क्या अर्जुन सुभद्रा तथा कृष्ण रुक्मणि भाई बहन लगते थे ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

24 October, 2023

क्या अर्जुन सुभद्रा तथा कृष्ण रुक्मणि भाई बहन लगते थे ?

कुछ लोग यह आक्षेप लगाते हैं कि सनातन धर्म में निकट संबंधों में विवाह होता था। वे लोग ऐसा आक्षेप करते हैं कि अर्जुन ने सुभद्रा से विवाह किया और सुभद्रा तो कृष्ण जी की बहन थी और और कृष्ण जी के पिता का नाम वसुदेव था, वसुदेव जी के पिता का नाम शूरसेन था और कुंती भी उन्हीं की पुत्री थी जिसे उन्होंने राजा कुंतीभोज को दे दिया और अर्जुन का कुंती पुत्र होने से अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन सिद्ध हुए। हम आज इसी आक्षेप का निवारण करेंगे तथा कुछ लोग रुक्मणि और कृष्ण को भी भाई बहन मानते हैं उनका भी भ्रांति निवारण करेंगे।


सबसे पहले हम सुभद्राहरण प्रसंग पर थोड़ा संक्षेप से देखते हैं-


एक बार रैवतक पर्वत पर वृष्णि व अंधक वंश के लोग एक उत्सव करते हैं। उसमें द्वारका के सैकड़ों हजारों मनुष्य अपनी स्त्रियों व सेवकों सहित पैदल वा छोटी बड़ी सवारियों से आकर सम्मिलित हुए। जिसमें भगवान् श्री कृष्ण जी भी अर्जुन के साथ घूम रहे थे-


चित्रकौतूहले तस्मिन् वर्तमाने महाद्भुते।


वासुदेवश्च पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः॥१३।।


उस अत्यन्त अद्भुत विचित्र कौतूहलपूर्ण उत्सव में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन एक साथ घूम रहे थे।


टिप्पणी-


Critical edition में यह श्लोक इस प्रकार है-


तदा कोलाहले तस्मिन्वर्तमाने महाशुमे।


वासुदेवथ पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः॥


उसी समय-


अलंकृतां सखीमध्ये भद्रां ददृशतुस्तदा॥१४॥


दृष्ट्वैव तामर्जुनस्य कन्दर्पः समजायत।


तं तदैकाग्रमनसं¹ कृष्णः पार्थमलक्षयत्।।१५।।


अब्रवीत् पुरुषव्याघ्रः प्रहसन्निव भारत।


अर्थात् श्रृंगार से सुसज्जित हो सखियों से घिरी हुई सुभद्रा उधर आ निकली। वहाँ टहलते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनने उसे देखा। उन्हें देखते ही अर्जुन उनसे प्रेम [आप्टे कोश में कन्दर्पः का एक अर्थ प्रेम भी है] कर बैठे। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुनकी इस मनोदशा को भाँप लिया। पुरुषव्याघ्रः श्रीकृष्ण जी अर्जुन से हंसते हुए बोले-


{टिप्पणी -


1. Critical edition में तदैकाग्रमनसं के स्थान पर तथैकाग्रमनसं पाठ आया है}


ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा।


यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम्॥१७॥


पार्थ! यह मेरी बहन और सारण की सहोदरा बहन है। यदि तुम्हारा विचार इससे ब्याह करनेका हो तो मैं पिता से स्वयं कहूँगा।


टिप्पणी-


यहां गीता प्रेस में इस प्रकार का श्लोक आया है-


ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा।


सुभद्रा नाम भद्रं ते पितुर्मे दयिता सुता ।


यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम्॥१७॥


किन्तु critical edition में इस प्रकार का पाठ है-


ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा।


यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम्॥


हमने यही पाठ लिया है, इसका एक हेतु यह है कि bori ने महाभारत के कई सारे संस्करणों के ऊपर अनुसंधान कर के इसे प्रकाशित किया है। इसमें “सुभद्रा नाम भद्रं ते पितुर्मे दयिता सुता।” पाठ नहीं आया है अतः यह सिद्ध होता है कि यह पाठ कई सारे संस्करणों में नहीं आया है। इसका मिलावट होने का अन्य हेतु लेख को पूरा पढ़ने पर आपको विदित हो जायेगा।




