मनुस्मृति द्वादश अध्याय​​ - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

12 October, 2023

मनुस्मृति द्वादश अध्याय​​

 

कर्मफल विधान एवं निःश्रेयस कर्मों का वर्णन

चातुर्वर्ण्यस्य कृत्स्नोऽयं उक्तो धर्मस्त्वयानघः ।

कर्मणां फलनिर्वृत्तिं शंस नस्तत्त्वतः पराम् ।।12/1

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऋषियों ने भृगुजी से कहा कि हे पाप मुक्त भृगुजी आपने यथा विधि चारों वर्णों के धर्मों को वर्णन कर दिया और अब पुण्य पाप के फल को वर्णन कर दीजिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (12/1-2) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. शैली- विरोध- (क) इन श्लोकों में महर्षियों द्वारा भृगु से प्रश्न करना और भृगु द्वारा उनका उत्तर देने से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु-प्रोक्त नही है । किन्तु भृगु से भी भिन्न किसी व्यक्ति ने बनाकर मिलाये हैं । (ख) इन श्लोकों की शैली भी मनु से भिन्न है । मनु से प्रारम्भ में ऋषियों ने प्रश्न कर अनपी जिज्ञासा प्रकट की है, किन्तु मध्य में प्रश्नोत्तर रूप में कही नहीं । अतः ये श्लोक मनु की शैली से विरुद्ध है । मनु तो एक प्रचतिल विषय को समाप्त करके अग्रिम-विषय का निर्देश अवश्य करते हैं, प्रश्नोत्तर रूप में नही । इस विषय में अध्यायों की समाप्ति अथवा विषय की समाप्ति पर मनु की शैली द्रष्टव्य है एतदर्थ 1/144, 3/286, 4/256, 6/1, 97, 7/1 इत्यादि श्लोक देखे जा सकते है । 2. अन्तर्विरोध- मनुस्मृति के 1/2-4 श्लोकों में महर्षियों द्वारा मनु से प्रश्न पूछना और मनु द्वारा उनका उत्तर देना, इस बात को सिद्ध करता है कि मनुस्मृति मनुप्रोक्त है । परन्तु इन श्लोकों में भृगु से प्रश्नोत्तर कराकर इस शास्त्र को भृगु-प्रोक्त सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । 1/2 -4 श्लोकं से विरुद्ध होने से ये श्लोक परवर्ती प्रक्षिप्त है । और ऐसा प्रतीत होता है कि विषय-संकेतक मौलिक-श्लोक 11/266 है, जिसे किसी भृगु-भक्त ने निकालकर इन श्लोकों का मिश्रण कर दिया है । कुछ प्राचीन मनु-स्मृतियों मे 11/266 श्लोक उपलब्ध भी होता है । मनुस्मृति के अनुरूप तथा 12/82, 116 श्लोकों से सुसंगत होने से यह श्लोक मौलिक है । टिप्पणी : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः ।

अस्य सर्वस्य शृणुत कर्मयोगस्य निर्णयम् ।।12/2

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मनु धर्मशास्त्र के लिखने वाले धर्मात्मा भृगु ने उनसे कहा कि हे ऋषियों सब कर्मों के द्वारा योग अर्थात् सम्बन्ध को हम वर्णन करते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (12/1-2) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. शैली- विरोध- (क) इन श्लोकों में महर्षियों द्वारा भृगु से प्रश्न करना और भृगु द्वारा उनका उत्तर देने से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु-प्रोक्त नही है । किन्तु भृगु से भी भिन्न किसी व्यक्ति ने बनाकर मिलाये हैं । (ख) इन श्लोकों की शैली भी मनु से भिन्न है । मनु से प्रारम्भ में ऋषियों ने प्रश्न कर अनपी जिज्ञासा प्रकट की है, किन्तु मध्य में प्रश्नोत्तर रूप में कही नहीं । अतः ये श्लोक मनु की शैली से विरुद्ध है । मनु तो एक प्रचतिल विषय को समाप्त करके अग्रिम-विषय का निर्देश अवश्य करते हैं, प्रश्नोत्तर रूप में नही । इस विषय में अध्यायों की समाप्ति अथवा विषय की समाप्ति पर मनु की शैली द्रष्टव्य है एतदर्थ 1/144, 3/286, 4/256, 6/1, 97, 7/1 इत्यादि श्लोक देखे जा सकते है । 2. अन्तर्विरोध- मनुस्मृति के 1/2-4 श्लोकों में महर्षियों द्वारा मनु से प्रश्न पूछना और मनु द्वारा उनका उत्तर देना, इस बात को सिद्ध करता है कि मनुस्मृति मनुप्रोक्त है । परन्तु इन श्लोकों में भृगु से प्रश्नोत्तर कराकर इस शास्त्र को भृगु-प्रोक्त सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । 1/2 -4 श्लोकं से विरुद्ध होने से ये श्लोक परवर्ती प्रक्षिप्त है । और ऐसा प्रतीत होता है कि विषय-संकेतक मौलिक-श्लोक 11/266 है, जिसे किसी भृगु-भक्त ने निकालकर इन श्लोकों का मिश्रण कर दिया है । कुछ प्राचीन मनु-स्मृतियों मे 11/266 श्लोक उपलब्ध भी होता है । मनुस्मृति के अनुरूप तथा 12/82, 116 श्लोकों से सुसंगत होने से यह श्लोक मौलिक है । टिप्पणी : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम् ।

कर्मजा गतयो नॄणां उत्तमाधममध्यमः ।।12/3


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मन, वाणी, देह से जो शुभा शुभ कर्म उत्पन्न होता है इससे मनुष्यों की उत्तम, मध्यम, अधम गति उत्पन्न होती है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म (शुभ-अशुभ-फलम्) शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते है, और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन गतियाँ=जन्मावस्थाएं होती है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(मनो + वाग् + देह + संभवम् कर्म) मन, वाणी और शरीर से उत्पन्न हुआ कर्म शुभ और अशुभ फलवाला होता है। (नृणाम्) मनुष्यों की (कर्मजा गतयः) कर्म से उत्पन्न होने वाली गतियाँ तीन प्रकार की होती हैं। उत्तम, मध्यम और अधम।

तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः ।

दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्प्रवर्तकम् ।।12/4


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आगे जो दस लक्षण कहेंगे उससे संयुक्त पुरुष शरीर स्वामी का मन जो मन वाणी देह से उत्तम, मध्यम, अधर्म कर्म में लिप्त करने वाला है उसको जानो।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(इह) इस विषय में मनुष्य के मन को उस उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन प्रकार के; मन, वचन, क्रिया भेद से तीन आश्रय वाले और दशलक्षणों से युक्त कर्म का प्रवृत्त करनेवाला जानो ।
टिप्पणी : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(इह) इस विषय में (देहिनः) मनुष्य के (मनः) मन को (तस्य त्रिविधस्य अपित्र्यधिष्ठानस्य दशलक्षणयुक्तस्य) उस उत्तम, मध्यम, अधम तीन प्रकार के और मन, वाणी और शरीर तीन अधिष्ठान वाले तथा दश लक्षण वाले कर्म का (प्रवर्तकम्) प्रवर्तक समझना चाहिये। अर्थात् साधारणतया तो कर्म के तीन अधिष्ठान है मन, वाणी और कर्म, परन्तु मूलतः इन सब का अधिष्ठान मन है। क्योंकि शरीर और वाणी से होने वाले कर्म भी मूलतः मन से ही उत्पन्न होते हैं।

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्। 

वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥ 12/5


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दूसरे के द्रव्य में ध्यान, मन से अनिष्ठ चिन्ता, नास्तिकता यह तीन प्रकार के मानस कर्म हैं अर्थात् मन से उत्पन्न होने वाले हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मानसिक कर्मों में से तीन मुख्य अधर्म है परद्रव्यहरण अथवा चोरी (का विचार) लोगों का बुरा चिन्तन करना, मन में द्वेष करना, ईर्ष्या करना, वितथाभिनिवेश अर्थात् मिथ्या निश्चय करना ।(उपदेशमञ्जरी 34)
टिप्पणी : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
मन सम्बन्धी तीन दुष्ट कर्म हैं, पहला (परप्रद्रव्येषु अभिध्यानम्) पराये द्रव्यों का ध्यान, दूसरा मन से बुरी बात का चिन्तन, तीसरा परलोक की व्यर्थता। अर्थात् यह समझना कि परलोक कोई चीज नहीं है।

पारुष्यं अनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।

असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।12/6


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पारुष्य वचन कहा (कटुभाषण) मिथ्या भाषण करना, आत्मा के विरुद्ध कहना, और लोगों की चुगली और अनादर करना, असम्बद्ध बकवास करना यह चार वाणी के दोष हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
वाचिक अधर्म चार है— पारुष्य अर्थात् कठोरभाषण । सब समय, सब ठौर मृदु भाषण करना यह मनुष्यों को उचित है । किसी अन्धे मनुष्य को ’ओ अंधे’ ऐसा कहकर पुकारना निस्सन्देह सत्य है, परन्तु कठोर भाषण होने के कारण अधर्म है । अनृतभाषण अर्थात् झूठ बोलना, पैशुन्य अर्थात् चुगली करना, असम्बद्धप्रलाप अर्थात् जान बूझकर (लांछन या बुराई बनाकर) बात को उड़ाना । (उपदेशमञ्जरी 34)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
वाणी सम्बन्धी दुष्ट कर्म चार हैं। पहला (पारुष्य) कठोर वचन, दूसरा (अनृत) झूठ बोलना, तीसरा सब प्रकार की चुगली, चैथा (असम्बद्ध प्रलाप) व्यर्थ बकवाद।

अदत्तानां उपादानं हिंसा चैवाविधानतः ।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।।12/7


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
छल से किसी वस्तु का लेना, जीव हिंसा करना, पर स्त्री रमण करना, यह तीन देह (शरीर) से उत्पन्न होने वाले पाप हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
शारीरिक अधर्म तीन है—चोरी हिंसा अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म *(परदारोपसेवा), रंडीबाजी या व्यभिचारादि कर्म करना । (उपदेश मञ्जरी 34)
टिप्पणी :
* (अविधानतः) शास्त्रविरुद्ध रूप में करना (शास्त्र में कुछ हिंसाएँ विहित है, जैसे- आपत्काल में आततायी की हिंसा, हिंस्रपशु की हिंसा, (युद्ध में शत्रुओं की हिंसा आदि) । ............टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
शरीर सम्बन्धी दुष्ट कर्म तीन हैं। पहला (अदत्तानाम उपादानम) अन्याय से दूसरे का धन लेना, दूसरा (अविधानतः हिंसा) शास्त्र के विरुद्ध किसी को पीड़ा देना, तीसरा पराई स्त्री से सम्पर्क। ’शास्त्र के विरुद्ध पीड़ा‘, देने का तात्पर्य यह है कि कुछ प्रकार की पीड़ायें जो प्राणी के हित के लिये दी जाती हैं ’हिंसा‘ की कोटि‘ में नहीं आती। जैसे गुरु शिष्य को दण्ड दे, या राजा कसी अपराधी को, या वैद्य किसी रोगी की चीर-फाड़ करे। यह सब हिंसा नहीं है। इनके अतिरिक्त किसी को पीड़ा देना, शरीर सम्बन्धी दुष्कर्म हैं।

मानसं मनसैवायं उपभुङ्क्ते शुभाशुभम् ।

वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम् ।।12/8


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिससे कहे हुये पाप के फल से अचर जीव अर्थात् वृक्षों में रहने वाला, मन से किये हुए कर्म का मानसिक, और वाणी से कहे कर्म का फल वाणी से, और शरीर से किये हुये कर्म का फल शारीरिक दण्ड होता है जिस प्रकार पाप करता है उसी प्रकार फल मिलता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यह जीव मन से जिस कर्म को करता है उसको मन वाणी से किये को वाणी और शरीर से किये को शरीर से सुख-दुःख को भोगता है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः ।

वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ।।12/9


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वाणी द्वारा किये पाप से पक्षी और पशु, तथा चित्त से किये हुये पाप से चाण्डालादि होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्ष आदि स्थावर का जन्म वाणी से किये पापकर्मों से पक्षी और मृग आदि, तथा मन से किये दुष्टकर्मों से चंडाल आदि का शरीर मिलता है । (स. प्र. नवम समुल्लास)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च ।

यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदण्डीति स उच्यते ।।12/10

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिसके वाणी, मन, देह सब क्रमानुसार स्वेच्छाचारी, वाणी और नास्तिकता वर्जित व्यवहार को परित्याग करने वाले हैं वही त्रिदण्डी कहलाते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

त्रिदण्डं एतन्निक्षिप्य सर्वभूतेषु मानवः ।

कामक्रोधौ तु संयम्य ततः सिद्धिं नियच्छति ।।12/11

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सब प्राणियों में इन तीनों दण्ड की (अर्थात् मन, वाणी, देह) के दण्ड को स्थिर करके काम व क्रोध को जीतकर सिद्धि को प्राप्त करता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

योऽस्यात्मनः कारयिता तं क्षेत्रज्ञं प्रचक्षते ।

यः करोति तु कर्माणि स भूतात्मोच्यते बुधैः ।।12/12

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
देह को कर्म में प्रवृत्त कराने वाला क्षेत्रज कहलाता है और जो करता है वह भूतात्मा अर्थात् देह कहलाता है यह बात पण्डित लोग कहते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

