब के अपने वंश का तो वंशनाश ही हो गया, ऐसा दिखता है विस्तृत जानकारी तो अरब इतिहास के गम्भीर अध्येता ही दे सकेंगे। बहरहाल, पाँचवें खलीफा के समय से ओमैय्या वंश ने खलीफा की गद्दी दमिश्क में कायम की दमिश्क सीरिया की राजधानी है। सीरिया में भारत के पणियों का शताब्दियों राज्य रहा था। भारतवंशी साम्राज्ञी कार्थेज (मूल नाम अज्ञात) का सीरिया से स्पेन तक शासन था। वहाँ मिले अनेक अभिलेख इस बात के साक्ष्य हैं कि सीरिया हित्ती सभ्यता का बड़ा केन्द्र रहा था हित्तियों की सभ्यता और उनके देवता हिन्दू ही हैं। अनुमान है कि क्षत्रिय शब्द से खत्तिया बना और फिर खत्तिया ही हिलिया हो गया। दजला नदी के तट पर ईसा पूर्व 1100 में 'बगदाद' नामक नगर था जो संस्कृत 'भग्' धातु का ही क्षेत्रीय रूप है। बगदाद से अल जजीरा तक हित्ती सभ्यता का विस्तार था सूर्य, मित्र, वरुण, अग्रि आदि देवता वहाँ पूज्य थे सीरिया से हिली शासकों का प्राप्त सिक्का भगवान शिव एवं सिंहवाहिनी जगदम्बा दुर्गा के चित्रों वाला है। स्कन्दस्वामी कार्तिकेय के भी चित्र मिले हैं। अतः सीरियावासी मुसलमान बनने से पहले हिन्दुत्व से ही प्रभावित रहे हैं।
सीरिया सनातन धर्मी रहा है
उमय्या वंश के खलीफाओं के काल में कुछ जलदस्युओं ने भारतीय तटवर्ती क्षेत्रों में लूट की कोशिश की। उनमें से कुछ पारसीक मूल के थे, कुछ तुर्क लुटेरों की इन हरकतों को हमला बताना हास्यास्पद है। इनमें से किसी को कीकण के जाटों ने काट डाला, किसी को सिन्ध और गुजरात के लोगों ने न ये राजा थे, न इन्हें मारने वाले राजा थे। यह तो लुटेरों की नागरिकों के द्वारा पिटाई का प्रकरण है। कुछ लुटेरे डर कर दमिश्क और बगदाद वापस गए। इस बीच खलीफा की गद्दी बगदाद चली गई। बगदाद, दमिश्क सहित सम्पूर्ण सीरिया, इराक और तुर्की 11वीं शताब्दी तक गहरे बौद्ध प्रभाव में थे इस्लामी उग्रवाद ने क्रमशः बौद्ध स्मृतियाँ मिटाई हैं। फिर भी, 9वीं 10वीं शती के अनेक साहित्यिक ग्रन्थ तुर्की भाषा में मिले हैं, जो बौद्ध ग्रन्थ हैं, इस्लामी नहीं।"
यह बौद्ध परंपरा का ही अनुसरण था कि जब इस्लाम फैला और कुरान शरीफ में उतरी आयतें जीवन की विविध समस्याओं के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश के लिए पर्याप्त नहीं लगीं तो प्रारंभिक मुसलमानों से पूछा जाने लगा कि अमुक स्थिति आने पर पैगंबर मोहम्मद और उनके साथी क्या करते थे। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे बौद्ध धर्म में यह बताया जाता था कि अमुक समस्या या स्थिति के उपस्थित होने पर तथागत क्या करते या कहते थे। इसी परंपरा के अनुसरण में हदीस लिखी गई है। बौद्ध परंपरा का अनुसरण ही सुन्ना या हदीस के संकलन की प्रेरणा बना। इसीलिए पैगम्बर और खलीफाओं की जीवनी रचे जाने का महत्व बढ़ा। ये जीवनियाँ इतने विस्तार से लिखी जाने लगीं क्योंकि ऐसे सूक्ष्म और विशद वर्णनों की वहाँ प्रशस्त बौद्ध परम्परा रही है, जो उससे पहले को हिन्दू धर्मशास्त्रों की परम्परा का ही परिणाम थी। विकसित साहित्य परंपरा के अभाव में इस्लाम का यह विशाल साहित्य रचा जाना संभव नहीं था।
पन्द्रहवीं शती ईस्वी तक तुर्की, इराक, सीरिया में रहा हिन्दू-बौद्ध प्रभाव
पैगम्बर मुहम्मद की प्रशंसा में जो पहला महाकाव्य तुर्की भाषा में लिखा गया, वह पन्द्रहवीं शती ईस्वी के आरम्भ का है। उसके पहले वहाँ यूनुस अमीर तथा अन्य रहस्यवादी कवि ही हुए, जो बौद्ध एवं हिन्दू दर्शन से स्पष्टतः प्रभावित हैं। इससे प्रमाणित है कि शासक द्वारा इस्लाम स्वीकार करने के सात सौ वर्षों बाद तक तुर्की, इराकी एवं सीरियाई समाज में भारतीय प्रभाव गहराई तक छाए रहे।" जैसे आजकल के हिन्दी लेखकों में मुस्लिम व ईसाई प्रभाव गहराई तक व्याप्त है। तुर्की की राजधानी अंकारा से 95 मील पूर्व स्थित हनुशश में सिंहद्वार मिले हैं, जो भारतीय राजाओं के प्रासाद के राजद्वार जैसे हैं।" हशश हिसी साम्राज्य की राजधानी था सीरिया में 1 तो बौद्ध एवं पारसीक प्रभाव हाल तक था फ्रेंच आधिपत्य के बाद ही ये मिटे हैं। 1946 में सीरिया स्वतंत्र हुआ है। जहाँ तक इराक की बात है, वह 1921 में फ्रेंच एवं अमेरिकी प्रभाव से मुक्त हुआ है।
कासिम कोई राजा नहीं था, लुटेरा था
दमिश्क से हटकर इराक की राजधानी बगदाद में खलीफा की गद्दी 750 ईस्वी में स्थापित हुई अब्बासी खलीफा पारसीक सभ्यता एवं हिन्दू सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे और वहाँ हिन्दू पंडित, वैद्य, ज्योतिषी, गणितज्ञ आदि आते- जाते रहते थे। स्वयं फरिश्ता का कहना है कि 664 ईस्वी में गान्धार क्षेत्र (अफगानिस्तान) में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने। 750 ईस्वी के बाद तो बेचारे अरव लोग, फिर वे सैनिक हों या लुटेरे, भारत पर आक्रमण की हैसियत ही नहीं रखते थे विविध तुर्क एवं पारसीक लुटेरों की लूट की कोशिश का दोष अरब शासकों पर डालना सही नहीं है। यद्यपि ये लुटेरे अरब के होते तो भी इनका चरित्र भिन्न नहीं होता। इन्हें इन कामों की प्रेरणा तो इस्लाम से ही मिली। इन लुटेरों को भारत के लोगों ने थाणे, भाँच, देवल और सिन्ध से बार-बार भगाया इराकी जागीरदार हज्जाज ने लुटेरों की जो एक वाहिनी भेजी, उसे भी सिन्धु नरेश दाहिर ने पीट कर भगा दिया।
इसी इराकी जागीरदार हज्जाज के दामाद, पारसीक (प्राचीन भारतीय) क्षेत्र के मोहम्मद बिन कासिम ने भी सिन्ध में लूटपाट के लिए ही घुसपैठ की थी। लूट के साथ-साथ उसने हिन्दू स्त्रियों पर अत्याचार भी बहुत किये, पर यह दुराचरण यदि इस्लाम की मूल प्रेरणा है, तब भी केवल दुराचरण की भयंकरता के कारण कासिम को आक्रमणकर्त्ता राजा तो नहीं कहा जा सकता। इसीलिए कासिम लुटेरे की घुसपैठ को भारत पर विदेशी आक्रमण बताना या मानना तो विमूढ़ता और अज्ञान है। उसे भारत पर अरबों का हमला बताना तो और भी बड़ा झूठ है ही साथ ही यह तथ्य भी सदा स्मरण रखने योग्य है कि उन दिनों उत्तरी भारत में बंगाल तक पालों का राज्य था। असम, नेपाल आदि में भी हिन्दू राज्य ही थे। बिहार में कर्णाट वंशियों, गुप्ता सेनों और खैरवारों के राज्य थे। कन्नौज में राष्ट्रकूटों और गहरवारों के राज्य थे कल्चुरियों, चन्देलों, यादवों, कछुवाहों, परमारों, चालुक्यों, चाहमानों, गोहिलों, लोहारों, शिलाहारों, गंगों, काकतियों, सोमवंशियों, नागाओं, होयसलों, चोलों, सातवाहनों, पाण्ड्यों आदि के विशाल राज्य थे।
लुटेरा कासिम
स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन से स्पष्ट है कि 17 साल के लफंगे छोकरे कासिम की पूरी तैयारी धन की लूट की थी और वस्तुतः नये अपनाये गये इस्लाम ने उन्हें स्त्रियों के साथ अत्यचार की विशेष प्रेरणा दी थी। यद्यपि दुराचारियों द्वारा धन की लूट के साथ ऐसे दुराचरण करने की घटनाएँ विश्व के प्रत्येक समाज के दुराचारियों में देखी जाती हैं। अपनी लूट को बाद में औचित्य की शक्ल देने के लिए मज़हब या मतवाद से जोड़ना भी मामूली बात है।
नई मस्जिदों का सच
युवावस्था की देहरी पर कदम रख रहे मोहम्मद बिन कासिम ने जब देवल में लूटपाट मचाई तो सिन्ध के राजा को, जिनका मूल नाम ज्ञात नहीं और जिन्हें मुस्लिम इतिहासकार दाहिर बताते हैं, उन्हें लूट की खबर लगी और उन्होंने लुटेरे को दण्ड देने के लिए अपनी सेना को भेजा। हज्जाज को कासिम ने जो चिट्ठी भेजी थी, वह इतिहासकारों द्वारा उद्धृत की जाती है, उससे दो बातें साफ होती हैं। एक तो यह कि वह लुटेरा लफंगा था और दूसरा यह कि वह कपटी और धोखेबाज था। लुटेरों का झुण्ड क्षेत्र के जिस किसी भव्य मन्दिर को देखता, उसी में जबरन घुसकर वहाँ अजान दिलवाता और फिर उसके मस्जिद होने का ऐलान कर दिया जाता। जिन इलाकों में भय और लोभ से वहाँ के स्थानीय लोग मुसलमान बन गये, वहाँ कुछ समय बाद चबूतरे और मीनार खड़े कर दिये गये। इसे ही नई मस्जिदों का निर्माण कहा गया, जो कि मन्दिरों पर पापपूर्ण कब्जा और देवस्थान को भ्रष्ट करने का मानवताद्रोही दुष्कर्म मात्र है।
छल-कपट और धोखा
लुटेरे कासिम ने कहीं भी राजा दाहिर की सेना के साथ सीधी लड़ाई नहीं की, बल्कि सीधी लड़ाई से वह लगातार बचता रहा। स्थानीय लोगों को लूटने और मुसलमान बनाने पर ही ध्यान दिया जाता रहा। जब देवालयपुर (वर्तमान में कराची) के जागीरदार को मार-मारकर मुसलमान बनाया गया और उसका नाम 'इस्लामी' रखा गया, तब वह इस्लामी, जो कुछ समय पूर्व तक राजा दाहिर का एक विनम्र जागीरदार था, दाहिर के दरबार में नये रूप में गया। दाहिर ने उसे दुत्कार कर भगा दिया, तब उक्त स्थानीय जागीरदार इस्लामी (जो कल तक हिन्दू था) और कासिम दोनों की सेनाओं ने दाहिर पर आक्रमण किया। इतिहासकारों ने बताया है कि दाहिर की सेनाओं ने कासिम के गिरोह को रौंदना और मसलना शुरू किया। कासिम ने बन्दी बनाई गई स्त्रियों को डरा-धमका कर उनसे पुकार लगवायी, जिससे दाहिर उधर अपने 'गो, ब्राह्मण एवं स्त्रियों के रक्षक' होने के धर्म के पालन के उत्साह में अकेले ही बढ़ गए और बुरी तरह फँस गए, और इस प्रकार संयोगवश घिरकर वे मारे गए। इसे किसी भी तरह किसी विदेशी शासन का भारत पर आक्रमण नहीं कहा जा सकता। हाँ, लफंगों का कपट-जाल जरूर कहा जाएगा।
स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार उपरोक पापी जागीरदार इस्लामी की ही तरह ब्राह्मणाबाद के जागीरदार तथा अन्य अनेक प्रमुख हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के बाद उस क्षेत्र में उनकी सहायता से ही लूटपाट की गई। तीन वर्षों तक सिन्ध प्रान्त में ऐसी लूटपाट चलती रही। कासिम किसी भी राज्य का राजा नहीं था। अतः उसकी इस लूटपाट को भारत पर आक्रमण बताना कुछ वैसा हीं है, जैसे सीमा पार के तस्करों और अपराधियों द्वारा आज भारत में हो रही घुसपैठ को भारत पर आक्रमण बताया जाने लगे।"
नेपाल में शताब्दियों से पहले राजा भोज और उसके बाद भास्करदेव तथा अन्य राजाओं का शासन रहा। बिहार में मिथिला अंचल में गौड़ देश के पाल के साथ ही कर्णाट वंशी राजाओं का शासन था कुछ हिस्सों में गुप्त वंश का", कुछ में सेन वंश का और कुछ में खैरवारों का शासन था। कन्नौज में राष्ट्रकूटों और गहरवालों के प्रतापी शासन रहे" यदुवंशियों, कछवाहों, कल्चुरियों, चन्देलों, चोलों, चालुक्यों, पाण्डयों, राष्ट्रकूटों, सातवाहनों आदि सभी के विराट राज्यों और राजवंशों पर प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है ।
भारतीय मुसलमान महमूद गजनवी
महमूद गजनवी, क्योंकि गजनी नामक एक रियासत का मालिक था, इसलिए उसके द्वारा भारत में की गई लूटपाट एवं बर्बरता को भारत पर किया गया आक्रमण बताने का चलन है, परन्तु गजनी और गोर दोनों ही भारत के गान्धार क्षेत्र की छोटी- छोटी रियासतें थीं। गजनी वही इलाका है, जहाँ हिन्दू राजा शिलादित्य कुछ समय पूर्व राज्य कर रहे थे।
महान हिन्दू सम्राट जयपाल
खुरासान शताब्दियों से भारत का ही राज्य था। उसके शासक बाहीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी के अन्त में वे बौद्ध से मुसलमान बन गये। इन्हीं क्षत्रिय वंशी शासकों का एक सेवक गजनी नामक भारतीय रियासत का 10वीं शताब्दी के आरम्भ में शासक बन गया। इसका नाम था अलप्तगिन, जो पुराने क्षत्रिय (अब मुस्लिम) धनियों का हिन्दू सेवक था। उसकी रियासत गजनी वस्तुतः बाह्रीक (बल्क) राज्य का एक अंग थी गजनी के बगल में अफगानिस्तान के ज़्यादा बड़े क्षेत्र में ब्राह्मण नरेश जयपाल का शासन था। यह क्षेत्र उद्भांडपुर राज्य कहलाता था, जिसे मुसलमानों ने ओहिन्द या उन्द कहा है। महाराज जयपाल का सिन्धु नदी के उद्गम से लिंगन या लामघन तक और कश्मीर से मुल्तान तक शासन था। जब अलगिन की मृत्यु हुई तो उसका दामाद सुबुक्तगिन गजनी रिसायत का जागीरदार बना। इस जागीरदार ने आसपास के इलाके में भी लूटपाट शुरू कर दी। वह इलाका राजा जयपाल का था अतः महाराज जयपाल ने कन्नौज के प्रतिहार नरेश व दिल्ली- अजमेर के चौहान नरेश की सेना के साथ महमूद के मुकाबले के लिए अपनी सेना भेजी। लामघन नामक स्थान में मारकाट हुई और सुबुक्तगीन को लौटना पड़ा। यही लामधन वही स्थान है, जिसके पास तुरंता में सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है, जिससे प्रमाणित है कि गजनी विगत 1000 वर्षों से अधिक से भारत का एक क्षेत्र था। 1997 ईस्वी में सुबुक्तगीन मर गया और उसका बेटा महमूद गजनी का जागीरदार बना। महमूद ने भी आदतन लूटपाट शुरू की और महाराज जयपाल से बदला लेने के लिए उनकी राजधानी पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) पर भी लूट के लिए चढ़ाई कर दी। यह तथ्य कुछ लोग जानबूझकर छिपाते हैं कि महमूद की माँ जाबुली एक क्षत्राणी थी और स्वयं महमूद तीन पीढ़ी पहले क्षत्रिय रहे पूर्वजों के वंश में हुआ था
जमकर युद्ध हुआ
पुरुषपुर में दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई हुई, जिसमें संयोगवश जयपाल हार गये और उनके पुत्र आनन्दपाल शासक बने ।" आनन्दपाल के एक राजकुमार ब्राह्मणपाल ने की लूट महमूद रोकने के लिए पुनः प्रयास किया और ओहिन्द में दोनों पक्षों के बीच लड़ाई हुई। संयोगवश आनन्दपाल कई लड़ाइयों में जीत के बाद एक बार हार गये।" राजा आनन्दपाल की सहायता के लिए 1008 ईस्वी में कश्मीर, उज्जयिनी, कालिंजर, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं ने भी सैन्य टुकड़ियाँ भेजी थीं युद्ध में आनन्दपाल जीत रहे थे। मुस्लिम इतिहासकारों का कथन है कि अचानक आनन्दपाल की हाथियों की सेना में बारूद के एक धमाके से अथवा शायद आग के किसी गोले से जो महमूद की सेना ने फेंका था, भगदड़ मच गई और हिन्दू सेनाओं ने यह समझ लिया कि हमारी पराजय हो गई। इस भ्रम का लाभ उठाकर महमूद ने लूटपाट शुरू की और सात दिन तक नगरकोट नामक शहर में लूटपाट की। लूट का माल 1000 ऊँटों पर लादकर गजनी ले जाया गया।
प्रजा की लूट को रोकने के लिए राजा आनन्दपाल ने संधि कर ली। परन्तु संधि का लाभ उठाकर महमूद लूट फैलाता ही चला गया। जाहिर है, यह किसी राजा का लक्षण नहीं है। यह तो गुलामों के वंश का व्यवहार है। इस अवधि में जिन महान हिन्दू राजाओं ने मुसलमान बने हिन्दूवंशी महमूद गजनवी का वीरतापूर्ण विरोध किया, उनका गौरवपूर्ण उल्लेख कल्हण ने 'राजतरंगिणी' में किया है, जिससे भी यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारतीय विद्वान इसे देशी और विदेशी के युद्ध के रूप में नहीं, अपितु धर्मनिष्ठ एवं पापिष्ठ क्षत्रियों के मध्य युद्ध के रूप में देखते थे।" कल्हण की दृष्टि ही प्रामाणिक है और मुसलमान बने दासवंशी जागीरदार महमूद गजनवी के पापाचार एक विधर्मी और पापिष्ठ जागीरदार के पापकर्म कहे जायेंगे, न कि किसी विदेशी का भारत पर आक्रमण। महमूद अपनी हार का बदला लेने हमला करता था। उसे उद्घांडपुर, कन्नौज, दिल्ली एवं अजमेर के राजाओं ने पीटा था। अतः यह भारतीय राजाओं की अपनी लड़ाई है। किसी विदेशी का हमला नहीं महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि हिन्दू राजा धर्मनिष्ठ थे, उन्होंने गजनी की मस्जिदें नहीं तोड़ीं, यद्यपि हिन्दू दृष्टि से वे पाप का केन्द्र थीं, पर मजहबी उपासना केन्द्र थीं। गजनवी ने लाखों मन्दिर तोड़े, क्योंकि इस्लाम ऐसे मज़हबी उन्माद की प्रेरणा देता है-राक्षसी कर्म की। वैसे क्षत्रिय धर्म तो यही है कि पाप का केन्द्र बनी उस गजनी की मस्जिदें भी ध्वस्त कर दी जातीं।
बबर लुटेरा
बार-बार पिटने पर प्रतिशोध पर तत्पर और उन्मत्त महमूद गजनवी ने मथुरा, कन्नौज, ग्वालियर, कालिंजर, काश्मीर और सोमनाथ के मन्दिरों को नष्ट किया और लूटपाट की हिन्दू राजाओं में ऐसा उन्माद नहीं उभरा। यह संयम उचित था या अनुचित, इस पर आज बहस हो सकती है। सभी मुस्लिम इतिहासकारों ने उसके द्वारा लूटी गई विशाल धनराशि सोना-चांदी, हीरामोती, जवाहरात का उलेख किया है और उसके द्वारा किये गये बर्बर अत्याचारों का भी गौरवगान किया है। बाद में उन्मत्त गजनवियों का एक प्रमुख लुटेरा बनारस तक गया था और वहाँ भी लूटपाट की थी हिन्दुओं में यह विमर्श अवश्य होना चाहिए कि यदि किसी हमलावर के दरबारी लोग मन्दिरों के तोड़ने पर गर्व कर सकते हैं तो ऐसे पापाचार के प्रेरक तथाकथित उपासना स्थलों को तोड़ना हिन्दू राजाओं का सहज धर्म क्यों नहीं होना चाहिए। शान्तिपूर्ण इबादत स्थलों का संरक्षण राजधर्म है और उपासना को आवरण बनाकर दूसरों पर पापाचार का प्रशिक्षण दे रहे स्थलों को नष्ट करना भी राजधर्म है।
तेजस्वी त्रिलोचनपाल
जैसी कि वोरों की परम्परा है, आनन्दपाल के पौत्र त्रिलोचनपाल ने महमूद के साथ मजबूरी में पितामह द्वारा की गई संधि तोड़ दी हिन्दू तथा मुस्लिम सेनाओं के मध्य 1014 ईस्वी में भारी मारकाट हुई कई बार के युद्ध के बाद 1015 ईस्वी में भीमपाल ने महमूद गजनवी को हरा दिया। परन्तु भीमपाल ने भी कोई मस्जिदें नहीं तोड़ीं, न ही मुल्लाओं का कत्लेआम किया। इसे राजधर्म से विचलन माना जा सकता है। 1018 ईस्वी में महमूद ने पुनः आक्रमण किया और इस बार वह जीत गया। फलतः उसने मथुरा की बुरी तरह लूटपाट तो की ही, श्री श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर कब्जा कर, उसे ध्वस्त कर, वहाँ चबूतरे और मीनार बनाकर मस्जिद घोषित कर दिया इस प्रकार अनेक बार इन विधर्मी एवं पापिष्ठ भारतीय मुस्लिम राजाओं को विफलता हाथ लगी, परन्तु कई बार वे विजयी भी हुए विजय पाते ही ये मुस्लिम राजा उन्मत्त हो धर्मकेन्द्रों का नाश करते । 1018-1022 ईस्वी के बीच महमूद ने ग्वालियर और कालिंजर की लूट की तथा 1025 ईस्वी की विजयादशमी के आसपास भगवान सोमनाथ का मन्दिर भी लूटा।" यह निश्चय ही बारम्बार गम्भीर विमर्श एवं अनुशीलन का विषय है कि जब भारतीय हिन्दू राजा मस्जिदें नहीं तोड़ते, भारतीय मुस्लिम राजा नशे में डूबे ये पापकर्म क्यों करते हैं? यदि बुतपरस्ती को पाप का केन्द्र मानकर मन्दिर तोड़ना मजहब है तो निश्चय ही पापाचार की प्रेरक मस्जिदें तोड़ना हिन्दू राजधर्म कहा जाएगा। तेजस्वी हिन्दू सम्राट महाराज भीमपाल की मृत्यु 1929 ईस्वी में हुई। कन्नौज, कालिंजर, ग्वालियर और सम्पूर्ण दक्षिण तथा पूर्वी एवं पश्चिमी भारत तब तक हिन्दू राज्य ही था।
वीर हिन्दुओं का तेजस्वी प्रतिकार
जब महमूद सोमनाथ को लूटकर लौट रहा था, तो राजपूताने के हिन्दू राजाओं ने उस पर संयुक्त आक्रमण किया, जिनसे डर कर महमूद चुपके-चुपके सिन्ध का रेगिस्तान पार कर आगे बढ़ने लगा, जहाँ उसकी पूरी सेना को भयंकर कष्ट झेलने पड़े कुछ समय बाद, 1030 ईस्वी में महमूद मर गया ।" वह अत्याचार, दुराचरण, लूट और क्रूरता का साक्षात् रूप एक भारतीय था। हिन्दू संस्कृति का महान केन्द्र रहा गजनी महमूद के समय पाप का केन्द्र बन गया। महमूद ने पारसीक राज्य और इराक की भी कई जागीरों पर कब्जा किया था। वहाँ के मुसलमान शासकों को मारा और बौद्ध, पारसीक तथा मुस्लिम समाज को लूटा था। तब तक उस क्षेत्र में बौद्ध भी बड़ी संख्या में थे।
4100 वर्षों की शान्ति को भी याद रखें
महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर एवं उत्तर-पश्चिम भारत में अधिकांश जागीरों पर हिन्दुओं ने पुनः आधिपत्य कर लिया। स्वयं गजनी पर पारसीकों के वंशजों ने अधिकार कर लिया जिस महमूद गजनवी द्वारा 1008 ईस्वी से 1027 ईस्वी के मध्य बीस वर्षों में अपने आसपास के इलाके में शुरू के 12 वर्षों तक और बाद में 8 वर्षों तक दूरदराज के इलाकों में की गई लूटपाट और क्रूरता को 11वीं शती ईस्वी के आरम्भ में यानी महाभारत के उपरानत लगभग 4100 वर्षों बाद किसी विदेशी रियासतदार या राजा द्वारा किया गया आक्रमण बताया जाता है, वह भारत के एक पापिष्ठ मुस्लिम द्वारा किया गया राक्षसी आचरण मात्र है। साथ ही इन 4100 वर्षों की शान्ति को भी याद रखना चाहिए, क्योंकि इतनी लम्बी शान्ति-अवधि भारत की शक्ति का द्योतक है। वस्तुतः सिकन्दर तो कभी भारत आया ही नहीं था, अतः महमूद का राक्षसी अत्याचार महाभारत के 4100 वर्षों बाद हुआ पहला पापाचारी विस्तार है। यों यह भी विदेशी आक्रमण तो है नहीं। एक पापाचारी उन्माद मात्र है, जिसे इस्लाम की आड़ में किया गया। विश्व में तो 4100 वर्षों की इस अवधि में निरन्तर युद्ध चलते रहे थे ग्यारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भिक 20 वर्षों की लूटपाट तथ्य है, पर 160 वर्षों तक फिर किसी मुस्लिम लुटेरे की हिम्मत इधर ताकने की नहीं पड़ी , यह भी तथ्य है।
बुरी तरह हारा गोरी
गजनवी की मृत्यु के 161 वर्षों बाद 1191 ईस्वी में पुनः क्षत्रियों से मुसलमान बने वंश के आततायी मोहम्मद घोरी या गोरी ने दिल्ली और अजमेर की जागीर पर आक्रमण किया। उसे बुरी तरह हारना पड़ा।
अपने हिन्दू पूर्वजों के कुल के कलंक बने मुसलमान महमूद गजनवी के वंश का नाश हो चुका था और हिन्दू पाटनों (पठानों) के एक अन्य मुस्लिम वंशज उस पर राज्य कर रहे थे। घूर नामक एक नयी जागीर बनाकर उस पर घूरी क्षत्रियों के मुस्लिम वंशज राज्य कर रहे थे।" मुसलमान बनने पर भी इनकी क्षात्रवृत्ति बनी रही। आसपास लूटपाट करते हुए कुछ समय बाद इस घोरी जाति का मुखिया शहाबुद्दीन मोहम्मद घोरी गजनी का भी शासक बन बैठा। यह घोर या घूर गान्धार क्षेत्र में गजनी के पड़ोस की ही एक छोटी रियासत थी।
जमकर धुनाई हुई तो घोरी भागा
गजनी का स्वामित्व हथिया कर शहाबुद्दीन मोहम्मद घोरी या धूरी भी आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने लगा। पहले 1175 ईस्वी में उसने मुल्तान के भव्य सूर्यमन्दिर एवं पवित्र तीर्थस्थान को लूटा। वह पूरा हिन्दू क्षेत्र ही तब तक था।" उसके बाद उसने पड़ोस के भट्टी राजपूतों की रियासत उच्च या ऊच पर आक्रमण किया। तत्कालीन भट्टी जागीरदार का वध उसकी महत्त्वाकांक्षी रानी ने कर दिया और घूरी से संधि कर उससे अपनी बेटी ब्याह दी, क्योंकि उसकी नजर में वह उसका पुराना पड़ोसी ही था । उच्च की रानी से रिश्ता बनाकर उसका सहयोग लेकर घूरी ने पड़ोसी गुजरात के अन्हिलवाड़े पर सन् 1178 ईस्वी में आक्रमण किया, जहाँ उसकी जमकर धुनाई हुई और वह डर कर भागा, तो न उच्च में रुका, न मुलतान में, बल्कि बिल्कुल सीमान्त के क्षेत्र गजनी जाकर ही रुका। महाराज भीमदेव द्वितीय द्वारा की गई पिटाई से डरा-सहमा घूरी अगले 20 वर्षों तक गुजरात की ओर ताकने का साहस नहीं जुटा सका।
