অথর্ববেদ ৪/৬/১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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04 October, 2023

অথর্ববেদ ৪/৬/১

 

ব্রাহ্মণো জজ্ঞে প্রথমো দশশীর্ষো দশাস্যঃ।

স সোমং প্রথমঃ পপৌ স চকারারসং বিষম্ ॥-অথর্ববেদ ৪।৬।১

পদার্থঃ (প্রথমঃ) সমস্ত বর্ণের মধ্যে প্রধান (দশশীর্ষা) দশ প্রকারের [১-দান, ২-শীল, ৩-ক্ষমা, ৪-বীর্য, ৫-ধ্যান, ৬-বুদ্ধি, ৭-সেনা, ৮-উপায়, ৯-গুপ্ত দূত ও ১০-জ্ঞান] মাথা স্থাপনকারী, এবং (দশাস্যঃ) দশ দিকে মুখের সমান পুষ্টিকর শক্তিসম্পন্ন বা দশ দিকে স্থিতিশীল/অবস্থান (ব্রাহ্মণঃ) ব্রাহ্মণ অর্থাৎ বেদবেত্তা মানব (জজ্ঞে) উৎপন্ন হয়েছে। (সঃ প্রথমঃ) সেই প্রধান পুরুষ (সোমম্) সোম নাম ঔষধির রস বা ব্রহ্মানন্দ রস (পপৌ) পান করেন, এবং (সঃ) তিনি (বিষম্) বিষকে (অরসম্) নির্গুণ করেছেন॥

भावार्थ


जैसे वेदवेत्ता सद्वैद्यों ने पूर्ण विद्या प्राप्त करके सब दिशाओं में खोजकर संसार के उपकार के लिये सोम रस को पाया और आरोग्यनाशक और शरीरविकारक विष को हटाया है, हम लोग इसी प्रकार सोमलता आदि औषधों की प्राप्ति और परीक्षा करके संसार का कष्ट मिटाकर सबको सुख पहुँचावें और ब्राह्मण अर्थात् वेदवेत्ता होकर अगुआ बनें ॥१॥ सोम का विशेष वर्णन ऋग्वेद मण्डल ९, और सामवेद उत्तरार्चिक प्रपाठक १ आदि में है, यहाँ दो मन्त्र लिखते हैं। स्वादि॑ष्ठया॒ मदि॑ष्ठया पव॑स्व सोम॒ धार॑या। इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒तः ॥१॥ र॒क्षो॒हा वि॒श्वचर्षणिर॒भि योनि॒मयो॑हतम्। द्रुणा॑ स॒धस्थ॒मास॑दत् ॥२॥ ऋग्वेद ९।१।१, २॥यजु० २६।२५, २६॥ साम उत्तरा० प्र० १ अ० १ त्रिक १५ ॥ (सोम) हे सोम रस (स्वादिष्ठया) बड़ी स्वादिष्ठ और (मदिष्ठया) अति आनन्दकारक (धारया) धारा से (इन्द्राय) बड़े प्रतापी इन्द्र, पुरुष के लिये (पातवे) पीने को (सुतः) छनकर (पवस्व) शुद्ध हो ॥१॥ (रक्षोहा) रोगादि दुष्ट राक्षसों के नाश करनेवाले, (विश्वचर्षणिः) सब मनुष्यों के हितकारक उस [सोम] ने (अपोहतम्) सुवर्ण से बने हुए (सधस्थम्) एक साथ ठहरने योग्य (योनिम्) स्थान (द्रुणा=द्रोणे) द्रोण कलश में (अभि) व्याप-कर (आ असदत्) पाया है ॥२॥ सोम का वृत्तान्त सुश्रुतचरक आदि वैद्यक ग्रन्थों में सविस्तार है, वहाँ देख लेवें ॥


टिप्पणी


१−(ब्राह्मणः) तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इति ब्रह्मन्-अण्। ब्राह्मोऽजातौ। पा० ६।४।१७१। इति न टिलोपः। वेदपाठी। वेदवेत्ता पुरुषः (जज्ञे) जनी-लिट्। प्रादुर्बभूव (प्रथमः) सर्ववर्णेषु प्रधानः। अग्रिमः (दशशीर्षः) श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। श्रिञ् सेवायाम्-असुन्, शिरादेशः। शिरःशब्दस्य शीर्षं वा। उत्तमाङ्गं शिरः शीर्षं मूर्धा ना-मस्तकोऽस्त्रियाम्, इत्यमरः, १६।९५। दानशीलक्षमावीर्य्यध्यानप्रज्ञा बलानि च। उपायः प्रणिधिर्ज्ञानं दश बुद्धबलानि च। इति शब्दकल्पद्रुमवचनाद् दशसु बलेषु शीर्षं शिरोबलं यस्य स तथाभूतः पुरुषः (दशास्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे-ण्यत्। अस्यतेऽन्नमस्मिन्निति आस्यं मुखम्। यद्वा। आस उपवेशने-ण्यत्, टाप् आस्या स्थितिः, आसनम्। दशसु दिक्षु आस्यं मुखवत् पोषणं यस्य। यद्वा। दशसु दिक्षु आस्या स्थितिर्यस्य स तथाभूतः (सः) ब्राह्मणः (सोमम्) अ० १।६।२। सोमलतारसम्। ओषधिः सोमः सुनोतेर्यदेनमभिषुण्वन्ति। बहुलमस्य नैघण्टुकं वृत्तमाश्चर्य्यमिव प्राधान्येन तस्य पावमानीषु-निरु० ११।२। (प्रथमः) प्रधानः। (पपौ) पीतवान् (चकार) कृतवान् (अरसम्) रसरहितं निर्वीर्यम् (विषम्) विष विप्रयोगे, यद्वा, विष्लृ व्याप्तौ-क। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य विपूर्वस्य वा सचतेः निरु० २२।२६। आरोग्यस्य शरीरस्य वानशिकं द्रव्यम् ॥


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