अर्जुन उवाच-


कृतमेव तु कल्याणं सर्व मम भवेद् ध्रुवम्।


यदि स्यान्मम वार्ष्णेयी महिषीयं स्वसा तव॥१९॥


प्राप्तौ तु क उपायः स्यात् तं ब्रवीहि जनार्दन।


आस्थास्यामि तदा सर्वं यदि शक्यं नरेण तत्॥२०॥


अर्जुन ने कहा - सखे! यदि यह वृष्णिकुल की कुमारी और आपकी बहिन सुभद्रा मेरी रानी हो सके तो निश्चय ही मेरा समस्त कल्याणमय मनोरथ पूर्ण हो जाय।


जनार्दन! बताइये, इसे प्राप्त करनेका क्या उपाय हो सकता है? यदि मनुष्यके द्वारा कर सकने योग्य होगा तो वह सारा प्रयत्न मैं अवश्य करूँगा।


ततोऽर्जुनश्च कृष्णश्च विनिश्चित्येति कृत्यताम्।


शीघ्रगान् पुरुषानन्यान् प्रेषयामासतुस्तदा॥२४॥


धर्मराजाय तत् सर्वमिन्द्रप्रस्थगताय वै।


श्रुत्वैव च महाबाहुरनुजज्ञे स पाण्डवः॥२५॥


तब अर्जुन और श्रीकृष्णने कर्तव्यका निश्चय करके कुछ दूसरे शीघ्रगामी पुरुषोंको इन्द्रप्रस्थमें धर्मराज युधिष्ठिरके पास भेजा और सब बातें उन्हें सूचित करके उनकी सम्मति जाननेकी इच्छा प्रकट की। महाबाहु युधिष्ठिरने यह सुनते ही अपनी ओरसे आज्ञा दे दी।


टिप्पणी-


यहां इस श्लोक के ऊपर critical edition में ‘वैशम्पायन उवाच’ लिखा है अर्थात् यह श्लोक वैशम्पायन जी ने कहा।


(महाभारत आदि पर्व अध्याय २१८, गीता प्रेस)




वैशम्पायन उवाच-


ततः संवादिते तस्मिन्ननुज्ञातो धनंजयः।


गतां रैवतके कन्यां विदित्वा जनमेजय॥१॥


वासुदेवाभ्यनुज्ञातः कथयित्वेतिकृत्यताम्।


कृष्णस्य मतमादाय¹ प्रययौ भरतर्षभः॥२॥


रथेन काञ्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि।


शैव्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना॥३॥ सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना।


ज्वलिताग्निप्रकाशेन द्विषतां हर्षघातिना॥४॥


संनद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।५।


सुभद्रा त्वथ शैलेन्द्रमभ्यच्यैव हि रैवतम्।


दैवतानि च सर्वाणि ब्राह्मणान् स्वस्ति वाच्य च॥६॥


प्रदक्षिणं गिरेः कृत्वा प्रययौ द्वारकां प्रति।


तामभिद्रुत्य कौन्तेयः प्रसह्यारोपयद् रथम्²।।७।।


वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर उस विवाह सम्बन्धी संदेशपर युधिष्ठिर की आज्ञा मिल जाने के पश्चात् धनंजय को जब यह मालूम हुआ कि सुभद्रा रैवतक पर्वतपर गयी हुई है, तब उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण से आज्ञा लेकर और श्री कृष्ण जी की सम्मति प्राप्त कर के श्रीकृष्ण के मतानुसार उन्होंने यात्रा की। अर्जुन के उस सुवर्णमय रथको विधिपूर्वक सजाकर तैयार किया था। उसमें स्थान-स्थानपर छोटी-छोटी घंटिकाएँ तथा झालरें लगा दी थीं और शैब्य, सुग्रीव से युक्त था। उस रथके भीतर सब प्रकारके अस्त्र शस्त्र मौजूद थे। उसकी घर्घराहटसे मेघकी गर्जनाके समान आवाज होती थी। वह प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ता था। उसे देखते ही शत्रुओंका हर्ष हवा हो जाता था। नरश्रेष्ठ धनंजय कवच और तलवार बाँधकर एवं हाथों में दस्तानों से युक्त हो गए। उधर सुभद्रा गिरिराज रैवतक को सजा कर {अर्च का अर्थ सजाना भी होता है - आप्टे कोश} तथा सब देवताओं अर्थात् विद्वानों की पूजा अर्थात् यथायोग्य सत्कार करके ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर पर्वत की परिक्रमा {यहां परिक्रमा अति उत्साह के कारण की गई है न कि पर्वत की पूजा के तौर पर, क्योंकि वेद में तो स्पष्टतः प्रमाण है कि जड़ की पूजा नहीं करनी चाहिए, देखें यजुर्वेद ४०.९} पूरी करके द्वारकाकी ओर लौट रही थी। उसी समय कौन्तेय अर्जुन ने सुभद्रा को प्रचंडता = अति तीव्रता के साथ रथ पर बैठा लिया।