जीवसंज्ञोऽन्तरात्मान्यः सहजः सर्वदेहिनाम् ।

येन वेदयते सर्वं सुखं दुःखं च जन्मसु ।।12/13

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सब देह धारियों के शरीर में रहने वाले जीव को अन्तरात्मा कहते हैं वह उससे जिसका महन्त अर्थात् मन कहते हैं सर्वथा पृथक है। क्योंकि मन तो सुख दुख को भोगने वाला है और जीवात्मा उस व्यवहार का ज्ञाता है परन्तु वह स्वरूप से दुखी सुखी नहीं होता वरन् अज्ञान से मन इन्द्रियों में आत्म बुद्धि करके सुख दुःख को भोगता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

तावुभौ भूतसंपृक्तौ महान्क्षेत्रज्ञ एव च ।

उच्चावचेषु भूतेषु स्थितं तं व्याप्य तिष्ठतः ।।12/14

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
महान तत्व व क्षेत्रज्ञ यह तीनों पृथ्वी आदि पंच महाभूतों करके ऊँच नीच योनि में परमात्मा को पकड़ कर (आश्रय) रहते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

असंख्या मूर्तयस्तस्य निष्पतन्ति शरीरतः ।

उच्चावचानि भूतानि सततं चेष्टयन्ति याः ।।12/15

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
परमात्मा के शरीर अर्थात् प्रकृति से असंख्य मूर्त कर्म के कारण ऊँच नीच दशा में उत्पन्न होते हैं।
टिप्पणी :
15वें श्लोक में विराट अर्थात् सारे ब्रह्माण्ड को एक पुरुष मान कर और प्रकृति को उसका शरीर बतला कर एक अलंकार बनाकर शरीरों की उत्पत्ति दिखलाई है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

पञ्चभ्य एव मात्राभ्यः प्रेत्य दुष्कृतिनां नृणाम् ।

शरीरं यातनार्थीयं अन्यदुत्पद्यते ध्रुवम् ।।12/16

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दूसरे जन्म में पापियों के दुख भोग करने के हेतु पृथ्वी आदि पंचतत्व के अंशों (भागों) से दूसरा शरीर लिंग नाम पृथक होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

तेनानुभूय ता यामीः शरीरेणेह यातनाः ।

तास्वेव भूतमात्रासु प्रलीयन्ते विभागशः ।।12/17

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उस शरीर से यमराज की असह्म यातना को सहन करके अर्थात् दुख भोग कर यह शरीर अपने मूल में विलीन हो जाता है अर्थात् पृथ्वी आदि पंचतत्व से जो भाग पृथक हुआ था वह पंचतत्वों में मिल जाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

सोऽनुभूयासुखोदर्कान्दोषान्विषयसङ्गजान् ।

व्यपेतकल्मषोऽभ्येति तावेवोभौ महौजसौ ।।12/18

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लिंग शरीर (महत्त् शरीर) में रहने वाला ऋषि जीव वासना के कारण से उत्पन्न हुये पापों को भोग कर और पापों से पृथक होकर महापराक्रमी महान् और परमात्मा दोनों की शरण लेता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

तौ धर्मं पश्यतस्तस्य पापं चातन्द्रितौ सह ।

याभ्यां प्राप्नोति संपृक्तः प्रेत्येह च सुखासुखम् ।।12/19

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वह मन और जीवात्मा दोनों एकत्र होकर धर्म और अधर्म के फल को इस जन्म और दूसरे जन्म में पाते हैं और जो संचित कर्म अर्थात् प्राचीन एकत्रित कर्म के कारण शरीर धारण करते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यद्याचरति धर्मं स प्रायशोऽधर्मं अल्पशः ।

तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गे सुखं उपाश्नुते ।।12/20

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब जीव महान (बहुत) धर्म करता है और अल्प पाप करता है तब परलोक (अर्थात् दूसरे जन्म) में सुख को पाता है और इसके हेतु उत्तम शरीर में जन्म पाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते धर्मं अल्पशः ।

तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः प्राप्नोति यातनाः ।।12/21

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब अति पाप करता है और अल्प धर्म करता है तब परलोक में दुःख पाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यामीस्ता यातनाः प्राप्य स जीवो वीतकल्मषः ।

तान्येव पञ्च भूतानि पुनरप्येति भागशः ।।12/22

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यमराज की यातना को भोग कर पाप से पृथक् होकर फिर जहाँ से लिंग नाम शरीर उत्पन्न हुआ है उसी में (अर्थात् पंचभूतों में) फिर अंशों से मिल जाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

एता दृष्ट्वास्य जीवस्य गतीः स्वेनैव चेतसा ।

धर्मतोऽधर्मतश्चैव धर्मे दध्यात्सदा मनः ।।12/23

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपनी बुद्धि से जीव की दशा को देखकर और ध्यानपूर्वक उसके इस फल को विचार कर नित्य अपनी इन्द्रिय और मन को स्थिर रक्खें अर्थात् पाप से बचकर धर्म करता रहे।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/10-23) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- मनु ने 12/3-4 श्लोको के वर्णन से स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत विषय़ कर्म-फल विधान का है । तदनुसार ही पहले त्रिविध गतियों का वर्णन होना चाहिये । इसलिये 5-9 श्लोकों की 24-51 श्लोकों से पूर्णतः संगति है । 10-23 श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातों का कथन होने से अप्रासंगिक वर्णन है । 2. विषय-विरोध- 11/266, 12/3-4, 51, 82 श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय ’कर्मफलविधान’ का है । परन्तु 10-14 श्लोकों में त्रिदण्डों का वर्णन, त्रिदण्डों, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा की परिभाषाओं का कथन है, जीवात्मा और क्षेत्रज्ञ में भेद, इत्यादि वर्णन विषयबाह्य होने के कारण ये प्रक्षिप्त है । 3. अन्तर्विरोध- (क) 12-13 श्लोकं में भूतात्मा, क्षेत्रज्ञ और जीवात्मा में भेद दिखाया है । अर्थात् जो कर्म करता है वह भूतात्मा, जो आत्मा को कर्म मे प्रवृत्त करता है, वह क्षेत्रज्ञ और सुख-दुख का अनुभव करने वाला जीवात्मा है । यह परस्पर विरोधी कथन है । क्योंकि कर्म करने वाला ही कर्म-फलों को भोगता है । कर्म अन्यत्र कोई करे और फल दूसरा भोगे, यह मनु की मान्यता नही है । (ख) और 14-15 श्लोकों में कहा है कि क्षेत्रज्ञ और महान् सभी प्राणियों मे स्थित परमात्मा को व्याप्त करके स्थित है और उस परमात्मा के शरीर से असंख्य जीव निकलते है । यह सभी कथन 1/6-16, 19 इत्यादि श्लोकों से विरुद्ध है । परमात्मा का शरीर और जीवात्माओं की उत्पत्ति दोनों बातें अवैदिक होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं है । (ग) 17,20-22 श्लोकों में स्वर्ग व नरक को लोक विशेष मानकर कथन किया है । यह मनु-सम्मत नहीं है । मनु तो सुख-विशेष को स्वर्ग और दुःख विशेष को नरक मानते है । एतदर्थ 3/79, 9/28 श्लोक द्रष्टव्य है । और 20-21 श्लोकों का यह कथन भी मिथ्या है कि आत्मा स्वर्ग में पञ्चमहाभूतों से युक्त रहता है और नरक में पञ्चभूतों से रहित रहकर दुःख भोगता है । क्योंकि भोगायतन शरीर के बिना सुख व दुःख का भोग सम्भव है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्विद्यादात्मनो गुणान् ।

