परोपकारी पत्रिका के अगस्त द्वितीय २०२३ के अंक में आचार्य रवीन्द्र, हमीरपुर उ.प्र. ने आचार्य अग्निव्रत के सृष्टि उत्पत्ति के रश्मि सिद्धान्त की आलोचना करते हुये रश्मि सिद्धान्त को कपोल कल्पित व वेद-शास्त्रों के अनुसार न होना कहते हुये आचार्य अग्निव्रत को स्वयं भ्रमित होने व दूसरों को भ्रमित करने का आरोप लगाते हुये शास्त्रार्थ करने का आह्वान किया है। रवीन्द्र जी के विवेचना की समीक्षा करने से पहले एक-दो आधारभूत बातों का उल्लेख करना सामयिक लगता है। पहली बात तो यह कि सिद्धान्त सर्वोपरि होता है, सिद्धान्त के सामने किसी की कोई औकात नहीं होती, चाहे वह कोई भी हो। दूसरे ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ज्ञान किसी की बपौती नहीं है। अब लेख में रवीन्द्र जी द्वारा दिये विभिन्न मन्तव्यों की समीक्षा कर ली जावे।
१. ‘‘ वेद मन्त्र शब्द स्वरूप हैं, शब्द आकाश का गुण है, वायु के सहयोग से वह शब्द ध्वनि के रूप में हमारे कानों को प्राप्त होता है।’’
समीक्षा : शब्द वायु के माध्यम से कान तक आता है, तो वायु में क्या परिवर्तन करता है कि वह वायु हमारे कान से टकराकर हमें ध्वनि का अहसास देता है। सभी जानते हैं कि ध्वनि वायु में बनी तरंगें (कम्पन) हैं, जो कान के पर्दे को कम्पित करती हैं और यही कम्पन आगे रूपान्तरित होकर हमें ध्वनि के रूप में सुनाई देता है। वायु में कम्पन कोई कम्पित वस्तु ही कर सकती है, तो शब्द अपने स्वरूपों में कम्पन ही होगा। शब्द आकाश का गुण है, गुण गुणी के बिना रह नहीं सकता, तो यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं। यदि शब्द नित्य है, तो आकाश भी नित्य होगा और यदि आकाश नित्य नहीं है, तो शब्द भी नित्य नहीं होगा। यदि आकाश की उत्पत्ति मानें, तो उसके साथ शब्द भी उत्पन्न हो गया और दोनों ही किसी अन्य वस्तु से उत्पन्न हुये। जिस वस्तु से आकाश उत्पन्न हुआ, उसमें शब्द मानना पड़ेगा, तो उस शब्द का स्वरूप क्या मानें, यह रवीन्द्र जी बतायें।
२. ‘‘ शास्त्रों में दो प्रकार का शब्द उपलब्ध है- स्फोट और ध्वनि। मन में शब्द का संस्कार शब्द स्वरूप न होकर ज्ञानस्वरूप है। मन में केवल शब्दों के ही नहीं, स्पर्श, रूप आदि के भी संस्कार होते हैं, किन्तु वे सब स्पर्श रूपादि नहीं होते, उनका ज्ञान होता है। ’’
समीक्षा : मन में शब्द, रूप, स्पर्श के संस्कार ज्ञानस्वरूप हैं, ध्वनि, प्रकाश, दबाव, तापक्रम परिवर्तन आदि के रूप में नहीं हैं। यह बात मानने पर भी यह तो सत्य है कि ये ज्ञान के संस्कारों के वाहक कुछ भौतिक क्रियाएँ ही तो हैं। शब्द संस्कार में बदलने से पहले भी तो कुछ रहा होगा। शब्द की कम्पन, रूप का प्रकाश, स्पर्श का दबाव या तापक्रम परिवर्तन ही तो मन में संस्कार बना होगा। इस प्रकार शब्द, रूप, स्पर्श के संस्कारों का आधार कम्पन, प्रकाश व दबाव ही हैं, तो शब्द को कम्पन मानना निराधार कैसे हो सकता है?