टिप्पणी-


1. यहां critical edition में मतमादाय के स्थान पर मतमाज्ञाय पाठ आया है।


2. यहां श्लोक ७ गीता प्रेस में इस प्रकार है-


प्रदक्षिणं गिरेः कृत्वा प्रययौ द्वारकां प्रति।


तामभिद्रुत्य कौन्तेयः प्रसह्यारोपयद् रथम्।


सुभद्रां चारुसर्वाङ्गीं कामबाणप्रपीडितः॥७॥


किंतु ‘सुभद्रां चारुसर्वाङ्गीं कामबाणप्रपीडितः’ यह critical edition में नहीं आया है इसलिए हमने नहीं लिया।




उसके बाद-


ततः स पुरुषव्याघस्तामादाय शुचिस्मिताम् । रथेनाकाशगेनैव प्रययौ स्वपुरं प्रति¹।।८।।


ह्रियमाणां तु तां दृष्ट्वा सुभद्रां सैनिको जनः। विक्रोशन्प्राद्रवत्स द्वारकामभितः पुरीम्॥९॥


पुरुषव्याघ्र अर्जुन इस प्रकार से सुन्दर मुस्कराहटों वाली सुभद्राको लेकर आकाश में चलने वाले रथसे अपने नगरकी ओर चले गए।


सैनिक लोग सुभद्रा का अपहरण होते देखकर चिल्लाते हुए द्वारका नगरकी ओर दौड़े। उन्होंने एक साथ सुधर्मा सभामें पहुँचकर सभापाल से अर्जुन के उस साहसपूर्ण पराक्रम का सारा हाल कह सुनाया। उनकी बातें सुनकर सभापाल ने सबको युद्धके लिये तैयार होनेकी सूचना देनेके उद्देश्य से नगाड़ा बजाया। फिर तुरंत सभी लोग युद्ध के लिए तैयार होने लगे।


टिप्पणी-


1. गीता प्रेस में रथेनाकाशगेनैव के स्थान पर रथेन काञ्चनाङ्गेन शब्द आया है किंतु महाभारत के bori द्वारा प्रकाशित critical edition में रथेनाकाशगेनैव पाठ आया है, जिसे आप bori द्वारा प्रकाशित महाभारत के critical edition आदि पर्व के अध्याय ११२ के श्लोक ८ में देख सकते हैं। यहां यही पाठ लेना उचित है क्योंकि जैसा कि अगले श्लोक से स्पष्ट होता है कि सैनिक इसे देखते ही द्वारका की ओर भागे, यदि अर्जुन स्थल मार्ग से जाते तो एक दो सैनिक सूचना देने जाते बाकी अन्य उन्हें पकड़ने का प्रयास करते।




तत्पश्चात -


वनमाली ततः क्षीब: कैलासशिखरोपमः।


नीलवासा मदोत्सिक्त इदं वचनमब्रवीत्॥२०॥


तदनन्तर कैलासशिखरके समान गौरवर्णवाले नील वस्त्र और बनमाला धारण करनेवाले मदोन्मत अर्थात् जोश में भरे हुए बलरामजी इस प्रकार बोले-


किमिदं कुरुथाप्रज्ञास्तूष्णींभूते जनार्दने।


अस्य भावमविज्ञाय संक्रुद्धा मोघगर्जिताः॥२१॥


एष तावदभिप्रायमाख्यातु स्वं महामतिः।


यदस्य रुचिरं कर्तुं तत् कुरुध्वमतन्द्रिताः॥२२॥


ततस्ते तद् वचः श्रुत्वा ग्राह्यरूपं हलायुधात्।


तूष्णीम्भूतास्ततः सर्वे साधु साध्विति चाब्रुवन्॥२३॥


समं वचो निशम्यैव बलदेवस्य धीमतः।


पुनरेव सभामध्ये सर्वे ते समुपाविशन्॥२४॥


मूर्खो! श्रीकृष्ण तो चुपचाप बैठे हैं, तुम यह क्या कर रहे हो? इनका अभिप्राय जाने बिना ही तुम इतने कुपित हो उठे। तुमलोगोंकी यह गर्जना व्यर्थ ही है। पहले परम बुद्धिमान् श्रीकृष्ण अपना अभिप्राय बतावें। तदनन्तर जो कर्तव्य इन्हें उचित जान पड़े, उसीका आलस्य छोड़कर पालन करो। बलराम जी की यह मानने योग्य बात सुनकर सब यादव चुप हो गये और सब लोग उन्हें साधुवाद देने लगे। परम बुद्धिमान् बलरामजीके उस वचनको सुननेके साथ ही वे सभी वीर फिर उस सभामें मौन होकर बैठ गए।