यैर्व्याप्येमान्स्थितो भावान्महान्सर्वानशेषतः ।।12/24


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सत्, रज, तम यह तीनों प्रकृति के गुण उसके कार्य महत्त्व अर्थात् मन में रहते हैं और गुण सारे संसार में व्याप्त हो रहे हैं।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों को आत्मा को प्रभावित करनेवाले, प्रकृति के गुण समझे, (महान्) महततत्वृ=अव्यक्त प्रकृति (1/15) इन तीन गुणों से बिना किसी पदार्थ को छोड़े इन समस्त पदार्थों को व्याप्त करके स्थित है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
सत्त्वगुण, रजोगुण और तपोगुण इन तीनों को (आत्मनः) शरीरस्थ आत्मा के गुण जानिये। जिन तीन गुणों के द्वारा (इमान् सर्वान् भावान्) इन सब भावों को (अशेषतः) पूर्णतया (व्याप्य) व्याप्त करता हुआ (महान्) यह सब जगत् स्थित है।

यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते ।

स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम् ।।12/25


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन तीनों गुणों में से जो गुण जिस शरीर में अधिक होता है उस शरीर को उसी गुण वाला कहा जाता है। यद्यपि उस शरीर में दूसरे गुण भी कुछ न कुछ अंश में वर्तमान रहते हैं तो भी एक गुण की अधिकता से उसी गुण के कार्य होते हैं।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर लेता है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इनमें से जो गुण शरीर में प्रधानता से विद्यमान होता है वही गुण शरीरस्थ जीवात्मा को उसी गुण वाला बना देता है। अर्थात् सत्वगुण की प्रधानता से जीव सत्वगुण वाला, रजोगुण की प्रधानता से रजोगुणी, तमोगुण की प्रधानता से तमोगुणी हो जाता है।

सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम् ।

एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः ।।12/26


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सत् ज्ञात है, तम अज्ञान है, राग (अर्थात् इच्छित वस्तु की अभिलाषा) और द्वैष ( अर्थात् अनिच्छित वस्तु से घृणा) यह दोनों रज हैं। संसार इन तीनों गुणों से सारा घिरा हुआ (व्याप्त) है।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्व, जब अज्ञान रहे तब तम, और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे तब रजोगुण जानना चाहिए ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त हैं ।(स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
सत्वगुण ज्ञान है, तमोगुण अज्ञान है, रजोगुण राग तथा द्वेष है। (एतेषाम्) इन प्राणियों का (सर्वभूत + आश्रितम् वपुः) सब अर्थात् पंच भूतों के आश्रित शरीर (एतद्-ख्याति-मत्) इन्हीं गुणों से ओतप्रोत है।

तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किं चिदात्मनि लक्षयेत् ।

प्रशान्तं इव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत् ।।12/27


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब आत्मा में प्रेम के चिन्ह पाये जावें और इच्छा आदि के न होने से शान्ति दृष्टिगोचर हो और चित्त में शुद्धि का विचार हो तो उस समय सतोगुणी बलवान जानना चाहिये।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
उसका विवेक इस प्रकार करना चाहिए कि जब आत्मा में प्रसन्नता मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्ते तब समझना की सत्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तत्र) इनमें से (आत्मनि) अपने में (यत्-किंचित्) जो कुछ (प्रीति संयुक्तम्) प्रीति से मिला हुआ (प्रशान्तम् इव) शान्त के समान (शुद्ध + आभम्) शुद्ध प्रकाश वाला जान पड़े उसी को (सत्वम्) सत्व (उपधारयेत्) समझे।

यत्तु दुःखसमायुक्तं अप्रीतिकरं आत्मनः ।

तद्रजो प्रतीपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम् ।।12/28


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब आत्मा को दुखी और विवाद का इच्छुक देखें तब रजोगुणी प्रधान समझें और रजोगुण सब प्राणियों को अति शीघ्र हानि पहुँचाने वाला और परित्याग योग्य है।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर-उधर गमन आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्वगुण और तमोगुण अप्रधान है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
और जो दुःख से मिला हुआ, अपने को प्रीति से हटाने वाला जान पड़े उसको रजोगुण समझना चाहिये। यह प्राणियों को (सततम्) सदा, (अप्रतिघम् हारि) कुमार्ग की ओर खींचने वाला होता है।

यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तं अव्यक्तं विषयात्मकम् ।

अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ।।12/29


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब आत्मा को मोह संयुक्त और विषय वासना में लिप्त देखें तब तमोगुण प्रधान जानें वह तमोगुण अतक्य (तर्क के योग्य नहीं) और जानने के योग्य नहीं है।
टिप्पणी :
श्लोक में आत्म से महत्व अर्थात् मन से अभिप्राय है जीवात्मा से नहीं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब मोह अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फंसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहे, विषयों में आसक्त, तर्क-वितर्क रहित, जानने के योग्य न हो, तब निश्चय समझना चाहिए कि इस समय मुझ में तमोगुण प्रधान, और सत्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(1) मोहसंयुक्त-मूढ़ता, (2) अव्यक्त-अनिश्चितत, (3) विषयात्मकत्व-विषयों में फंसने की प्रवृत्ति, (4) अप्रतक्र्य-तर्क न कर सकना, (5) अविज्ञेयम्-किसी बात का समझ में न आना।

त्रयाणां अपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः ।

अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।।12/30


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन तीनों गुणों का फल उत्तम, मध्यम, अधम है, उसका हमने वर्णन किया।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अब जो इन तीन गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है उसको पूर्ण भाव से कहते है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इन तीन गुणों का जो उत्तम, मध्यम और अधम फल का उदय है उसको पूरा-पूरा कहूँगा ।

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।

धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम् ।।12/31


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेद पढ़ना, तप, ज्ञान, शुचिता (पवित्रता) इन्द्रिय-निग्रह (जितेन्द्रिय होना) धर्म कर्म अर्थात् वेदशास्त्रानुसार कार्य करना, आत्मचिन्तन, सतोगुण के चिन्ह हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह(धर्म क्रिया च आत्मचिन्ता) धर्मक्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है यही सत्व गुण का लक्षण है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
सत्वगुण के लक्षण यह हैं:- वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धर्म, क्रिया, आत्मचिन्ता ।