दुबारा हारा गोरी, अगली बार जीता
भीषण पराजय के 14 वर्षों बाद 1191 ईस्वी में उसने दिल्ली-अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया और हार कर वहाँ से भी फिर भाग खड़ा हुआ !* परन्तु शक्ति संग्रह कर अगले वर्ष पुनः उसने उसी तराइन में युद्ध किया और पृथ्वीराज चौहान को पराजित करने में सफल हो गया, थोड़े समय बाद हिन्दुओं ने अजमेर को मुसलमानों से पुनः जीत लिया।
दिदी-विजय भारत-विजय नहीं है
जैसा ऊपर कह आए हैं, वैदिक काल से 19वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक कभी भी दिल्ली भारतवर्ष की राजधानी नहीं रही थी और न ही किसी बहुत बड़े चक्रवर्ती सम्राट की ही यह राजधानी थी। नंदों और मौयों की राजधानी पाटलिपुत्र श्री महान गुप्त वंश की राजधानी पाटलिपुत्र ही थी विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी थी। राजा भोज की राजधानी धार थी शुगों की राजधानी भी पाटलिपुत्र ही थी। सातवाहनों की राजधानी गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान या पैठन थी। राष्ट्रकूटों की राजधानी नासिक थी। खारवेलों की राजधानी पुरी थी चालुक्यों की राजधानी वातापी थी चोलों की राजधानी उरगपुर या उदपूर और कावेरीपत्तनम थी। पाण्डों की राजधानी मदुरा थी। सम्राट हर्षवर्द्धन की राजधानी थानेश्वर और कन्नौज थी। कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। तोमरों की राजधानी अवश्य पहली बार 11वीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली बनी, परन्तु तोमर भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट कभी भी नहीं थे। वे अनेक राजपूत वंशों में से एक थे। दिल्ली को लगभग आधे भारत की राजधानी तो 1912 ईस्वी में अंग्रेजों ने पहली बार बनाया। 15 अगस्त, 1947 को वह खण्डित भारत राज्य की राजधानी पहली बार बनी। पाकिस्तान वाले हिस्से की राजधानी उस दिन करांची बनी।
शेष भारत में थे विशाल हिन्दू राज्य
शहाबुद्दीन मोहम्मद घूरी या धोरी द्वारा दिल्ली अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान पर विजय का अर्थ भारत विजय किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसी समय चोलों, चालुक्यों, पालों, होयसलों, सेन वंश तथा राजपूत के अनेक वंशों के बड़े राज्य भारतवर्ष में फल-फूल रहे थे और गुजरात में ही वे महान राजा भीमदेव द्वितीय राज्य कर रहे थे, जिन्होंने तराइन युद्ध के कुछ वर्षों पूर्व ही शहाबुद्दीन मोहम्मद घूरी को बुरी तरह हराया था।" अपने पाप परायण स्वभाव के अनुरूप घूरी या घोरी ने दिल्ली की भयंकर लूटपाट की और वहाँ से माले गनीमा यानी लूट का माल बटोरा और अपने एक मनपसन्द गुलाम को दिल्ली की जागीर पर बैठाकर सारा माल असबाब लेकर गजनी लौटा। परन्तु रास्ते में ही पंजाब के गक्खर क्षत्रियों ने दिन दहाड़े तम्बू में घुसकर उसे मार डाला थोड़े समय बाद मुसलमानों को हटाकर अजमेर पर हिन्दुओं ने पुनः अधिकार कर लिया।
यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रत्यक्ष हैं, जिन पर मनन आवश्यक है। 1179 ईस्वी में गोरी या घूरी ने गजनवियों के एक दीवान से पेशावर छीना समरकंद, खुरासान आदि में मुसलमान जागीरदारों से उसके युद्ध हुए। समरकंद में वह बुरी तरह पिटा और बंदी बना भारी रकम देकर छूटा। स्वयं उसके राज्य के बिरका जैसे उसके सेनापतियों ने और स्वयं पूरी के गुलामों ने उसके विरुद्ध युद्ध किये। गक्खरों से युद्ध में काश्मीर नरेश चक्रदेव ने घूरी की मदद की। अन्य कई हिन्दू नरेशों ने भी उसकी मदद की। तब यह युद्ध हिन्दुत्व और इस्लाम का कहाँ से कहा जाएगा? स्पष्ट है कि तत्कालीन राजा भूरी को अपने जैस ही एक जागीरदार या राजा मान रहे थे। भूरी ने खुले तौर पर हिन्दुत्व के विरुद्ध युद्ध कभी भी घोषित नहीं किया। दूसरी ओर, मौका पाते ही, हिन्दू धर्म का विनाश करने को ये सभी मुस्लिम जागीरदार और नवाब वगैरह उन्मत्त रहते इस प्रकार ऐसे सब लोग कृतन, अनैतिक चरित्रहीन, दोमुँह छली और विश्वासघाती तो कहे जाएँगे, पर हिन्दुत्व से खुले युद्ध का साहस कभी भी इन्होंने नहीं किया, अतः कायर और कमजोर भी कहे जाएँगे। इससे यह निष्कर्ष तो निकला है कि इस्लाम का नाम लेकर सार्वभौम नैतिक आचरण आज तक देखने को नहीं मिला। अतः हिन्दू ऐसे मामलों में उन पर कभी विश्वास नहीं कर सकते करना नहीं चाहिए। पर इसमें हीनता तो इस्लाम की है। हिन्दू समाज की निन्दा का इसमें से कोई बिन्दु नहीं उभरता ।
गुलाम तक ने कुछ नहीं गुना गोरी को
अपने जिस गुलाम को घूरी या घोरी दिल्ली में बैठा गया, उस गुलाम ने अगले ही वर्ष खुद को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया। उधर 1202 ईस्वी में एक गुलाम ने स्वयं गजनी उससे छीन ली थी। भारतीय सैनिकों की सहायता से ही उसे गजनी वापस मिली। अतः भारतीयों की वीरता असंदिग्ध है। मुस्लिम शासकों या सेनापतियों की नैतिकता अवश्य संदिग्ध है। गजनी हो या घूरी वे जितनी बार जीते, उससे अधिक बार हारे। अपवाद केवल उनकी बर्बरता है। शक्ति तो उनकी सामान्य ही है। चाटुकारों का गायन अलग बात है। अगले वर्ष दिल्ली का शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बन गया " यह अवश्य है कि अगले वर्ष पुनः घोरी ने कन्नौज के राजा जयचन्द पर चढ़ाई की और चंदावर की लड़ाई में उनको हरा कर मार डाला । परन्तु कन्नौज से भी लूट का माल लेकर मोहम्मद घूरी गजनी ही भाग गया। उस गजनी, जिसे भारत पर निरन्तर आक्रमण के प्रचारक इतिहासकार भारत से बाहर का एक देश बताते हैं। घूरी या घोरी ने न तो कभी दिल्ली पर स्वयं राज्य किया और न ही कन्नौज पर भूरी कभी भी सर्वस्वीकृत राजा नहीं बना उसके गुलाम और अधीनस्थ उससे युद्ध तथा दगा करते रहे। उस अर्थ में वह एक व्यवस्थित राजा नहीं कहा जाएगा। लुटेरों- आततायियों का अगुआ ही कहा जाएगा।
1192 ईस्वी में बुरी तरह हारा पूरी गिरोह
1192 ईस्वी में पूरी और कुतुबुद्दीन की संयुक्त सेनाओं को हिन्दू राजाओं की संयुक्त सेना ने भलीभाँति पराजित किया और पीटा। भूरी और ऐबक दोनों घायल हुए। भागे अजमेर क्षेत्र में जा लिये। फिर लौट गए।
शुरू में कन्नौज पर भी कुतुबुद्दीन ने ही राज्य किया। शीघ्र ही कन्नौज का राज्य स्वयं कुतुबुद्दीन ने अन्य मुसलमान रिश्तेदारों को दे दिया।" कुतुबुद्दीन भी अरब नहीं था, अपितु वृहत्तर भारत के एक क्षेत्र का मूल निवासी था और पारसीक तथा गान्धार क्षेत्र में इस्लाम के फैलाव के समय उसके पूर्वज मुसलमान बने थे। कुतुबुद्दीन ऐवक ने 1193 ईस्वी से 1203 ईस्वी तक लगातार कमीज, ग्वालियर और कालिंजर के हिन्दू शासकों से युद्ध किया। इस बीच अजमेर पर पुनः हिन्दुओं ने अधिकार कर लिया था। अतः कुतुबुद्दीन ने अजमेर के हिन्दू शासक से भी लड़ाई लड़ी और दिल्ली का वास्तविक शासक वह केवल 1206 ईस्वी से 1210 ईस्वी तक लगभग चार वर्ष ही रह सका।" मुसलमान लुटेरों की ही परम्परा का पालन करते हुए उसने मेहरौली की प्रसिद्ध वेधशाला में मीनार खड़ी कर दी और वहाँ के मन्दिरों में तोड़- फोड़ के द्वारा थोड़ा बदलाव लाकर उन मन्दिरों को मस्जिद और वेधशाला को कुतुबमीनार का नाम दे दिया। किसी मौलिक निर्माण के लिए उसके पास वक्त ही कभी नहीं था। कुतुबमीनार नाम आज भी जारी रखना तो धींगामुश्ती है
13वीं शती में पूर्व हिन्दू रहे गुलामों ने जबरन बढ़ाई मुस्लिम आबादी पहली बार
समलैंगिक यौनाचार के व्यसन के अभ्यस्त मुस्लिम जागीरदारों की परम्परा में ही कुतुबुद्दीन ने कई गुलाम अपने मनोरंजन और सेवा के लिए पाले और इनमें से गान्धार के हिन्दू पूर्वजों की संतति एक खूबसूरत गुलाम अल्तमश या इल्तुतमिश ने उसका मन इतना मोह लिया कि उसने अपना उत्तराधिकारी उसे ही घोषित कर दिया और अपनी बेटी भी उसे ब्याह दी। ये गुलाम हिन्दुओं से बलपूर्वक मुसलमान बनाए गए कुलों के थे। इनकी कुल स्मृति सजीव थी और चित्त में देश था। अतः इन्होंने अवसर पाते ही हर हथकण्डे के द्वारा हिन्दुओं को अपने जैसा मुसलमान बनाना शुरू किया। इसके लिए बहुत अत्याचार किए। 13वीं शती ईस्वी में पहली बार भारत में मुस्लिम आबादी कुल 2 लाख से बढ़कर लगभग 15 लाख हो गई। साढ़े छः सौ प्रतिशत की वृद्धि ।
मुसलमान जागीरदारों की करतूतें
कुछ ही दिनों के भीतर सिन्ध के जागीरदार कवाचा ने, जिसके पूर्वज स्वयं हिन्दू से मुसलमान बने थे, स्वयं को सिन्ध का शासक घोषित कर दिया और पंजाब पर भी अपना हक़ जताने लगा। उधर अलीमदन नामक एक जागीरदार ने 1206 ईस्वी में ही खुद को सुल्तान घोषित कर दिया। इस बीच ग्वालियर और रणथम्भौर के हिन्दू राजाओं ने फिर से अपने-अपने राज्यों को अपने नियंत्रण में ले लिया।" गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक के गुलाम इस्तुतमिश का विरोध खुद दिल्ली में कई मुसलमान अमीर करने लगे, जिनसे दिल्ली के पास इल्तुतमिश को लड़ाई लड़नी पड़ी तराइन में 1216 में एक अन्य युद्ध इल्तुतमिश को अपने विरोधी मुसलमान जागीरदार से लड़ना पड़ा और कवाचा से लाहौर में लड़ना पड़ा। कबाचा को इल्तुतमिश ने सिन्ध नदी में जिन्दा डुबो दिया 1226 ईस्वी में इल्तुतमिश का रणथम्भौर के हिन्दू राजा से युद्ध हुआ और कुछ समय बाद ग्वालियर के राजा से 1234 ईस्वी में इल्तुतमिश ने मालवा के हिन्दू शासक से भेलसा या विदिशा में युद्ध किया।" इसके बाद इल्तुतमिश ने उज्जैन के प्रसिद्ध नगर को लूटा। जब इल्तुतमिश ने सिन्ध नदी के मुहाने पर बसे शहर बानियान पर आक्रमण किया, तब उस अभियान में ही इल्तुतमिश बीमार पड़ गया और 1236 ईस्वी में वह मर गया। दिल्ली जागीर पर तमाम विरोधों के बावजूद उसने 26 वर्षों तक शासन किया, परन्तु ग्वालियर के राजा मंगलदेव को वह 1232 ईस्वी में ही हरा पाया और वहाँ उसका शासन केवल चार वर्षों तक ही रहा।" उसी प्रकार, मालवा में उसका शासन केवल कुछ महीने ही रहा। वह मुख्यतः दिल्ली का जागीरदार रहा।
चिनगिज हान से डर गया इल्तुतमिश
महान मंगोल सम्राट चिनगिज हान तेमोचीन इल्तुतमिश पर 1221 ईस्वी में आक्रमण करने ही वाला था कि इल्तुतमिश ने डर कर कीव (अफगानिस्तान) के शाह को शरण देने से इंकार कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर चिनगिज हान लौट गये गुलामवंशी इल्तुतमिश का बड़ा बेटा नसीरुद्दीन महमूद बंगाल की एक छोटी जागीर में नवाबी करने भेजा गया था, परन्तु अप्रैल 1129 ईस्वी में वह मर गया जिसके कारण इल्तुतमिश ने अपनी बेटी रशिया को दिल्ली जागीर की गद्दी सौंपी, परन्तु मुस्लिम अमीरों ने औरत के सामने सिर झुकाना कबूल नहीं किया। रजिया के विरुद्ध विद्रोह भड़कते रहे, परन्तु उसने अपने एक ताकतवर अफ्रीकी हब्शी गुलाम याकूत से शादी कर ली चार वर्ष तक (1236-1240 ) रशिया गद्दी पर रही। फिर अमीरों ने रजिया और उसके गुलाम पति दोनों का क़त्ल कर डाला । अफ्रीका में मुसलमान लोग गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक गुलाम बनाते थे गुलामवंशी रजिया को अफ्रीकी से इसीलिए प्रेम हो गया दोनों की पीड़ा एक थी।
केवल दिल्ली जागीर तक सीमित शासन
रजिया के कत्ल के बाद 6 वर्ष तक दिल्ली जागीर में भारी अराजकता रही इस बीच दिल्ली इलाके में जिन हिन्दू रियासतों पर मुस्लिम गुलामों, अमीरों एवं लड़ाकुओं ने कब्जा किया था, उनमें से अधिकांश पर हिन्दुओं ने पुनः अपना राज्य लड़ कर प्राप्त कर लिया। इससे घबराकर अमीरों ने गुलाम इल्तुतमिश के छोटे बेटे नासिरुद्दीन महमूद को 10 जून, 1246 को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया वह 20 वर्षों तक दिल्ली में गद्दी पर रहा। परन्तु उसका शासन केवल दिल्ली रियासत तक था ।" राजपूताना, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड सम्पूर्ण बंगाल, बिहार, विदिशा, उज्जयिनी, चन्देरी, धार और सम्पूर्ण दक्षिण भारत में उन दिनों हिन्दुओं का ही राज्य था
1266 ईस्वी को इल्तुतमिश के दामाद नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई तब तक गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुतमिश द्वारा दिल्ली के बाजार से खरीदा गया एक पुराने पाटण हिन्दूवंश का गुलाम अपने कौशल से ताकतवर बन चुका था। दामाद के मरते ही गुलाम बलबन या बालिन् गद्दी पर बैठ गया और गयासुद्दीन सुल्तान की उपाधि धारण की ।" बलबन वस्तुतः वृहत्तर भारत के गान्धार से सटे क्षेत्र का था, जिसे मंगोल लोग पकड़कर ले गये थे। मंगोलों से उसे जमालुद्दीन ख्वाजा ने अपने शौक के लिए खरीदा। जमालुद्दीन से दिल्ली के बाज़ार में उसे इल्तुतमिश ने खरीदा था। इस प्रकार वह दिल्ली के बाजार में खरीदा गया खूबसूरत युवा गुलाम था और सनातनधर्मी पूर्वजों का वंशज था। इल्तुतमिश ने उसे अपना खासदार (खिदमतगाह) तैनात किया। रूप- गुणों द्वारा खिदमत करते-करते वह शासक बनने में सफल रहा। उसके गद्दी पर बैठते ही उसकी दिल्ली के उन अमीरों से ठन गई, जो खुद को तुर्की मूल का अत्यन्त श्रेष्ठ बताते थे। बलबन या बालिन् ने फौज़ को मजबूत बनाकर उन अमीरों को कुचला। फिर अलवर राज्य के मेवाती राजपूतों से उसका युद्ध हुआ। फिर उसकी मध्य उत्तरप्रदेश के शासकों से लड़ाई हुई और विन्ध्य के वनवासी समूहों से भी। गंगा-यमुना के दोआब में उसे हिन्दू राजाओं से अनेक लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं।" मेवातियों, दोआबा के राजपूतों, विन्ध्य क्षेत्र और बंगाल के राजाओं सभी ने बलबन या बालिन् को लगातार युद्ध के लिए विवश किया।
महान मंगोलों की विजय यात्रा करोड़ों मुसलमानों का सफाया
इसी बीच रूस, पोलैण्ड, रोमन साम्राज्य, हंगरी, ज्यार्जिया, तुर्की, पारसीक राज्य को रौंदती सनातनधर्मी मंगोल सेनाएँ काबुल तक आ धमक मंगोलों ने लाखों ईसाइयों एवं मुसलमानों का वध किया तथा स्पेन से गान्धार तक अपनी धमक पैदा कर दी " महान बौद्ध मंगोल सम्राट कुबलय हान (कुबलाई खान) की सेनाएँ बुखारा को रौंदती हुई काराकोरम दरें और उत्तर-पश्चिमी सीमान्त तक आ गई। उधर बंगाल के स्थानीय शासकों ने अपनी प्रभुसत्ता स्वतंत्र घोषित कर दी।" बलबन ने अमीन खाँ को बंगाल भेजा, पर वह वहाँ हार गया। क्रुद्ध बलबन ने अमीन ख़ाँ को फाँसी की सजा दी और उसका सर काटकर दिल्ली गेट पर टांग दिया गया ।" बलवन ने तिरमित को सेनापति बनाकर भेजा। वह भी हार गया ।" तब बलबन खुद बंगाल गया और बेटे बुगरा को साथ लिया। स्थानीय शासकों को हराकर वह 1280 ईस्वी में लौटा। एक वर्ष के भीतर ही बंगाल में पुनः हिन्दू राजा सुदृढ़ हो गये। लौटते ही तैमूर की सेनाओं से पंजाब में टकराना पड़ा। बलबन ने दूसरे बेटे मुहम्मद को लड़ने भेजा अन्ततः 9 मार्च, 1285 ईस्वी को मंगोलों ने मुहम्मद को मार डाला " मुसलमान दरबारियों ने मुहम्मद को शहीद कहा। बेटे की मौत से 80 वर्षीय बलबन टूट गया 20 वर्षों में एक दिन भी वह दिये जागीर की गद्दी पर चैन से बैठ नहीं सका था। 1287 ईस्वी में बलबन की मृत्यु हो गई। बलबन का पूरा समय लड़ते और संधियाँ करते या हारते ही बीता।" उसे भारत के श्रेष्ठ राजाओं से निरन्तर बुद्ध करना पड़ा। उसे भारत का शासक केवल मूर्ख व्यक्ति ही कह सकते हैं। अधिकांश भारत में तब हिन्दू शासन था।
अपने जीजा के वंश का वंशनाशक अलाउद्दीन
इसके बाद दिल्ली जागीर की गद्दी पर 18 साल का लड़का मुहजुद्दीन कैकाबाद बैठा, जो बलबन के बेटे बगरा ख़ाँ का बेटा था। दो वर्षों में ही उसकी हत्या कर जलालुद्दीन फिरूज ने उसकी लाश यमुना नदी में बहा दी जलालुद्दीन फिरून भी गान्धार क्षेत्र का मुसलमान था, जिसके पूर्वज थोड़े ही समय पूर्व हिन्दू थे। दिल्ली के अमीरों ने जलालुद्दीन फिरूज का तगड़ा विरोध किया, तो उसे किलेखरी रियासत में ही रहना पड़ा। फिर अमीरों को जमीन और जागीर तोहफे में देकर 70 वर्षीय जलालुद्दीन ने खिलजी की उपाधि धारण की और दिल्ली रियासत की गद्दी पर बैठा उसे लगातार संधियाँ और समझौते करने पड़े। पाँच वर्ष संधियाँ, सुलह समझौते कर बीत गए। इसी बीच उसके भतीजे अलाउद्दीन ने, जो कड़ा (इलाहाबाद) में एक जागीरदार बनाया गया था, फौज इकट्ठी कर चाचा की हत्या कर दी ।" चचेरे भाइयों को भी मार डाला और खुद 1296 ईस्वी में दिल्ली जागीर की गद्दी पर बैठ गया। 100 इसी बीच मंगोलों ने पुनः आक्रमण किया। लूटपाट कर वे दिल्ली के पास ही बस गये थे। जलालुद्दीन ने उनके मुखिया को अपनी बेटी ब्याह दी थी और इन्द्रप्रस्थ, गियासपुर तथा किलखड़ी के महल दहेज में दिए थे। अलाउद्दीन ने अपने इस जीजा के सम्पूर्ण वंश की छल से हत्या कर दी ।
अलाउद्दीन के समय भारत हिन्दू शासकों से शासित रहा
रिश्तेदारों का हत्यारा अलाउद्दीन जब दिल्ली जागीर की गद्दी पर बैठा, तब सम्पूर्ण राजपूताने, गुजरात, मालवा, उज्जैन, धार, माण्डू चन्देरी, देवगिरि, आदि पर हिन्दुओं का ही शासन था। 17 वर्षों तक अलाउद्दीन लगातार इन सब स्थानों के "हिन्दुओं से लड़ता रहा। अन्तिम 3 वर्षों में उसे दक्षिण भारत में कुछ हिन्दू राजाओं से वार्षिक नजराना पाने की हैसियत में आने में कुछ सफलता मिली। वह भारत का शासक एक दिन भी नहीं रह पाया। वह भारत का शासक बनता तो एक भी व्यक्ति हिन्दू नहीं रह पाता।
बहुत बड़े इलाके में था हिन्दू शासन
अलाउद्दीन के समय उसके राज्य से बहुत अधिक बड़े इलाके में हिन्दुओं का शासन था। केवल 3 वर्ष अलाउद्दीन का राज्य बड़ा रह पाया। इस काल में देश में अधिकांशतः हिन्दू राज्य रहे दक्षिण में पाण्ड्य, चोल, चेर, चालुक्य, राष्ट्रकू व सातवाहनों का काल था वह
मेगस्थनीज चौथी शताब्दी ईसापूर्व में जब भारत आया था, तब उसने पाण्ड्य देश का नाम सुना था और 'इंडिका' में उल्लेख किया था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि, 'हरिकृष्ण की पुत्री से पाण्ड्यों का वंश चला है। सर्वविदित है कि पाण्ड्य देश में मातृसत्तात्मक व्यवस्था शताब्दियों रही है। कन्याकुमारी से त्रावणकोर तक तथा उत्तर में कोयम्बटूर से नागपट्टनम् तक (लगभग सम्पूर्ण केरल व तमिलनाडु) पाण्ड्य देश था। बाद में पेरिप्लस (लगभग 80 ईस्वी) और टालमी (140 ईस्वी) ने भी पाण्ड्य देश की सम्पन्नता का अपने यात्रा वृत्तान्तों में उल्लेख किया। मानगुड़ी किलारमरुदन तथा नक्कीगर नामक दो तमिल महाकवियों ने मजेलियन का पण्ड्य राजा के रूप में गौरवगान किया है। 'पुत्रपात्तु' तमिल का अत्यन्त प्रसिद्ध महाकाव्य है, जो इन पांड्य नरेश के बारे में है।" चीनी यात्री युआनच्वांग ने सातवीं शताब्दी के अपने यात्रा वृत्तान्त में भी पाण्ड्य राजाओं का उल्लेख किया है। 863 ईस्वी तक पाण्ड्य नरेश अत्यन्त प्रभुतासम्पन्न रहे परन्तु उसके बाद वे पल्लवों और चोलों की अधीनता में रहे। 11वीं शताब्दी ईस्वी से 16वीं शताब्दी ईस्वी तक पाण्ड्य राजाओं ने ही वेवर नदी के दक्षिणी हिस्से से केपकामोरिन तक और पूर्व में कोरोमंडल तट से लेकर त्रावणकोर रियासत के सम्पूर्ण क्षेत्र पर राज्य किया। 5 14वीं शताब्दी में कुछ समय के लिए अवश्य पाण्ड्यों ने अलाउद्दीन खिलजी से संधि कर उसे नियमित वार्षिक नजराना देना शुरू किया।" 14वीं शताब्दी में ही लगभग 38 वर्षों तक पाण्ड्यों के एक हिस्से में एक मुस्लिम सूवेदार ने अपना हुक्म चलाया और फिर पाण्ड्य विजयनगर साम्राज्य के अधीन हो गए।" इस प्रकार, छोटे से अन्तराल को छोड़कर इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर 16वीं शताब्दी के मध्य तक हिन्दुओं का ही राज्य रहा।" बाद में भी बड़े हिस्से में हिन्दू शासन बना रहा।
पाण्ड्यों, पाइयों, चोलों का गौरवशाली काल
पूर्व में बतलाया जा चुका है कि पाण्डयों और पत्रों ने वर्तमान तमिलनाडु के बड़े हिस्से पर कई शताब्दियों तक राज्य किया। विशेषकर जिसे भारत का मुस्लिम काल बताया जाता है, उस अवधि के प्रारम्भिक वर्षों में इस क्षेत्र में पहले पाण्डयों, फिर पाइयों और फिर चेरों, चालुक्यों, चोलों और राष्ट्रकूटों का राज्य रहा। उन ऐतिहासिक तथ्यों को अनदेखा करना इतिहास का उपहास होगा। मुस्लिम काल बताई जाने वाली अवधि में हुए प्रमुख पाण्ड्य राजाओं के नाम और शासन की अवधि निम्नांकित है-
द्वितीय परमेश्वर वर्मन (728-731 ई.), नंदिवर्मन द्वितीय (731-796 ई.), दंतिवर्मन (796-847 ई.), नंदिवर्मन तृतीय (847-862 ई.) बीच की कुछ अवधि पल्लवों की अधीनता में रहने के बाद 13वीं शताब्दी ईस्वी से के वैभव का वर्णन मिलता है- पुनः पाण्डयों
मारवर्मन सुन्द्र पाण्ड्य प्रथम (1216-1237 ई.), मारवर्मन सुन्द्र द्वितीय पाण्ड्य (1238-1251 ई.), जातवर्मन सुन्द्र पाण्ड्य प्रथम (1251-1268 ई.), मारवर्मन कुलशेखर (1268-1308 ई.)। मारवर्मन कुलशेखर के समय ही मार्कोपोलो पाण्ड्य राज्य में आया था और उसने वहाँ की समृद्धि और सुशासन की अतिशय प्रशंसा की। मारवर्मन कुलशेखर के बाद सुन्दर पाण्ड्य और वीर पाण्ड्य में आपसी कलह शुरू हो गई और सुन्दर पाण्ड्य ने अलाउद्दीन खिलजी को सन्देश भेजकर मलिक काफूर को वीर पाण्ड्य पर आक्रमण के लिए बुलाया था। इस कलह का लाभ उठाकर चेर राजा रविवर्मन ने 1315 ईस्वी में पाण्ड्य क्षेत्र के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया।
पल्लवों ने उड़ीसा से पेन्नार नदी तक के हिस्से पर ईस्वी सन् की पहली शताब्दी के पूर्व से ही अपना प्रभाव फैलाया था। पल्लव वंश के संस्थापक का समय निर्विवाद नहीं है। परन्तु इस वंश के चौथे प्रतापी राजा सिंहपोत ने धर्वी शताब्दी ईस्वी के मध्य में अपना राज्य वैभव चारों ओर फैलाया। उसके पौत्र पलाल चोल नोलंब प्रथम ने 9वीं शताब्दी ईस्वी में अपने राज्य में अनेक सुन्दर शिव मन्दिर बनवाए। महेन्द्र प्रथम ने उनका उत्तराधिकार सँभाला और यह परम्परा जारी रखी। अन्य प्रमुख पल्लव राजा और उनका शासनकाल निम्नांकित है-