ततोऽब्रवीद् वासुदेवं वचो रामः परंतपः।


किमवागुपविष्टोऽसि प्रेक्षमाणो जनार्दन¹॥२५॥


सत्कृतस्त्वत्कृते पार्थः सर्वैरस्माभिरच्युत।


न च सोऽर्हति तां पूजां दुर्बुद्धिः कुलपांसनः ॥२६॥


को हि तत्रैव भुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।


मन्यमानः कुले जातमात्मानं पुरुषः क्वचित् ॥ २७ ॥


इच्छन्नेव हि सम्बन्धं कृतं पूर्वं च मानयन्।


को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत्²॥२८॥


सोऽवमन्य तथास्माकमनादृत्य च केशवम्।


प्रसह्य हृतवानद्य सुभद्रां मृत्युमात्मनः³॥२९॥


कथं हि शिरसो मध्ये कृतं तेन पदं मम⁴।


मर्षयिष्यामि गोविन्द पादस्पर्शमिवोरगः।।३०।।


अद्य निष्कौरवामेकः करिष्यामि वसुंधराम्।


न हि मे मर्षणीयोऽयमर्जुनस्य व्यतिक्रमः॥३१॥


तं तथा गर्जमानं तु मेघदुन्दुभिनिःस्वनम्।


अन्वपद्यन्त ते सर्वे भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा॥३२॥


तदनन्तर परंतप बलरामजी भगवान् श्रीकृष्णसे बोले- जनार्दन। यह सब कुछ देखते हुए भी तुम क्यों मौन होकर बैठे हो? अच्युत! तुम्हारे संतोषके लिये ही हम सब लोगोंने अर्जुनका इतना सत्कार किया; परंतु वह खोटी बुद्धिवाला कुलांगार इस सत्कारके योग्य कदापि न था। अपनेको कुलीन माननेवाला कौन ऐसा मनुष्य है, जो जिस बर्तनमें खाये, उसीमें छेद करे। उसने हमलोगोंका अपमान और केशवका अनादर करके आज बलपूर्वक सुभद्राका अपहरण किया है, जो उसके लिये अपनी मृत्युके समान है। गोविन्द! जैसे सर्प पैरकी ठोकर नहीं सह सकता, उसी प्रकार मैं उसने जो मेरे सिर पर पैर रख दिया है, उसे कैसे सह सकूँगा? अर्जुनका यह अन्याय मेरे लिये असह्य है। आज मैं अकेला ही इस वसुन्धराको कुरुवंशियोंसे विहीन कर दूँगा। मेघ और दुन्दुभिकी गम्भीर ध्वनिके समान बलरामजीकी वैसी गर्जना सुनकर उस समय भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके समस्त वीरोंने उन्हींका अनुसरण किया।


नोट -


1. महाभारत के critical edition में ऐसा पाठ आया है-


ततोऽब्रवीत्कामपालो वासुदेवं परंतपम्।


अर्थात् श्रीकृष्ण जी से कामपाल ने यह सब कहा।


सम्बन्ध की इच्छा रहते हुए भी कौन ऐसा कल्याणकामी पुरुष होगा, जो पहलेके उपकारको मानते हुए ऐसा दुःसाहसपूर्ण कार्य करे।


2. यहां critical edition में ऐसा पाठ है -


ईप्समानश्च सम्बन्धं कृतपूर्व च मानवन् ।


को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत्।।


3.यहां Critical edition में तथास्माकमनादृत्य के स्थान पर नामास्माननादृत्य पाठ आया है।

[ग्रंथ के विभिन्न पांडुलिपियों के ऊपर शोध करके जो संस्करण निकाला जाता है वह critical edition कहलाता है।]