३. ‘‘ शब्द आकाश का गुण है, अत: आकाश की उत्पत्ति से पूर्व उसका होना सम्भव नहीं हैं। ’’
समीक्षा : आकाश की उत्पत्ति कैसे और किस वस्तु से हुई और जिस वस्तु से आकाश की उत्पत्ति हुई, उसमें शब्द था या नहीं और था तो किस रूप में और यदि शब्द नहीं था, तो आकाश बनने पर शब्द गुण कैसे आ गया? यह सम्भव है कि आकाश बनने से पहले आकाश को बनाने वाले घटकों में शब्द किसी और स्वरूप में हो, जैसे कम्प्यूटर या मोबाईल चिप में जानकारी, चिप से पर्दे तक विभिन्न स्वरूपों में होती है।
४. ‘‘ शब्द को गुण माना है, इस कारण वह किसी भी पदार्थ का समवायी अर्थात् उपादान कारण नहीं बन सकता। ’’
समीक्षा : गुण किसी गुणी का ही होता है और जिस गुणी का शब्द गुण है, वह उपादान कारण क्यों नहीं हो सकता?
५. ‘‘ शब्दों के परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चार भेदों की किसी भी आर्षग्रन्थ में चर्चा नहीं है और जिस ग्रन्थों में इनकी चर्चा है, उनमें इनकी परिभाषा अलग-अलग की हुई है। अत: इनको आधार बनाकर ऐसे शब्द की कल्पना करना, जो प्रलयावस्था में भी विद्यमान हो, वह दर्शन शास्त्रों की परम्परा से विपरीत होने से मान्य नहीं हो सकती।’’
समीक्षा : शब्द को आकाश का गुण माना गया है। आकाश जिन अवयवों से बना, उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में उनमें स्थित शब्द भी भिन्न-भिन्न स्वरूपों में होगा। पदार्थ का स्वरूप या स्थिति (स्टेज, फेज) बदलने पर शब्द का स्वरूप भी बदलता जायेगा। आचार्य अग्निव्रत जी का ध्वनि के विभिन्न रूपों से इसी स्थिति से अभिप्राय है। यह प्रक्रिया दर्शन विरोधी कैसे है? जैसे उपर्युक्त उदाहरणों में शब्द चिप, मोबाईल सर्किट और पर्दे पर भिन्न-भिन्न स्वरूपों में होता है, इसी प्रकार शब्द पदार्थ की भिन्न अवस्थाओं में भिन्न स्वरूपों में होना सम्भव है, जिनका वर्गीकरण परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चार भेदों में किया है। यह तो स्पष्ट ही है कि प्रलय अवस्था से सृष्टि प्रक्रिया से गुजरते हुये पदार्थ बहुत सारे परिवर्तनों से गुजरता है। यदि शब्द प्रलयावस्था में विद्यमान नहीं या किसी बाद की अवस्था में उत्पन्न हुआ, तो किस स्टेज पर उत्पन्न हुआ और कैसे उत्पन्न हुआ, यह आचार्य रवीन्द्र जी को अवश्य बताना चाहिए।
६. ‘‘ध्वनि में कम्पन अवश्य होता है, किन्तु स्फोट में कोई कम्पन नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्फोट आकाश में स्थित है। आकाश के निरवयवी होने से उसमें कोई कम्पन नहीं हो सकता।’’
समीक्षा : आकाश को निरवयवी मानते हो, तो उसकी उत्पत्ति कैसे और किससे हुई, क्योंकि आप पहले कह आये हैं (बिन्दु ३) कि शब्द आकाश का गुण है, अत: आकाश ही उत्पत्ति से पूर्व उसका (शब्द का) होना संभव नहीं है। अब जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निरवयवी नहीं हो सकती।
७. ‘‘ कम्पन मात्र से निर्माण नहीं हो सकता, वस्तुओं के स्थान छोड़ने से होता है। कम्पन में वस्तु द्वारा स्थान को पूरी तरह से नहीं छोड़ा जाता।’’
समीक्षा : कम्पन करती वस्तु के स्थान छोड़ने में क्या बाधा है? क्या कम्पन करती वस्तु चल नहीं सकती? भौतिकी में परमाणु व अन्य छोटे कण (इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, फोटोन आदि) कम्पन में होते हुये भी चलते हैं और एक-दूसरे से क्रिया भी करते हैं।
८. ‘‘ रश्मि का अर्थ नियन्त्रण करने वाला है। इसमें जबरदस्ती कम्पन लाना उचित नहीं है। ये (आचार्य अग्निव्रत) कहते हैं- स्थूल कम्पन को सूक्ष्म कम्पन से नियन्त्रित करना। निरुक्तकार ने कम्पन के विषय में कुछ भी नहीं कहा था, परन्तु ये इस प्रकार अनर्थ कर रहे हैं।’’
समीक्षा : क्या नियन्त्रण करने में स्थान परिवर्तन नहीं होता? क्या कम्पन स्थान परिवर्तन नहीं है? स्थूल कम्पन में बहुत सारी कम्पन मिली हुई रहती हैं। जब घटक कम्पन अपना प्रभाव डालती हैं, तो क्या स्थूल कम्पन प्रभावित नहीं होगा?