विष्णु गोप (16वीं शती ईस्वी), सिंह विष्णु (छठी शती ई.), महेन्द्र वर्मा प्रथम (सातवीं शती ई.), महेन्द्र वर्मा प्रथम (सातवी शती ई. पूर्वार्ध), नरसिंह वर्मा प्रथम (सातवीं शती ई. मध्य), अयप्प देव (909-925 ई.), अन्यगा (925-940 ई.), एकवाक (940-967 ई.), नन्यनोलंब (967-970 ई.), पाल चोल द्वितीय (976-980 ई.), वाल्यदेव (980-1005 ई.), इरिवनोलंब (1005-1025 ई.), उदय आदित्य (1025-1039 ई.), त्रैलोक्यमल्ल नैन्यनोलंब (1039-1049 ई.) (दक्षिणी पूर्वी तमिलनाडु में पहली शताब्दी ईस्वी से बहुत पहले से पोलों का राज्य था। अशोक के अभिलेख में चोल राज्य का उल्लेख है। तथाकथित मुस्लिम काल बताई जाने वाली अवधि में हुए प्रसिद्ध चोल राजा निम्नांकित हैं- विजयालय (850-871 ई.), आदित्य (871-907 ई.), परान्तक प्रथम (907-947 ई.), गान्धारादित्य (947-957 ई.), परान्तक द्वितीय (957-973 ई.), मदुरान्तक उत्तम (973-985 ई.), राजराज प्रथम (9851016 ई.), राजेन्द्रदेव प्रथम (1016 1044 ई.), राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.), राजेन्द्रदेव द्वितीय (1054- 1064 ई.), वीर राजेन्द्र (1064-1069 ई.), अधिराजेन्द्र (1069-1070 ई.), राजेन्द्र तृतीय कुलातुंग (1070-1122 ई.), विक्रम चोल (1122-1135 ई.), कुलोतुंग द्वितीय (1135-1150 ई.), राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.), राजाधिराज द्वितीय (1173-1179 ई.), कुलोत्तुंग तृतीय ( 1179-1218 ई.), राजराज तृतीय (1218- 1248 ई.) और राजेन्द्र चतुर्थ (1246-1279 ई.) ।
चोलों ने अपने राज्यकाल में अनेक महान निर्माण कराये, जैसे कावेरी नदी के किनारे सौ मील लम्बे बाँध का निर्माण, तंजौर के राजराजेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण 10वीं शताब्दी ईस्वी में कराया 11वीं शताब्दी ईस्वी में अनेक विशाल मन्दिर बनवाये और गंगैकोंड में एक विशाल कृत्रिम झील बनवायी, जिस पर 15 मील लम्बा तटबंध था। मदुरै, श्रीरंगम्, कुभकोणम्, रामेश्वरम् आदि में अनेकों भव्य मन्दिर और सर्वाग सुन्दर मूर्तियाँ चोल कला और चोल वास्तुकला के अनूठे उदाहरण हैं। विशालगोपुरम् और अधिष्ठान पीठ से शीर्ष बिन्दु तक भव्य प्रतिमा अलंकरण इन मन्दिरों की प्रसिद्ध विशेषता है।
श्रेष्ठ शासनतंत्र
चोल प्रशासनतंत्र अपनी सुव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध रहा है। चोल राज्य छः मण्डलों में विभक्त था, जिनमें से प्रत्येक को चोलमण्डलम् कहते थे। प्रत्येक मण्डलम् के अन्तर्गत अनेक कोट्टम (संभाग) और प्रत्येक कोट्टम के अन्तर्गत अनेक नाडु (जिले) होते थे। नाडु में कुर्रम (ग्राम समूह) और ग्राम होते थे। गाँवों की महासभा के पास प्रचुर अधिकार थे और गाँवों के सभी वयस्क निवासी नियमतः प्रतिवर्ष महासभा के लिए सदस्य चुनते थे। प्रत्येक ग्राम सभा के अपने कोषागार थे। चोल राजाओं के पास विशाल थल सेना तो थी ही, सुदृढ़ नौसेना और जहाजी बेड़े भी थे बोलों का अन्तराष्ट्रीय व्यापार प्रसिद्ध था सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाएँ और प्रशस्त सड़कों का निर्माण चोल राज्य की सामान्य विशेषताएँ थीं।
राष्ट्रकूटों का वैभव
दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में शताब्दियों तक शासन करने वाला एक अन्य प्रसिद्ध राजवंश है राष्ट्रकूट वंश 736 ईस्वी में दंतिदुर्ग नामक राष्ट्रकूट राजा की राजधानी नासिक थी। बाद के राष्ट्रकूट राजाओं ने मान्यखेत (मालखण्ड) को राजधानी बनाया। 10वीं शताब्दी ईस्वी तक इसके अनेक प्रतापी राजा हुए. मुख्य हैं- जिनमें मुख हैं- कृष्ण प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय, गोविन्द द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ, अमोघवर्ष प्रथम एवं द्वितीय आदि। बाद में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु भारतीय परम्परा में ऐसी पराधीनता का वस्तुतः केवल प्रतीकात्मक अर्थ होता था, क्योंकि सम्मान प्रकट करना और वार्षिक भेंट देना भी इसमें मुख्य था। अतः अधीन रहकर भी अपने क्षेत्र के वास्तविक शासक वे ही बने रहते थे।
प्रतापी चालुक्य
दक्षिण भारत का एक अन्य प्रमुख राजवंश था चालुक्य वंश, जो ईसा की आरम्भिक शताब्दी से ही प्रसिद्ध था, परन्तु छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य में हुए पुलकेशिन प्रथम एक अत्यन्त प्रतापी चालुक्य राजा हुए। इस वंश के वैभव और गौरव पर विगत अध्याय में विचार हो चुका है। पुलकेशिन प्रथम की राजधानी वातापी थी और उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। उनके वंश में कीर्तिवर्मा प्रथम एवं द्वितीय, विक्रमादित्य प्रथम एवं द्वितीय, पुलकेशिन द्वितीय, विनयादित्य और विजयादित्य प्रमुख राजा हुए। पुलकेशिन द्वितीय का राज्य नर्मदा से कावेरी तक था। चालुक्य नरेश विजयादित्य ने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया और इस वंश का राज्य 13वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक रहा। चालुक्य राजाओं ने अनेक विशाल हिन्दू मन्दिरों का निर्माण कराया। पुलकेशिन द्वितीय के भाई विष्णुवर्धन कुब्ज ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य में वेंगी राज्य की स्थापना की और ये लोग वेंगी के चालुक्य कहलाए। बताया जा चुका है कि इस वंश में 27 प्रतापी शासक हुए और 13वीं शताब्दी ईस्वी में चोल नरेश राजेन्द्र चतुर्थ की पुत्री से चालुक्य नरेश राजेन्द्र का विवाह हुआ। इस प्रकार 13वीं शताब्दी ईस्वी के अन्त तक चालुक्य वंश का शासन विशाल क्षेत्र में चलता रहा।
कल्याणी के चालुक्यों की एक अलग ही शाखा चली, जिसके संस्थापक तैलव थे।" इस वंश ने भी 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक शासन किया। इस प्रकार सातवीं से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी को भी मुस्लिम काल ही गिनाने वाले लोग यदि देशद्रोही नहीं हैं तो झूठे यानी सत्यग्राही अवश्य हैं।
महान कलचुरियों का 1000 वर्षों तक शासन
कर्नाटक में कलचुरियों ने लगभग 150 वर्षों तक शासन किया। कलचुरि नरेश उचित ने 925-950 ईस्वी तक शोलापुर और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में राज्य किया। इनका अन्तिम प्रतापी राजा विज्जाल था, जो 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। ग्यारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भ के परम प्रतापी कलचुरि नरेश गांगेयदेव ने अपने विक्रम से विक्रमादित्य की उपाधि अर्जित की थी। महाकौशल, मालवा और उत्तरी महाराष्ट्र में तो तीसरी शती ईस्वी से 12वीं शती ईस्वी तक एक हज़ार वर्षों तक कल्चुरियों ने राज्य किया। कलचुरि नरेश कर्णदेव ने प्रतापी मालव नरेश भोजराज को भी हरा दिया था। बाद में चन्देलों से वे हारे ।" विन्ध्य क्षेत्र के एक हिस्से में भी कल्चुरियों का शताब्दियों राज्य रहा। उत्तरप्रदेश एवं बिहार के भी थोड़े हिस्सों में वे कुछ समय शासक रहे थे।
400 वर्षो तक रहे होयसल
कर्नाटक में ही 11वीं से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक होयसलों का राज्य रहा। होयसलों ने 11वीं शताब्दी में धारा के परमार नरेश पर आक्रमण किया था, जिसका बदला लेने के लिए परमारों ने कुछ समय बाद उन पर आक्रमण किया, परन्तु होयसल नरेश द्वारा वह आक्रमण विफल कर दिया गया।" प्रथम होयसल नरेश थे नृपकाम, - जिन्होंने 1022-1047 ईस्वी तक राज्य किया।" होयसल वंश में बल्लाल प्रथम, विष्णुवर्धन, नरसिंह प्रथम, बाल द्वितीय, नरसिंह द्वितीय, सोमेश्वर प्रथम तथा नरसिंह तृतीय एवं चतुर्थ प्रतापी राजा हुए। 14वीं शताब्दी ईस्वी में मालिक काफूर ने होयसलों पर आक्रमण किया और हार गया। तब राजा बलात से काफूर ने 14 दिन के युद्धविराम का प्रस्ताव किया, जिसे बल्ल मान गए।" होयसलों ने युद्धविराम का सच्चाई से पालन किया, परन्तु मुस्लिम सेनापति काफूर ने वचन भंग किया और वंचना की तथा छलघात से आक्रमण कर दिया। उन्होंने बल्लाल की हत्या कर डाली और उनकी खाल में भूसी भर कर चौराहे पर टाँग दिया। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी का इस इलाके में बहुत थोड़े समय तक कब्जा रह सका। बाद में यह क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य में मिल गया। * होयसल साम्राज्य की लूट से अलाउद्दीन खिलजी ने अपना खजाना अवश्य भरा परन्तु इस विजय के अगले ही वर्ष से वह भयंकर बीमार पड़ गया, उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया और वह हरेक पर शंका करने लगा। तीन वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई।" इस प्रकार, वस्तुतः होयसलों के राज्य में मुस्लिम शासन एक दिन के लिए भी नहीं रहा। यद्यपि प्रतीकात्मक रूप से वह तीन वर्षों तक वहाँ से नजराना पाता रहा।
प्रतापी गंग वंश
दूसरी शताब्दी ईस्वी से 11वीं शताब्दी ईस्वी तक मैसूर राज्य और उड़ीसा में गंगवंशीय राजाओं का राज्य रहा। 5110वीं शताब्दी में गंग नरेश राजामल्ल चतुर्थ के मंत्री चामुंडराय ने श्रवणबेलगोला में भगवान गोमटेश्वर की साढ़े 56 फुट ऊँची विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया महादेव, रामचन्द्र भिल्लम, जयतुंडि, सिंहज, हरपालदेव, कम्पिलदेव आदि इसके प्रसिद्ध राजा हुए। इनमें से 13वीं शताब्दी ईस्वी 150 में सिंहण यादव ने उड़ीसा, मैसूर और गुजरात के बड़े हिस्से में राज्य किया।" उसके बाद रामचन्द्रदेव एक अन्य प्रतापी राजा हुआ जिसने अलाउद्दीन खिलजी का डटकर मुकाबला किया। दो बार के प्रबल युद्ध के बाद अलाउद्दीन खिलजी की विशाल सेना से उसे हार माननी पड़ी, परन्तु इस युद्ध को अलाउद्दीन ने भी बहुत महंगा पाया और इसीलिए दोनों के बीच संधि हो गई संधि की शर्त में रामचन्द्रदेव द्वारा अलाउद्दीन को वार्षिक नजराना मात्र देना पड़ा। अपने क्षेत्र का शासन वह पूर्ववत करता रहा। जब अलाउद्दीन ने काकतीय वंश के नरेश प्रतापरुद्रदेव द्वितीय पर आक्रमण किया, तब इस संधि के कारण रामचन्द्रदेव को प्रतापरुद्रदेव के विरुद्ध अलाउद्दीन की सेना का देना पड़ा, जिसके कारण प्रतापरुद्रदेव के साथ वैसी ही संधि हुई जैसी रामचन्द्रदेव के साथ हुई थी। इस संधि के फलस्वरूप ये दोनों ही नरेश अलाउद्दीन खिलजी को वार्षिक नजराना अवश्य देते रहे परन्तु वस्तुत: ओरंगल में प्रतापरुद्रदेव का और उड़ीसा, मैसूर तथा गुजरात के पूर्वी हिस्से पर रामचन्द्रदेव का ही राज्य चलता रहा।
सेउण यादवों का गौरव
सेठण यादवों ने नौवीं से 15वीं शती ईस्वी तक सात सौ वर्षों तक दक्षिण भारत के एक बड़े क्षेत्र पर शासन किया। उधर देवगिरि से नासिक तक सेउण राज्य में सेउणवंशीय यादवों का राज्य चला जो सन् 834 से 1334 ईस्वी पाँच सौ वर्षों तक पूरे वैभव के साथ फलता-फूलता रहा। इस वंश के प्रतापी राजाओं में मुख्य हैं दृढ़प्रहार (825-850 ई.), सेउणचन्द्र ( 850-875 ई.), भिल्लामा प्रथम (900-925 ई.), भिल्लामा द्वितीय (950- 1000 ई.), भिल्लामा तृतीय (1025- 1052 ई.), सेठणचन्द्र द्वितीय ( 1069-1100 ई.), भिल्लामा चतुर्थ (1173-1192 ई.), सिंहण (1200-1247 ई.), सिंहण द्वितीय (1311-1313 ई.), हरपाल (1313-1318 ई.)। बाद के दो सौ वर्षों में इनका प्रताप क्रमश: घटता गया। प्रसिद्ध धर्मशास्त्रज्ञ हेमाद्रि ने 13वीं शती ईस्वी के अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ चतुर्वर्ग चिन्तामणि के वृत्तखण्ड में सेउण देश को दण्डकारण्य के परिसर से देवगिरि तक बताया और देवगिरिपुर की महिमा की बतायी है। श्री जे.एन. सिंह यादव ने अपनी पुस्तक 'यादवाज़ थ्रू द एजेस' के प्रथम खण्ड के आठवें अध्याय में सेठण देश की सीमा नासिक से देवगिरि (दौलताबाद) तक बतायी है। महादेव यादव के कालेगाँव अभिलेख में गोदावरी नदी को सेउण देश का आभूषण या सेउण देश की शोभा बताया है और उसे गोदावरी नदी के दोनों ओर विस्तृत बताया है जिसमें नासिक अहमदनगर के कुछ हिस्से तथा मद्र देश के कुछ हिस्से, औरंगाबाद जिला एवं खानदेश शामिल हैं। जबकि यादव नरेश ऐकमदेव के अधी पट्टिका के अनुसार सेउण देश की सीमा उनके शासन में नर्मदा नदी तक विस्तृत थी। आर. जी. भण्डारकर का कहना है कि गुजरात में 15वीं शताब्दी ईस्वी में अहमद शाह के समय मुसलमान दरबारियों ने सेठण देश का ही नाम खानदेश कर दिया। यह एक महत्त्वपूर्ण राजवंश था।" खानदेश नामक इस सेउण देश में मुस्लिम शासन बमुश्किल डेढ़ सौ वर्ष रहा, जबकि यादवों का शासन सात सौ वर्षों तक रहा। परन्तु हमारे मुस्लिम भक्त सेक्युलर इतिहासकारों को केवल मुस्लिम शासन ही स्मरण रहता है। दयनीय स्मृतिभ्रंशता का यह मामला है।
कदम्ब वंश
चौथी शताब्दी ईस्वी से कोंकण क्षेत्र में कदम्ब वंश के राजाओं ने जो शासन प्रारम्भ किया था, यद्यपि वह तथाकथित मुस्लिम काल के पहले समाप्त हो गया था तथापि बाद में उस क्षेत्र में कई बार कदम्बों ने होयसलों को भी पराजित किया।
काकतीय वंश
वारंगल में काकतीय वंश का प्रतापी शासन 12वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक रहा। काकतीय वंश के प्रतापी शासकों में काकतीय रुद्रदेव सर्वप्रमुख हैं महान धर्माचार्य हेमादि ने भी इनका उल्लेख किया है कालेगाँव पट्टिका में काकतीय नरेश त्रिकलिंग का उल्लेख है जो भिल्लामा पंचम से पराजित हुए थे। " गणपति देव एक अन्य प्रमुख काकतीय नरेश थे। इन्होंने एक समय सम्पूर्ण आन्ध्रप्रदेश पर शासन किया था।
छः सौ वर्षों तक प्रतापी रहा महान विजयनगर साम्राज्य
गलत रूपों में मुस्लिम काल बताये जाने वाले समय में दक्षिण भारत में एक अन्य प्रतापी साम्राज्य हुआ विजयनगर साम्राज्य इस पर संगम वंश ने 14वीं और 15वीं शताब्दी में राज्य किया। बाद में सालुव वंश और उसके उपरान्त तुलुव वंश का राज्य यहाँ 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक रहा। विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध शासन हैं- हरिहर प्रथम और बुक्का प्रथम (1344-1377 ई.), हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.), बुक्का द्वितीय (1405-1406 ई.), देवराय प्रथम (1406-1422 ई.), विजय राय (1422-1426 ई.), देवराय द्वितीय (1426-1446 ई.), मल्लिकार्जुन (1446-1465 ई.), सालुव नरेश नरसिंह (1486-1491 ई.), धर्मराय इम्मादि नरसिंह (1491-1503 ई.), वीर नरसिंह (1505-1509 ई.), कृष्णदेव राय (1510- 1530 ई.), अच्युतदेव राय (1530-1542 ई.), सदाशिव राय (1542-1576 ई.), अरविन्द नरेश रामराय (1542-1565 ई.), तिरुमल (1570-1571 ई.), श्रीरंग प्रथम (1572-1582 ई.), वेंकट द्वितीय (1585-1614 ई.), वेंकट तृतीय (1630-1642 ई.)। बाद में भी विजयनगर साम्राज्य मैसूर राज्य के रूप में बीसवीं शती ईस्वी तक बना रहा। थोड़े व्यवधानों के साथ, छः सौ वर्षों तक यह प्रतापी हिन्दू राज्य दीपित रहा है।
चतुर्दिक हिन्दू राजाओं की विपुलता के काल को मुस्लिम काल बताना सत्यद्रोह
इस प्रकार हम पाते हैं कि 7वीं से 17वीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिण भारत में अधिकांशतः हिन्दुओं का ही राज्य रहा। विजयनगर साम्राज्य, चेर, चोल और चालुक्य साम्राज्य, पांड्य और सातवाहन साम्राज्य, कदम्ब वंश, काकतीय वंश और गंग वंश के साम्राज्य, यादव वंश और सेउण वंश का राज्य तथा विजयनगर साम्राज्य एवं मैसूर राज्य इन सबको अनदेखा करना और भारत में शताब्दी से 17वीं - शताब्दी तक के समय को मुस्लिम काल के शासन की तरह प्रचारित करना देशद्रोह और धर्मद्रोह तो है ही, सत्य से सम्पूर्ण द्रोह भी है।
मध्यकाल के 1100 में से 800 वर्षों तक काश्मीर में हिन्दू ही शासक रहे
दक्षिण भारत के अतिरिक्त उत्तरी, मध्य, पूर्वी और पश्चिमी भारत के बीच के बड़े हिस्सों में भी मुस्लिम काल बताये जाने वाले कालखण्ड के अधिकांश में हिन्दुओं का ही शासन रहा है। स्वयं कश्मीर शताब्दियों से तो हिन्दुओं द्वारा शासित था ही, इस तथाकथित मुस्लिम काल में भी लगभग 300 साल ही वहाँ मुस्लिम शासन रहा है। जबकि 8वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के 1100 वर्षों में वहाँ लगभग 800 वर्षों तक तो हिन्दुओं का शासन रहा। महाभारत काल के पूर्व वहाँ महाराज गोनर्द का शासन था। फिर, अशोक के समय से क्षेमगुप्त के समय तक और फिर रानीदित्ता तथा उसके बाद राजा उद्यान देव के समय तक वहाँ हिन्दुओं का ही शासन था। 11वीं शताब्दी ईस्वी तक के आरम्भ का वहाँ का इतिहास महाकवि कल्हण कृत राजतरंगिणी में है और उसके बाद का इतिहास जौनराज, श्रीवर और प्राज्ञभट्ट के संस्कृत ग्रन्थों में है।
कुछ लोभी हिन्दू लोग मुसलमान बनकर पापाचार करने लगे
14वीं शताब्दी के अन्तिम राजा उद्यान देव भी किसी युद्ध में पराजित नहीं हुए, अपितु उनके मंत्री ने छलपूर्वक उनकी हत्या की और फिर दिल्ली के मुसलमान नवाबों की कृपा पाने के लिए वह वहाँ शमसुद्दीन नाम से शासन करने लगा।
16वीं शताब्दी ईस्वी में अकबर ने काश्मीर को कब्जे में लिया। थोड़े दिन वहाँ अकबर का राज्य रहा। फिर अफगान सेनापति अहमदशाह दुर्रानी ने वहाँ कब्जा कर लिया। इसे ही अब्दाली कहा जाता है। मराठों से इसने 1761 ईस्वी में पानीपत में संयोग से विजय पा ली थी। 50 वर्षों के भीतर काश्मीर पर महाराजा रणजीत सिंह ने अधिकार कर लिया।
बंगाल में कथित मुस्लिम काल में आठ सौ वर्ष तो हिन्दुओं ने ही राज्य किया
थोड़े से समय तक कतिपय मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा जो क्षेत्र सर्वाधिक दबाए गए, उनमें मुख्य हैं बिहार और बंगाल तब भी, जिसे भारत के इतिहास का मुस्लिम काल बताया जाता है, उसमें आठ सौ वर्षों तक तो यहाँ भी हिन्दुओं ने ही शासन किया। शेष समय भी, मुख्यतः स्थानीय लोगों ने ही शासन किया। जहाँ मुस्लिम अधीनता भी भी, वहाँ भी मुस्लिम राजा मुख्यतः हिन्दू राजाओं पर ही निरंतर निर्भर रहे। इसी प्रकार अंग्रेजों ने केवल हिन्दू एवं देसी मुसलमानों के सहारे अपना प्रभाव फैलाया। शासक तो वे लगभग आधे भारत में कुल 90 वर्ष ही रह पाए। वह भी हिन्दुओं के सहयोग से। अतः अकारण आत्महीनता की कोई आवश्यकता है नहीं। आत्ममनन अवश्य अपेक्षित है, क्योंकि आज भी कुछ प्रमुख हिन्दू यूरोपीय ईसाइयों के सेवक बने हुए हैं।
इस सम्पूर्ण बंग क्षेत्र पर तथा पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर बंगाल यानी गौड़ देश पर भी पहले मौर्यों एवं गुप्तों का साम्राज्य रहा। उसके बाद महान गौड़ नरेश शशांक ने शासन किया। फिर यह महान सम्राट हर्षवर्धन के राज्य का अंग हो गया। तदुपरान्त कामरूप के महान सम्राट भास्कर वर्मा के वंश का यहाँ शासन रहा। तदुपरान्त प्रसिद्ध पालवंशी शासकों ने यहाँ राज्य किया, जिनमें मुख्य हैं- गोपाल (750-770 ई.), धर्मपाल (770-810 ई.), देवपाल (810-850 ई.), सुरपाल (850-854 ई.). नारायणपाल (854-908 ई.), राज्यपाल (908-940 ई.), गोपाल द्वितीय (940- 960 ई.), विग्रहपाल द्वितीय (960-988 ई.), महीपाल (988-1038 ई.), नभपाल (1038-1055 ई.), विग्रहपाल तृतीय (1055-1070 ई.), महीपाल द्वितीय (1070- 1075 ई.), सुरपाल द्वितीय (10761077 ई.), रामपाल (1077-1120 ई.), कुमारपाल (1120-1125 ई.), गोपाल तृतीय (1125-1140 ई.), मदनपाल (1140- 1155 ई.), गोविन्दपाल (1155-1159 ई.)। इस प्रकार 18 पालवंशी राजाओं ने चार सौ वर्षों से अधिक यहाँ राज्य किया।
इसी अवधि में यहाँ सेनवंश का उत्कर्ष उभरा। सेन वंश का शासन यहाँ लगभग एक सौ वर्ष रहा। विजयसेन ने पहले उत्तरी बंगाल पर अधिकार जमाया। फिर बाल सेन ने बारहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में राज्य किया। तदुपरान्त उनके पुत्र लक्ष्मणसेन ने तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ तक सम्पूर्ण बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के उत्तरी हिस्सों में शासन किया। उन दिनों वाराणसी तक उनका राज्य फैला था। महाकवि जयदेव इनके ही शासन में रहे। हलायुध जैसे धर्मशास्त्रज्ञ इनकी सभा में थे।
नृशंस हत्यारे लुटेरे बख्तियार खिलजी का सर्वस्व हरण कर लिया कामरूप- नरेश ने
13वीं शती ईस्वी के प्रारम्भ में बख्तियारुद्दीन खिलजी ने सहसा नदिया पर छलघात से आक्रमण किया और नृशंस मारकाट की। वह हत्यारा वहाँ व्यापारी दल का भेष धरकर घुसा था इन कायरों में वीरतापूर्ण आक्रमण की प्रवृत्ति नहीं रही। महान विद्याकेन्द्र एवं धर्मकेन्द्र उद्यन्तपुर पर धोखा देकर आक्रमण कर हज़ारों बौद्ध विद्वानों एवं भिक्षुओं का वध किया तथा विराट पुस्तकालय जला दिया।" वह क्रूर और कायर लुटेरा वहाँ रुका नहीं, कामरूप की ओर बढ़ा और वहाँ बुरी तरह हारा। इस नृशंस हत्यारे लुटेरे द्वारा पवित्र बौद्ध भिक्षुओं एवं विद्वानों की क्रूर हत्या की खबर पा क्षुब्ध क्रुद्ध कामरूप- नरेश सेना सहित इस आततायी पर टूट पड़े। बख्तियार के पास दस हज़ार मुस्लिम घुड़सवार सैनिक थे। उनमें से नौ हजार नौ सौ को कामरूप की हिन्दू सेनाओं ने काट डाला। बख्तियार किसी तरह सौ घुड़सवार बचाकर भागा और मुँह छिपाता घूमा तथा अगले ही वर्ष तक घुल-घुलकर मर गया। विक्रम संवत् 1262 में वह पिटा, 1263 में मर गया। कतिपय भारतद्वेषी इस बात का बहुत रोना रोते हैं कि दस हज़ार घुड़सवारों ने पचास हजार बौद्ध विद्वानों को मार डाला, पर इस महान भारतीय वीरता का उल्लेख तक नहीं करते कि फिर उनमें से 9900 मार डाले गए और वह दुष्ट आततायी भी फिर खड़ा नहीं हो सका, दम तोड़ बैठा।
बख्तियारुद्दीन लुटेरा उग्रवादी था। शासक तो था नहीं लूटता पाटता बढ़ा और हार कर लौटा तथा मर गया। इस बीच कई अन्य अपराधी एवं आतंकवादी- उग्रवादी प्रवृत्ति के दुष्ट लोग इस्लाम की आड़ लेकर बख्तियार जैसी लूट-पाट करने लगे। बख्तियार द्वारा की गई विनाश लीला के समाचारों से हिन्दू एवं बौद्ध समाज में अफरा-तफरी मच गई थी। इसका लाभ उठाकर कई जगह ये आततायी लुटेरे इस्लाम की आड़ लेकर जागीरें छीन बैठे इलियास शाह नामक एक अपराधी ने पेंडुआ और इकडला की रियासतों पर कब्जा कर लिया। शेष बंगाल में राजा गणेश और उनके वंशजों का शासन चलता रहा।
मुस्लिम उग्रवाद के संरक्षक सूफियों की बाढ़