4. Critical edition में थोड़ा सा शब्द आगे पीछे हो गया है-


कृतं तेन पदं मम के स्थान पर पदं तेन कृतं मम पाठ आया है।


(आदि पर्व अध्याय २१९)




वैशम्पायन उवाच


उक्तवन्तो यथा वीर्यमसकृत् सर्ववृष्णयः।


ततोऽब्रवीद् वासुदेवो वाक्यं धर्मार्थसंयुतम्¹॥१॥


उचितश्चैव सम्बन्ध: सुभद्रां च यशस्विनीम्।


एष चापीदृशः पार्थः प्रसह्य हृतवानिति॥६॥


भरतस्यान्वये जातं शान्तनोश्च यशस्विनः²।


कुन्तिभोजात्मजापुत्रं को बुभूषेत नार्जुनम्॥७॥


न च पश्यामि यः पार्थं विजयेत रणे बलात्³।८।


अपि सर्वेषु लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष।


स च नाम रथस्तादृङ्मदीयास्ते च वाजिनः॥९॥ 


योद्धा पार्थश्च शीघ्रास्त्रः को नु तेन समो भवेत्।


तमभिद्रुत्य सान्त्वेन परमेण धनंजयम्॥१०॥


च न्यवर्तयत संहृष्टा ममैषा परमा मतिः ।


यदि निर्जित्य वः पार्थो बलाद् गच्छेत् स्वकं पुरम्॥११॥


प्रणश्येद् वो यशः सद्यो न तु सान्त्वे पराजयः।


तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथा चक्रुर्जनाधिप॥१२॥


निवृत्तश्चार्जुनस्तत्र विवाहं कृतवान् प्रभुः⁴।१३।


वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उस समय सभी वृष्णिवंशियोंने अपने-अपने पराक्रमके अनुसार अर्जुनसे बदला लेनेकी बात बार-बार दुहरायी। तब भगवान् वासुदेव यह धर्म और अर्थसे युक्त वचन बोले। मेरी समझमें यह सम्बन्ध बहुत उचित है। सुभद्रा यशस्विनी है और ये कुन्तीपुत्र अर्जुन भी ऐसे ही यशस्वी हैं; अतः इन्होंने सुभद्राका बलपूर्वक हरण किया है। महाराज भरत तथा महायशस्वी शान्तनुके कुलमें जिनका जन्म हुआ है, जो कुन्तीभोजात्मजा अर्थात् कुन्ती के पुत्र हैं, ऐसे वीरवर अर्जुनको कौन अपना सम्बन्धी बनाना न चाहेगा? हे वीर ! विशेष कर इस त्रिलोकी भरमें इन्द्र और रुद्रोंमें भी कोई ऐसा नहीं दीखता, जो अर्जुनको परास्त कर सके। अर्जुन का वह रथ, मेरे वे सब घोड़े हैं और स्वयं अर्जुन शीघ्रता पूर्वक अस्त्र-शस्त्र चलानेवाले योद्धा हैं। ऐसी दशामें अर्जुनकी समानता कौन कर सकता है? {यहां कृष्ण जी द्वारा अर्जुन के विषय में संक्षेप से जानकारी दी गई है, अर्जुन विमान से जा रहे थे अतः जो कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि सुभद्रा को ले जाते समय की बात है, उनका यह मत भ्रांतिपूर्ण है।} अतः आप लोग प्रसन्नताके साथ दौड़े जाइये और बड़ी सान्त्वनासे धनंजयको लौटा लाइये। मेरी तो यही परम सम्मति है। यदि अर्जुन आप लोगों को बलपूर्वक हराकर अपने नगरमें चले गये, तब तो आपलोगोंका सारा यश तत्काल ही नष्ट हो जायगा और सान्त्वनापूर्वक उन्हें ले आनेमें अपनी पराजय नहीं है। वासुदेवका यह वचन सुनकर यादवोंने वैसा ही किया। शक्तिशाली अर्जुन द्वारकामें लौट आये। वहाँ उन्होंने सुभद्रासे विवाह किया।


(गीता प्रेस आदिपर्व अध्याय २२०)


नोट-


1. Critical edition में धर्मार्थसंयुतम् के स्थान पर धर्मार्थसंहिम् पाठ आया है।


2. Critical edition में यशस्विनः के स्थान पर महात्मनः पाठ है।


3. गीता प्रेस में श्लोक ८ का उत्तरार्ध इस प्रकार है-


वर्जयित्वा विरूपाक्षं भगनेत्रहरं हरम्॥८॥ 


यह पाठ critical edition में नहीं आया है।


4. यहां critical edition कृतवान् प्रभुः के स्थान में कृतवांस्ततः पाठ आया है।


प्रसंग में मिलावट पर संक्षिप्त विचार


इस प्रसंग में कृष्ण जी अर्जुन को कहते हैं कि तुम सुभद्रा का जबरदस्ती हरण कर के लेते जाओ। यह मिलावट है।