आरम्भरुचिताधैर्यं असत्कार्यपरिग्रहः ।

विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम् ।।12/32


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कार्यारम्भ करने की इच्छा, धैर्य न होना, असत् कार्यों में संलग्नता और उनको परिग्रहण करना, विषयों का सेवन करना यह सब रजोगुण के चिन्ह हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब रजोगुण का उदय, सत्वगुण और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है तब धैर्यत्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझ में वर्त रहा है । (स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
रजोगुण के लक्षण यह हैं-पहले किसी काम में रुचि हो फिर धैर्य न रहे, बुरे काम में प्रवृत्ति, निरन्तर विषय-वासना।

लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता ।

याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम् ।।12/33


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लोभ, स्वप्न, स्थिर चित्त न होना, क्रूरता (निर्दयता) नास्तिकता, भविष्य जन्म पर अविश्वास, सदाचार से घृणा, याचना करने का स्वभाव, अहंकार यह सब तमोगुण के चिन्ह हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब तमोगुण का उदय और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य का नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव और किन्हीं व्यसनों मे फंसना होवे, तब तमोगुण का लक्षण विद्वान को जानने योग्य है ।(स. प्र. नवम समु.)
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
तमोगुण के लक्षण यह हैं:- लोभ, स्वप्न, अधैर्य, क्रूरता, नास्तिकता, वृत्तियों की भिन्नता अर्थात् एकाग्र-मन होना, भिखारीपन, प्रमाद।

त्रयाणां अपि चैतेषां गुणानां त्रिषु तिष्ठताम् ।

इदं सामासिकं ज्ञेयं क्रमशो गुणलक्षणम् ।।12/34


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तीनों गुणों के भूत भविष्य व वर्तमान में रहने की दशा में जो फल और चिन्ह हैं वह प्रत्येक मनुष्य के हेतु जानने योग्य हैं। अर्थात् किस गुण के क्या फल हैं और भविष्य में उसका परिणाम क्या होगा, पूर्व में किस प्रकार हुआ है और वर्तमान समय में इस गुण वालों की क्या दशा है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
तीनों कालों (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) में विद्यमान रहने वाले इन तीनों गुणो के ’गुणलक्षण’ को क्रमशः संक्षेप में इस प्रकार समझे—
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(त्रिषु तिष्ठताम्) इन मन, वाणी तथा शरीर में ठहरे हुए इन तीनों गुणों का क्रमशः संक्षिप्त रीति से यह गुण लक्षण समझना चाहिये।

यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति ।

तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम् ।।12/35


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस कार्य के करते समय तथा करने के पश्चात् और करने की इच्छा के प्रकट करने में लज्जा प्रतीत हो उसको पण्डित लोग तमोगुणी का चिन्ह कहते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके, करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शंका और भय को प्राप्त होवें । तब जानों कि मुझ में प्रवृद्ध तमोगुण है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिस कर्म को करके, या करते हुए, या करने का विचार करते हुए लज्जा प्रतीत हो उसको तमोगुण समझना चाहिये।

येनास्मिन्कर्मना लोके ख्यातिं इच्छति पुष्कलाम् ।

न च शोचत्यसंपत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम् ।।12/36


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस कार्य के करने से इस लोक में बड़ा यश प्राप्ति की इच्छा करता है और निर्धन होने का किंचित सोच नहीं करता उस कार्य को रजोगुण का चिन्ह समझें।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को (अपनी प्रसिद्धि के लिए) दान देना नहीं छोड़ता, तब समझना कि मुझ में रजोगुण प्रबल है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिस कर्म से इस लोक में बड़ी ख्याति (नामवरी) की इच्छा होती है और सम्पत्ति नष्ट होने पर भी सोच नहीं होता उसको रजोगुण समझना चाहिये।

यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन् ।

येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम् ।।12/37


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस कर्म को करते हुए लज्जा नहीं होती और जिस कर्म को करके पुरुष की आत्मा आनन्दित और तृप्त होती है उस कर्म को सतोगुण का लक्षण जानें।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
और जब मनुष्य का आत्मा सब से जानने को चाहे, गुण ग्रहण करता जाये, अच्छे कामों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण ही में रुचि रहे तब समझना कि मुझ में सत्वगुण प्रबल है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिस कर्म से ज्ञान की इच्छा बढ़े और किसी प्रकार की लज्जा न अनुभव हो, और जिससे आत्मा को संतोष हो वह सत्व-गुण है।

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते ।

सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यं एषां यथोत्तरम् ।।12/38


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तमोगुण का लक्षण काम (अर्थात् सांसारिक वस्तुओं की इच्छा व भोग) है, रजोगुण का लक्षण अर्थ है, सतोगुण का लक्षण धर्म इन तीनों में अन्त का अर्थात् सतोगुण श्रेष्ठ है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थसग्रंह की इच्छा, सत्वगुण का लक्षण धर्म-सेवा करना है, परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्वगुण श्रेष्ठ है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
तमोगुण का चिह्न है काम-वासना, रजोगुण का धन-वासना, सतोगुण का धर्म में प्रवृत्ति। इनमें से पिछला पहले से श्रेष्ठ है अर्थात् तम से अच्छा रज और रज से अच्छा सत्व ।

येन यस्तु गुणेनैषां संसरान्प्रतिपद्यते ।

तान्समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य यथाक्रमम् ।।12/39


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस गुण के कारण जीव जिस नशा को प्राप्त होता है उस सारे संसार की दशा संक्षेप में वर्णन करूँगा।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
’अब जिस-जिस गुण से, जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है, उस-उस का आगे लिखते हैं—’
टिप्पणी :
इन तीनों गुणों मे जिस गुण से जो मनुष्य जिस सांसारिक गति को प्राप्त करता है उन सबको समस्त संसार के क्रम से, संक्षेप से कहूँगा-टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इनमें से जिस गुण से जीव जिन (संसार) गतियों को प्राप्त होता है उन सब को क्रमशः संक्षेप में कहूँगा।

देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः ।

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यं इत्येषा त्रिविधा गतिः ।।12/40


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सतोगुणी देवभाव को, रजोगुणी मनुष्य भाव को, तमोगुणी पशु व पक्षी के भाव को प्राप्त होते हैं। यह तीन प्रकार की गति है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो मनुष्य सात्विक है वे देव अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं, वे मध्यम मनुष्य, और जो तमोगुणयुक्त होते है वे नीचगति को प्राप्त करते है, इस प्रकार यह त्रिविध गति है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