अचानक बंगाल में सूफी फकीरों की बाढ़ आ गई। कुछ सूफी लोग हिन्दुओं के आध्यात्मिक झुकाव तथा उदार हृदय का अनुचित लाभ ले आध्यात्मिक 'इश्क' का प्रचार करते थे, परन्तु छिपकर मुस्लिम उग्रवाद एवं आततायी राजनीति को संरक्षण और सहयोग देते तथा जासूसी का काम करते थे। इसके अत्यन्त प्रामाणिक एवं विशद साक्ष्य उपलब्ध हैं। इनकी शह पर कमजोर इलाके चिह्नित किये जाते और वहाँ अचानक मुस्लिम उग्रवादी लुटेरे तथा हत्यारे हमलाकर तबाही और जबरन मुसलमान बनाने का काम करते। इस प्रकार मुस्लिम आबादी बढ़ाई जाती रही। ऐसे ही एक सूफी कुतबुल आलम शेख नूरूल हक ने, जिसे हिन्दू राजा गणेश का संरक्षण प्राप्त था, उत्तरप्रदेश में जौनपुर के जागीरदार इब्राहीम शर्की को बंगाल पर हमले का सन्देशा 1410 ईस्वी में भेजा। शर्की कुख्यात उग्रवादी मुसलमान था, जिसने जौनपुर में जबरन कब्जा कर, वहाँ सभी प्रमुख मन्दिरों को नष्ट कर, उसके ध्वंसावशेषों से एक बड़ी मस्जिद - अटाला मस्जिद बनवाई थी। उसने जौनपुर में हिन्दू विद्याओं का समूल नाश करने का प्रयास किया और वहाँ मुस्लिम विद्या का बड़ा केन्द्र पोषित किया था। हिन्दुओं के भवन गिरवाये तथा मुसलमानों के भव्य भवन बनवाने में राजकीय संरक्षण और सहयोग दिया था। इस कुख्यात उग्रवादी का जासूस था सूफी फकीर बना शेख नूरुल हक। सूफी के तब तक बहुत अनुयायी बन चुके थे।
दनुजमर्दन हिन्दू राजा के घर में सूफियों की सेंध
राजा गणेश ने बंगाल के नवाबों की आपसी जंग में चतुराई से काम लेकर शासन पर आधिपत्य पाया था । उग्रवादी मुसलमानों का दमन करने के कारण ही उसे 'दनुजमर्दन देव' की उपाधि दी गई थी। जौनपुर के नवाब ने जासूस सूफी फकीर के इशारे पर बंगाल पर हमला किया, तो राजा गणेश ने उसे मार भगाया इसके बाद भी 1418 ईस्वी तक वह कुशलतापूर्वक शासन करता रहा। उसकी मृत्यु के बाद, सूफी नूरुल हक ने उसके बड़े लड़के राजकुमार यदु को फुसलाकर मुसलमान बना लिया और उसका जलालुद्दीन नाम रख दिया अतः हिन्दू प्रजा ने उसे राजा बनाये जाने का विरोध किया और छोटे बेटे महेन्द्र को गद्दी सौंपने का प्रयास किया परन्तु सूफी फकीर के इशारे पर सभी मुसलमान और कुछ सूफी के भक्त हिन्दू लोग परम्परा की दुहाई देकर बड़े बेटे को गद्दी दिए जाने का आग्रह कर बैठे। तब से बंगाल के एक हिस्से में इस छल के कारण मुस्लिम शासन शुरू हुआ परन्तु सातवीं से चौदहवीं शती ईस्वी के 800 वर्षों में तो बंगाल-बिहार में अखण्ड हिन्दू शासन ही रहा। परन्तु यह मुस्लिम शासन कुल 24 वर्ष ही रहा वह भी, वस्तुतः एक हिन्दू राजा को ही छल से मुसलमान बनाने के द्वारा मुस्लिम शासन सम्भव हुआ।
बाद में यहाँ पुनः हिन्दू शासन हुआ। फिर पन्द्रहवीं शती ईस्वी के अन्तिम दशक में यहाँ 24 वर्षों तक हुसेनशाह सैयद ने छल-बल से तथा सूफियों के सहयोग से पुनः शासन किया। उसने 24 वर्षों में हज़ारों मन्दिर गिरवाये तथा सैकड़ों मस्जिदें बनाईं 100 हिन्दू धर्म के उन्मूलन का व्यवस्थित प्रयास किया, हिन्दू मन्दिर एवं विद्याकेन्द्र तथा अत्र क्षेत्र नष्ट किए तथा सैकड़ों खैरातखाने चलवाये जहाँ मुसलमानों की खाना व छाया मिलती और हिन्दू गरीबों-भिखारियों को मुसलमान बनने को प्रोत्साहित किया जाता । यही नीति उसके बेटे ने अपने 15 वर्षीय शासन में अपनाई इस प्रकार मुस्लिम आबादी बढ़ाई गई।
धर्मातरण द्वारा राष्ट्रांतरण भारत की मुख्य समस्या
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत की समस्या धर्मांतरण है। जो कल तक हिन्दू थे, वे ही मुसलमान बनकर नृशंस पापाचार करने लगे। राक्षस हो गए। अतः हिन्दू समाज के समक्ष मुख्य समस्या ऐसे धर्मांतरण को समाप्त करने की है। ऐसा करना राजधर्म है। किसी भी सामाजिक अन्याय के कारण यह धर्मांतरण कभी नहीं हुआ। यह तो छल-बल से ही हुआ धर्मांतरित व्यक्ति बेहतर मनुष्य बनते कभी देखे नहीं गए। राक्षसी पापाचार अवश्य उनमें से अनेक ने किए। चित्त की किसी उदात्त वृत्ति या न्याय जैसी सात्विक आकांक्षा का धर्मांतरण से कोई भी संबंध सम्पूर्ण इतिहास में नहीं रहा है।
बाद में बंगाल के कुछ हिस्सों पर कुछ वर्षों अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के अधीनस्थ सूबेदारों-जागीरदारों का शासन रहा। इन्हीं में से एक सूबेदार कासिम खाँ से पुर्तगालियों की मुठभेड़ हुई। फिर स्वतंत्र सूबेदारों का राज्य बंगाल में रहा, जो सिराजुद्दौला के वक्त तक रहा। अंग्रेज़ों ने उसके एक रिश्तेदार को फोड़कर षड़यंत्र द्वारा सिराजुद्दौला की जागीर मीर जाफर को दिलवा दी, क्योंकि वह कम्पनी को रियासतें देने को राजी था बंगाल के अन्य हिस्सों पर हिन्दू जागीरदारों का प्रभुत्व बना रहा। छल-नीति से ईस्ट इण्डिया कम्पनी उन जागीरों के भी राजस्व अधिकारों को हथियाने में सफल रही। पर इसमें फिरंगियों की वीरता की कोई भूमिका नहीं थी छल और धोखाधड़ी की भूमिका अवश्य थी 18वीं शती में पुन: बंगाल मराठों की अधीनता स्वीकार कर चुके (औरंगजेब
के पड़पोते) शाहआलम द्वितीय के नियंत्रण में रहा। इसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों व कर्मचारियों ने षड्यंत्र से बंगाल की दीवानी हथिया ली इस प्रकार वस्तुत: लगभग कुल तीन सौ वर्ष बंगाल में विविध स्थानीय मुस्लिम सूबेदारों का प्रभाव रहा और उन्होंने वहाँ इस्लाम को अत्याचार व भेदभावपूर्वक बढ़ाया भी खूब, परन्तु साथ-साथ हिन्दू जागीरदारों की भी वहाँ कई जागीरें 19वीं शती ईस्वी तक बनी रहीं ।" पूरा बंगाल और पूरा बिहार मुसलमानों के पूर्ण अधीन एक भी दिन नहीं रहा। आंशिक अधीनता ही रही । मुसलमान राजा भी सदा निर्भर हिन्दू राजाओं पर ही रहे, जिन्हें वे जागीरदार कहते रहे।
उड़ीसा में निरन्तर हिन्दू शासन
बंगाल से आन्ध्र तक फैले विशाल ओड़िया क्षेत्र में निरन्तर हिन्दू शासन बना रहा P20 बीच में 1568 से 1572 तथा 1592 से 1605, कुल लगभग 18 वर्ष, उड़ीसा में मुस्लिम दबदबा अवश्य रहा। शेष पूरे समय सातवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक सम्पूर्ण तथाकथित मुस्लिम काल में उड़ीसा में हिन्दुओं का ही शासन बना रहा। कलिंग साम्राज्य का भव्य इतिहास तो सुविदित है ही। मौर्यवंश के बाद चेर वंश, तदुपरान्त खारवेल वंश के गौरवशाली राज्य यहाँ रहे। गुप्त सम्राटों का शासन यहाँ था। फिर हर्षवर्धन का और तदुपरान्त भंज वंश का यहाँ प्रतापी शासन रहा
9वीं शताब्दी ईस्वी से यहाँ गंगवंश का अत्यन्त गौरवशाली शासन रहा, जो तीन सौ वर्षों चला, जिनमें 70 वर्ष तक शासन करने वाले शासक अनन्तवर्मा सर्वाधिक प्रतापी थे। उनके पास अति सुदृढ़ नौसेना थी । पुरी का भगवान जगन्नाथ मन्दिर तो गंगों ने बनवाया ही, सुशासन एवं सुव्यवस्था स्थापित रखी। उत्तर एवं दक्षिण दोनों ओर से मुसलमानों ने आक्रमण किए, परन्तु गंगवंशी राजाओं ने उड़ीसा में हिन्दू प्रभुत्व बनाये रखा तथा हमलावर मुसलमानों को बारम्बार हराया * केवल अलाउद्दीन खिलजी के समय उड़ीसा दया और उसे वार्षिक नजराना देना मंजूर किया चौहदवीं शती मध्य में फीरोज तुगलक ने हमला किया, पर बड़ी संख्या में हाथियों का उपहार पा सन्तुष्ट हो गया सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से अठारहवीं शताब्दी के मध्य के दो सौ वर्षों तक उड़ीसा के राजाओं ने पहले अकबर, फिर बंगाल के नवाबों को अपने से बड़ा शासक मानकर उन्हें नियमित नजराना देना मंजूर किया " अठारहवीं के उत्तरार्द्ध से उन्नीसवीं शती ईस्वी के पूर्वार्द्ध तक यह मराठों के प्रभुत्व का क्षेत्र रहा। उसी समय नागपुर के भोंसला नरेश ने यहाँ का राजस्व वसूलने का ठेका ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया 1877 ईस्वी से यहाँ भी विक्टोरिया का शासन घोषित हो गया।
बिहार एवं झारखण्ड में मुस्लिम शासन की स्थिति
16000 ईसापूर्व से 14वीं शती ईस्वी तक वर्तमान बिहार का सम्पूर्ण क्षेत्र हिन्दू शासन के अधीन था। यद्यपि तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में इख्तियारुद्दीन खिलजी ने नालन्दा, विक्रमशिला और उद्यन्तपुर विश्वविद्यालयों को नष्ट किया और हज़ारों विद्वान बौद्धिकों की अकारण हत्या की थी। तब भी बौद्ध धर्म वहाँ कायम रहा। शाहाबाद, पटना, मुंगेर एवं भागलपुर क्षेत्र में अवश्य बड़ी संख्या में बलात् लोगों को मुसलमान बनाया गया ।
जहाँ तक, तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में बख्तियारुद्दीन द्वारा अचानक किए गए संहार की बात है, यह सही है कि विश्व इतिहास में चन्द दिनों के भीतर इतनी विशाल संख्या में बुद्धिजीवियों की हत्या कभी भी नहीं की गई है, जैसी इस उग्रवादी मुस्लिम आततायी ने की। कम्युनिस्टों ने विश्व में कई लाख बुद्धिजीवियों-बौद्धिकों की हत्या की है, पर 75 वर्षों की लम्बी अवधि में और विश्व भर में फैले क्षेत्र में, विशेषतः रूस, सोवियत संघ और चीन में परन्तु इस तथ्य का दूसरा पक्ष यह है कि हिन्दुओं ने तो आसायी उग्रवादी मुस्लिम का सफाया कर दिया कुछ ही दिनों के भीतर, परन्तु लेनिन, स्तालिन और माओ की मण्डली का सफाया करने में रूसी तथा चीनी एवं हंगार तथा पोल्स्का के देशभक्तों ने आज तक सफलता नहीं पाई है। चालीस वर्ष से अधिक हो गए। भारत में भी कम्युनिस्ट उग्रवादियों ने लगभग तीन हजार बौद्धिकों की हत्या की है और उन्हें सेक्युलरवादियों का प्रबल राजकीय तथा न्यायिक संरक्षण भी प्राप्त है। परन्तु आगामी बीस-पचीस वर्षों में उनका सफाया सम्भव है। अतः भारत की स्थिति गौरवास्पद है, निन्दास्पद नहीं ।
असम में शताब्दियों रहा हिन्दू शासन
महाभारत काल में कामरूप में महाराज भगदत्त का शासन था तीन हज़ार वर्षों तक उनके वंशजों ने वहाँ शासन किया बाद में वहाँ मौयों का शासन रहा सम्राट अशोक का शासन वहाँ था ही ।" उनके वंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ से सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने शासन छीना।" शुंग वंश का शासन सम्राट वसुमित्र के बाद क्रमश: तीसरी शती ईस्वी तक रहा।" गुप्तवंश का भी शासन कामरूप में रहा P फिर वहाँ विजयवर्मा, कुमारवर्मा, भालवर्मा, त्यागसिंह प्रभृति 13 श्रेष्ठ राजा हुए तदुपरान्त पुन: वहाँ भगदत्त के वंशजों का शासन हो गया । ब्रह्मपाल, रत्नपाल, इन्द्रपाल, गोपाल, हर्षपाल, धर्मपाल एवं जयपाल- ये सात प्रतापी राजा इस वंश में पुनः हुए।
समूल नष्ट कर दिया गया बख्तियार खिलजी
फिर वहाँ बंगाल के पालों का शासन हो गया और तदुपरान्त सेनवंश का जब बख्तियार खिलजी ने बंगाल-बिहार में सेनवंशी शासकों की राजधानी और विद्याकेन्द्र को नष्ट कर कामरूप की ओर कूच किया, तब उसी सेनवंशी कामरूप- नरेश ने उसे विक्रम संवत् 1262 के चैत्र मास की त्रयोदशी को श्री रामनवमी के चार दिन बाद लगभग समूल नष्ट कर दिया। सौ घुड़सवारों के साथ दुम दबाकर भागे बख्तियार ने अगले ही वर्ष दम तोड़ दिया। गुवाहाटी के निकट महानद ब्रह्मपुत्र के पवित्र तट पर वर्षिवैर-कनाड नामक गाँव में एक चट्टान पर संस्कृत में लेख है, जिसमें संतोष व्यक्त किया है कि आततायी तुरुष्क नष्ट कर दिये गये हैं। इस शिलालेख में उस वीर योद्धा नरेश का नाम नहीं दिखता । सम्भवतः बाद में वह अंश छिपे तौर पर कुछ मुसलमानों ने मिटा दिया। तब तक इस क्षेत्र का नाम कामरूप ही था। इसके कुछ समय बाद वहाँ अहोम शासक हुए उनने ही यहाँ का नाम अहोम रखा और फिर असम या आसाम नाम पड़ा।
तेरहवीं शती पूर्वार्द्ध से 19वीं शती ईस्वी के मध्य तक यहाँ अहोमों का राज्य रहा, जिनमें प्रतापसिंह, गदाधरसिंह, जोगेश्वर सिंह आदि प्रसिद्ध हैं 1838 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पहले छलपूर्ण संधि कर फिर बहाना बनाकर राजकुमार पुरन्दरसिंह को गद्दी से हटाकर वहाँ कम्पनी ने राजस्व मामलों पर नियंत्रण कर लिया 20 वर्षों बाद वहाँ कम्पनी को हटाकर ब्रिटिश शासन ने सम्पत्ति एवं संसाधनों पर कब्जा कर लिया, जो 90 वर्षों बाद भारत के स्वाधीन होने पर समाप्त हुआ। इस प्रकार वस्तुतः असम में निरन्तर हिन्दू शासन रहा है।" यद्यपि बंगाल से मुस्लिम छापामार वहाँ विगत 300 वर्षों से छापामारी हमला करते रहे हैं कुछ समय नियंत्रण भी जमाते रहे हैं। पुराने कामरूप का बड़ा हिस्सा भारत-विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान को मिला, इसका कारण इन्हीं मुस्लिम घुसपैठियों की उग्रवादी गतिविधियाँ थीं।
लगातार बढ़ रही मुस्लिम आबादी भीषण खतरा है
सातवीं शती ईस्वी में सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या लगभग 8 करोड़ थी। कुल मुसलमान यहाँ केवल 200 थे। आठवीं में ये बढ़कर 2000 हुए। नौर्वी- जबकि दसवीं में इनकी आबादी नहीं बढ़ी। बल्कि घटी। ग्यारहवीं शती में 12 करोड़ भारतीयों में कुल 50 हजार मुसलमान थे। तेरहवीं में 15 लाख और चौदहवीं में 20 लाख ही हो पाए। क्योंकि लाखों का सफाया किया जाता रहा। पन्द्रहवीं में भी ये ज्यादा नहीं बढ़ पाए। सोलहवीं में कुछ बढ़कर लगभग 75 लाख मुसलमान हो गए कुल 18 करोड़ की आबादी का 4 प्रतिशत सत्रहवीं में डेढ़ करोड़, अठारहवीं में ढाई करोड़ और उन्नीसवीं में 6 करोड़ मुसलमान भारत में हो गए। बीसवीं में ये साढ़े नौ करोड़ हुए।
विभाजन के बाद बांग्लादेश पाकिस्तान में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया और इक्कीसवीं शती के प्रारम्भ में अविभाजित भारतीय क्षेत्र में कुल 28 करोड़ मुसलमान हैं. अर्थात् कुल जनसंख्या का लगभग एक चौथाई (25 प्रतिशत) हो चुके हैं। इनका इतिहास देखते हुए यह हिन्दुओं के लिए भयंकर खतरा है। हिन्दुओं को सन्तुलन बनाना होगा।
हम पाते हैं कि मुस्लिम आबादी में अचानक बढ़ोत्तरी केवल वंशनाश और समूल नाश का दबाव बनाकर, सामूहिक बलात्कार, हत्या, हिंसा के दबावपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाकर, युद्ध की दशा में ही की गई है। इस प्रकार, मुस्लिम आबादी की वृद्धि एक राजनैतिक लक्ष्य का अभिन्न अंग है। उसका किसी सामान्य मजहबी प्रवृत्ति से कोई सीधा रिश्ता नहीं मतही राजनीति से ही सीधा रिश्ता है। अतः समर्थ हिन्दू राजनीति हो उसका समाधान है। भारत में मुस्लिम आबादी में वृद्धि का संकेत 'परिशिष्ट-7' में द्रष्टव्य है।
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अपने प्रभुओं को तो याद कीजिए भारतद्वेषी बंधु
भारत के प्रति अहेतुक विद्वेष रखते दिख रहे कतिपय भारतद्वेषी बंधु भारतीय साक्ष्यों को संदिग्ध और भारतीय पंडितों को अप्रामाणिक मानकर चलते हैं। परन्तु जिन्हें वे प्रामाणिक विद्वान मानते हैं, उन यूरो-किश्चियन लोगों के मतों को भी वे कहाँ मानते हैं ?
दुर्भाग्यवश आज स्थिति यह हो गई है कि स्वयं ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन आदि विद्वानों ने भारत के विषय में जो तथ्य अपनी यूरोपीय बुद्धि से दिए हैं, उन्हें तक भारत के सेक्युलरिस्ट मूढ़ न तो जानते, न याद रख पाते हैं। सी. कॉलिन डेवीज ने 1949 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से भारतीय प्रायद्वीप के ऐतिहासिक नक्शे छापे थे, उनके बारे में तक हमारे दीनहीन तथाकथित आधुनिक सेक्युलर इतिहासकार वह एवं संज्ञा है।
'एन इंडियन एटलस ऑफ़ इंडियन पेनिनसुला' नामक इस पुस्तक के नक्शों को और साथ में दिए उनके विवरणों को पढ़ने पर किसी प्राथमिक स्तर के विद्यार्थी को भी भारतीय इतिहास की मोटी जानकारी हो जाएगी और हज़ारों साल की गुलामी' के जुमले को वह केवल पागलों या देशद्रोहियों का प्रलाप ही समझेगा। यहाँ पहले इन नक्शों व तथ्यों का ही यथावत् और सार संक्षेप उल्लेख पर्याप्त होगा।'
उक्त एटलस में 'पृष्ठ-5 पर पहला नक्शा भारतीय क्षेत्र की भौगोलिक सीमा को दर्शाता है, जिसमें स्पष्टतः अफगानिस्तान, तिब्बत, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका सहित सम्पूर्ण भारतीय भूभाग चित्रित है।
ईसापूर्व 500 में भारत
दूसरा नक्शा ईसापूर्व 500 के भारत पर है। इसमें उत्तरी भारत के सोलह महाजनपदों का और सम्पूर्ण दक्षिणापथ तथा श्रीलंका का चित्रण है। महाजनपदों में गांधार, काम्बोज, कुरु, मत्स्य, शूरसेन, पांचाल, मल्ल, कोसल, वत्स, काशी, विदेह, मगध, चेरि, अवंती, भोज, विदर्भ, अश्मक, कलिंग, आन्ध्र, अंग, वज्जि आदि का उल्लेख करते हुए कॉलिन डेवीज इन्हें तत्कालीन महान शक्तियाँ (ग्रेट पायर्स) कहता है। इसके अतिरिक्त हिमालय और गंगा के मध्य शाक्यों, कालामों, भग्गगणों, कोलियगणों, मॅरियों और लिच्छवियों के प्रतापी राज्यों का उल्लेख वह करता है। स्पष्टतः इसमें पश्चिम में वर्तमान अफगानिस्तान से पूर्व में सम्पूर्ण बंगाल तक और उत्तर में काम्बोज से दक्षिण में कन्याकुमारी तक का समस्त क्षेत्र चित्रित है। गजनी, काबुल, बुखारा और सीर दरिया, आमू दरिया और हेरात भारतीय सीमा में ही स्पष्ट दिखते हैं।
अशोक का साम्राज्य
पाँचवाँ नक्शा अशोक के साम्राज्य का है, जिसे कालिन डेवीज 250 ईसापूर्व मानते हैं। यद्यपि अकाट्य भारतीय प्रमाण अशोक का शासनकाल ईसापूर्व पन्द्रहवीं शती बताते हैं। आज यह तथ्य भी सर्वमान्य है कि अशोक ने कहीं भी स्वयं को बौद्धधर्म का अनुयायी नहीं कहा है। वह केवल 'सद्धर्म' की बात कहता है। स्वयं कालिन डेवीज की टिप्पणी है (पृ. 12 पर) कि 'शिलापट्टों एवं स्तम्भ लेखों से इस बात का कोई अनुमान सम्भव नहीं है कि वह किस धर्म को मानता था। जो धर्म- महामात्र उसने नियुक्त किये थे, उनका मुख्य काम धर्म, करुणा और दान-भावना का व्यापक प्रसार तथा प्रबन्ध है।'
अशोक के काल के इस चित्र में स्पष्टतः अशोक का साम्राज्य यवन (ग्रीक) सीमा तक विस्तृत दर्शाया गया है आकसिआ पेरोपनिसदै आदि अशोक के साम्राज्य के अंग हैं। तिब्बती क्षेत्र का एक हिस्सा, सम्पूर्ण नेपाल, सम्पूर्ण बंगाल, कलिंग, ताम्रलिति, आन्ध्र सिद्धपुर, सौरा, सिन्ध, सम्पूर्ण पंजाब आदि तो हैं ही। पाटलिपुत्र अशोक की राजधानी है। दक्षिण में केरल वंश, चोल, पाण्ड्य आदि के राज्य भी दर्शित हैं।
महाराज कनिष्क का साम्राज्य
अगला (छठा) नक्शा 150 ईस्वी का है, जिसमें दिखाया है कि महाराज कनिष्क के उत्तराधिकारियों का राज्य उत्तर में खोतान और उत्तर-पश्चिम में पार्सिया तक विशद था। काश्मीर तो उसके राज्य का बिल्कुल भीतरी हिस्सा था। काशी, प्रयाग, मथुरा, इन्द्रप्रस्थ, मेरठ, सिन्ध, पंजाब, सम्पूर्ण उत्तराखण्ड उस राज्य में हैं। उन दिनों दक्षिण भारत में आन्ध्रों, चोलों, चेरों और पाण्ड्यों का शासन है तथा राजपूताने में विविध राजाओं का मगध साम्राज्य कलिंग से नेपाल तक तथा सम्पूर्ण पूर्व में विस्तृत है। यह सब इस नक्शे में दर्शाया है।
विश्वव्यापी भारतीय व्यापार
इसी एटलस में सातवाँ नक्शा प्राचीन भारत के व्यापारिक मार्गों का दिया है, जिसमें थलमार्ग व जलमार्ग दोनों दर्शित हैं। थलमार्ग में पाटलिपुत्र से काबुल तक सीधी सड़क दर्शाई है, जो आगे बैक्ट्रिया से बढ़कर सम्पूर्ण यूनान को पार करती कृष्णा सागर के तट तक जाती है। अरब, पतरा और गर्य को जाने वाली सड़कें भी हैं। इधर दक्षिण में उज्जयिनी, भृगुकच्छ, प्रतिष्ठान होती हुई चै मदुरा, कन्याकुमारी तक जाती है। स्पष्ट है कि ये सड़कें हजारों वर्ष पूर्व बनीं और इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका भारतीयों की थी
जलमार्ग भी अनेक स्थलों से गये हैं। एक फारस की खाड़ी से होकर गुजरता है, दूसरा अरब के दक्षिणी क्षेत्र से लाल सागर होकर आगे जाता है। भारत में पश्चिमी तट के अनेक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह इस जलमार्ग के प्रमुख केन्द्र हैं। दक्षिणी हिस्से में मलाबार सहित अनेक बन्दरगाह हैं, मध्य में भड़ोंच है, उत्तर-पश्चिम में सिन्धुतट पर महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। अदन मध्य का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। तदनुसार ईसापूर्व सातवीं शती से भी पहले भारत का रोम, इजिप्त, पर्थिया, सोमालिया, सीरिया, आर्मेनिया, काकेशिया आदि से स्थल मार्ग से व्यापार होता था और रोम, ग्रीस, अरब आदि से जलमार्ग से वस्त्रों, रखों, आभूषणों, मिर्च-मसालों का व्यापार होता था। चेरों, पाण्ड्यों और चोलों के राज्य में अनेक प्रमुख बन्दरगाह थे। मलाबार से अदन नित्य ही जहाज आते-जाते थे। इधर पूर्व में दिल्ली, प्रयाग, वाराणसी, मार्ग उत्तर की ओर चीनी रेशम मार्ग से जुड़ता था तथा पूर्व में चम्पा, स्याम, कम्बुज, मलय देश तक जाता था। श्रीविजय, यवद्वीप, बाली और कोर्निया जलमार्ग से जुड़े थे।
विराट हिन्दू साम्राज्यों का समय
दसवाँ महत्त्वपूर्ण नवशा है- नौवीं शती के अन्त और दसवीं शती ईस्वी के आरम्भ में भारत की स्थिति का कुछ दयनीय मूढ़ों के अनुसार यह समय भारत की गुलामी का है। बहरहाल, कॉलिन डेवीज बताता है कि उन दिनों भारत में सर्वाधिक प्रतापी राष्ट्राध्यक्ष थे प्रतिहार महाराज भोज प्रथम और फिर महाराजा महेन्द्रपाल प्रथम जिनकी राज्य सीमा मुलतान सहित सम्पूर्ण पंजाब और काश्मीर, नेपाल और मगध तथा समस्त मध्यक्षेत्र तक थी। बंगाल में पालों का राज्य था। उड़ीसा में गंगवंशियों का दक्षिण में राष्ट्रकूटों, चोलों, चेरों और पाण्ड्यों का भारत में किसी भी मुसलमान शासक का इतने बड़े क्षेत्र पर एक दिन भी राज्य नहीं रहा। इन दस सम्राटों में से प्रत्येक का साम्राज्य सम्पूर्ण इंग्लैंड से बहुत अधिक बड़े क्षेत्र में था।
गजनवी - गोरी मात्र लुटेरे हैं
अगला नक्शा तुकों के गुलाम रहे वंश के महमूद गजनवी की लूटों और चढ़ाइयों को दर्शाता है, जिससे पता चलता है कि महमूद भारत के गजनी से चला, बल, लायघन, अमृतसर, लाहौर, थानेसर तक पहुँचा। फिर लाहौर, मुलतान आदि को लूटता वह लौटा। अगली बार वह दिल्ली और आगे तक बढ़ा, फिर लौटकर सोमनाथ को लूटता हुआ वापस लौट गया। नक्शा स्पष्ट बताता है कि गजनी एक भारतीय रियासत थी और महमूद ने भारतीय क्षेत्र में बहुत थोड़े इलाके में ही लूटमार की, उसकी तुलना में उसने फारस, मेसोपोटामिया आदि में बहुत विस्तृत इलाके में लूटमार की। अगर किसी हिस्से में किसी लुटेरे का धावा करना उस देश की गुलामी का लक्षण है, तब तो महमूद ने बलख, बुखारा, अफगानिस्तान, फारस, ईरान और मेसोपोटामिया को भी गुलाम बनाया, यह मानना होगा परन्तु यह इनमें से कहीं का शासक नहीं बना, केवल लुटेरा ही रहा। लूट-लूटकर गजनी लौटता रहा। उसकी मृत्यु के दस वर्षों के भीतर उसका राज्य नष्ट हो गया।" उस पर गोरियों ने, जो उसके अधीनस्थ ताल्लुकदार थे, कब्जा कर लिया। गोर भी एक भारतीय रियासत थी।
ग्यारहवीं शती में हिन्दू सम्राट थे भारत के शासक