९. ‘‘ ऐसा लगता है कि इनकी (आचार्य अग्निव्रत की) अत्यन्त विशेष दृष्टि है, प्रमाणों के संकलन के समय इनको जो चाहिये, उसके अतिरिक्त और कुछ इनको दिखता ही नहीं।’’
समीक्षा : वेद व ऋषिकृत ग्रन्थों को पढ़ने से जितना लाभ होता है, वह मनुष्यकृत ग्रन्थों के पढ़ने से नहीं होता, ऐसा कहा जाता है और यह बात ठीक भी है। इसके दो कारण हैं- पहली बात यह कि ऋषि की जानकारी साधारण मनुष्य की जानकारी से गहरी होती है और दूसरी बात यह कि ऋषि की बात सारगर्भित होती है, अर्थात् बहुत सारी जानकारियों को समाहित किये होती है। वेद की बात ऋषि की बात से भी अधिक सारगर्भित होती है, तो प्रकरण अनुसार आचार्य अग्निव्रत किसी प्रमाण का अभिप्राय इस प्रकार का लेते हैं, जो किसी प्रक्रिया की ठीक से व्याख्या करता है, तो इसमें दोष क्या है? यदि इनका अभिप्राय मनमाना होगा, तो व्याख्या की श्रृंखला निश्चित रूप से रुक जायेगी और इनको मनमाना अर्थ छोड़ना पड़ेगा। यदि आचार्य रवीन्द्र जी को इनकी सम्पूर्ण व्याख्या (रश्मि सिद्धान्त) गलत लगती है, तो जो मनमाने अर्थ अग्निव्रत जी ने लिये हैं, उनको छोड़ कर सही अर्थ लेकर सृष्टि उत्पत्ति की वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत करनी चाहिये। यदि ऐसा नहीं कर सकते, तो इनकी आलोचना महज दुराग्रह ही माना जायेगा।
१०. ‘‘ बिना सम्बन्ध के ऋषियों के वाक्यों को प्रस्तुत करके अपनी बात को सिद्ध करने का असफल प्रयास किया है।’’
समीक्षा : रवीन्द्र जी ऊपर कह रहे हैं- इस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों में आंशिक सम्बन्धों का भी पूर्ण सम्बन्धों की तरह प्रयोग बहुत ज्यादा देखा जा सकता है। तो आचार्य अग्निव्रत जी यदि ऐसे सम्बन्धों का प्रयोग करते हैं, तो गलत क्या है? यदि उनके सम्बन्धों के प्रयोग किसी प्रक्रिया की क्रमिक व तर्कपूर्ण व्याख्या करते हैं, तो गलत क्या है?
११. ‘‘ स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से रश्मि का अर्थ रज्जु अर्थात् रस्सी दिखाते हैं, किन्तु अपनी शैली के अनुसार वहाँ भी जबरदस्ती कम्पन को जोड़ देते हैं। इस प्रकार वैदिक रश्मि सिद्धान्त को स्थापित करने का असफल प्रयास किया है। यह सिद्धान्त वास्तव में कपोल कल्पित है, इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है।’’
समीक्षा : क्या शास्त्रीय आधार पर कोई अन्य प्रक्रिया सृष्टि उत्पत्ति की उपलब्ध है? यदि अन्य शास्त्रीय प्रक्रिया उपलब्ध है, तो अब तक किसी दर्शन या वेद के विद्वान् द्वारा उसे स्थापित क्यों नहीं किया गया? आचार्य अग्निव्रत ने बिना शास्त्रीय प्रमाणों के अपनी रश्मि थ्यौरी को विस्तार से रखा है, तो अन्य विद्वानों द्वारा शास्त्रों के प्रमाणों के सहारे भी कोई थ्यौरी क्यों नहीं दी गई? भूतकाल में न सही, अग्निव्रत की थ्यौरी आने के बाद तो सही थ्यौरी प्रस्तुत करनी चाहिये। अग्निव्रत की रश्मि थ्यौरी को गलत बताने का मतलब है, रवीन्द्र जी या अन्य किसी विद्वान् को ठीक थ्यौरी मालूम है और उस ठीक थ्यौरी को पब्लिक करना चाहिये। यदि रश्मि थ्यौरी को गलत बताकर ठीक थ्यौरी नहीं दी जा रही है, तो यह स्वाभाविक और सहज निष्कर्ष होगा कि अग्निव्रत जी की रश्मि थ्यौरी की आलोचना दुराग्रहवश की जा रही है।