त्रिविधा त्रिविधैषा तु विज्ञेया गौणिकी गतिः ।

अधमा मध्यमाग्र्या च कर्मविद्याविशेषतः ।।12/41


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सतोगुण आदि से जो तीन प्रकार की दशा वर्णन की गई है वह भी इन तीनों गुणों की न्यूवता वा अधिकता से, उत्तम, मध्यम, नीच तीन प्रकार की है। और उनमें देशकाल का अन्तर भी एक कारण है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
ये तीन प्रकार की (सत्व, रज, तम) गतियाँ कर्म और विद्या की विशेषताओं के आधार पर प्रत्येक की पुनः अधम, मध्यम और उत्तम भेद से तीन-तीन प्रकार की गौण गतियाँ होती हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाः सकच्छपाः ।

पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः ।।12/42


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
स्थावर (वृक्षों में रहने वाले), कृमि (कीड़े) जो मिल नहीं सकते हैं, कीट, मछली, साँप, पशु, कछुवा, हिरन, इन सब गतों को तामसो जघन्य (नीच) जानना।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः ।

सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः ।।12/43


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
हाथी, घोड़ा, सुअर, म्लेच्छ, सिंह, बाघ, शूद्र इन सब गतों को तामसी (तमोगुण की) मध्यम गति जानना।
टिप्पणी :
म्लेच्छ उसे कहते हैं जो निकृष्ट पदार्थों का इच्छुक हो व मांस, मदिरा, व्यभिचार का इच्छुक हो।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ, निन्दित कर्म करने हारे, सिंह, व्याघ्र, वराह अर्थात् सूकर के जन्म को प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः ।

रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः ।।12/44


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भाट, छली व कपटी मनुष्य, राक्षस, पिशाच इन सबको तामसी उत्तम गति जानना।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो उत्तम तमोगुणी हैं वे चारण=जो कि कवित्त, दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं, सुन्दर पक्षी, दाम्भिक पुरुष अर्थात् अपने सुख के लिए अपनी प्रशंसा करने हारे, राक्षस जो हिंसक, पिशाच=अनाचारी अर्थात् मद्य आदि के आहारकर्ता और मलिन रहते है वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः ।

द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः ।।12/45


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
(दशम अध्याय में कहे हुए) भज्ज, मल्ल और नद तथा शस्त्र से आजीविका वाले मनुष्य और जुआ तथा मद्यपान में आसक्त पुरुष यह रजोगुण का निकृष्ट गति है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो अधम रजोगुणी है वे भल्ला अर्थात् तलवार आदि से मारने वा कुदार आदि से खोदने हारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, नट, जो बांस आदि पर कला, कूदना, चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य और मद्य पीने में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः ।

वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः ।।12/46


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
राजा लोग तथा क्षत्रिय और राजा के पुरोहित ओर वाद वा झगड़ा करने वाले यह मध्यम राजस गति है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो मध्यम रजोगुणी होते है वे राजा, क्षत्रियवर्णस्थ, राजाओं के पुरोहित, वाद-विवाद करने वाले-दूत, प्राड्विवाक=वकील, बैरिस्टर, युद्ध-विभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये ।

तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः ।।12/47


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गन्धर्व (गाने वाला और बजाने वाला), गुझक, यज्ञ, अप्सरा (अर्थात् सुन्दर वैश्यायें गाने नाचने वालीं) विद्याधर (शिल्पकार) सब रजोगुण की उत्तम गति का लक्षण जानना।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो उत्तम रजोगुणी है वे गंधर्व=गाने वाले, गुह्यक=वादित्र बजाने वाले, यक्ष=धनाढ्य, विद्वानों के सेवक,और अप्सरा अर्थात् जो उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः ।

नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः ।।12/48


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तापस (तप करने वाले), संयमी, व्रती ब्राह्मण और विमान पर चढ़कर घूमने वाले, नक्षत्र, दैत्य (आचरणहीन विद्वान) वरन् प्रतिकूल आचरणी यह सब सतोगुण की नीच गतिमय है।
टिप्पणी :
राक्षस वह है जो हिंसा और विग्रह का प्रेमी हो। पिशाच उसे कहते हैं जो निर्दयता और क्रोध के कारण शुभाशुभ की पहिचान न रखता हो।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो तपस्वी, यदि, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिषी, और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानो ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः ।

पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः ।।12/49


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यज्ञकत्र्ता, ऋषि, देवता, वेदज्ञाता, ज्योतिषी पत्रा बनाने वाले वत्सर अर्थात् रक्षा करने वाले पितर, साधना करने वाले यह सब सतोगुणी की मध्यम गति में हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो मध्यम सत्वगुणयुक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्ता, वेदार्थवित् विद्वान्, वेद, विद्युत आदि, और कालविद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और साध्य=कार्यसिद्धि के लिए सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तं एव च ।

उत्तमां सात्त्विकीं एतां गतिं आहुर्मनीषिणः ।।12/50


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
चारों वेदों का ज्ञाता, सृष्टवुत्पत्ति करने वाला ईश्वरीय कर्म, महान् अव्यक्त निराकार परमात्मा यह सब सतोगुण की उत्तम गति में हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो उत्तम सत्वगुणयुक्त हो के उत्तम कर्म करते है वे ब्रह्मा=सब वेदों का वेत्ता, विश्वसृज=सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनाने हारे, धार्मिक, सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

एष सर्वः समुद्दिष्टस्त्रिप्रकारस्य कर्मणः ।

त्रिविधस्त्रिविधः कृत्स्नः संसारः सार्वभौतिकः ।।12/51


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मन, वाणी, देह, तीनों कर्म के साधन में अर्थात् इन तीनों के द्वारा कर्म होते हैं। इनके भेद से तीन प्रकार के कर्म सत, रज, तम नाम वाले हुए फिर उत्तम, मध्यम, नीच के विभाग से प्रत्येक की तीन गति हुई जिनका योग नौ होता है। सारा संसार पंचभूत से उत्पन्न है उसको तीन में दिखाने के हेतु कहा। इससे जो कहने से रह गया वह गति भी दूसरी पुस्तक से देखने के योग्य है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मन, वचन, शरीर के भेद से तीन प्रकार के कर्मों का सतोगुण, रजोगुण औऱ तमोगुण नामक तीन प्रकार का फल , तथा फिर उनकी उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन-तीन गतियों वाले सर्वभूतयुक्त सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का यह पूर्ण वर्णऩ किया ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च ।

पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः ।।12/52


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन्द्रियों की वासना (प्रसंग) में पड़ कर धार्मिक कर्म न करने से तथा पाप कर्मों को करता हुआ विद्या से रहित मनुष्य नीच गति को पाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो इन्द्रियों के वश होकर विषयी धर्म को छोड़कर अधर्म करने हारे अविद्वान है वे मनुष्यों में नीच जन्म, बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
मूर्ख नीच लोग इन्द्रियों के वश में फँसकर और धर्म का सेवन न करके पापी योनियों को प्राप्त करते हैं।