महमूद गजनवी के समय भारत के विशाल क्षेत्र में तोमरों, चौहानों, सोलकियों, परमारों, कछवाहों, प्रतिहारों, चंदेलों, कल्चुरियों, पालों, कलिंगों, चालुक्यों, चोलों आदि के विशाल राज्य थे, जो महमूद द्वारा लूटे गए इलाके से कई गुना विशाल थे, यह भी नक्शा - 12 स्पष्ट दर्शाता है। अतः महमूद गजनवी की याद करना और तत्कालीन महान प्रतापी हिन्दू सम्राटों का स्मरण न करना यदि पागलपन नहीं है तो फिर देशद्रोह ही है। वस्तुतः यदि भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों का भय न हो तो इन महान राजाओं के वंशज तथा इन स्वतंत्र रहे राज्यों के श्रेष्ठ नागरिक इन सभी इलाकों को पराजित व पराधीन बताने वाले और इस प्रकार मुस्लिम शासकों की दलाली में छूट रचने वाले उन सेकुलर एवं वामपंथी भड़ैतों को पीट-पीटकर मार ही डालें, जो राज्य की अनुचित छाया के तले झूठे इतिहासकार बने हैं ये लोग किसी भी कसौटी पर इतिहासकार नहीं है।
अलेक्जेण्डर डाउ अठारहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में भारत आया था उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आदेश दिया था कि भारत में हम सफल हों, इसके लिए हिन्दू धर्म और समाज की मान्यताओं के बारे में तथा मुसलमानों द्वारा हिन्दुस्थान को जीतने की प्रक्रिया के विषय में तथ्यपूर्ण सूचनाओं को संग्रहीत कर पुस्तकें लिखो। उसने फरिश्ता लिखित 'हिन्दुस्तान की तवारीख', अबुल फ़ज़ल रचित 'आईने अकबरी', 'तुजुके जहाँगीरी', मोहम्मद शूफिया रचित 'मीरातुल वारिदात', मिर्ज़ा कासिम रचित 'शाहजहाँनामा', 'रोजनामा' तथा 'आलमगीरनामा' और नज़ीर बख्तियार रचित 'मीरात आलम आदि के आधार पर दो भागों में 'द हिस्ट्री ऑफ हिन्दोस्थान' लिखा, जिसे यथासम्भव प्रामाणिकता से लिखा माना जाता है।
'डाठ बताता है कि 'मुस्लिम इतिहास लेखक अनावश्यक शब्दाडम्बरों से भरी,अतिरंजनापूर्ण और शायराना किस्म की तबियत से लिखते हैं तथ्य और तर्क पर ध्यान देना उनकी फितरत नहीं है अतिशय वाचलता उनकी आदत है। उन्हें पढ़ते समय पाठक उनके शब्दाडम्बर की भूल-भुलैया में भटकता रह जाता है, तथ्य पकड़ में नहीं आते। जबकि इस्लाम से पहले का पर्शिया की भाषा का जो लेखन है, वह मेरे पास है। वह सम्यक्, स्पष्ट और तथ्यात्मक है। जैसा प्राचीन ग्रीस और रोम में विद्वान लिखते थे या जैसा आधुनिक यूरोप में लिखा जाता है।
पाटण के निवासी ही पठान कहलाए
डाउ बताता है कि " फरिश्ता ने अपेक्षाकृत प्रामाणिक लेखन किया है। फरिश्ता ने हिन्दुस्तान के पाटण का भी इतिहास लिखा है। पाटण पारसीक प्रदेश और भारत के मध्य में स्थित राज्य है। पाटण के रहने वाले लोग भी 'पाटण' कहे जाते हैं। इन दिनों प्रचलित 'पठान' शब्द पाटण से ही बना है।" वस्तुतः अहिगणों की एक शाखा है पाटण या पठान अहिगणस्थान ही अफगानिस्तान कहलाया। इस प्रकार अफगानिस्तान आज भी नाम के रूप में मूल भारतीय पहचान को बनाये हुए है।"
पठान पहले श्रमण (बौद्ध) थे
डाउ बताता है कि पाटण लोग समन (श्रमण बौद्ध) राजवंश के थे। मुस्लिम खिलाफत को इन्होंने पसन्द नहीं किया। बुखारा में अपनी स्वतंत्र रियासत बना ली। इसी वंश में अलितगी हुआ अलिसगी ने दसवीं शती ईस्वी में मुस्लिम बनकर गजनी में मुस्लिम शासन की नींव डाली तथा पारस और तार्तार क्षेत्र की सीमा पर प्रभाव फैलाया। गजनी के ये पाटण (डाउ इन्हें पाटण ही लिखता है, जो वस्तुत: अहिगणों की एक शाखा है। इस प्रकार गजनवी वंश मूलतः हिन्दू ही हैं। हिन्दू अहिगणों के वंश में उपजे हैं। बाद में हिन्दोस्थान में आगे फैलने की कोशिश करते रहे।
चंगेज खान के मन में हिन्दुओं के प्रति गहरा आदर था।
डाउ लिखता है- "जब एशिया के महान विजेता चिनगिज हान ने अरब देशों की ओर कूच किया तो हिन्दोस्थान के भीतर प्रवेश का उसने विचार ही नहीं किया। नहीं तो गजनी का नामोनिशान मिट जाता पश्चिम एशिया की तरह भारतवर्ष से भी इस्लाम का सफाया हो जाता और हिन्दोस्थान का इतिहास भी कुछ और होता, तब यहाँ इस्लाम का फैलाव हो ही नहीं सकता था।
हिन्दू क्षेत्र में रहने से जीवित बचे रह गये गजनवी गोरी वंश
इस प्रकार यहाँ अलेक्जेण्डर डाठ दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों को गिना रहे हैं-
(1) महान मंगोल भारत का गहरा आदर करते थे।
(2) इसी आदर के कारण वे भारत की सीमा से लौट गये, नहीं तो वे आगे बढ़कर भारत से इस्लाम का सफाया कर देते और तब इस्लाम आज कहीं होता ही नहीं। चंगेज खान के मन में हिन्दुओं और बौद्धों के प्रति गहरा आदर था, इसीलिए उसने भारत के मुसलमानों को भी हिन्दुस्थानी समझकर छोड़ दिया। गजनी-पूर मूलतः हिन्दू रियासतें थीं ही भारतीयों और मंगोलों की नज़र में तब इन गजनवियों- गोरियों की हैसियत केवल दृष्ट लुटेरों की थी, इसीलिए ये बच गये, वरना मंगोल इन्हें कब का साफ़ कर देते। इस प्रकार हिन्दू क्षेत्र में बसने से ये गजनवी-गोरी जीवित बचे।
ये दोनों ऐतिहासिक तथ्य महत्वपूर्ण हैं। मंगोलों के भीतर भारत और हिन्दू धर्म के प्रति गहरे आदर ने हिन्दुस्थान के मुसलमानों को जीवनदान दिया। अतः सभी मुसलमानों को हिन्दू धर्म के प्रति गहराई से कृतज्ञ होना चाहिए और हिन्दुओं का अतिशय आदर करना चाहिए। अगर तथ्य का प्रचार किया जाए, तो निश्चिय ही मुलसमान एक कृतज्ञ कौम के रूप में ऐसा आदर अवश्य करेंगे।
अभी तो उग्रवादी इस्लाम के चाटुकार सेक्युलरिस्टों ने गजनी-गोरी को जाने कितना महत्त्वपूर्ण प्रचारित कर रखा है। जबकि उनकी कुल हैसियत दस्युदलों की थी। अन्यथा चौहान, तोमर, कछवाह, प्रतिहार, चन्देल, परमार, कलचुरि, पाल, सोलंकी, चालुक्य, कलिंग, चोल में से एक-एक साम्राज्य में इन्हें कुचलने की भरपूर सामर्थ्य थी। कुछ दयनीय लोग बाद में इस्लाम के फैलाव का दोष उन महान परम पूजनीय हिन्दू सम्राटों को देते हैं। जबकि ग्यारहवीं-बारहवीं शती ईस्वी में विराट हिन्दू वैभव और ऐश्वर्य के समक्ष इनकी कोई हैसियत ही नहीं थी। अभी के नक्सलियों एवं अन्य आतंकवादियों जैसी स्थिति में ही तब थे ये मुस्लिम दस्यु दल। निश्चय ही इन्होंने मन्दिरों के ध्वंस का राक्षसी पापाचार किया, पर वह राक्षसी कर्म था, कोई राजसी कार्य नहीं। बाद के परिदृश्य को अतीत में आरोपित करना उचित नहीं। बाद में भी, भारत में मुस्लिम शासकों में से अधिकांश का चरित्र विचित्र रूप से मिश्रित प्रकार का रहा हिन्दुओं पर प्रायः उनकी निर्भरता बनी रही और दूसरी।
और ये मुस्लिम उग्रवादियों का संरक्षण भी करते रहे। हिन्दुओं को जानना चाहिए कि बारहवीं से सोलहवीं शती ईस्वी के पाँच सौ. वर्षों में भारत में कुछ हिस्सों में इस्लाम का फैलाव महाकाल के रहस्यमय नियमों का, कालप्रवाह का परिणाम है। वह न तो इस्लाम की किसी अन्तर्निहित शक्ति का परिणाम है और न ही वह हिन्दू धर्म की किसी अन्तर्निहित कमजोरी का प्रमाण है। तर्क-बुद्धि से सब कुछ समझा नहीं जा सकता।
इसी भूमिका में डाठ बताता है कि मुस्लिम फौजों को रसद की पूर्ति कैसे होती है।" डाउ यह भी बताता है कि "हिन्दुस्थान में अन्न का प्रचुर उत्पादन है। इसलिए भरपूर आपूर्ति आसानी से होती रहती है। लगभग सभी इलाकों में हर साल दो से तीन फसलें ली जाती हैं।" वह यह भी बताता है कि मुस्लिम फौजों की तनख्वाह साठ रुपये प्रतिमाह से दो सौ रुपये प्रतिमाह तक है।
ब्राह्मणों के विरुद्ध झूठा प्रचार
पहले अध्याय में ही डाठ बताता है कि "आधुनिक क्रिश्चियन यूरोपीय यात्रियों ये हिन्दुओं, विशेषतः ब्राह्मणों के बारे में यूरोप में बिल्कुल गलत और झूठी जानकारी दी है। जिससे यूरोपीय लोग बेकार ही ब्राह्मण विरोधी हो गये हैं, जो कि अनुचित है और अन्यायपूर्ण है। मैं खुद पहले ऐसी ही धारणाओं से ग्रस्त था। विद्वान ब्राह्मणों से सम्पर्क के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी जानकारी कितनी गलत थी। ब्राह्मण तो संयमी सदाचारी और विद्वान होते हैं।
भारत के इस्लामीकरण की योजना है, यह तथ्य है
डाठ का यह विवरण यहाँ देने का यह उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं है कि पाठक यह भ्रान्ति पाल लें कि संगठित मिल्लत द्वारा भारत के इस्लामीकरण के योजनाबद्ध और चरणबद्ध प्रयास नहीं हो रहे हैं। निश्चय ही तबलीग से दीक्षित प्रबुद्ध मुसलमानों का लक्ष्य भारत का और विश्व का सम्पूर्ण इस्लामीकरण है'ला गर्बिया ला शर्तिया इस्लामिया इस्लामिया' यह उनका नारा है। परन्तु वे कोई दैवी शक्ति नहीं हैं कि उनकी आकांक्षा सिद्ध होगी और संकल्प सफल होगा।
पाप को नष्ट करना पुण्य है
प्रबुद्ध और जागृत धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का परमकर्तव्य है कि वे मुस्लिम एवं ख्रीस्तीय साम्राज्यवादी और मजहबी तथा रेलिजस योजनाओं, विचारों, धारणाओं, मान्यताओं को जानें और अगर उनमें तनिक भी धर्म संस्कार, धर्मनिष्ठा एवं धर्मबुद्धि है तो इन योजनाओं और मान्यताओं में जो कुछ असत्यपूर्ण या पापमय है, उसे विफल और विनष्ट करने का पुण्यकर्म यथाशक्ति अवश्य करें वैसे ही जैसे कि स्वयं अपने समाज के भीतर व्याप्त असत्य और पाप को नष्ट करना वे अपना कर्तव्य मानते हैं। क्योंकि हिन्दू धर्म पंथ, रेलिजन या मजहब के आधार पर कर्तव्य की दृष्टि से कोई भी भेदभाव नहीं सिखाता। अतः सार्वभौम सिद्धान्तों के आधार पर ही निर्णय लिये जाने चाहिए।
हिन्दुओं को सर्वप्रथम तो अपने बीच में विद्यमान एजेण्टों और ऐसे हद्बुद्धि तथा दीनहीन बुद्धि वाले तथाकथित शिक्षितों को अच्छी तरह जानना चाहिए जिनका अज्ञान भयावह है। इस अज्ञान के कारण ही भ्रामक एवं अनर्थकारी अनुवादों के द्वारा हिन्दुओं का भयंकर अनिष्ट हुआ है और हो रहा है जिसके कुछ दृष्टान्त आगे दिये जायेंगे।
वस्तुतः उस काल को मुस्लिम काल कहना ऐसा ही है, जैसे चीन द्वारा 20,000 किलोमीटर भारतीय क्षेत्र हथियाने के वर्ष 1962 से भारत को चीन का गुलाम हो गया बताना ।
धर्म निरपेक्ष यानी अधर्मी था गजनवी
स्मरणीय है कि गजनी कभी भी कोई राष्ट्र नहीं था। एक रियासत थी। जैसे अन्य भारतीय राजा आपस में लड़ते थे, वैसा ही महमूद नामक यह भारतीय मुस्लिम जागीरदार अन्यों से लड़ा। अन्तर केवल यह है कि हिन्दू राजा मर्यादा मानते थे, महमूद गजनवी भयंकर राक्षसी, बर्बर नृशंस एवं महापापी तथा विधर्मी था पर वह किसी भिन्न राष्ट्र का न था। विधर्मी था, धर्मशून्य था, धर्मनिरपेक्ष था, पर विदेशी नहीं था।
निरन्तर हिन्दू विस्तार की अवधि चौथी से सोलहवीं शती ईस्वी
ग्यारहवीं शताब्दी में चोलों और चालुक्यों के भारतीय राज्य कितने विशाल थे, यह नक्शा क्र.-13 में कॉलिन डेवीज ने दर्शाया है। चौदहवाँ नक्शा यह दर्शाता है कि कैसे इसी अवधि में हिन्दू राज्य सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, वाली, कम्बोडिया, चम्पा, मलय देश, दक्षिणी म्यांमार आदि में फैले " उसने इसे शीर्षक भी दिया है- 'हिन्दू एक्सपेंशन इन दि आकिपेलगो' जिस अवधि को विदेशी हिन्दू विस्तार की अवधि मानते हैं, उसे आत्मनिन्दक लोग संकुचन की अवधि बताते हैं चौथी शती ईस्वी से सोलहवीं शती ईस्वी तक हिन्दुओं ने इन देशों में राज्य किया ।" ये राज्य स्पष्ट सैनिक आक्रमण द्वारा प्राप्त किए गए थे। इसके अतिरिक्त तिब्बत, चीन, जापान आदि में भारत का बौद्धिक- सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक प्रभाव इसी अवधि में फैला। इस प्रकार चौथी से सोलहवीं शती ईस्वी महान हिन्दू विस्तार, वैभव एवं साम्राज्य- प्रसार का युग है। पराभव का नहीं। यह भी एक गढ़ा गया झूठ है कि भारतीयों ने कभी भारत की सीमा से बाहर आक्रमण नहीं किया। सदा से वीर और प्रतापी भारतीय नरेश बाहर आक्रमण करते रहे हैं। परन्तु सदा मर्यादित धर्ममय युद्ध करते हुए।
लूट, पापाचार अलग है, राजनैतिक आक्रमण अलग
जहाँ तक भारत में मुस्लिम शासन की बात है, उससे जुड़ी मुख्य चीज यह है कि सर्वप्रथम तो इस्लाम के नाम पर की गई लूटों, अकारण हत्याओं और अत्याचारों की बात है, उन राक्षसी कर्मों की जिम्मेदारी तो मजहबी मतान्धता और अनैतिकता की है, उसका एक तो हिन्दुओं की किसी कमी या दोष से कोई रिश्ता नहीं, दूसरे मुस्लिम लुटेरों, डाकुओं और हत्यारों द्वारा किए गए पाप अलग कोटि के माने जाएँगे तथा मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए आक्रमण अलग कोटि के दोनों को मिलाना अनुचित है भले ही दोनों में कुछ समानताएँ हैं। जैसा स्पष्ट हो चुका है मुहम्मद बिन कासिम लुटेरा था, राजा नहीं। उसकी लूट पापाचार है, परन्तु राजनैतिक आक्रमण नहीं। राजनैतिक आक्रमण केवल राजा करता है और सेना के साथ करता है। इसी प्रकार सिन्ध, राजस्थान, गुजरात में मारे गये छापे भी राजनैतिक आक्रमण नहीं माने जायेंगे। पापाचार वे अवश्य हैं। उस पर चर्चा करनी है तो इस्लाम में अन्तर्निहित दोषों की चर्चा करें, हिन्दू राजनीति के दोषों की नहीं।
उग्रवादी मज़हबी प्रेरणा के दोषों को जानें
हाँ, महमूद गजनवी एक भारतीय रियासत का जागीरदार था, जिसने लोभ से तथा पाप की प्रेरणा से अन्य भारतीय हिस्सों पर आक्रमण किया, लूट लूट के की तथा मूर्तियाँ एवं मन्दिर तोड़ने और जबरन मुसलमान बनाने का पाप किया। यह राजनैतिक पापाचार एवं राक्षसी कर्म है, क्योंकि पड़ोसी रियासतों पर चढ़ाई तो हिन्दू राजा भी करते थे, पर वे ऐसे पाप नहीं करते थे। अतः महमूद गजनवी के पापपूर्ण कृत्यों को इस्लामी मजहबी प्रेरणा में अन्तर्निहित दोषों के रूप में देखना होगा। इसमें हिन्दुओं को किसी कमजोरी का कोई प्रसंग नहीं है।
तुर्की या अरब से नहीं आई थी सेना
छोटे-छोटे राज्य उन दिनों केवल भारत में न थे, अरब, तुर्की, ईरान, इराक, यूनान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सर्वत्र थे। गजनी के इस जागीरदार को भी मदद के लिए तुर्की या अरब से कोई सेना नहीं भेजी गई थी, जैसा क्रूसेड के समय विविध यूरोपीय राज्य मुसलमानों के विरुद्ध करते थे। वैसा यहाँ कुछ नहीं हुआ था । अतः क्रिश्चियन यूरोपीयों के पढ़ाये पाठ से गजनवी के पापों को नहीं देखना चाहिए। हिन्दू दृष्टि से वह एक राक्षस पापिष्ठ था। कोई वीर विदेशी राजा नहीं भारत का ही एक पापिष्ठ जागीरदार।
वीरता में कम नहीं हैं हिन्दू
इस्लाम के नाम पर किए गए पापों और क्रूरताओं तथा छल से कई बार हिन्दू राजा हार गए तो इसका यह अर्थ नहीं कि हिन्दू वीरता में कम हैं या मूर्खतापूर्ण ढंग से उदार हैं या उनमें किन्हीं मानवीय गुणों की कोई कमी है।
बहस के मुद्दे
इस्लामी अनाचार मजहबी उन्माद और लूट की लिप्सा, दोनों था। पर यह किसी भी अर्थ में राजनैतिक वीरता नहीं है और विदेशी आक्रमण नहीं है। बहस के मुद्दे केवल ये बनते हैं-
(1) इस्लाम में खुले राक्षसी दुष्कर्मों को मजहबी प्रेरणा है या नहीं? है तो क्यों?
(2) क्या हिन्दुओं को इसके प्रत्युत्तर में आततायी समूहों पर बढ़कर प्रहार करने की नीति अपनानी चाहिए और उसमें नीति-अनीति, मर्यादा अमर्यादा की नई परिभाषा गढ़नी चाहिए? ऐसी आततायी मजहबी प्रेरणा को धर्म माना जाए या घोर अधर्म? क्या इन घोर अधर्म के केन्द्रों पर बढ़कर प्रहार करना धर्म है? यदि हाँ, तो क्या आज हम कहीं भी ऐसा कर पा रहे हैं? नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों? हमें इसके उत्तर में क्या गजनी की और गजनवी के पूरे इलाके की सभी मस्जिदें तोड़ डालनी चाहिए थी और ऐसी मजहबी पढ़ाई के सभी केन्द्रों को जिन्दा जला डालना चाहिए था या नहीं? अगर आप आज ऐसा नहीं कर रहे हैं, जब इस्लाम के नाम पर 'डायरेक्ट एक्शन' की भयंकर मारकाट के जरिये भारत का विशाल भूभाग इस्लामी शासन के नियंत्रण में पाकिस्तान और बांगलादेश के नाम से लाया जा चुका है और आपके पास एक केन्द्रीकृत सेना है, 'स्टैंडिंग आर्मी' है, पहले से अधिक शस्त्रास्त्र हैं, तो उन दिनों जब इन लुटेरों की हैसियत बेहद कम थी, महान हिन्दू राजागण किन सिद्धान्तों के आधार पर सारी मस्जिदें नष्ट कर देते? इस पर गम्भीर विमर्श आवश्यक है।
इन्हीं प्रश्नों पर विमर्श करणीय है। हिन्दुओं की कमी गिनाने का तो इसमें कोई प्रसंग ही नहीं बनता। ये ही प्रश्न गोरी के सन्दर्भ में भी उठेंगे, क्योंकि गोर भी एक भारतीय रियासत है। फिर ये ही प्रश्न गुलाम वंश को लेकर उठेंगे।
जलालुद्दीन फिरूज उर्फ खिलजी वंश को लेकर विदेशी मूल की बातें कुछ लोग उठाते हैं। यद्यपि वह गान्धार क्षेत्र का था और हिन्दू पूर्वजों की संतति मुसलमान था। परन्तु मूल प्रश्न तो उपरोक्त ही हैं। क्योंकि खिलजियों की मंगोलों से भी भिड़न्त हुई थी और बाद में मुस्लिम मंगोलों का भी सामूहिक क़त्लेआम अलाउद्दीन ने किया। यह मामला उन दिनों देशी-विदेशी का नहीं, पड़ोसी राज्यों में आक्रमण का ही था। खिलजियों को भी अरब या तुर्की की सेना का सहयोग नहीं मिला था। वे अपनी ही सेना लेकर या जुटाकर लड़ रहे थे। अतः प्रश्न लड़ाई में पालनीय मर्यादा का और मन्दिरों मूर्तियों के अकारण विध्वंस रूपी पापाचार का है। यदि भिन्न धर्म वालों के उपासनागृह तोड़ना राजा का धर्म है तो फिर हिन्दुओं को उस धर्म के पालन की प्रेरणा देनी होगी। राजनैतिक निकष और मानक तो सार्वभौम ही होते हैं और होना चाहिए।
पाप का दोष प्रेरणा और प्रेरितों पर आहतों या शिकारी पर नहीं
इन प्रश्नों पर गम्भीर विमर्श के बिना हिन्दुओं के दोष या कमियाँ गिनाने लगना किसी शान्त इतिहास-लेखन का लक्षण नहीं है। सार्वभौम कसौटियों पर ही कोई ऐतिहासिक विश्लेषण सम्भव है। एक साथ अलग-अलग मानक और निकष अपनाना तो विक्षिप्त चित्त का लक्षण है। अगर मुसलमानों के वे राक्षसी दुष्कर्म राजनैतिक कर्म का सामान्य अंग हैं तो फिर वे हिन्दुओं के द्वारा भी करणीय हैं। यदि वे पाप हैं। तो दोष पाप की प्रेरणाओं का है, पाप का शिकार बने समाज का नहीं।
एक अरब से अधिक हैं हिन्दू स्वधर्म ही विचारणीय -
आज हिन्दू निश्शेष नहीं हो गए हैं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में कुल जितने मुसलमान हैं, उतनी ही संख्या आज भारत-नेपाल श्रीलंका-म्यांमार के समस्त हिन्दुओं की है। विदेशों में बसे हिन्दुओं को भी मिला लें तो हिन्दू संख्या अधिक ही बैठेगी। अतः किसी अस्तित्व रक्षा की आतुरता का कोई प्रसंग नहीं है। शान्त चित्त से सार्वभौम निकयों के आधार पर ऐतिहासिक विवेचना आवश्यक है। यह सही है कि यदि आप निहावान हिन्दू हैं तो अकारण मारे गये एक-एक हिन्दू के विषय में पढ़ते ही आपका खून अवश्य खौलेगा, परन्तु हम पुनर्जन्म में श्रद्धावान है पुनर्जन्म पूर्ण सत्य है, यह योग से साक्षात्कृत है। अतः उन महान हिन्दुओं के उत्सर्ग के प्रति श्रद्धा ही सम्यक है। प्रधानतः विचारणीय विषय केवल हिन्दुत्व की रक्षा है। मृत्यु का निमित्त कब, क्या बना, यह गौण विषय है।
इसी के साथ यह तथ्य भी स्मरणीय है कि अलाउद्दीन खिलजी के पहले तो भारत में प्रायः सम्पूर्ण देश में हिन्दुओं का ही शासन था। गजनी और गोरी दो ही रियासतें थीं, जहाँ से निकलकर लुटेरे लूटपाट कर फिर-फिर लौट जाते थे। देश में लोमरों चौहानों प्रतिहारों, सोलंकियों, कछवाहों, कल्चुरियों, चन्देलों, पालों, चालुक्यों, वैगि, भंज-गंग वंश, चोलों, कदम्बों, काकतीयों, होयसलों, यादवों, पाण्डयों आदि का राज्य था तथा हिन्दुओं का चीन, तिब्बत और जापान पर भी व्यापक प्रभाव था। स्याम, सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, बाली, कम्पूच्या, चम्पा, मलय देश तथा द्वीप, म्यांमार, सर्वत्र हिन्दुओं का राज्य था, जो गजनी-गोरी से बहुत बड़ा क्षेत्र है।
यह भी स्मरणीय है कि 1296 से 1317 ईस्वी तक अलाउद्दीन हर बार लूट- लूटकर दिल्ली लौटता रहा और हर बार ये विजित इलाके पुनः हिन्दुओं द्वारा वापस ले लिए जाते रहे। अन्ततः अन्तिम पाँच वर्ष गहरे दुःख में बिताकर 1316 में वह मर गया और शेष अधिकांश इलाके भी पुनः हिन्दुओं ने हथिया लिए। देश के आधे से भी अधिक भाग में अलाउद्दीन के शासन को नजराना देने की मंजूरी की बात करें तो वह 1307 से 1311 ईस्वी के चार वर्षों ही रही। उसके बाद अकबर के समय ही ऐसा हो सका।
मुस्लिम सुल्तानों को वार्षिक नजराना देना कबूल कर हिन्दू राजा संधि के राजधर्म का धर्मशास्त्रीय कर्तव्य निभा रहे थे। उस अवधि को केवल इस आधार पर भारत में मुस्लिम शासन की अवधि बताना मतिमूढ़ता है। हिन्दुओं के देश में उग्रवादी मुसलमानों का पापपूर्ण उभार ही उसे कहा जायेगा। जिन लोगों ने केवल उपासना पद्धति के रूप में इस्लाम अपनाया, वे नितान्त भिन्न श्रेणी के कहे जायेंगे। भारत में उग्रवादी इस्लाम ऐसे ही है, जैसे किसी हृष्ट-पुष्ट देह में कुछ फोड़े हो जाएँ कुछ समय के लिए तो वह देह उन फोड़ों की नहीं हो जाती देह तो देहधारी व्यक्ति की ही रहती है। अपने अत्याचार, नारकीय आचरण, दुर्गन्धित पापाचार और घृणित स्वरूप के कारण यह उग्रवादी मुस्लिम उभार हिन्दू राष्ट्र के शरीर में फोड़ों की भाँति थे और हैं। राष्ट्र तो तब भी हिन्दू ही था। राष्ट्र के बहुलांश पर शासन उस सम्पूर्ण अवधि में हिन्दुओं का ही रहा है। उस पूरी अवधि में भारत हिन्दू राष्ट्र ही रहा है।
सत्य यह है कि भारत के लगभग सभी मुसलमान हिन्दुओं के ही वंशज हैं। उनमें जो भी सामर्थ्य है, वह सब सामर्थ्य हिन्दुओं में भी भरपूर है अतः यदि अपने पंथ के सिवाय शेष सभी पंथों की उपासना को झूठ का प्रसार या पाप का, बदी का, जहालत का, गुनाह का फैलाव मानने का हक़ किसी राजा को है और उस आधार पर दूसरों के उपासना स्थलों को मटियामेट कर देना उचित राजनीतिक कर्तव्य है, तो फिर यही निकष सर्वमान्य हो जाना चाहिए। हिन्दुओं में ऐसे बहुत लोग निकल आएँगे, जो इसकी इच्छा करने लगेंगे। हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कर्त्तव्य, अलग-अलग नैतिकता और अलग-अलग मर्यादाएँ नहीं तय की जा सकतीं। आज अनेक हिन्दू-द्रोही लोग इस्लामी या ईसाई या कम्युनिस्ट एकपंथवाद की सेवा में ऐसे विचित्र विभेदक अलगाव की पैरवी करते हैं और हिन्दुओं को कुछ विचित्र से उपदेश देते हैं पर वे तो मान्य नहीं हो सकते। हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है, न होना चाहिए। साथ-साथ रहना है तो समान नीति, समान कर्त्तव्य और समान निकष मानने होंगे।