१२. ‘‘ सत्व, रजस्, तमस् की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं। यह अवस्था केवल क्षण भर के लिये रहती है यह प्रलयकाल के मध्य में होती है। ऐसी स्थिति में परमात्मा इस प्रकृति में कुछ संक्षोभ के द्वारा विषमता उत्पन्न करता है। इस प्रकार महत् नामक तत्व का आविर्भाव होता है। इसी क्रम से अहंकार, मन, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ एवं पंच महाभूतों का निर्माण होता है। ’’
समीक्षा : साम्यावस्था में ईश्वर द्वारा किया गया संक्षोभ क्या हलचल के रूप में नहीं होगा और क्या इस हलचल को कम्पन या रश्मि नहीं कह सकते? आगे का रूपान्तरण महत्-मन-इन्द्रियाँ-तन्मात्रायें-पंच महाभूत क्या इन्हीं कम्पनों के रूपान्तरण नहीं हो सकते? यदि परमात्मा के द्वारा आद्य अर्थात् मूल पदार्थ का संक्षोभ कम्पन के रूप में नहीं होता, तो उस संक्षोभ का स्वरूप क्या है? यहाँ संक्षोभ का दूसरा रूप बताये बिना ही कम्पन को नकारना केवल दुराग्रह है।
१३. ‘‘ पंच महाभूतों की उत्पत्ति के बाद इनमें से आकाश को छोडक़र शेष चार महाभूतों के परमाणुओं को एकत्रित करके परमात्मा एक महद् अण्ड का निर्माण करता है। यह द्वितीय चरण है। उस महद् अण्ड के फटने से उसके अन्दर से सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न हुई। इसी के साथ देवताओं की तथा लोकों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन वेद तथा ब्र्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है।’’
समीक्षा : पंच महाभूतों में आकाश को छोडक़र शेष चार महाभूतों के परमाणुओं को एकत्रित करके बहुत बड़े अण्ड का निर्माण किया। बाद में वह अण्ड फट गया और इसी से सभी देवता तथा लोकों का निर्माण हुआ। चार महाभूतों में पृथ्वी, जल, वायु भी हैं, तो ये तीन महाभूत तो अण्ड बनने से पहले ही मौजूद थे, तो बाद में अण्ड फटने पर इनका निर्माण होने की बात निराधार ही है। अण्ड के फटने से महाभूत व लोकों के निर्माण की कथा आधुनिक विज्ञान की बिग-बैंग थ्यौरी का समर्थन कर रही है। विस्फोट होने के बाद क्या महाभूत एकदम बन गये? महाभूतों के बनने की प्रक्रिया को अग्निव्रत जी ने रश्मि सिद्धान्त के आधार पर व्याख्या की है, तो क्या रवीन्द्र जी या अन्य वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान् ने दूसरी व्याख्या दी है? केवल गलत कहना उचित नहीं है, जब तक गलत के स्थान पर ठीक समाधान न दिया जाये। ऐसा करना दुराग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि यह कहें कि पंचमहाभूत अण्ड में मौजूद नहीं थे, उनके परमाणु विद्यमान थे, तो इन विभिन्न प्रकार के परमाणुओं के बनने की प्रक्रिया क्या थी? आप कहते हैं कि उस अवस्था में होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में पता अनुमान प्रमाण से भी नहीं किया जा सकता, तो यह बात आधुनिक विज्ञान की बिग-बैंग थ्यौरी वाली बात है, क्योंकि आधुनिक विज्ञान से जब पूछा जाता है कि ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण पदार्थ बिन्दु आयतन में कैसे एकत्रित हुआ या किसने एकत्रित किया, तो उनका कहना भी यह है कि इस अवस्था का कुछ पता नहीं है।
१४. ‘‘ इसके साथ सर्वप्रथम उत्पत्ति विद्युत् की हुई है, ऐसा कहना परमाणु के अभाव के कारण आधारहीन है।’’