मनु जी ने 8 विवाह गिनवाए हैं जो निम्न हैं-


ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।


गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।२१।।


ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर गान्धर्व, राक्षस और पैशाच ये विवाह आठ प्रकार के होते हैं । और आठवां सबसे अधम विवाह है।


अब उन विवाहों के लक्षण लिखते हैं-


आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम्।


आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः।।२७।।


यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते।


अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते।।२८।।


एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः।


कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते।।२९।।


सहोभौ चरतां धर्मं इति वाचानुभाष्य च।


कन्याप्रदानं अभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः।।३०।।


ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।


कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते।।३१।।


इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च।


गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः।।३२।।


छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात्।


प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते।।३३।।


सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति।


स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।३४।।


कन्या के योग्य सुशील, विद्वान् पुरूष का सत्कार कर के कन्या को वस्त्रादि से अलंकृत करके उत्तम पुरूष को बुला अर्थात् जिसको कन्या ने प्रसन्न भी किया हो उसको कन्या देना वह ‘ब्राह्म विवाह’ कहाता है। विस्तृत यज्ञ में बडे़ - बड़े विद्वानों का वरण कर उसमें कर्म करने वाले विद्वान् को वस्त्र, आभूषण आदि से कन्या को सुशोभित कर के देना वह ‘दैव विवाह’। एक गाय बैल का जोड़ा अथवा दो जोड़े वर से लेके धर्मपूर्वक कन्यादान करना वह ‘आर्ष विवाह’। कन्या और वर को, यज्ञशाला में विधिकरके सब के सामने ‘तुम दोनों मिल के गृहाश्रम के कर्मों को यथावत् करो’ ऐसा कहकर दोनों की प्रसन्नता पूर्वक पाणिग्रहण होना वह ‘प्राजापत्य विवाह’ कहाता है। वर की जाति वालों और कन्या को यथाशक्ति धन देके होम आदि विधि कर कन्या देना ‘आसुर विवाह’ कहाता है। वर और कन्या की इच्छा से दोनों का संयोग होना और अपने मन में यह मान लेना कि हम दोनों का संयोग होना और अपने मन में यह मान लेना कि हम दोनों स्त्री - पुरूष हैं यह काम से हुआ वह ‘गान्धर्व विवाह’ कहाता है। हनन, छेदन अर्थात् कन्या के रोकने वालों का विदारण कर क्रोशती, रोती, कंपती और भयभीत हुई कन्या को बलात्कार हरण कर के विवाह करना वह ‘राक्षस विवाह’। जो सोती, पागल हुई वा नशा पीकर उन्मत्त हुई कन्या को एकान्त पाकर दूषित कर देना यह सब विवाहों में नीच से नीच - महानीच, दुष्ट अतिदुष्ट, ‘पैशाच विवाह’ है।


ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः।


ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः।।३९।।


रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः।


पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः।।४०।।


ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य इन चार विवाहों में पाणिग्रहण किये हुए स्त्री - पुरूषों से जो सन्तान उत्पन्न होते हैं वे वेदादिविद्या से तेजस्वी, आप्त पुरूषों के संगत अत्युत्तम होते हैं। वे पुत्र वा कन्या सुन्दर रूप, बल - पराक्रम, शुद्ध बुद्धि आदि उत्तम गुणयुक्त बहुधन युक्त पुण्य कीर्तिमान और पूर्णभोग के भोक्ता धर्मात्मा होकर सौ वर्ष तक जीते हैं।


अब आगे इन विवाहों से उत्पन्न संतानों के विषय में लिखते हैं-


इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः।


जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः।।४१।।


अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा।


निन्दितैर्निन्दिता नॄणां तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत्।।४२।।