एक अन्य स्मरणीय तथ्य यह है कि 1857 ईस्वी में ब्रिटिश भारत में भारतीयों को निःशस्त्र बना दिया गया। तब शान्तिपूर्ण प्रदर्शन, आन्दोलन और बुद्धिबल ही साधन बचा। उधर धृष्ट अंग्रेजी साम्राज्यवादी अचानक नैतिकता और शान्ति तथा सभ्यता की डींगें मारने लगे थे। उनकी सीधे पोल खोलने पर सीधा संवाद सम्भव नहीं था। अतः सभ्य भाषा में उन्हें घेरा जाने लगा। उनकी अनीति और लूट को तथ्यों के आधार पर सामने रखना जहाँ आवश्यक लगा, वहीं 'सिविलाइजिंग मिशन' के उनके दावे के जवाब में उन सद्गुणों में भी भारत की श्रेष्ठता के तथ्य प्रस्तुत किए गए, जिन सद्गुणों के आधुनिक इंग्लैंड में होने का दावा साम्राज्यवादी कर रहे थे। उसी क्रम में भारत को अहिंसा-प्रधान दूसरों के साथ बर्बरता को अधर्म मानने वाला , समाज सिद्ध किया गया।
1947 ईस्वी के बाद गाँधी जी को आड़ बनाकर कुछ ऐसी व्याख्या श्री नेहरू के प्रोत्साहन से की गई, मानो भारत में राजनैतिक कौशल, चतुराई, कंटक-शोधन, दुष्ट दलन, वीरता और तेजस्विता का सर्वथा अभाव रहा हो। परन्तु यह तो सर्वथा असत्य है।
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मुगल वंश और मुस्लिम शासन के कुछ तथ्य
भारत में मुगल वंश के शासन की महिमा कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने बहुत गाई है। यह उनके लिए स्वाभाविक ही है, क्योंकि इसके जरिये वे अकबर को केन्द्र बनाकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आपसी भाईचारे की एक विशेष शक्ल विकसित करना चाहते हैं। अगर यह कामना किन्हीं सार्वभौम और सर्वमान्य आधारों पर टिकी हो, तो यह निश्चय ही स्वागत योग्य कामना है। परन्तु जिस तरह के तर्क दिये जाते हैं, उनसे इस कामना के सार्वभौम होने अथवा सच्चे अर्थों में सदाशयी होने का कोई भी प्रमाण नहीं मिलता।
बाबर की सच्चाई कुल 5 वर्ष लड़कर मर गया
सबसे पहले तो मुग़ल वंश के शासन के ही तथ्यों पर ध्यान देना उचित होगा। बाबर वास्तव में सनातनधर्मी मंगोलों का वंशज था, जो तब तक मुसलमान बन चुके थे। वह 1524 ईस्वी में पंजाब में दाखिल हुआ। 1530 ईस्वी में वह मर गया। 1526 ईस्वी में पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को उसने हरा दिया और कुल चार वर्षों तक दिल्ली और आगरा इन दो रियासतों का मालिक बना। इस अवधि में उसे लगातार मेवाड़ नरेश राणा संग्रमसिंह तथा अन्य राजपूतों से और बंगाल-बिहार के उन अफगान सरदारों से जो जगह-जगह लूटपाट कर जागीरदार बन गए थे, लड़ते रहना पड़ा था। इस प्रकार वस्तुतः वह लड़ते-लड़ते ही मर गया।। उसके चाटुकार भक्त उसे भारत में मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक कहते हैं। उसी समय भारत में विद्यमान विराट राजपूताना संघ, बंगाल, कामरूप, मालवा, गोंडवाना, बरार, ओडिसा, गुजरात, गोलकुण्डा, विजयनगर आदि के साम्राज्य सम्भवतः इन चाटुकारों की दृष्टि में भारत नहीं हैं।
बाबर ने पानीपत जीतने के बाद दिल्ली, आगरा जागीरों पर अधिकार कर बुन्देलखण्ड, बिहार व बंगाल के कुछ हिस्सों में छापे मारे। इसी क्रम में वह पाँच वर्ष बीतते-बीतते, लड़ते-लड़ते मर गया। उस समय उससे दस गुने बड़े इलाके में शताब्दियों से हिन्दुओं के राज्य थे।
लड़ा, पिटा, भागा, फिर लड़ा और मर गया हुमायूँ
हुमायूँ ने दिल्ली-आगरा संभालने के बाद मालवा- गुजरात पर आक्रमण किया और कुछ महीने ही वहाँ उसका प्रभाव रहा। फिर वहाँ हिन्दू शासक प्रबल हो गये। फिर हुमायूँ ने बंगाल की ओर धावा बोला, जहाँ सासाराम (बिहार) के एक जागीरदार के ताकतवर बेटे शेर ने ही उसे धूल चटा दी फिर कन्नौज में भी वह पिटा और भाग गया। भागकर काबुल, कन्दहार में लड़ता-भिड़ता रहा। 15 साल बाद फिर लाहौर पर चढ़ाई की। फिर दिल्ली और आगरा को पुनः जीता, और विजय के कुछ दिनों बाद ही मर गया।
बंदी का सिर काटकर गाजी बना अकबर
अकबर ने 1556 ईस्वी में हेमू से पानीपत में लड़ाई की हेमू विक्रमाजीत कहलाते थे। उन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत का शासन सम्हाल रखा था। यद्यपि आदिलशाह को उन्होंने नाममात्र को राजा मान रखा था। हेमू ने उदार-भाव से सभी वर्गों को सेना में रखा था। युद्ध में हेमू के घायल होते ही अफगान और पठान सैनिक डर कर भाग खड़े हुए। हिन्दू सैनिक भी घबड़ा गए। घायल हेमू बन्दी बना लिया गया। असली लड़ाई बैरम ख़ाँ लड़ रहा था। 14 साल के किशोर अकबर को 'गाजी' दर्शाने लिए बैरम खाँ ने बन्दी हेमू का सिर अकबर से कटवाया। काफिर यानी ग़ैर- मुसलमान का सिर काटने वाले को इस्लाम में 'गाजी' कहा जाता है।" भले ही क़ैद में बंद व्यक्ति का सिर काटा जाए।
कुछ राजपूतों ने अकबर को अपने जैसा क्षत्रिय माना
1561 ईस्वी तक उसके पास केवल पंजाब, दिल्ली और आगरा की रियासतें थीं।" अगले वर्ष उसने मालवा पर चढ़ाई की और जीत गया। तभी आमेर के राजा भारमल्ल ने, जिस पर अजमेर के एक मुस्लिम जागीरदार ने आक्रमण कर पुत्र को बंधक बना लिया था; अपने राज्य को बचाने के लिए अकबर की आधीनता स्वीकार कर अपनी बेटी उन्हें ब्याह दी।
वस्तुतः अनेक ऐसे राजपूतों ने, जिन्होंने अकबर और उसके वंश से सम्बन्ध बनाया, उन्होंने उसे अपने जैसा क्षत्रिय ही माना। उपासना पद्धति सम्बन्धी आस्था किसी व्यक्ति, कुल, वंश या समूह को एक नितान्त भिन्न शील और लक्ष्य वाला जीव बना डालती है, यह संस्कारी परन्तु अप्रबुद्ध हिन्दुओं के गले ही नहीं उतरता। यानी चित्त में ठहरता ही नहीं। घूरी के समय से कई भारतीय राजा-रानी यही चूक करते रहे हैं, जबकि कई अन्य प्रबुद्ध राजा इस्लाम के नाम पर कुछ लोगों में उभरने वाले पापमय आवेगों और अर्घ्य के प्रति पूर्णतः सजग थे। भारमल्ल ऐसे प्रबुद्ध राजा नहीं थे। उनकी क्षत्राणी बेटी मुसलमान बनकर धर्मशून्य हो रही है, यह उन्हें सूझा ही नहीं।
इसी क्षत्राणी से अकबर का बड़ा बेटा सलीम जहाँगीर जन्मा" भारमल के बेटे भगवानदास और गोद लिए पोते मानसिंह को अकबर के दरबार में ऊंचे ओहदे दिए गए। अपनी समझ से भारमल्ल ने कूटनीतिक चतुराई की थी। उन्होंने आमेर (जयपुर) को मुग़लों की लूट तथा बरबादी से बचा लिया और उसे राजपूताने की सबसे धन-सम्पन्न रियासत बना लिया।
मुसलमानों से ब्याही गई क्षत्राणी के बेटों में हिन्दू संस्कारों का सम्पूर्ण विलोप
इस प्रकार अकबर स्वयं सनातनधर्मी मंगोलों के वंश में उत्पन्न मुसलमान है और उसके बाद सलीम क्षत्राणी का पुत्र है।" सलीम का बेटा खुर्रम जोधपुर के राजपूत उदयसिंह की बेटी जगत से उत्पन्न हुआ। यही शाहजहाँ कहलाया। जिसकी दादी माँ और माँ दोनों हिन्दू धीं, ऐसे खुर्रम शाहजहाँ से औरंगजेब पैदा हुआ, जिसने इस्लामी असहिष्णुता की पराकाष्ठा का परिचय दिया। अतः मामला देशी या विदेशी अथवा अरब-तुर्क बनाम भारतीय का बिल्कुल नहीं है। मामला पापिष्ठ, अत्याचारी, भेदभावपूर्ण शासन बनाम मर्यादित धर्ममय श्रेष्ठ शासन का है। किसी विदेशी ने देश को गुलाम नहीं बनाया, न किसी विदेशी मुसलमान का सम्पूर्ण भारत पर कभी भी आक्रमण हुआ, अपितु भारत के मुसलमान शासकों में से बहुलांश ने जितना उनके वश में सम्भव था, उतना अत्याचार किया। ऐसे अत्याचार पहले भी इस्लाम, ईसाइयत आदि के उदय से हजारों वर्ष पूर्व उच्च तथा प्रख्यात ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न दुष्ट पापी करते रहे हैं, जिन्हें राक्षस, अधर्मी, पापी आदि कहा गया। महत्त्व नस्ल या कुल या पंथ का नहीं, आचरण और कर्म का है। यह अवश्य है कि मजहबी प्रेरणा तंत्र की इसमें बड़ी भूमिका है।
गजनवी गोरी सब हिन्दू पूर्वजों की संतति हैं
मुगल वंश के इन तथ्यों के साथ ही सम्पूर्ण मुस्लिम शासन के भी कतिपय तथ्यों का स्मरण आवश्यक है, जिनकी कुछ चर्चा पूर्व में हो चुकी है। गजनी और धूरी या गोरी मूलतः भारतीय रियासतें थीं और इनमें हजारों वर्षों तक हिन्दुओं का ही शासन रहा था, यह हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं। गजनी ने लूटपाट के लिए चाहे जहाँ-जहाँ तक अभियान चलाये, परन्तु वस्तुतः उसका नियंत्रण भारतवर्ष में बहुत ही थोड़े इलाके में और थोड़े समय ही रह पाया। वैसे भी वह स्वयं को सदा गजनी का ही सुल्तान मानता रहा। हिन्दोस्तान का सुल्तान तो उसे कतिपय चाटुकारों ने प्रचारित किया है और स्वाधीन भारत में हिन्दुत्व से अकारण विद्वेष करने वालों ने दरबारियों के उस प्रचार को स्थापित तथ्य की तरह मान्यता दे दी है।
अब तो जालम बिन साहिबान तक को भारत के एक नगर मुल्तान का जागीरदार बताकर दसवीं शती ईस्वी से ही भारत में इस्लामी हुकूमत की जड़ें दिखाई जाती हैं, परन्तु तथ्य यह है कि जालम बिन साहिबान ने केवल एक काम किया था मुल्तान के प्रसिद्ध आदित्य मन्दिर अर्थात् सूर्य मन्दिर में स्थापित भगवान सूर्य की प्रतिमा को नष्ट कर दिया था और उसका विरोध करने वाले पुरोहित को जान से मार डाला था। एक व्यक्ति की हत्या और एक मूर्ति को नष्ट करना ही यदि शासन की स्थापना है तो ऐसी बात करने वालों पर केवल हँसा जा सकता है। जालम बिन साहिबान एक दिन के लिए भी भारत के किसी भी हिस्से में शासन की हैसियत में नहीं था।
गजनी वंश के विषय में विचार हो ही चुका है। अलप्तगिन उस खुरासान का जागीरदार था, जो मूलतः हिन्दू शासन में हजारों वर्षों तक रह चुका था।" गजनी के छोटे-से इलाके में उसने एक छोटी-सी रियासत बनायी। बाद में उसके गुलाम सुबुगिन ने उससे वह रियासत छीन ली और खुद को बगदाद के खलीफा के सामने बहुत बड़े बुतशिकन के रूप में पेश कर उनसे प्रशंसा प्राप्त की, क्योंकि उसने गजनी की रियासत के बड़े-बड़े मन्दिरों को नष्ट किया था और वहाँ स्थापित प्रतिमाओं को तोड़कर उनके कुछ अंश खलीफा के सामने सबूत के रूप में पेश किये थे स्पष्ट है कि तब तक गजनी हिन्दू धर्म का क्षेत्र था। महमूद के बावजूद।
राजपूतों के घूरी वंश में उभरा मुहम्मद गोरी भी भारतीय क्षेत्र का ही एक मुसलमान था, जिसके कुल ने हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपनाया। विदेशी वह किसी भी अर्थ में नहीं था। ये घूरी लोग कहीं के भी राजा नहीं थे, साधारण जागीरदार थे।" किसी बड़े देश पर आक्रमण केवल राजा किया करते हैं, लुटेरे क़िस्म के जागीरदारों की लूट और डकैती को किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं कहा जाता।
गुलामवंशी रियासतदार कभी भी भारत के शासक नहीं थे
1206 से 1290 तक दिल्ली रियासत की गद्दी पर जिन दस गुलामों ने कब्जा जमाये रखा, उन्हें भी भारत का शासक बताना शासन और भारत दोनों के ही विषय में घोर अज्ञान है। वह अवधि किसी चक्रवर्ती सम्राट की नहीं थी। यद्यपि एक अर्थ में ठीक उसी समय भारत में अनेक बड़े-बड़े सम्राट थे जिनके सामने इन गुलाम जागीरदारों की कोई भी हैसियत नहीं थी।
महान हिन्दू राज्यों की व्याप्ति: पाल और पाण्ड्य साम्राज्य
बंगाल में महान पाल वंश था, जिसका शासन बंगाल से कश्मीर तक और हिमालय से नर्मदा तक था। जावा के शैलेन्द्र वंश से भी इस साम्राज्य के दूत सम्बन्ध थे और शैलेन्द्र वंशी सम्राट ने नालन्दा में एक बौद्ध बिहार की स्थापना भी 9वीं शताब्दी ईस्वी में सम्राट देवपाल की अनुमति से की थी" पाल वंश का शासन 12वीं शताब्दी तक उत्तरी भारत के बड़े हिस्से में बना रहा। इसी प्रकार पाण्ड्यों का शासन 16वीं शताब्दी तक दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से में रहा। केप कामोरिन तथा कारोमण्डल तट से त्रावणकोर तक इनका शासन लगभग 1600 वर्षों रहा, जो बीच-बीच में घटता-बढ़ता रहा।" ऐसे विशाल राज्य के स्वामी को स्मरण न कर दिल्ली के जागीरदारों को ही भारत का शासक बताना किस मानसिकता का द्योतक है, यह स्पष्ट है।
चोल और केरल साम्राज्य
दक्षिण भारत के चोल और चेर या केरल साम्राज्य भी आकार में बहुत बड़े थे और वैभव में अतुलनीय थे। दसवीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक चोलों ने विशाल क्षेत्र में राज्य किया और चोल प्रशासन अत्यधिक व्यवस्थित और संगठित था तथा ग्राम पंचायत प्रणाली पर आधारित था। चोल मण्डलम् के प्रशासन पर विस्तृत अध्ययन हुए हैं। चोल वास्तु, शिल्प, मूर्तिकला आदि भी इतिहास के सुविदित तथ्य हैं। मदुरई, रामेश्वरम्, श्रीरंगम, तंजौर, कुंभकोणम् आदि के विशाल मन्दिर चोलों द्वारा दसवीं से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में ही बनवाये गये 14वीं शताब्दी में जब चोल साम्राज्य का यह रूप बदला, तब भी उसका बड़ा अंश विजयनगर साम्राज्य के रूप में हिन्दू शासन का ही क्षेत्र बना रहा।"
चालुक्यों का साम्राज्य विस्तार
चालुक्य सम्राट भी 12वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत के बहुत बड़े हिस्से के स्वामी रहे। पुलकेशिन प्रथम ने छठी शताब्दी ईस्वी में चालुक्य साम्राज्य की स्थापना की थी और अश्वमेध यज्ञ भी किये थे। पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य प्रथम, विक्रमादित्य द्वितीय कीर्तिवर्मा प्रथम, कीर्तिवर्मा द्वितीय और विजयादित्य जैसे प्रतापी चालुक्य राजा जिस वंश ने दिये", उस वंश को भारत के महान शासकों में न गिनकर जिनकी रति केवल गुलाम वंश में है, उनके संस्कार और चित्त को समझना बहुत आसान है। चालुक्यों से देवगिरि के यादवों ने ही शासन प्राप्त किया था, न कि किन्हीं मुसलमानों ने इस प्रकार हिन्दू साम्राज्य की निरन्तरता उस पूरे क्षेत्र में बनी रही थी।
वैभवशाली यादव
देवगिरि के यादवों ने 12वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक वैभवशाली साम्राज्य चलाया।" गुजरात और कर्नाटक के बहुत बड़े क्षेत्र में उनका शासन रहा। 13वीं शताब्दी ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने इस साम्राज्य के वैभव से ललचाकर इस पर आक्रमण अवश्य किया था। परन्तु यह आक्रमण उसे बहुत महँगा पड़ा।
उसके पूर्व अलाउद्दीन ने गुजरात के महान हिन्दू सम्राट राजा कर्णदेव पर आक्रमण किया था और उनकी श्रेष्ठ और परम सुन्दरी कन्या को छीनने का प्रयास किया था, जिससे वह कन्या भागकर यादव महाराज रामचन्द्र देव की शरण में जा पहुँची थी, जिसका बहाना बनाकर खिलजी ने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया था और गुजरात की बहुत बड़ी हिन्दू सेना भी उसके साथ थी, क्योंकि नरेश की पराजय के बाद वह सेना उसके नियंत्रण में आ गयी थी।" हिन्दू सेना के बल पर ही अलाउद्दीन यादव नरेश पर विजय पाने में 14वीं शताब्दी ईस्वी में सफल रहा, परन्तु इस युद्ध से वह इतना टूट गया कि लौटने के तत्काल बाद वह अत्यधिक अस्वस्थ हो गया और चार वर्षों तक बुरी तरह बीमार रहकर, शारीरिक रोगों और मनोरोगों दोनों के साथ 02 जनवरी, 1316 ईस्वी को वह मर गया ।" उसकी बुद्धि यादव सम्राट से युद्ध के समय से ही नष्ट हो गयी थी और उसका गुलाम, जिससे उसके यौनाचार के सम्बन्ध थे काफूर ही सेनापति बनकर इसके बाद युद्ध लड़ता रहा था। अलाउद्दीन - खिलजी को इस युद्ध के बाद से अपनी बीवियों और लड़कों पर भरोसा नहीं रहा। निर्णय लेने की उसकी क्षमता नष्ट हो गयी। इस प्रकार यादव नरेश से टकराना बहुत महँगा पड़ा।
प्रचार सामग्री अलग है, इतिहास अलग
इतने महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक महत्त्व के तथ्यों की उपेक्षा कर केवल पाँच वर्ष के लिए भारत के शहरी क्षेत्रों से नजराना और भेंट वसूलने की हैसियत में आ जाने को सम्पूर्ण भारत का शासक बताना ऐतिहासिक बुद्धि के अभाव का सूचक है। हाँ, वह एक प्रकार की राजभक्ति का लक्षण अवश्य है। ऐसा लगता है कि इस तरह का इतिहास लिखने वाले कलमकार किन्हीं शासकों को प्रसन्न करने के लिए प्रचार सामग्री लिख रहे हैं और प्रामाणिक तथ्यों की उपेक्षा कर रहे हैं।
अवध की सचाई
जहाँ तक अवध क्षेत्र की बात है, गोरी के समय भारत में आये उसके कुछ सहायकों ने बहुत धीरे-धीरे अवध के इलाके में जमीनें खरीदी और बसते गये तथा थोड़ी संख्या बढ़ने पर एक इलाके के जागीरदार बन गये। बाद में दिल्ली के सुल्तानों की सेवा का वचन देकर उन्होंने उनसे कुछ मदद हासिल की और जौनपुर के हिन्दू राज्य को जीतने में सफलता पाई। अकबर के समय ही वस्तुतः अवध पर स्पष्ट मुस्लिम शासन माना जा सकता है। परन्तु अवध का यह शासन अनेक हिन्दू जागीरदारों और रियासतदारों की मदद से ही चलता रहा और इसीलिए हिन्दुओं ने कभी भी उसे नितान्त पराया नहीं माना। स्वयं अयोध्या में निरन्तर हिन्दू राजा राज्य करते रहे। अवध को अपना मानने के कारण ही जब अवध के नबाव के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों ने गद्दारी की और उनकी सेना को भंग करने को कानूनी छल-कपट की आड़ लेकर विवश कर दिया, तो उस सेना के हज़ारों ब्राह्मण-क्षत्रिय तथा यादव सिपाही कुपित हो गये और सम्पूर्ण अवध में कम्पनी को पीटने की तैयारी होने लगी। अवध के इन्हीं किसान परिवारों की बड़ी संख्या तथाकथित रॉयल बेंगाल आर्मी में थी, जो वस्तुतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा खड़ी की गई एक सुरक्षा एजेन्सी ही शुरू में बतायी गयी थी और बाद में अचानक कम्पनी ने उसे सेना कहना शुरू कर दिया। इस तथाकथित रॉयल बेंगाल आर्मी में सबसे ज्यादा ब्राह्मण सैनिक ही थे और 1857 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दण्डित करने के लिए जो अभियान प्रारम्भ हुआ, उसमें इन्हीं सैनिकों की अग्रणी भूमिका थी।
महान सम्राट गांगेय देव विक्रमादित्य
महान कलचुरि नरेश सम्राट गांगेय देव विक्रमादित्य 11वीं शताब्दी ईस्वी के एक महान सम्राट थे वे जितने बड़े साम्राज्य के स्वामी थे, उतने बड़े तो दिल्ली के कोई भी सुल्तान अधिकांश समय हो ही नहीं पाये। केवल कुछ वर्षों के लिए अवश्य इन सुल्तानों का राज्य महाराज गांगेय देव के राज्य के आकार से थोड़ा बड़ा रहा। महाराज गांगेय देव 11वीं शताब्दी ईस्वी में उत्तरी भारत के सर्वशक्तिमान सार्वभौम सम्राट थे और उनसे टकराने की हिम्मत महमूद गजनी ने एक दिन भी नहीं की थी। यद्यपि महमूद गजनी 1030 ईस्वी तक खुद को गजनी का सुल्तान बताता। रहा और महाराज गांगेय देव 1015 से 1040 ईस्वी तक उत्तरी भारत के एक प्रतापी सम्राट बने रहे।
तथ्य यह है कि गजनी और गोरी दोनों ही संधि देखकर सुरक्षित राष्ट्रों से आगे बढ़ते थे और उन्होंने कभी भी रास्ते के सभी सम्राटों से टकराने का साहस नहीं किया, बल्कि लूट की अपनी रणनीति पर ही उनका चित्त एकाग्र रहा। मुहम्मद गोरी को उसके चाटुकार दिल्ली सल्तनत का संस्थापक बताते हैं, परन्तु सत्य यह है कि लूट के बाद हर बार वह अपनी राजधानी वापस लौट जाता था और दिल्ली की जागीर उसके कुछ प्रतिनिधि सँभालते रहते थे।
महाराज भीमदेव ने मार भगाया था गोरी को
यह तथ्य आसानी से भुला दिया जाता है कि 1137 ईस्वी से उसने भारत में लूटपाट शुरू की थी और 40 साल बाद भी उसकी कुल हैसियत यह थी कि 1178 ईस्वी में गुजरात के महान चालुक्य सम्राट भीमदेव द्वितीय ने उसे बुरी तरह मार भगाया " बाद में उसने पंजाब के एक छोटे-से जागीरदार, अपनी ही बिरादरी के खुसरो मलिक को लूटकर उससे जो धन पाया, उसका इस्तेमाल लूट की ताकत बढ़ाने में किया और धीरे-धीरे दुबारा बलवान हो गया। यह खुसरो मलिक महमूद गजनवी का प्रतिनिधि था और इसकी लूट के बाद ही गजनवी वंश का अन्त माना जाता है, जिससे स्पष्ट है कि गजनवी वंश की भारत में वास्तविक हैसियत क्या थी ?
महाराजा पृथ्वीराज से भी पिटकर भागा था गोरी
1178 ईस्वी में महाराज भीमदेव द्वितीय द्वारा मार भगाये जाने के बाद 14वें वर्ष में 1191 ईस्वी में उसने दिल्ली पर चढ़ाई की कोशिश की, जहाँ से महाराज पृथ्वीराज ने उसे बुरी तरह मार भगाया और युद्ध क्षेत्र से भागकर उसने अपने प्राण बचाये" इतिहास-लेखक को तो शान्त-चित्त से तथ्य प्रस्तुत करना चाहिए। गोरी की जीत की चर्चा उत्साह से करने वाले उसकी पिटाई, हार और पलायन की भी चर्चा वैसे ही उत्साह में करें, तभी वे सचमुच इतिहासकार कहे जा सकेंगे। खुद को हिन्दू मानकर हिन्दुओं की तनिक सी पराजय से दुःखी होकर हताश हो जाना या फिर हिन्दुत्व से विद्वेष रखकर केवल उसकी।
बाद में 1192 ईस्वी की लड़ाई में उसने महाराज पृथ्वीराज को पराजित करने में तात्कालिक सफलता अवश्य पा ली, परन्तु इसके बाद वह सीधे अपने राज्य को लौट गया।" दिल्ली पर उसका अधिकार 1192 ईस्वी में भी नहीं हो पाया था ।" वह तो अगले वर्ष उसके एक गुलाम ने दिल्ली की जागीर पर छल-बल से कब्जा किया, जिसका नाम कुतुबुद्दीन ऐबक है। इस प्रकार दिल्ली पर तो मुहम्मद गोरी का शासन उन वर्षों में कभी हुआ ही नहीं।
कुल तीन वर्ष दिल्ली जागीर पर रहा गोरी का प्रतिनिधि
1193 ईस्वी के बाद 10 वर्षों तक गोरी लगातार गजनी के इलाके में ही युद्धरत रहा और 1203 ईस्वी में किसी तरह वह 3 वर्ष के लिए दिल्ली का जागीरदार बन पाया ।" उस अवधि में भी वह दिल्ली में तो कभी रहा ही नहीं और इस प्रकार तथ्यतः वह दिल्ली की गद्दी पर कभी नहीं बैठा 1206 ईस्वी में जब वह लाहौर से गजनी जा रहा था, उस समय पंजाब के खोखरों ने छुरा मारकर उसका वध कर डाला।
दस्यु के सिवाय बाबर - हुमायूँ की कोई हैसियत नहीं भारतीय इतिहास में
जहाँ तक मुगल राजवंश की बात है, बाबर और हुमायूँ वस्तुतः भारत में शासन कर नहीं पाये। कुल 4 वर्ष के लिए बाबर ने एक इलाके में अधिकार किया और लड़ते-लड़ते ही मर गया।" हुमायूँ तो 26 वर्षों में से 15 वर्ष भारत से बाहर ही भागा-भागा फिरता रहा और वस्तुतः कुछ महीनों के लिए ही वह भारत के छोटे से हिस्से में शासक हो पाया।
अकबर से शुरू है भारत की मुगलिया जागीर
अकबर ने अवश्य दीर्घकाल तक भारत के बड़े हिस्से में कब्जा जमाने में सफलता पाई, परन्तु इसके लिए तत्कालीन राजपूतों पर उसकी निर्भरता सर्वविदित है और केवल इस्लाम के बल पर अकबर एक दिन को भी सफल नहीं हो सकता था। हिन्दुओं के ऐसे विराट समर्थन को पाकर भी और मुख्यतः हिन्दू शक्ति पर निर्भर होकर भी तथा स्वयं बाद में मुस्लिम मतान्धता से मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी अकबर के शासन में हिन्दुओं के विरुद्ध लगातार मजहबी प्रचार चलते रहे और हिन्दुओं के विरुद्ध तथा मुसलमानों के पक्ष में सरकारी खजाने का बहुत बड़ा धन लगातार लगाया जाता रहा। यद्यपि यह भी उतना ही सत्य है कि अकबर के समय हिन्दुओं का सबसे कम दमन हुआ। जजिया हटा, गोवध रुका, मन्दिरों के निर्माण से प्रतिबन्ध हटा और पुराने मन्दिरों के पुनरुद्धार पर से प्रतिबन्ध हटा। क्योंकि अकबर पूर्णत: हिन्दू सेनानियों पर निर्भर था।
हिन्दुओं पर निर्भर अकबर की इस्लामी मतान्धता क्या दर्शाती है?