समीक्षा : सूक्ष्म वस्तु का निर्माण पहले होता है, बाद में उससे स्थूल का निर्माण होता है। परमाणु से विद्युत् सूक्ष्म है, तो यह कहना कि परमाणु के अभाव में विद्युत् पैदा नहीं हो सकती, रवीन्द्र का ऐसा कहना सूक्ष्म से स्थूल वाले सिद्धान्त की अनभिज्ञता ही है। विद्युत् भौतिक अग्नि से भी सूक्ष्म है। मूल सिद्धान्त को न जानने के कारण दुराग्रहवश ये श्रीमान् जी आचार्य अग्निव्रत जी को गलत भ्रमित और अपराधी कह रहे हैं। सृष्टि प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को स्पष्ट च अलग-अलग न समझने के कारण अग्निव्रत जी पहले चरण को तीसरे चरण के साथ गड्ड मड्ड करके स्वयं भ्रमित हो रहे हैं और दूसरों को कर रहे हैं, तो इसका समाधान तो रवीन्द्र जी के पास होना चाहिये और उसकी स्पष्ट प्रक्रिया विद्वानों और जनसाधारण को समझा देनी चाहिये, ताकि लोगों को अग्निव्रत जैसे धोखेबाजों से बचाया जा सके।
१५. ‘‘ वैदिक साहित्य में यह अत्यन्त प्रसिद्ध है कि देवताओं की उत्पत्ति में सर्वप्रथम अग्नि की उत्पत्ति हुई थी। आगे में दिव्य वायु को अंहकार मानते हैं और उसी को मन तथा महत् तत्व मानते हैं अर्थात् इनकी दृष्टि में अहंकार, मन एवं महतîव तीनों एक ही हैं।’’
समीक्षा : यहाँ सृष्टि उत्पत्ति प्रकरण में देवताओं से अभिप्राय पंच महाभूतों से किया जाये, तो क्रम आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी का है। स्पष्ट है कि वायु अग्नि से सूक्ष्म है और अग्नि जल से सूक्ष्म व वायु से स्थूल है, तो आचार्य अग्निव्रत जी वायु को अग्नि से पहले मानते हैं, तो गलत नहीं हैं। इन सब देवताओं का मूल उपादान महत्-अहंकार तथा मन की सूक्ष्म अवस्था को दिव्य वायु कह देना सिद्धान्त विरुद्ध कैसे है? अग्निव्रत जी महत्-अहंकार तथा मन को अलग ही मानते हैं, एक नहीं मानते, लेकिन सभी भूतों के निर्माण में इनका होना मान कर इन्हें दिव्य वायु कहा है। अग्निव्रत जी सांख्य के विरुद्ध मत स्थापित कर रहे हैं, ऐसा तो कदापि नहीं हैं।
१६. ‘‘ आगे इनकी चर्चा से यह भी प्रतीत होता है कि इनका कथन पूर्ण रूप से आधुनिक लोगों के सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी काल्पनिक सिद्धान्तों के आधार पर खड़ा है।’’
समीक्षा : आधुनिक लोगों के सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त क्या है, यह रवीन्द्र जी को बताना चाहिये। यदि आधुनिक लोगों के आधुनिक विज्ञान को मानते हैं, तो आधुनिक विज्ञान सृष्टि उत्पत्ति का बिग-बैंग सिद्धान्त मानते हैं, जिसका आचार्य अग्निव्रत जी स्पष्ट विरोध करते हैं। आधुनिक विज्ञान के अतिरिक्त सृष्टि उत्पत्ति के किन सिद्धान्तों की नकल अग्निव्रत जी कर रहे है, जिनसे रवीन्द्र जी सहमत नहीं है, यह स्पष्ट करना अति आवश्यक है, नहीं तो आचार्य अग्निव्रत जी की कटैगरी मनमाने ढंग से निर्धारित करने जैसी निराधार आलोचना करना बहुत निम्र कोटि का कुर्तक है।
१७. ‘‘ हम दर्शन योग महाविद्यालय की परम्परा के विद्वान् हर वर्ष आपस में मिलकर परस्पर अनेक विषयों में जहाँ मतभेद हैं, शास्त्रार्थ करते हैं। किन्तु मतभेद के कारण आपस में मनभेद नहीं होता’’
समीक्षा : सिद्धान्त रूप में तो रवीन्द्र जी की बात बिलकुल ठीक है, पर व्यवहार में पूर्णरूप से विपरीत है। आचार्य अग्निव्रत जी से कोई मतभेद है, तो उनके साथ पत्र व्यवहार, दूरभाष या आकर आमने-सामने चर्चा करनी चाहिये थी, न कि पत्रिका में लेख डाल कर आम पाठक और विशेषकर आर्यजनों के बीच उनको गलत, कपोल-कल्पित, भ्रामक, वेद शास्त्रों का विरोधी, शास्त्रार्थ व तर्क से भागने वाला स्थापित करना और मनभेद न रखने का उपदेश देना, इसको क्या कहें, मैं कहना नहीं चाहूँगा। निश्चित रूप से रवीन्द्र जी का कार्य आर्यों में भ्रम पैदा करने वाला और आर्य समाज के विरोधियों को मौका देने वाला है।
