कुछ लोग भगवान् राम पर यह आक्षेप लगाते हैं कि वे शिकार खेलते थे, आज हम इसी बात पर विचार करने वाले हैं और देखेंगे कि उनकी बात में कितनी सत्यता है। यह आक्षेप मुख्य रूप से मारीच वध प्रसंग पर लगाया जाता है। मारीच वध प्रसंग में जब सीता जी स्वर्ण मृग दिखाती हैं और उसे जीवित पकड़ने के लिए बोलती हैं। आज की उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में ऐसा आया है कि उसे जीवित न पकड़ पाने की स्थिति में ही मारकर लाने की बात कही गई है और उसका हेतु यह दिया है कि सीताजी उसकी चमड़ी से आसन बनाना चाहती थीं। अब जरा विचारें यदि उन्हें चर्म के आसन एवं बिस्तर से ही प्रीति होती, तो वे स्थान-स्थान पर पर्ण, घास, पुष्पों की शय्यायें नहीं बनाते। क्या उन्हें जंगल में कहीं कोई सुन्दर जानवर मिले ही नहीं थे? इतने सुन्दर नहीं भी मिले हों, तो भी जंगल में अनेक सुन्दर हिरण, बाघ, चीता आदि सुन्दर चमड़ी वाले जानवर मिले ही होंगे। तब क्यों नहीं उनकी चमड़ी के लिये किसी को मारा? श्रीरामजी ने कई स्थानों पर लक्ष्मणजी से फूल, घास, लकड़ी, पत्ते लाकर बिस्तर बनाने का आदेश दिया है। क्यों नहीं किसी जानवर को मारकर चमड़ा लाने का आदेश दिया? इससे यह सिद्ध होता है कि मारीच के वध करने के लिए यह हेतु बताना कि उसे जीवित न पकड़ने की स्थिति में मृत चमड़े के लिए पकड़ने वाली बात मिलावट है। अब प्रश्न यह हो सकता है कि यदि चमड़े के लिए नहीं मारा गया तो किस लिए मारा गया? इसका उत्तर जानने हेतु हम इस प्रसंग पर गहराई से विचार करते हैं। स्वर्ण मृग को लक्ष्मण जी देखते ही भगवान् राम से कहते हैं-
तमेवैनमहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम्।।५।।अनेन निहता राजन् राजानः कामरूपिणा।।६।।अस्य मायाविदो माया मृगरूपमिदं कृतम्।भानुमत् पुरुषव्याघ्र गन्धर्वपुर संनिभम्।।७।।मृगो ह्येवंविधो रत्नविचित्रो नास्ति राघव।जगत्यां जगतीनाथ मायैषा हि न संशयः।।८।।
शङ्कमानस्तु तं दृष्ट्वा तारामृगममप्रभं।विचार्य बहुधा बुया लक्ष्मणां वाक्यमब्रवीत्॥१६॥यथा नः कथितं पूर्वमापेभिः पावकोपमैः।अयं मयाधारो वीर मारीचो नाम राक्षसः।।१७।।अनेन मृगनृपेण राजानो बहवो हताः।।१८।।अस्य नूपमिदं दृष्ट्वा नानारत्नविभूषितं ।अवगन्तुं त्वया युक्तं बुद्ध्या बुंद्धिमतां वर ।।१९।।मृगा हेममयो नैष हेमकस्य मृगस्य च।कुतो लोके नरव्याघ्र संयोग: साधु चिन्तय॥२०॥ प्रवालमणिशृङ्गोऽयं न मृगो रत्नलोचनः।एतं मायामृगं मन्ये राजसं मृगपिणं॥२१॥
शङ्कमानस्तु तं दृष्ट्वा लक्ष्मणो राममत्रवीत्।तमेवैनमहं मन्ये मारीचं राक्षमं मृगम्॥४॥अस्य मायाविदो मायामृगरूपमिदं कृतम्।भानुमत्पुरुषव्याघ्र गन्धर्वपुरसंनिभम्॥६॥मृगो ह्येवंविधो रत्नविचित्रो नास्ति राधव।जगत्यां जगतीनाथ मायपा हि न मंत्रयः॥७॥
यदि वायं तथा यन्मां भवेद् वदसि लक्ष्मण।मायैषा राक्षसस्येति कर्तव्योऽस्य वधो मया।।३८।।एतेन हि नृशंसेन मारीचेना कृतात्मना।वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः।।३९।।अप्रमत्तेन ते भाव्यमाश्रमस्थेन सीतया ॥ ४९ ॥प्रदक्षिणेनातिवलेन पक्षिणा जटायुषा बुद्धिमता च लक्ष्मण।भवाप्रमत्तः प्रतिगृह्य मैथिलीं प्रतिक्षणं सर्वत एव शङ्कितः॥५१॥
यदि चायं तथा यन्मां भवेदसि लक्ष्मण।।निहताः परमेष्वासास्तस्माद्वध्यो भवेन्मम॥इहाप्रमत्तस्वं वीर परिपालय मैथिलीं।।तावन्न चलितव्यं ते यावन्नाहमिहागतः।राक्षसा दुष्टभावा हि यतन्ते विक्रीयां वने।।एवं समादिश्य रघुप्रवीरः सुलक्षणं लक्ष्मणामुग्रतेजाः।पुनः पुनैश्चैव समादिदेश यतस्त्वया वीर न खेदितव्यं।।
यदि वायं तथा यन्मां भवेद्वदसि लक्ष्मण।मायैपा राक्षसस्येति कर्तव्योऽस्य वधो मया॥एतेन हि नृशंसेन मारीचेनाकृतात्मना।वने विचरता पूर्व हिंसिता मुनिपुंगवाः॥इह त्वं भव संनद्धो यन्त्रितो रक्ष मैथिलीम्॥ अस्यामायत्तमस्माकं यत्कृत्यं रघुनन्दन।प्रदक्षिणेनातिबलेन पक्षिणा जटायुषा बुद्धिमता च लक्ष्मण।भवाप्रमत्तः प्रतिगृह्य मैथिलीं प्रतिक्षणं सर्वत एव शङ्कितः॥
तथा तु तं समादिश्य भ्रातरं रघुनन्दनः।बबन्धासि महातेजा जाम्बूनदमयत्सरुम्॥१॥ततस्त्रिविनतं चापमादायात्मविभूषणम्।आवध्य च कपालौ द्वौ जगामोदग्रविक्रमः॥२॥
तथा तु तं समादिश्य लक्ष्मणं रघुनन्दनः।।गृहीत्वा विनतं चैव चापं हाटकभृषितं।बद्ध्वा महेषुधी चापि तथामिं हेमवस्त्सरुं॥
तथा तु तं समादिश्य भ्रातरं रघुनन्दनः।बबन्धासि महातेजा जाम्बूनदमयत्सरुम्॥ततस्त्रिविनतं चापमाद।यात्मविभूषणम्।आवध्य च कलापौ द्वौ जगामोदग्रविक्रमः।।
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः॥४२॥कामक्रोधसमुत्थानि त्यजस्व व्यसनानि च।
भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः।कामक्रोधसमुत्थानि त्यज त्वं व्यसनानि च।।
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः।।४७।।पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः।।४८।।
कामतस्त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानिति॥४१॥गुणवत्यपि तु स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।
कामं च त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानपि।गुणवत् त्वयि च स्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।
कामं च त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानसि।गुणवत्त्वात् पितृस्नेहात् पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।
कामं च त्वं प्रकृत्यैव निर्णीतो गुणवानसि।गुणवत्यपि तु स्नेहात्पुत्र वक्ष्यामि ते हितम्।।
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