चार विवाहों से जो बाकी रहे चार - आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच, इन चार दुष्ट विवाहों से उत्पन्न हुए सन्तान निन्दित कर्मकर्ता, मिथ्यावादी वेदधर्म के द्वेषी बड़े नीच स्वभाव वाले होते हैं। श्रेष्ठ विवाहों से सन्तान भी श्रेष्ठगुण वाली होती है निन्दित विवाहों से मनुष्यों की सन्तानें भी निन्दनीय कर्म करने वाली होती हैं इसलिए निन्दित विवाहों को आचरण में न लावे। इसलिए मनुष्यों को योग्य है कि जिन निन्दित विवाहों से नीच प्रजा होती है उनका त्याग और जिन उत्तम विवाहों से उत्तम प्रजा होती है, उनको किया करें।


(मनु० अध्याय ३)


मनुस्मृति से स्पष्ट है कि यदि अर्जुन ने सुभद्रा से उनकी मर्जी के बिना हरण किया तो वह राक्षस विवाह की कोटि में आएगा और उनसे उत्पन्न संतान अधार्मिक होती।


महाभारत में कृष्ण जी आप्त पुरुष पुरुष सिद्ध होते हैं। अब आप्त का लक्षण न्याय दर्शन के इस सूत्र की व्याख्या करते हुए महर्षि दयानंद लिखते हैं -


आप्तोपदेशः शब्दः॥ 


न्याय, अ० १ । आ० १। सू०७॥


जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिससे सुख पाया हो, उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो, अर्थात् जितने पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है, जो ऐसे पुरुष, और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश ‘वेद’ हैं, उन्हीं को ‘शब्दप्रमाण’ जानो।


[सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास]


जिस श्रीकृष्ण जी को महर्षि व्यास जी महाराज ने अच्युत विशेषण दिया अर्थात् वे धर्म से कभी च्युत नहीं होते थे, जिनको योगेश्वर कहा वे कृष्ण जी निश्चय ही कभी भी वेदविरुद्ध कार्य न करेंगे और न ही करने की प्रेरणा देंगे अपितु उस कार्य को रोकेंगे ही। अतः सिद्ध होता है कि वे कभी भी इस प्रकार की सलाह नहीं दे सकते। किन्तु महाभारत में आगे देखने से विदित होता है कि अर्जुन से विवाह करने से सुभद्रा बहुत प्रसन्न थी। अतः सिद्ध होता है कि उन्होंने सुभद्रा के मर्जी के बिना उनका हरण नहीं किया था। अब कृष्ण जी को इस बात का संदेह हो चुका था कि कहीं भविष्य में कौरवों और पांडवों का युद्ध हो सकता है। यदि सुभद्रा ने पिता आदि कदाचित के दबाव में आकर किसी कौरव से शादी कर लिया तो पूरी यादव सेना कौरवों के पक्ष में चली जायेगी इसलिए धर्म का लोप हो सकता है। अतः कृष्ण जी ने अर्जुन को ऐसा सलाह दिया। उस प्रसंग में ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण होते समय उन्होंने अर्जुन के इस कार्य का विरोध किया हो इससे प्रतीत होता है कि शादी में उन दोनों की मर्जी थी। यदि ऐसा न होता तो कृष्ण जी जबरदस्ती विवाह करने का आदेश नहीं देते।


अब आगे ऐसा आता है कि अर्जुन शिकार खेलने के बहाने आए और सुभद्रा का हरण कर लिए। यह भी सत्य नहीं क्योंकि भगवान् मनु ने 18 दुर्व्यसनों से दूर रहने को कहा है, जिनमें से एक मृगया अर्थात शिकार खेलना भी है। देखें प्रमाण -


मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।


तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः।।४७।।


पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।


वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः।।४८।।


(मनुस्मृति अध्याय 7)


अब हम मुख्य विषय पर आते हैं तथा आक्षेप का निवारण करते हैं।


अब हम आपको इस आक्षेप का बहुत प्राचीन निवारण दिखाएंगे। यह निवारण कुमारिल भट्ट जी ने किया है

कुमारील भट्ट जी अपने मीमांसा दर्शन के भाष्य ग्रन्थ तन्त्रवार्तिक में इसका निवारण करते हैं। मीमांसा १.३.७ के भाष्य में पूर्वपक्ष द्वारा लगाए गए आक्षेपों को लेते हैं और उसका निवारण करते हैं। इसमें एक आक्षेप यह भी होता है कि कृष्ण जी और अर्जुन ने अपनी बहन से शादी की। अब इसका निवारण कुमारिल भट्ट जी इस प्रकार करते हैं-