रवीन्द्र जी के लेख: ‘वेद मन्त्रों से संसार की उत्पत्ति की विवेचना’ उपर्युक्त सभी बिन्दुओं में सैद्धान्तिक व व्यवहारिक अन्तर्विरोध हैं। स्पष्ट है कि इनको सिद्धान्तों की स्पष्टता नहीं है और आचार्य अग्निव्रत जी को गलत ठहराना ही एकमात्र उद्देश्य लगता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सबसे अधिक बल इसी बात पर रहता था कि वेद की स्थापना हो, वेद की ओर लौटो। यह भी सत्य है कि वेद से विमुख होने का सबसे बड़ा कारण वेद की गलत व्याख्या करना रहा और महाभारत काल के बाद दयानन्द ऋषि ही पहले महापुरुष थे, जिन्होंने वेद की ठीक व्याख्या करके वेद की पुन:स्थापना की। ऋषि के वेद की स्थापना के कार्य को पूरा करने के दो ही रास्ते हैं-
पहला यह कि व्यवस्था आपके हाथ में हो। वर्तमान में व्यवस्था आप के हाथ में नहीं है, बल्कि वेद की गलत व्याख्या करने वालों के हाथ में है। दूसरा विकल्प यह है कि वैज्ञानिक जगत् में वेद को स्थापित किया जाये, क्योंकि एक बार वैज्ञानिक जगत् में वेद की स्थापना हो जाती है, तो जन साधारण और राज्य व्यवस्था में भी स्थापना हो जाती है।
जैसे महाभारत काल के बाद ऋषि दयानन्द पहले महापुरुष थे, जिन्होंने वेद की ठीक व्याख्या की, उसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचार्य अग्निव्रत महाभारत के बाद पहले विद्वान् हैं, जिन्होंने वेद से विज्ञान के एक अंश (सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया) को निकाल कर वैज्ञानिकों के सामने रखा और वैज्ञानिक जगत् में यह स्थापित करने का सफल प्रयास किया है कि वेद में विज्ञान है और वेद विज्ञान आधुनिक विज्ञान से गहरा, पूर्ण और कल्याणकारी है। आचार्य अग्निव्रत जी ने विश्व के उच्च कोटि के विज्ञान शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों के सामने वेद विज्ञान को साहसपूर्वक चुनौतीपूर्ण ढंग से रखा है और सफलता भी पाई है। आचार्य अग्निव्रत न केवल वेद की स्थापना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, अपितु ये सर्वांगीण दृष्टि से विचार करने वाले और जनहित में अपने विचार रखने वाले प्रखर चिन्तक भी हैं। किसान आन्दोलन, कोरोना टीकाकराण, निजीकारण, विदेशी निवेश, अग्निपथ जैसे मुद्दों पर जहाँ आर्य नेता व विद्वान् चुप थे, वहाँ आचार्य अग्निव्रत खुलकर जनहित में आवाज बुलन्द कर रहे थे। अब तो आचार्य जी ने खुली घोषणा कर दी है कि वेद व आर्ष ग्रन्थों पर जिसको जो आपत्ति है, जो आक्षेप लगाने हैं व लगा ले, उन आक्षेपों का उत्तर आचार्य अग्निव्रत देंगे, ताकि वेद व आर्ष ग्रन्थों के बारे में कोई भ्रान्ति नहीं रहे। क्या इससे बड़़ी वेद व आर्ष ग्रन्थों के प्रति निष्ठा और हो सकती है? यह हम आर्यों को ईश्वरीय उपहार है कि हमारे पास अग्निव्रत जैसा मनीषी है। हमें आचार्य अग्निव्रत का प्रत्येक प्रकार का सहयोग करके ईश्वरीय उपहार का सम्मान करना चाहिये।
-डॉ. भूपसिंह, से. नि. एसोशिएट प्रोफेसर भौतिकी (भिवानी)
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