इससे केवल यह पता चलता है कि इस्लाम में अभी तक ऐसी कोई धारा के सूत्र स्पष्ट नहीं हो सके हैं कि जिनके आधार पर वह ग़ैर-मुसलमानों के प्रति आत्मीयता, प्रेम और बराबरी का कोई व्यवहार सिखा सकती हो। ऐसी कोई भी अधिकृत धारा आज तक इस्लाम में उभरी देखी नहीं गई है। अतः जाग्रत हिन्दुओं को इस्लाम के इस पक्ष की उपेक्षा कभी भी नहीं करनी चाहिए। उपेक्षा करने पर वह प्रज्ञापराध कहलायेगा। हिन्दुओं पर निर्भर अकबर के समय हिन्दुत्व के प्रति मुस्लिम मतान्धता की अत्याचारी मार कुछ कम तो हुई, पर जारी रही इस्लामी मतान्धता का दबाव उसे घेरे रहा।
शेष मुग़लों में था हिन्दू रक्त
जहाँ तक जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के शासन की बात है, लगभग 100 वर्षों तक (1606 ईस्वी से 1707 ईस्वी तक ) चले इस शासन में राज्यकर्ता के शरीर में हिन्दू रक्त बह रहा था, फिर भी उनके शासन में उदारता नहीं देखी गयी। इससे इस्लाम के द्वारा दी जाने वाली प्रेरणाओं के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। इनमें से किसी ने भी हिन्दुओं और मुसलमानों को अपनी प्रजा समान रूप से मानने का कोई भी व्यवहार नहीं किया। यह एक गम्भीर चिन्तन का विषय है। रक्त से आधे हिन्दू, पर आचरण में कट्टर मुसलमान ही रहे ये तीनों यह है मजहब का प्रचण्ड दबाव। हिन्दुओं को सोचना चाहिए कि वे भी राज्यकर्त्ताओं पर दबाव बनाये रखने का तंत्र कैसे रखें।
अकबर की मृत्यु के समय हिन्दुओं के सहयोग से चल रहा राज्य काबुल से प्रयाग, पटना होते हुए बंगाल तक तथा काश्मीर से सौराष्ट्र, खानदेश और बरार तक था। इसमें भी राजपूतों, बंगीय हिन्दुओं तथा मध्यप्रदेश के हिन्दू नरेशों की राज्य में हिस्सेदारी थी। सम्पूर्ण गोंडवाना अर्थात् महाकौशल और छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा, गुजरात का अधिकांश हिस्सा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र, तमिलनाडु और केरल उस शासन के अधीन एक दिन को भी नहीं था। यह पूरा क्षेत्र मिलाकर आधे से थोड़ा ही कम भारत है। इस प्रकार अकबर का शासन आधे से थोड़े ही अधिक भारत में था और वह शासन किसी भी अर्थ में केवल मुसलमानों का शासन नहीं था। उस समय सम्पूर्ण राजपूताने में राजपूतों का राज्य था, जो अकबर को भेंट और नजराने देते थे। यही स्थिति बंगाल के हिन्दू शासकों की थी और मालवा के हिन्दू शासकों की भी।
यह जितना मुसलमानों का राज्य था, उतना ही हिन्दुओं का भी। यद्यपि शासन मुसलमानों के प्रति पक्षपात से वैसा ही भरा था, जैसा कि विगत 63 वर्षों से भारतीय राज्य है। इस्लाम को पूरा राजकीय संरक्षण, हिन्दुत्व को कोई भी अधिकृत राजकीय संरक्षण नहीं। विधिक रूप से आज भी यही स्थिति है। इस दृष्टि से नेहरू जी आदि अकबर की ही परम्परा के उत्तराधिकारी दिखने लगते हैं। ऐसा शासन सदा ही मजहबी उग्रवाद को अनजाने ही प्रेरिता करता है।
मज़हबी उग्रवाद का पुनः उभार
अकबर की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य में इस्लाम के उग्रवादी स्वरूप ने फिर से अपना रंग दिखाना शुरू किया। जहाँगीर ने कांगड़ा पर चढ़ाई की, अफ़गानों से भी उसका टकराव हुआ और मेवाड़ के राणा अमरसिंह से भी उसका प्रचण्ड युद्ध हुआ, परन्तु शीघ्र ही वह विलासिता में डूबता चला गया po
हिन्दू हृदय सम्राट छत्रपति शिवाजी
शाहजहाँ का शासन वस्तुतः मुस्लिम आधिपत्य वाले इलाकों में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं कर पाया। इसी समय हिन्दू हृदय सम्राट महानतम वीरों में से एक छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के उत्कर्ष ने मुग़ल आकांक्षाओं को तोड़कर रख दिया। वस्तुतः श्री शिवाजी महाराज के पिताजी विजयनगर साम्राज्य के एक महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे और राजनीति तथा सैन्य नीति के जानकार थे।" उनकी माँ जीजाबाई एक परम तेजस्विनी धर्मनिष्ठ हिन्दू स्त्री थीं। साथ ही महाराष्ट्र में एक परम तेजस्वी धर्माचार्य समर्थ गुरु श्री स्वामी रामदास का आध्यात्मिक सूर्य चमक रहा था। इन सबके प्रभामण्डल ने और इन सबकी शिक्षा और दीक्षा ने पूर्वजन्म के श्रेष्ठ संस्कारों को लेकर उत्पन्न छत्रपति शिवाजी महाराज के तेजस् को निखारा और उन्होंने अद्वितीय राजनैतिक तथा कूटनैतिक और रणनैतिक बुद्धि कौशल, सैन्य तैयारी और सैन्य आक्रमण की दक्षता का परिचय देते हुए मुग़ल साम्राज्य को खोखला कर डाला ( छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर न्यायोचित विचार एक स्वतंत्र पुस्तक में ही सम्भव है। यहाँ केवल प्रासंगिक चर्चा ही की जा सकती है।
प्रारम्भ से ही उन्होंने पूरी रणनैतिक कुशलता से कार्य किया और रायगढ़, पुरन्दर, सिंहगढ़, चाकन आदि के दुर्गों को नियंत्रण में ले लिया। बाद में जावली पर आधिपत्य किया और 1659 ईस्वी में अत्यधिक कुशलता से मुस्लिम सेनानायक अफजल खाँ की छाती बघनखे से फाड़ डाली और इसके बाद बीजापुर के सुल्तान की सेनाओं को पराजित कर अपनी शक्ति का विस्तार किया "
औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ ने जब शिवाजी को घेरा तो शिवाजी ने पूरे कौशल से रात्रि में अचानक उसे दबोच लिया किसी तरह भागकर और अपने एक बेटे को गंवाकर तथा अपनी तीन अँगुलियाँ खोकर शाइस्ता खाँ ने अपनी जान बचायी" औरंगजेब ने धूर्ततापूर्वक जयपुर के महाराजा जयसिंह को उनसे युद्ध करने भेजा, जिनके कारण छत्रपति महाराज श्री शिवाजी को 1665 ईस्वी में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी जयसिंह ने शिवाजी को जो वचन दिया था, औरंगजेब ने वचनभंगी बनकर उसे भंग कर दिया और शिवाजी को नजरबन्द बना लिया" बड़ी कुशलता से शिवाजी उस झूठे व्यक्ति के महल से भागने में सफल हुए और तब उन्होंने औरंगजेब के विरुद्ध प्रचण्ड अभियान प्रारम्भ किया डरकर औरंगजेब ने उन्हें राजा की उपाधि प्रदान की तथा दोनों के बीच दो वर्षों तक संधि रही," परन्तु बाद में फिर मुसलमानों ने इस संधि को भंग किया जिससे पुन: शिवाजी को उन्हें कुचलना पड़ा 1674 ईस्वी में रायगढ़ के दुर्ग में छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने हिन्दवी स्वराज की स्थापना का विराट अभियान छेड़ दिया "
वीर महाराजा छत्रसाल का शौर्य
वीर बुन्देला नरेश महाराज छत्रसाल ने भी पहले शिवाजी के विरुद्ध औरंगजेब का साथ दिया महाराज छत्रसाल या महाराज जयसिंह की हिन्दुत्व-निष्ठा एवं देशप्रेम व धर्मनिष्ठा असंदिग्ध है। फिर भी, एक कुछ समय तक दूसरा पूरे समय औरंगजेब के साथ रहा। इससे प्रमाणित है कि यह कभी भी खुला हिन्दू-मुस्लिम युद्ध नहीं था। कम्युनिस्ट मतवाद के प्रभाव से इसे दो स्पष्ट विरोधी वर्गों के युद्ध की तरह न देखकर समग्रता से समझना चाहिए। मुसलमानों की और इस्लाम की हिन्दुओं से खुले युद्ध की हिम्मत 1946 ईस्वी से पूर्व कभी भी नहीं पड़ी। अंग्रेजों और कांग्रेस के संरक्षण में ही वे यह कर सके। अतः हिन्दुओं को अपनी शक्ति और वीरता का गौरवपूर्ण स्मरण सदा रखना चाहिए। हिन्दुओं को मजहबी उग्रवाद से डरने का कोई कारण नहीं। उससे निपटने के उपाय ही विचार योग्य हैं। हिन्दू एक वीर जाति हैं।
महाराजा छत्रसाल को जब औरंगजेब का घिनौना हिन्दुत्व-विरोधी रूप दिख गया तो उन्होंने खुलकर छत्रपति महाराज शिवाजी का साथ दिया। 1665 से 1671 ईस्वी के बीच उन्होंने पूर्वी मालवा में हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। पना उनकी राजधानी थी। 60 वर्षों तक उन्होंने वैभवशाली हिन्दू राज्य चलाया। 1731 ईस्वी में वे परलोक सिधारे छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के पचास वर्ष बाद तक उन्होंने अपना हिन्दू राज्य जीवन्त और वैभवमय रखा। कहा गया है- "छत्ता तेरे राज में। दिप-दिप धरती होय ॥ अर्थात् महाराज छत्रसाल ! आपके राज्य में धरती हीरे सी दमकती है। यह भी कि "इत चम्बल, उत बेतवा, इत नर्मदा, उत टोंक। छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥" महाराज छत्रसाल अजेय योद्धा थे। 60 वर्ष तक उनकी ओर मुग़लों में आँख उठाने की हिम्मत नहीं रही औरंगजेब की मृत्यु के 24 वर्षों बाद तक बुन्देलों का राज्य वैभव दीसत रहा ।
शिवाजी की सैन्य शक्ति और राज्य शक्ति का निरन्तर विस्तार
शिवाजी की सैनिक शक्ति और नौसैनिक शक्ति निरन्तर बढ़ रही थी, उनका राज्य महाराष्ट्र से कर्नाटक तक विस्तृत था और उनके समय मराठों की वीरता से मुगलों की चूलें हिल गयी थीं 1680 ईस्वी में मराठों की शक्ति प्रचण्ड थी और मराठा आधिपत्य में वस्तुतः सम्पूर्ण दक्षिणी भारत आ गया था तथा राजपूतों की भी मराठों से संधियाँ थीं स्वयं वारेन हेस्टिंग्स के समय सम्पूर्ण राजपूताना, सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, विदर्भ, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात मराठा प्रभाव में ही थे तथा मैसूर का हिन्दू राज्य भी पूरे वैभव के साथ था?" इस प्रकार वस्तुतः शिवाजी के उत्कर्ष के बाद से भारत के अधिकांश हिस्सों में हिन्दू शासन ही स्थापित माना जाना चाहिए।
जर्जरित हो टूटता गया औरंगजेब
बाद में शिवाजी के न रहने पर शेष 27 वर्षों तक औरंगजेब ने अवश्य अपने राज्य को दक्षिण में भी फैलाने की पूरी कोशिश की परन्तु इसमें सफलता उसे 24 वर्षों के निरन्तर युद्धों के बाद मिली। पहले तो उसने अपने भाइयों का वध किया। 1659 ईस्वी तक तो वह मुख्यतः भ्रातृवध के अभियान में ही लगा रहा था। इसके बाद अगले 48 वर्षों तक उसने अपनी शक्ति को बढ़ाने की लगातार कोशिश की थी। यद्यपि स्वयं उसके पुत्र उसके विरोधी रहे। अपने एक बेटे को उसने 1676 ईस्वी में गुप्त रूप से मरवा डाला। यह शिवाजी की मृत्यु के चार वर्ष पूर्व की घटना है। इससे स्पष्ट है कि औरंगजेब तक कितना असुरक्षित और भयभीत तथा विक्षिप्त-चित्त हो चुका था। औरंगजेब के दूसरे बेटे को भारत छोड़कर भागकर फ़ारस में शरण लेनी पड़ी, जहाँ वह 1704 ईस्वी में मर गया तथा तीसरा बेटा भी बाद में उत्तराधिकार की लड़ाई में मारा गया। कलह, छल-घात, भीतरी दुःख से जर्जर औरंगजेब टूटता चला गया। उसमें आन्तरिक हीनता और हीनता घर करती गई। दरबारी चाटुकार उसकी झूठी डींगें हाँककर ये तथ्य छिपाते हैं।
पहली बार 1661 ईस्वी में औरंगजेब ने काला मऊ को जीता और फिर असम की ओर बढ़ा, जहाँ उसे संधि करनी पड़ी। यह सही है कि संधि में अहोम राजाओं ने उसे सालाना नजराना के रूप में बड़ी रकम देना मंजूर किया, परन्तु असम में शासन तो हिन्दुओं का ही रहा आया। औरंगजेब की प्रसिद्धि मुसलमानों के बीच इसलिए बढ़ी कि उसके दरबार में मक्का के शरीफ तथा अन्यं मुस्लिम देशों के राजदूत मौजूद रहते थे। इस प्रकार औरंगजेब ने खुद को केवल मुस्लिम शासन का प्रतिनिधि खुलकर बना दिया। जबकि हिन्दुओं की मदद लेता रहा। यह कृतघ्नता क्या उसे इस्लाम ने सिखाई ?
राजपूताने में हिन्दुओं का राज्य निरन्तर
राजपूतों से उसकी पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 1679 ईस्वी में हुई, जिसमें मेवाड़ और मारवाड़ दोनों के राजा मिल गये और अन्त में औरंगजेब को 1681 ईस्वी में उनसे संधि करनी पड़ी। इस प्रकार औरंगजेब के समय भी मेवाड़ और मारवाड़ पर हिन्दू राजपूतों का ही राज्य बना रहा। 1686 ईस्वी में बीजापुर और गोलकुण्डा को औरंगजेब ने जीता और शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी को पकड़कर औरंगजेब के सेनापतियों ने मार डाला तथा रायगढ़ पर अधिकार कर लिया और सम्भाजी के बेटे को अपने दरबार में लाकर बंदी बनाकर रखा। यह शिवाजी द्वारा मुग़ल साम्राज्य को दी गई करारी हार का बदला लेने की कोशिश थी।
हिन्दू राज्य ही रहे तंजौर-त्रिचनापल्ली
1691 ईस्वी में औरंगजेब ने तंजौर और त्रिचनापल्ली पर चढ़ाई की, उन राजाओं से भी संधि हुई और वे भी वार्षिक नजराना औरंगजेब को देने लगे, परन्तु तंजौर और त्रिचनापल्ली पर हिन्दू राजाओं का ही राज्य बना रहा। दरबारियों की दृष्टि से औरंगजेब का यशोगान करना वास्तविक इतिहास लेखन नहीं है। जिन क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से हिन्दू शासन रहा और हिन्दू धर्मशास्त्रों तथा राजधर्म की हिन्दू अवधारणाओं के अनुसार शासन चलता रहा, उन क्षेत्रों को भी मुस्लिम कब्जे का क्षेत्र बताना असत्य है और अनुचित है।
अलवर, पटियाला, मथुरा, मालवा, बुन्देलखण्ड में हिन्दू राज्य
मथुरा और उसके आसपास के सम्पूर्ण इलाके में भी जाटों का ही राज्य बना रहा। बुन्देलखण्ड और मालवा में भी हिन्दुओं के राज्य बने रहे । पटियाला रियासत के एक हिस्से में और अलवर में हिन्दू शासन बहुत दिनों तक रहा।" स्वयं मराठों ने शीघ्र ही अपनी शक्ति वापस प्राप्त कर ली भयंकर पैशाचिक विनाशलीला के बावजूद वह अधिकांश भारत में प्रत्यक्ष मुस्लिम शासन स्थापित नहीं कर सका। हिन्दू राजा साँध कर उसे वार्षिक नजराना देते रहे, जो राजनैतिक बुद्धि मात्र थी। उसे इस्लामी शासन बताना इस्लाम की अहेतुकी भक्ति करना है।
कुपित, क्षुब्ध, उन्मत्त पापाचारी के कारनामे
इन सबसे चिढ़कर औरंगजेब ने 1679 ईस्वी में अपने इलाके के हिन्दुओं पर जजिया थोप दिया तथा सल्तनत के ऊँचे पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करना बन्द कर दिया नये हिन्दू मन्दिर बनाने पर रोक लगा दी। काशी के विश्वनाथ मन्दिर और मथुरा के श्री केशवदेव मन्दिर को तोड़ डाला " मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह के नाबालिग बेटे को अपने कब्जे में लेकर उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की।" हिन्दुओं का हर प्रकार से अपमान करने वाले नियम-कायदे बनाये और मस्जिदों की सीढ़ियों पर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को बिछवाया, ताकि उन पर मुसलमानों के पैर पड़ें इसलिए फिरंगियों को मौका दिया गया।
ऐसे भयंकर पापपूर्ण और अत्याचारपूर्ण मुस्लिम शासन को देखकर ही तत्कालीन हिन्दू राजाओं और प्रबुद्ध हिन्दुओं ने बहुत बड़ी संख्या में फिरंगियों को बढ़ावा देने की सोची जाग्रत हिन्दुओं को यह पता था कि ये फिरंगी ईसाई मुख्यतः मुसलमानों से लड़ते हुए ही यहाँ तक पहुँचे हैं और इसलिए वे अपनी कूटनैतिक बुद्धि से मुसलमानों के विरुद्ध इन अंग्रेजों को सिपाही भरती करने देने की छूट देते रहे। यह बात अलग है कि फिरंगी गैर-वफादार और विश्वासघाती सेवक निकले, सुरक्षा प्रहरियों की तैनाती की छूट पाकर उन्होंने उन्हें अपनी एक निजी ईसाइयत की सेवा में समर्पित सेना बनाने की कोशिश की, जिसकी सच्चाई जानने पर भारतीय राजाओं ने उन्हें दण्डित करने का प्रयास किया और स्वयं सेना के धर्मनिष्ठ सैनिकों ने भी इन धर्मद्रोही तथा स्वामिद्रोही फिरंगियों को कुचलने का अभियान छेड़ दिया ।
सजग रहे हिन्दू समाज
इस प्रकार मुगल वंश और मुस्लिम शासन के ये कुछ तथ्य केवल यह बतलाते हैं कि इस्लाम के प्रति हिन्दुओं को तब तक सजग रहना होगा, जब तक इस्लाम के भीतर कोई मानवतावादी और समतामूलक धारा नहीं उभरती। ऐसा उभरना असम्भव नहीं है, क्योंकि आखिर मुसलमान भी मनुष्य ही हैं और मुख्यतः तो भारतीय मुसलमान हिन्दू पूर्वजों के ही वंशज है हतारों वर्ष उनमें हिन्दू संस्कार ही रहे। इस्लाम की विविध व्याख्याएँ होती रही है और समय के अनुसार तथा ग़ैर-मुसलमानों की तेजस्विता, निर्भयता और वीरता के सम्मुख आवश्यकता पड़ने पर इस्लाम के भीतर से भी एक समतामूलक और मानवीय आध्यात्मिक व्याख्या से सम्पन्न धारा का विकास होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि प्रबुद्ध विश्व जनमत के समक्ष इस्लाम की भी जवाबदेही है और मुसलमानों को इसी दुनिया में रहना है तथा सबके साथ घुल- मिलकर ही रहना है। सबके विरुद्ध जेहाद छेड़कर वे जीवित नहीं रह सकते, क्योंकि दूसरों के भी धर्म और वंश उन्हें भी सम्मानपूर्ण जीवन की प्रेरणा देते हैं और वीरता में दूसरे समाज भी मुसलमानों से कम नहीं हैं। इसलिए अन्ततः एक सार्वभौम आचरण संहिता के सूत्रों को इस्लाम को भी अपनाना ही पड़ेगा।
हिन्दुओं पर अकारण अत्याचार पाप हैं।
परन्तु इस्लाम के द्वारा हिन्दुत्व पर जो अकारण अत्याचार किये गये हैं, हिन्दुओं के मन्दिरों का धर्म-केन्द्रों का और विद्या-परम्पराओं का अकारण और अनुचित विध्वंस किया गया है और हिन्दुओं के भीतर के दोष दर्शाने और प्रचारित करने में जो अनावश्यक और अवांछित परिश्रम किया गया है, प्रचार में धन लगाया गया है, वह सब अनुचित है। इस्लाम के उग्रवादियों द्वारा किये गये ऐसे प्रयासों से हिन्दू धर्म को पहुंचायी गयी चोट और क्षति से तिलमिलाकर जो लोग स्वयं हिन्दू समाज में नित नये दोषों के अनुसंधान में प्रवृत रहते हैं, उन्हें हिन्दू कुलों में उत्पन्न होने पर भी हिन्दू समाज का सच्चा हितैषी और हिन्दू हित के लिए समर्पित व्यक्ति मान पाना बहुत कठिन लगता है। ऐसा लगता है कि इन लोगों की नीयत हिन्दू धर्म को स्वस्थ, तेजस्वी और वीर बनाने की ही है, परन्तु किसी समाज को धिक्कारने, उसके मनोबल को तोड़ने और लगातार शत्रु की सफलताओं का अतिरंजित प्रचार करने से वह लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा।
मज़हबी उग्रवाद को समझें : राक्षसी उन्माद की जड़ों को जानें
अतः देश और संस्कृति की रक्षा के लिए ध्यान इस्लाम मजहब की आड़ में पनपे उन दोषों की ओर देना चाहिए, जो अधिकांश अनुयायियों को असहिष्णु, पापिष्ठ, पक्षपाती भेदभावपूर्ण, धर्मद्रोही और मन्दिर तथा पूजास्थलों एवं मूर्तियों का उन्मत्त विध्वंसक बनाता है। इस राक्षसी उन्माद की जड़ों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि हिन्दू समाज की निन्दा पर।
प्रणम्य है हिन्दू वीरता, अभिनन्दनीय है हिन्दू धैर्य
ऐसे बर्बर, नृशंस और राक्षसी उन्माद के सम्मुख भी जो हिन्दुत्व टिक गया, उसकी वीरता प्रणम्य है, उसका धैर्य अभिनन्दनीय है, उसकी विद्या अनुकरणीय है, उसका शील वंदनीय है और उसका इतिहास गौरव योग्य है। धन्य है और स्तुत्य है महान हिन्दू समाज और उसकी विश्व में अप्रतिम वीरता । धिक्कार है उन्हें जो इस्लाम के नाम पर होने वाले राक्षसी उन्माद को न धिक्कार कर उससे पीड़ित होने वाले समाज के दोषों के अनुसंधान में रति रखते हैं। मानो इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी समाजों में दोष नहीं है या मानो उनके तो दोष भी वंदनीय हैं और केवल हिन्दुओं के दोषों का अतिरंजित गान ही करणीय है।
भारत के किस क्षेत्र में कितनी अवधि तक मुस्लिम शासन रहा है और हिन्दू शासन के समक्ष उसकी आनुपातिक अथवा कालिक स्थिति क्या है, इसकी एक संक्षिप्त सूची 'परिशिष्ट-1' में दी जा रही है, जो पुस्तक के अन्त में द्रष्टव्य है।
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कैसा था तत्कालीन इंग्लैंड
प्रचार किया जाता है कि मुसलमानों के बाद अंग्रेज भारत के शासक बने । इस प्रकार भारत की पराधीनता कायम रही। परन्तु यह सत्य नहीं है। एक तो पूरे भारत में एक भी दिन मुस्लिम सत्ता नहीं रही। दूसरे, जब अंग्रेज नागरिक आए पहली बार, तब तक भारत के बड़े हिस्से पर मराठों का शासन था, मुसलमानों का नहीं। ब्रिटेन के अंग्रेज़ व्यापारियों के सेवक और एजेंट के रूप में अंग्रेज यहाँ हाथ जोड़ते हुए अपने इंग्लिश मालिकों के लिए व्यापार करने आए थे। वे कोई भारत पर आक्रमण करने नहीं आए थे। उनकी यह हैसियत ही नहीं थी कभी भी।
भारतीयों के भीतर अकारण या सकारण आत्मग्लानि, आत्मदैन्य, हीनता और हताशा भरने का जिन्हें रोग की हद तक नशा है, ऐसे आधुनिक भारतीय शिक्षितों का एक प्रभावशाली वर्ग बन चुका है। परन्तु दुःखद यह है कि इन्हें न तो भारत के विषय में कुछ ज़्यादा ज्ञान है, न ईसाइयत और इस्लाम के विषय में और न ही उस इंग्लैंड के विषय में, जिसके वे आज तक बिन-खरीदे गुलाम हैं और जिसकी तुलना में भारत की निन्दा करते वे अघाते नहीं हैं। यहाँ इंग्लैंड का अति संक्षिप्त इतिहास बताते हुए तत्कालीन इंग्लैंड की दशा की जानकारी पाठकों को देना आवश्यक लग रहा है।
मोटे तौर पर भौगोलिक दृष्टि से इंग्लैंड के दो भाग हैं- (1) हाईलैंड और (2) लो लैंड उत्तर एवं पश्चिम का प्राचीन पर्वतीय इलाका 'हाईलैंड' है। तराई और मैदान वाला शेष भाग 'लो लैंड' है। बीच का हिस्सा 'मिडलैंड' कहलाता है। हाईलैंड अधिक नम और ठंडा है जिनमें से झीलों वाला उत्तर पश्चिमी इलाका सबसे नम है। पहाड़ों और झीलों से पटा हुआ। यहाँ की सबसे ऊँची चोटी है 3210 फुट ऊँची स्केफेल जो सरगमाथा का नवमांश और नंदादेवी शिखर का अष्टमांश है। भारत में इतनी ऊँची तो विंध्य क्षेत्र की कई पहाड़ियां हैं। इस जिले के पश्चिम में कोयला खदानें हैं और ईटन घाटी में चूना पत्थर और बलुआ पत्थर की खदानें हैं। हाईलैंड के दक्षिण में जो मिडलैंड है, वह निचला पठारी क्षेत्र है जहाँ अब कृषि पशुपालन और खेती होती है।
भेड़ों और खेतिहर जानवरों का पालन तथा छोटे-छोटे व्यापार ही वहाँ शताब्दियों तक मुख्य धंधे रहे हैं। खेतिहर मजदूरों और दासों की ही आबादी इंग्लैंड में सबसे अधिक थी और मुख्य व्यवसाय खेती ही था। उत्तर पूर्व, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम समुद्री चैनल और समुद्र से घिरे इंग्लैंड के केवल उत्तर में स्कॉटलैंड की भूमि है। टिन, चीनी मिट्टी, कोयला, लौह अयस्क, बलुआ पत्थर, चूना पत्थर इसके मुख्य खनिज हैं। खेती और पशुपालन ही मुख्य व्यवसाय रहा है। यार्क, डर्बी, नटिंघम आदि कोयला क्षेत्र यहाँ रहे हैं। उन्नीसवीं शती ईस्वी के आरंभ तक गेहूं और जौ उगाना, फल उगाना, मछली पालन तथा भेड़ पालन इंग्लैंड के व्यवसाय थे। भारत विशेषतः बंगाल के कुछ इलाकों से राजस्व की लूट से मिली संपदा ने इंग्लैंड को ज्ञात इतिहास में पहली बार धनी बनाया। उसके पहले तक वह शताब्दियों तक भूखों, कंगालों, अनाथों और दस्यु दलों का क्षेत्र रहा है।