अब इसका अनुवाद देखें


यहां कुमारिलभट्ट जी के कहने का आशय है कि अर्जुन और सुभद्रा में कोई blood relation नहीं था। यद्यपि सुभद्रा को भी कृष्ण जी की बहन कहा जाता है किंतु हम जानते हैं कि बलराम, कृष्ण और एकानंभा को सहोदर भाई बहन कहा जाता है। अतः कुमारिल भट्ट जी यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सुभद्रा कृष्ण जी की सगी बहन नहीं थीं, रिश्ते में बहन लगती होंगी। आगे आचार्य कुमारिल भट्ट जी कहते हैं कि यदि यह वेदविरुद्घ विवाह होता तो योगेश्वर श्रीकृष्ण जी जैसे धर्मज्ञ व्यक्ति ऐसा आदेश कैसे दे सकते थे, जो सबको धर्म पर चलाने हेतु जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त होते हुए भी सद्कर्म करते थे?

आगे कुमारिल भट्ट जी कहते हैं कि यही बात कृष्ण और रुक्मणि के विवाह के प्रसंग में भी समझ लेवें अर्थात् वे भी दूर के भाई बहन लगते थे, उनमें blood relation नहीं था।

अब हम आर्ष ग्रंथों का कुछ प्रमाण देते हैं, कि विवाह दूर देश और दूर गोत्र में करना चाहिए-

दुहिता दुर्हिता। दूरे हिता।

(निरुक्त ३|४)

अर्थात् कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर गोत्र और देश में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं।

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।

सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।

(मनु० ३/५)

जो कन्या माता के कुछ की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो उस कन्या से विवाह करना उचित है।

अब कृष्ण जी जैसे आप्त पुरुष इस नियम का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं न ही किसी को उल्लंघन करने हेतु प्रेरित करेंगे।

अब कुछ लोगों को यह भ्रान्ति हो सकती है कि वसुदेव और कुंती दोनों के ही पिता शूरसेन थे, किन्तु बाद में उन्होंने अपनी पुत्री पृथा को कुंतीभोज को दे दिया, तो कुमारिलभट्ट जी का यह कथन कैसे प्रामाणिक हो सकता है? अब हम इस आक्षेप उत्तर देते हैं। कुंती के लिए प्रयुक्त कुछ विशेषण देखें-

दुहिता कुन्तीभोजस्य [आदिपर्व अध्याय १११, श्लोक १]

दुहिता शब्द दुह् धातु से बना है। इसका एक अर्थ आप्टे कोश में है कि किसी वस्तु में से किसी अन्य चीज को निकालना। इसका भाव देखें तो यह उत्पन्न करने अर्थ में आता है। अतः कुंती कुंतीभोज की ही पुत्री सिद्ध होती हैं।

कुन्तीभोज सुता [आदिपर्व अध्याय १११ श्लोक ६]

सुता शब्द सु धातु से बना है जिसका अर्थ उत्पन्न करना आदि है, इससे भी कुंती कुन्तीभोज की ही पुत्री सिद्ध होती हैं।

कुन्तीभोजस्य दुहित्रा [आदिपर्व अध्याय १११ श्लोक १०]

दुहित्रा भी दुह् धातु से निष्पन्न है, इस धातु का ऊपर दिया अर्थ समझ लेवें। अतः यहां भी हमारी बात की सिद्धि होती है।

कुन्ती भोजात्मजा [ आदिपर्व अध्याय २२० श्लोक ७]

संस्कृत में आत्मन् प्रातिपदिक से पञ्चम् विभक्ति हो कर अष्टाध्याई सूत्र 3.2.98 से इसमें जनि प्रादुर्भावे अर्थ में (दिवादि गण आत्मने पदि) धातु को ड प्रत्यय होने से आत्मज शब्द सिद्ध होता है। इसमें टाप् प्रत्यय लगने से स्त्रीलिङ्ग में आत्मजा शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है स्वयं से उत्पन्न हुई पुत्री।

इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध होता है कि कुंती कुंतीभोज की ही पुत्री थीं, शूरसेन की पुत्री वाली बात बाद में मिलाई गई है जो मिलावट कुमारिल भट्ट जी के काल में नहीं हुई थी।


संदर्भित व सहायक ग्रंथ

१. महाभारत

२. मनुस्मृति

३. सत्यार्थ प्रकाश

४. संस्कार विधि

५. The English Translation of TantraVartika

६. तन्त्रवार्तिकम्

७. आप्टे कोश

८. निरुक्त
लेखक - यशपाल आर्य

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