यां यां योनिं तु जीवोऽयं येन येनेह कर्मणा ।

क्रमशो याति लोकेऽस्मिंस्तत्तत्सर्वं निबोधत ।।12/53

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस लोक में यथाक्रम जीव जिस-जिस कर्म के करने से जिस-जिस गति में हो जाता है इसको संक्षेप से वर्णन करते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

बहून्वर्षगणान्घोरान्नरकान्प्राप्य तत्क्षयात् ।

संसारान्प्रतिपद्यन्ते महापातकिनस्त्विमान् ।।12/54

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बहुत वर्ष पर्यन्त घोर नरक के भोग करने से पापों से छुटकारा पाकर और आगामी पातक से महापापी मनुष्य संसार में जन्म पाते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

श्वसूकरखरोष्ट्राणां गोऽजाविमृगपक्षिणाम् ।

चण्डालपुक्कसानां च ब्रह्महा योनिं ऋच्छति ।।12/55

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कुत्ता, सुअर, गदहा, ऊँट, गऊ, बकरा, भेड़ा, हिरण, पक्षी, चाण्डाल, पुक्क इनकी योनि में ब्रह्महत्या करने वाल जाता है अर्थात् इनका जन्म पाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

कृमिकीटपतङ्गानां विड्भुजां चैव पक्षिणाम् ।

हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणो व्रजेत् ।।12/56

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कृमि, कीट, पतंग, विष्टा भक्षण करने वाले पक्षी का स्वभाव रखने वाले सिंह आदि इनकी योनि में सुरापान करने वाला ब्राह्मण जाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

लूताहिसरटानां च तिरश्चां चाम्बुचारिणाम् ।

हिंस्राणां च पिशाचानां स्तेनो विप्रः सहस्रशः ।।12/57

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मकड़ी, साँप, गिरि, गेट, जल जीव टेढ़े चलने वाला पिशाच हिंसा करने की प्रकृति रखने वाले जीव इनकी योनि में सोना चुराने वाला ब्राह्मण सहस्रों बार जाता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

तृणगुल्मलतानां च क्रव्यादां दंष्ट्रिणां अपि ।

क्रूरकर्मकृतां चैव शतशो गुरुतल्पगः ।।12/58

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तृण, गुल्म, लता में रहने वाले कीड़े, कच्चा माँस भक्षी गीध आदि क्रूर कर्म करने का जिनका स्वभाव है। सिंह, बाघ आदि इनका योनि में माता से रमण करने वाला सैकड़ों बार जन्मता है।
टिप्पणी :
श्लोक में जिस प्रकार के मांसाहारी प्राणी हैं। उसी प्रकार घास सरकण्डे में रहने वाले जीव जानना चाहिये क्योंकि जीव जड़ पदार्थों में कही नहीं जाता वरन् जीवधारी को भी शरीर कहते हैं। यहाँ अर्थ प्राप्त के ऐसा विचार करना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

हिंस्रा भवन्ति क्रव्यादाः कृमयोऽमेध्यभक्षिणः ।

परस्परादिनः स्तेनाः प्रेत्यान्त्यस्त्रीनिषेविणः ।।12/59

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जीव हिंसा की प्रकृति रखने वाला जो है वह कच्चे माँस भक्षण करने वाले (बिलार आदि) होते हैं। अखाद्य पदार्थों को भक्षण करने वाले छोटे कृमि (कीड़े) होते हैं। महापातकी के अतिरिक्त जो चोर है वह परस्पर माँस भक्षी होते हैं अर्थात् वह उसके माँस को भक्षण करता है और दूसरा उसके मांस को भक्षण करता है। चाण्डाल की स्त्री से सम्भोग करने वाला प्रेत होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

संयोगं पतितैर्गत्वा परस्यैव च योषितम् ।

अपहृत्य च विप्रस्वं भवति ब्रह्मराक्षसः ।।12/60

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पतितों से मैत्री आदि संसर्ग करना, पर स्त्री गमन, ब्राह्मण का सोना चुराना इनमें से कोई एक कर्म करके ब्रह्म राक्षस होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

मणिमुक्ताप्रवालानि हृत्वा लोभेन मानवः ।

विविधाणि च रत्नानि जायते हेमकर्तृषु ।।12/61

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लोभ से मणि मुक्ता (मोती), प्रवाल (मूँगा) इत्यादि विविध प्रकार के जो रत्न हैं उनको चुराने से हेमकर्त (सुनार) होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

धान्यं हृत्वा भवत्याखुः कांस्यं हंसो जलं प्लवः ।

मधु दंशः पयः काको रसं श्वा नकुलो घृतम् ।।12/62

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
धान्य के चुराने से चूहा, काँसा के चुराने से हंस, जल के चुराने से प्लव नाम प्राणी, शहद के चुराने से वन की मक्खी, दूध चुराने से कौवा, रस के चुराने से कुत्ता, घी के चुराने से नेवला होता है।
टिप्पणी :
का विषय स्पष्ट रीति से आगामी जन्म में सम्बन्ध रखने वाला है और परोक्ष वश का फैलाने वाला भी यहां तक नहीं हो सकता है। अतएव यह श्लोक भी प्रमाण मानना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

मांसं गृध्रो वपां मद्गुस्तैलं तैलपकः खगः ।

चीरीवाकस्तु लवणं बलाका शकुनिर्दधि ।।12/63

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
1-मांस, 2-चरबी, 3-तेल, 4-निमक, 5-दही, चुराने से क्रमानुसार 1-गृद्ध, 2-पानी के ऊपर रहने वाले पक्षी, 3-तेलपक पक्षी, 4-झींगुर, 5-बलाका पक्षी होता है।
टिप्पणी :
का विषय स्पष्ट रीति से आगामी जन्म में सम्बन्ध रखने वाला है और परोक्ष वश का फैलाने वाला भी यहां तक नहीं हो सकता है। अतएव यह श्लोक भी प्रमाण मानना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

कौशेयं तित्तिरिर्हृत्वा क्षौमं हृत्वा तु दर्दुरः ।

कार्पासतान्तवं क्रौञ्चो गोधा गां वाग्गुदो गुडम् ।।12/64

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
1-कीड़ों के पेट से निकाला हुआ कपड़ा (रेशम आदि), 2-तीसी की छाल से बना हुआ वस्त्र, 3-घास के सूत का वस्त्र, 4-गऊ व 5-गुड़ इनके चुराने से यथाक्रम 1-तीतरों पक्षी, 2-मेंढक, 3-क्रौंच, 4-गोह, गोवरा पक्षी होता है।
टिप्पणी :
का विषय स्पष्ट रीति से आगामी जन्म में सम्बन्ध रखने वाला है और परोक्ष वश का फैलाने वाला भी यहां तक नहीं हो सकता है। अतएव यह श्लोक भी प्रमाण मानना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