यह सर्वविदित है कि इंग्लैंड का मूल समाज विविध जातियों और नस्लों का मिश्रण है। कृति, मीनी, मीसीनी, आयोनियन, डेन, केल्त, नार्वेजियन, रोमन, वेल्स, पोर्तुगीज, स्काट, फिन, फ्रैंक, नॉर्मन, फ्लेमिंग, हूजनॉट, आइरिश, जर्मन, गॉल, एंगल्स, सेक्सन, मगयार, वाइकिंग, सार्सेन, चील्डियन, ब्रिटन, स्कैंडिनेवियाई, बरो, जूट आदि नस्लें वहाँ मिश्रित रूप में हैं। इधर कुछ अफ्रीकी और भारतीय लोग भी वहाँ रहने लगे हैं। मूल के प्रारम्भ में यह तरह दलदली और जंगलों से भरा इलाका था। तब इसका नाम इंग्लैंड या ब्रिटेन नहीं था। यहाँ उत्तरी इलाकों से (तब उस पूरे क्षेत्र का नाम यूरोप भी नहीं था, जिसे आज यूरोप कहा जाता है।) छिटपुट शिकारी समूह आते, चले जाते। जंगलों के बीच खदानों में टिन और सोना तथा सागर तट पर मोती मिलते थे, जिससे उत्तरी सौदागर या व्यापारी और लुटेरे ( वहाँ शताब्दियों तक दोनों एक ही रहे हैं) वहाँ आते, माल लेकर चले जाते। कुछ धीरे-धीरे बसने लगे। ज्यादातर इलाकों में अधिकांश समय वर्षा होती या बादल छाए रहते। मछुआरों और बहेलियों के झुण्ड जहाँ-तहाँ बसते-उजड़ते रहे। चकमक पत्थर और खड़िया की खदानें कई जगह मिलीं, जिनका उपयोग ये समूह करने लगे। हिरण की सींग और मरे हुए जानवरों की हड्डियों से खुदाई की जाती। ईसापूर्व 2000 में वहाँ ताँबे का चलन बढ़ा, ईसापूर्व 1000 में लोहे का भी प्रयोग होने लगा। यह बताने का प्रयोजन हैं, उन दिनों वहाँ कोई भी सभ्यता नहीं थी, जबकि यह वह समय है, जब भारत में महान साम्राज्य थे- नंदों, मौयों, मल्लों, वत्सों, पांचालों, शौरसेनों, कुरुओं, मत्स्यों आदि के। महाभारत तो उससे 2000 वर्ष पूर्व हो चुका था। उन दिनों भारत के एक- एक महाजनपद की आबादी एक करोड़ से ऊपर थी। उन्हीं दिनों इंग्लैंड की कुल आबादी कुछ हजार थी। भारत में 20 से अधिक महाजनपद उन दिनों, जो सम्पूर्ण इंग्लैंड से जनसंख्या में पाँच हजार गुना बड़े थे। सम्पूर्ण भारत की आबादी तत्कालीन इंग्लैंड से एक लाख गुनी ज्यादा थी। यह स्मरण रहे तो ज्ञात होगा कि इंग्लैंड की हैसियत भारत पर शासन की कभी भी क्यों नहीं। जिस दिन इंग्लैंड का भारत पर शासन होता, उस दिन भारत में एक भी हिन्दू नहीं बचा रहता। सब ईसाई बना डाले जाते, जैसे स्वयं इंग्लैंड में किया गया था।
उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण ग्रेट ब्रिटेन का कुल क्षेत्रफल मध्यप्रदेश से थोड़ा कम है। उसकी वर्तमान में जनसंख्या भी लगभग उतनी ही है जितनी वर्तमान मध्यप्रदेश की है। परन्तु ईसा से 1000 वर्ष पूर्व उस पूरे इलाके की कुल आबादी केवल हजारों में थी।
उन दिनों शताब्दियों तक इंग्लैंड में यह दृश्य था कि सुअरों के झुण्ड हज़ारों की संख्या में उत्तर में फैले बाँज के जंगलों से घुस आते थे। सुअर पालन इंग्लैंड में तब से आज तक, दो हजार से अधिक वर्षों से मुख्य व्यवसाय है। साथ ही गाय, बैल, घोड़े और भेड़ें भी वहाँ भारी संख्या में उत्तर से आ घुसते थे। ये ही वहाँ शताब्दियों तक जीविका, व्यापार, वाहन एवं संचार के साधन रहे। घोड़े युद्ध आते थे, परन्तु घोड़ों की जानकारी इंग्लैंड वालों को बहुत बाद में हुई । अभी तक जो तथ्य मिले हैं, उनसे यही ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम भारत से गये पणियों (फिनों) ने इंग्लैंड में सौ-सौ के समूहों की कुछ बस्तियाँ बसाय। फिर भारतीय मूल के ही दह्यु और सूर्योपासक केल्त वहाँ बसे स्वयं ट्रेवेल्यान कहते हैं कि- "जिन्हें आज केल्त कह दिया जाता है, वे केल्त पूर्व के इंग्लैंड में आ बसे में काम लोग हैं, जिनके बाल काले होते थे। पणि (फिनिशयन) व्यापारी वहाँ आते थे। बाद में केल्त आये, जिनके बाल लाल हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व वहाँ पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में गेहूँ की खेती पहली बार शुरू हुई। लगभग सौ सौ की बस्तियाँ बसने लगीं। फिर पूर्वी यूरोप से अनेक समूह वहाँ प्रायः आने लगे। उधर उत्तर में स्कैंडिनेविया से भी विविध जातियाँ 1 केल्त, ट्यूटन, सेक्सन, जूट पिक्ट, गाल, वेल्स, स्काट, इवेरियाई, वहाँ आई वाइकिंग, डेन, नार्वेजियाई, बीकर, बेलगाये आदि। जंगली और दलदली इंग्लैंड में सब अलग-अलग जगह बसते रहे। कभी-कभी लड़ते टकराते भी रहे। भेड़ों का पालन यहाँ एक मुख्य व्यवसाय बना। उन दिनों उस देश की कुल आबादी 5 लाख से भी कम थी।" यह संपूर्ण ग्रेट ब्रिटेन की जनसंख्या थी। इंग्लैंड की कुल लगभग तीन लाख जनसंख्या ही उस समय थी। वर्तमान मध्यप्रदेश वर्तमान इंग्लैंड से ढाई गुना बड़ा है। अविभाजित मध्यप्रदेश इंग्लैंड से साढ़े तीन गुना बड़ा था। इंग्लैंड लगभग छत्तीसगढ़ के बराबर है। जनसंख्या, शिक्षा, संस्कृति किसी भी स्तर पर ईसा पूर्व तीसरी शती तक ब्रिटेन एक अत्यंत अविकसित समाज था। यह वह समय है, जब भारत में गुप्तकाल का स्वर्ण युग था ।
सम्भवतः भारतीयों ने बनाये विशाल शिव मन्दिर
प्रारम्भ में इंग्लैंड में भारतीय पणि व्यापारी ही आते और चले जाते। बाद में सूर्योपासक केल्त यहाँ बसे। परन्तु उसके भी पहले बीकर कहे जाने वाले लोग इंग्लैंड में बसे थे। उन्होंने वहाँ विशाल शिलाखण्डों से स्टोनहेंज बनाये, जो भव्य शिव- मन्दिरों जैसे हैं। इसी प्रकार अवेवरी कहे जाने वाले प्रस्तर दुर्ग भी उन्होंने बनाये। आज यह स्टोनहेंज और अवेवरी पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हैं। अनुमान है कि ये भारतीय लोग ही थे और इनमें से जो सम्पन्न और राजा लोग थे, उनके चषक- पात्र भी यहाँ आये पुरावशेषों के रूप में पाये गये हैं।
इनके बाद इंग्लैंड में केल्त बसे, जो शिकारी, बुनकर, बढ़ई, लोहार, कमेर, तमेर, सुनार, भेड़ पालक, पशुपालक, मछुआरे और योद्धा थे। इनमें से पशुपालक निरन्तर चरागाहों की खोज में घूमते रहते। केल्त लोग छोटे-छोटे घरों में रहते थे और बाड़ लगाकर खेती करते थे। दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड में बेहतर खेती होती। नौका चालन, व्यापार और खनन कर्म इसी क्षेत्र में ज़्यादा हुआ। ईसा से 150 वर्ष पूर्व यहाँ भारतीय राजाओं की तर्ज पर सोने की मोहरें भी चलती थीं, जो ब्रिटिश संग्रहालय में संगृहीत हैं। केल्तों के पुरोहित भारतवंशी द्रह्यु या ड्रयूड लोग थे। रोमन भी बहुदेववादी थे, परन्तु जूलियस सीजर ड्रयूड पुरोहितों से बहुत चिढ़ता था। कुछ समय बाद यहाँ उत्तरी गाल वंश का राज्य हो गया। रोमनों ने ईसापूर्व 41 में ब्रिटेन पर आक्रमण किया।
17 रियासतों में बँटा था इंग्लैंड
इसी समय इस (आज इंग्लैंड कहे जा रहे) इलाके में केल्त और सेक्सन लोग ज़्यादा प्रभावी हो गये। उन दिनों इसका नाम इंग्लैंड नहीं था। यह सत्रह राज्यों में बँटा क्षेत्र था। उत्तर में केलिडोर्निया नामक रियासत थी, जो पिक्ट लोगों की थी।" उससे दक्षिण तरफ ट्रिमोन्टियम" मध्य भाग में छः अलग-अलग राज्य थे- (1) ब्रिगेन्तेस (जहाँ शीशे की खदानें बाद में मिलीं), (2) एबूरेकम, (3) लिन्डम, (4) देवा, (5) एक्वे (जहाँ आज बॉक्सटन है) और (6) राताए। पूर्वी हिस्से में उत्तरी तरफ आइसेनी राज्य था, दक्षिण तरफ ट्रिनोवान्तेस।" ट्रिनोवान्तेस राज्य की राजधानी था लान्डीनियम् (जो बाद में लंदन कहलाया)। दक्षिणी मध्य हिस्से में दो राज्य थे- (1) केटुवेल्लाउनी और (2) बेलगाए। पश्चिमी ओर वेल्स राज्य कर रहे थे, जिनके राज्य का नाम सिल्योरेस था। दक्षिण पश्चिम में तीन राज्य थे- (1) कार्नवाल (जहाँ टिन की खदानें हैं), (2) इस्का डुम्नानिरम और (3) ड्यूरोट्रिजेस दक्षिण पूर्व में कांती राज्य था, जहाँ लौह-अयस्क की खदानें हैं।" इस प्रकार कुल 17 अलग-अलग राज्य थे, जो हर एक भारत के किसी एक जिले के बराबर ही थे।
तत्कालीन प्रमुख शहर (लान्डीनियम के अतिरिक्त) ये थे हार्डनाट, इलक्ले, देवा, इस्का, ग्लेवम, वेन्ता सिलूरम, एक्वा सूलिस, दुनोवेरिया, वेन्ता बेलगारम, केलेवा, केमुलोडनम, वेंता आइसनारम, लिन्डम, राताए आदि। ये वस्तुतः बड़े कस्बे थे। नगर नहीं। सारांश यह कि आज न वे नाम बचे हैं, न वे लोग जो वहाँ तब थे।
रोमनों की दासता में इंग्लैंड
ईसापूर्व पहली शताब्दी में दक्षिणी इंग्लैंड पर रोमनों का राज्य हो गया। रोमन लोग इंग्लैंड को 'उत्तरी-पश्चिमी' देश कहते थे। उस समय उत्तरी हिस्से में केवल केल्त, डेन और सेक्सन लोग राज्य कर रहे थे। बीकर समाज अदृश्य हो चुका था। रोमन लोगों को अपनी सभ्यता पर बड़ा गर्व था और वे केल्तों, सेक्सनों, डेनों तथा अन्य इंग्लैंडवासियों का बहुत गहरा तिरस्कार करते थे और उन्हें बर्बर कहकर अपमानित करते थे। रोमनों ने यहाँ कई हिस्सों में पहली बार सड़कें बनवाईं। पूरे इलाके में लेटिन भाषा को चलाया। रोमन लोग सनातनधर्मी एवं बहुदेवपूजक थे। दक्षिणी इंग्लैंड के सभी जागीरदार रोमनों को नियमित नजराना देने लगे। नजराने में इंग्लैंड का सोना भी रोमनों को भेंट किया जाता था। रोमनों ने स्थानीय संस्कृति को ज़्यादा नष्ट नहीं किया। उन दिनों रोमनों का अपना संवत् चलता था, जो ईसापूर्व 755 से चल रहा था। तदनुसार रोमनों ने 711वें वर्ष में अर्थात् ईसापूर्व 44 में प्रितानियों को जीत लिया था।"
वैदिकी ने रोमनों का प्रचण्ड विरोध किया
जिस तेजस्वी सूर्योपासक केल्त रानी ने रोमनों का प्रचण्ड विरोध किया, उसका नाम वैदिकी या बौदिकी है। एक लाख बीस हजार सैनिकों को लेकर वह रोमन सेना पर टूट पड़े और उसे काटने लगे। रोमनों की सैन्य शक्ति अधिक थी, अतः अन्त में वे ही जीते। तब वैदिकी ने स्वर्ण पात्र में सुरक्षित भयंकर विष पहले अपनी दोनों वीर बेटियों को पिलाया और फिर स्वयं भी पी लिया। बाद में सेक्सनों और ट्यूडरों ने उस वीर वैदिकी की सम्पूर्ण जाति का विनाश कर दिया। अब उसे ब्रिटेन का गौरव बताया जाता है।
फ्रांस को जीतकर जूलियस सीजर इंग्लैंड की ओर बढ़ा था, परन्तु वह उत्तरी इलाके में नहीं जा पाया। दक्षिणी इंग्लैंड में उन दिनों दस से अधिक जागीरें थीं, जिनमें से एक केटुवेलोनी जागीर पर सिम्बेलाइन नामक राजा राज्य करता था। उसने रोमनों से संधि कर ली और रोमन व्यापारियों तथा शिल्पियों को राज्याश्रय दिया। वह अपने सिक्के भी चलाता था, जिसमें स्वयं को 'रैक्स ब्रिटानम्' (राजा ब्रितान) कहता था। बाद में उसने कोलचेस्टर की जागीर पर भी आधिपत्य कर लिया। लंदन उसी ने बसाया।
प्रितानी या ब्रिटन कहा रोमनों ने यहाँ के लोगों को
बाद में रोमन यहाँ छा गये। रोमनों के समय ही लंदन विकसित हुआ। वह लेटिन सभ्यता का केन्द्र बन गया। यद्यपि उसे लांडीनियम नाम केल्तों ने दिया था। रोमनों के समय दक्षिणी इंग्लैंड को 'ब्रिटन' कहा जाने लगा। क्योंकि वहाँ 'ब्रिटन' नस्ल के लोग रहते थे। रोमनों को नगरों के विकास का अभ्यास था। उन्होंने इंग्लैंड में लंदन, सिल्वेस्टर, कोल्चेस्टर आदि शहर विकसित किए। रोमनों ने कई बार ब्रिटन्स और केल्त जनों का जनसंहार किया। उनके बल के प्रभाव से धीरे-धीरे दक्षिणी इंग्लैंड पूरी तरह रोमनों का दास हो गया। बताया जाता है कि केल्तों, डेनों और सेक्सनों की तुलना में रोमन कम नृशंस हत्यारे थे। धर्म की दृष्टि से रोमन सनातनधर्मी अतः उदार थे। उन्होंने 400 वर्षों तक ब्रिटेन पर शासन किया। उत्तरी पिक्टों और ब्रिगेन्तेस जनों के बारम्बार आक्रमण से उत्तरी रोमन बस्तियाँ उजड़ने लगीं।
बाद में, ईसाइयत के विस्तार के बाद रोमन सभ्यता नष्ट हो गई, क्योंकि युद्ध में पादरियों ने सदा अधिक शक्तिशाली राजाओं का साथ दिया और बदले में ईसाइयत को संरक्षण हस्तगत किए। रोमनों को विश्वास हो गया कि ईसाई पादरी राजद्रोही होते हैं और उन्हें मारा तथा सताया जाने लगा। परन्तु फ्रांस व जर्मनी के हमलावरों का साथ देकर पादरियों ने अपनी रक्षा की
इंग्लैंड पर विविध जर्मन एवं फ्रेंच जातियों का हमला
जब रोमनों ने इंग्लैंड से अपना कब्जा हटा लिया, तब वहाँ चार सौ वर्षों तक अराजकता की स्थिति रही। एक ओर लगभग 500 पादरियों ने ईसाइयत का प्रचार तेज कर दिया। दूसरी ओर जर्मनी से और उत्तरी क्षेत्र से नार्डिक लोगों, जूटों, डेनों तथा नार्सजनों ने जगह-जगह हमला कर ब्रिटेन पर कब्जा कर लिया।" छठीं से आठवीं शती ईस्वी आते-आते सेक्सन नस्ल के डकैतों और लुटेरों ने इंग्लैंड के बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया।" बाद में नार्डिकों के एक समूह ने इंग्लैंड पर धावा बोल दिया।" उधर फ्लेमिश, टयूटन, जर्मन, हूजनाट, हेनू तथा आइरिश समूहों ने जगह-जगह अपनी रियासतें बना लीं।" नार्डिकों ने केल्त जनों को मार भगाया हत्याएँ, लूट और अत्याचारों द्वारा भागने को विवश कर दिया। कई हिस्सों में गोथों, जूटों, बंडालों, लम्बाडौँ आदि ने भी कब्जा कर लिया।" उन दिनों इन सभी लोगों के युद्ध मुख्यतः तलवार, भाले, बरछी और ढाल से होते थे।" धनुष-बाण का चलन वहाँ पहली बार दसवीं शती ईस्वी में हुआ, जबकि हूणों, मंगोलों और भारतीयों में वह हजारों वर्ष पूर्व से प्रचलित था। सेक्सन, केल्त, नार्मन, डेन आदि सभी समाज बहुदेववादी थे।" ईसाइयत का तब तक उस इलाके में कोई प्रभाव नहीं फैला था। पर हर युद्ध में पादरी लोग विजेता का साथ देकर कुछ रियायतें पा लेते थे। उदार बहुदेववादी वे सभी लोग ईसाइयों को वैसी ही उदारता से स्थान दे देते जैसा भारत के हिन्दू शासक देते हैं।
स्मरणीय है कि उन दिनों वहाँ इन पादरियों को भी अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त थी। सन् 1001 ईस्वी में एक ईसाई पादरी ने बताया था कि नार्मन्डी का कोई भी पादरी बड़ी मुश्किल से ही बाइबिल पढ़ पाता है।
डेन, जूट और नार्समैन, जिन्होंने ब्रिटेन के कई हिस्सों पर छठी से आठवीं शती ईस्वी तक आक्रमण कर आधिपत्य जमाया, वे सभी बहुदेववादी थे, जिन्हें ईसाई पादरियों ने 'हीदन' कहा है। ऐंग्लो सेक्सन भी पहले बहुदेववादी थे। वे वहाँ चौथी से बारहवीं शती ईस्वी तक क्रमशः फैले।" इतिहासकार जॉन ओ फेरेल के अनुसार तथ्य यह है कि सबसे पहले सूर्योपासक केल्तों को ही सेक्सनों के द्वारा ब्रिटन कहा गया। बाद में पन्द्रहवीं सोलहवीं शती ईस्वी में पहली बार बाकी लोगों को भी ब्रिटन कहा जाने लगा।
जो सेक्सन इस इलाके में राज्य करने लगे, उन्हें ही एंग्लो-सेक्सन कहा जाने लगा। बाद में वे ही इंग्लिश भी कहलाए। खूंखार डकैती, हत्या और लूटपाट सेक्सनों की मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं। सेक्सनों के पास घोड़े नहीं थे। वे पैदल ही धावा करते थे। धीरे-धीरे, लगभग 250 वर्षों में ये सेक्सन इंग्लैंड के बड़े हिस्से में छा गए। यद्यपि केल्त पश्चिमी इंग्लैंड के एसेक्स, ससेक्स और केंत रियासतों के स्वामी तब भी बने रहे। उधर दक्षिणी पश्चिमी हिस्से पर वेल्स जनों ने कब्जा कर रखा था। आज इंग्लैंड में अधिकांश स्थानों के प्रचलित नाम सेक्सनों द्वारा रखे गए हैं, पर कई नाम डेन मूल के भी हैं और कुछ केल्त तथा वेल्श मूल के।
ब्रिटिश इतिहासकार जान ओ फेरेल के अनुसार सातवीं शती ईस्वी तक इंग्लैंड में ईसाइयत नाम मात्र को थी। अन्य इतिहासकारों के अनुसार वह 9वीं शती ईस्वी में ही फैली है। वहाँ की अनेक प्रथाएँ मिनी लोगों जैसी थी। वहाँ युद्ध के देवता मंगल (ट्यूस), महायुद्ध के देवता वोदन तथा ज्ञान, वाणी एवं गर्जना के देवता तॉर या थार थे तथा अनेक देवता और देवियों की पूजा होती थी। इन देवताओं के नाम से ही आज तक ट्यूसडे, वेडनेसडे, थर्सडे चल रहे हैं।
इंग्लैंड के अनेक जनपदों का नाम सेक्सन मूल का है। ससेक्स का अर्थ है दक्षिणी सेक्सन, मिडलेक्स का अर्थ है, मध्यक्षेत्रीय सेक्सन और एसेक्स का अर्थ है पूर्वी सेक्सन। तीन सौ वर्षों तक बल्कि उससे भी अधिक समय तक वहाँ सैकड़ों जागीरदार थे, जो अपनी-अपनी जागीरों के मालिक बन बैठे थे। इसी बीच वहाँ हूण सम्राट ने निरन्तर आक्रमण किये और कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। पाँचवीं शती ईस्वी से ही इंग्लैंड के पूर्वी हिस्सों पर हूण सम्राट अत्तिला का कब्जा हो गया।
457 ईस्वी में केंट रियासत पर डेनमार्क के जूटों ने कब्जा कर लिया। एंगल्स ने ईस्ट ऐंग्लिया (पूर्वी इंग्लैंड) पर कब्जा कर लिया। मर्सिया जागीर बसायी। मर्सिया का अर्थ है- सीमा की ओर मार्च करना। सेक्सनों ने पहले दक्षिणी हिस्से पर कब्जा कर ससेक्स राज्य बनाया। फिर मिडिल सेक्स और एसेक्स पर भी। फिर नार्थम्बरलैंड पर भी। 300 वर्षों तक सैकड़ों जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों के मालिक रहे, ऐसा इतिहासकार नार्मन डेविज बताते हैं। बाद में दसवीं शती ईस्वी में वेसेक्स एक बड़ा राज्य बना। उधर पश्चिम में केल्तों के राज्य बने रहे। इस प्रकार रोमनों के जाने के बाद इंग्लैंड पर हूणों, केल्तों, सेक्सनों, वाइकिंगों, डेन्स, जूट, एंगल्स, आस्ट्रोगॉथ आदि के राज्य कायम रहे।
युद्ध, लूट, डकैती के अतिरिक्त एंग्लो सेक्सन जाति की मुख्य रुचि खेती में थी। उनके मकान केवल लकड़ियों के बने होते थे। रोमन भवन उन्होंने उजाड़ कर नष्ट कर डाले थे। उत्तर में नार्थम्ब्रिया और स्ट्राथक्लाइड, मध्य में मर्सिया और दक्षिण में वेसेक्स - ये प्रमुख सेक्सन राज्य बने १० पश्चिमी हिस्से में वेल्स और केल्त राज्य कर रहे थे। इन राज्यों के भीतर सैकड़ों रियासतें थीं। ब्रिटिश इतिहासकारों का कहना है कि पाँचवीं से आठवीं शती ईस्वी का ब्रिटेन अन्तहीन युद्धों में फँसा समाज था। यद्यपि इनमें से सभी धार्मिक दृष्टि से बहुलतावादी समाज थे। रियासतदार भी आपस में लड़ रहे थे और जनगण भी (हिस्ट्री ऑफ़ इंग्लैंड के लेखक जी.एम. ट्रेवेल्यान के शब्दों में, "पब्लिक एंड प्राइवेट वार वाज दि रूल रेदर देन एक्सेप्शन" राजाओं और लोगों के आपसी युद्ध उन दिनों वहाँ नियम ही थे, अपवाद नहीं।) यह भी कि युद्ध, आक्रमण एवं रक्तपात तत्कालीन सेक्सन इंग्लैंड में सामान्य दशाएँ थीं। इसी युद्ध-दशा का लाभ लेते हुए, महाविनाश का समय निकट बताकर, मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलने का लोभ जगाकर, धर्मभीरु बहुदेवपूजक अंग्रेजों को ईसाई पादरी फुसला-फुसलाकर ईसाई बनाने में रत थे उनका धैर्य, श्रम, निष्ठा और साहस प्रशंसनीय तो है ही।
इन ढाई-तीन सौ वर्षों के निरन्तर युद्धों के बीच, वाइकिंग लोगों ने सातवीं शती ईस्वी के आरम्भ में पश्चिम के वेल्श जनों पर आक्रमण कर दिया ये नाविक तथा लुटेरे थे। उन्होंने वेल्श जनों का जनसंहार प्रारम्भ कर दिया। कुछ हजार वेल्या जीवित बच पाए।" परन्तु सेक्सन राजाओं ने वेल्श जनों को उनकी अपनी पूजा-पद्धति व जीवन-पद्धति जारी रखने की अनुमति दे दी आज के अंग्रेजों के भीतर केल्त- पूर्व के समाजों का भी रक्त है, केल्त जनों का भी, सेक्सन का भी। परन्तु वेल्श जनों ने अपना वंश पृथक् सुरक्षित रखा है। इसी बीच वेल्श जनों के बीच पादरियों ने ईसाइयत का सर्वाधिक प्रचार किया। जबकि एंग्लो-सेक्सन लोग तब तक आदिदेव आदिन और तोर नामक देवी की पूजा करते थे। उनके यहाँ सच बोलने का बहुत सम्मान था। वीरता और अभय वहाँ सर्वसमादृत गुण थे। वे उदार थे। पादरियों ने इसका लाभ उठाकर ईसाइयत के प्रचार में उपयोग किया। कुछ समय बाद वे कुछ रियासतदारों का संरक्षण पाने में सफल हो गए और बलपूर्वक तथा नृशंसतापूर्वक ईसाइयत फैलाने लगे
राजाओं को पेगन प्रजा की सामूहिक हत्या की प्रेरणा दी पादरियों ने
कुछ समय बाद क्रिश्चियन चर्च के पादरियों के बहकावे में आकर नये ईसाई बने कुछेक राजाओं के मुख्य लोगों ने सेना के साथ बहुदेवपूजकों की सामूहिक हत्याएँ, उन्हें जिन्दा जलाना शुरू कर दिया। कोलम्बा, ग्रेगरी, आगस्टीन और पेट्रिक नामक पादरियों ने पहले समाज में ईसाई सुसमाचार फैलाने का प्रयास किया। फिर ग्रेगरी के सेवक एडविन को साथ मिलाने में सफल रहे। एडविन नॉर्थम्बिया रियासत का शासक था। पादरियों ने उसे ही पूरे इंग्लैंड का का राजा प्रचारित करना शुरू किया, परन्तु तब भी इंग्लैंड में बहुदेववाद इतना व्यापक था कि पादरियों को भयंकर उत्पीड़न के जरिये ही अपना पंथ फैलाने में मदद मिली पोप ग्रेगरी ने ऐसे हत्याकाण्डों को खूब प्रोत्साहित किया। आगस्टीन नामक पादरी ने इसमें बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया। उसने केंट रियासत में बर्बरतापूर्वक लोगों को ईसाई बनाया जो नहीं बनते, उनको सामूहिक रूप से गाँव के गाँव, इलाके के इलाके जला दिए जाते।
क्रिश्चियन स्त्रियाँ धर्मांतरण की प्रेरक बनीं
बाद में, आगस्टीन अपने उपपंथ से भिन्न, अन्य ईसाई पंथों के अनुयायियों को भी मरवाने लगा, जिसका स्वयं चर्च के एक हिस्से ने विरोध किया। कुछ दिनों बाद नार्थम्बिया रियासत का राजा भी ईसाई पादरियों के प्रभाव में आ गया। इसमें मुख्य भूमिका इन राजाओं की क्रिश्चियन स्त्रियाँ निभाती थीं।" उदार बहुदेववादी राजा या जागीरदार प्रायः क्रिश्चियन कन्याएँ भी ब्याह लेते थे वे धीरे-धीरे समझा- बुझाकर पति को क्रिश्चियन बनने राजी करती थीं।
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