छुच्छुन्दरिः शुभान्गन्धान्पत्रशाकं तु बर्हिणः ।

श्वावित्कृतान्नं विविधं अकृतान्नं तु शल्यकः ।।12/65

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
1-मशक आदि, 2-बथुआ, आदि, 3-भात, 4-सत्तू आदि जौं गेहूँ इनके चुराने से क्रमानुसार 1-छछून्दर, 2-मोठ, 3-श्वावित, 4-साही होता है।
टिप्पणी :
का विषय स्पष्ट रीति से आगामी जन्म में सम्बन्ध रखने वाला है और परोक्ष वश का फैलाने वाला भी यहां तक नहीं हो सकता है। अतएव यह श्लोक भी प्रमाण मानना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

बको भवति हृत्वाग्निं गृहकारी ह्युपस्करम् ।

रक्तानि हृत्वा वासांसि जायते जीवजीवकः ।।12/66

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
1-अग्नि, 2-सूप, 3-मूसल आदि गृह की आवश्यकीय वस्तु, लाल वस्त्र इनके चुराने से यथाक्रम बगुला, बिल्ली, चकोर होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

वृको मृगेभं व्याघ्रोऽश्वं फलमूलं तु मर्कटः ।

स्त्रीं ऋक्षः स्तोकको वारि यानान्युष्ट्रः पशूनजः ।।12/67

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मृग, हाथी इन दोनों में से किसी के चुराने से बगला होता है, घोड़ा के चुराने से बाघ होता है, फल, फूल इन दोनों में से किसी एक के चुराने से बन्दर होता है, स्त्री के चुराने से रीछ होता है, पीने के योग्य जल को चुराने से पपीहा नाम पक्षी होता है, सवारियों को चुराकर ऊँट होता है, पशुओं को चुराकर बकरा होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यद्वा तद्वा परद्रव्यं अपहृत्य बलान्नरः ।

अवश्यं याति तिर्यक्त्वं जग्ध्वा चैवाहुतं हविः ।।12/68

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दूसरे का धन चुराने से वा बलात् अपहरण करने से अवश्य ही पृथ्वी पर पेट के बल चलने वाला होगा, और हवन की सामग्री भूल कर भी खा लेने से भी यही दशा होती है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन हृत्वा दोषं अवाप्नुयुः ।

एतेषां एव जन्तूनां भार्यात्वं उपयान्ति ताः ।।12/69

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
स्त्री भी उपरोक्त पाप कर्मों के करने से उपरोक्त प्राणियों की स्त्री होती है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

स्वेभ्यः स्वेभ्यस्तु कर्मभ्यश्च्युता वर्णा ह्यनापदि ।

पापान्संसृत्य संसारान्प्रेष्यतां यान्ति शत्रुषु ।।12/70

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
विपत्ति समय के अतिरिक्त साधारण समय में अपने कर्मों के त्याग देने से चार निकृष्ट शरीरों में जन्म लेता है और शत्रुओं के सेवक होते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अनापदि) बिना आपत्काल के जो वर्ण अपने-अपने उस वर्ण सम्बन्धी कर्मों से पतित हो जाते हैं वे पापी योनियों को प्राप्त होकर (शत्रुषु प्रेष्यताम् यान्ति) शत्रुओं की दासता को पाते हैं।

वान्ताश्युल्कामुखः प्रेतो विप्रो धर्मात्स्वकाच्च्युतः ।

अमेध्यकुणपाशी च क्षत्रियः कटपूतनः ।।12/71

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपने धर्म से पृथक ब्राह्मण वमन (कै) की हुई वस्तु को भक्षण करने वाला उल्का मुख नाम प्रेत होता है, और अपने धर्म से पृथक क्षत्रिय मल मूत्र खाने वाला कठपूतन नाम प्रेत होता है।
टिप्पणी :
प्रेत शब्द के अर्थ शरीर त्याग कर दूसरे जन्म में जाने के हैं जैसे कि न्यायदर्शन में महात्मा गौतम जी ने शरह की रीति में लिखा। अतः जहाँ प्रेत का शब्द आवे वहां यही अर्थ समझना चाहिये।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

मैत्राक्षज्योतिकः प्रेतो वैश्यो भवति पूयभुक् ।

चैलाशकश्च भवति शूद्रो धर्मात्स्वकाच्च्युतः ।।12/72

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो वैश्य आपद समय में अपने धर्म से पृथक होता है और पीप अर्थात् गांर्हत्त रक्त को खाने वाला मैपाक्ष ज्योति नाम प्रेत होता है, शूद्र अपने धर्म को त्याग देने से चौलाश कनाम कीड़ों का भक्षण करने वाला प्रेत होता है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (12/53-72) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- ये सभी श्लोक पूर्वापर-प्रसंग से विरुद्ध है । 52 वें श्लोक में कहा है कि इन्द्रियों को विषयासक्त करने से अविद्वान मनुष्य दुःखस्वरूप जन्मों को प्राप्त करते हैं । और 73-74 श्लोकों में उसी बात को पूरी करते हुए कहा है कि विषयासक्त पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करता है, वैसे-वैसे उसकी उनमें रुचि बढ़ने लगती है । इन पूर्वापर के श्लोकों के मध्य में इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग किया है । अतः अप्रासंगिक होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है । और 52 वें श्लोक की 53 वें श्लोक के साथ तथा 72 वें श्लोक की 73 वें श्लोक के साथ किसी प्रकार भी संगति न होने से ये श्लोक प्रसंग-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु की मान्यता में 39-51 श्लोकों में सत्वादि गुणों के न्यून व अधिकता के कारण विभिन्न योनियों में जीवों का जाना माना है । परन्तु इन श्लोकों में इस मान्यता का विरोध है और 53 वें श्लोक में एक-एक कर्म के आधार पर योनियों में जाने का कथन किया गया है और अग्रिम श्लोकों का यही आधार-श्लोक है । मनु ने 12/74 श्लोक में भी कर्मों के अभ्यास से योनियों की प प्राप्ति मानी है । (ख) 54 वें श्लोक में जीवों का घोर नरक-लोक में जाने का कथन मनु से विरुद्ध है । मनु ने किसी स्थान-विशेष को नरक नही माना है । इस विषय में 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और जैसे 54-72 श्लोकों में दुष्कर्म करने से विविध-योनियों का परिगणन किया है, वैसे सुकर्म करने से योनियों का वर्णन क्यों नही है ? क्या सभी सुकर्म करने वालों के कर्म समान हो सकते है ? और इसलिये वे सभी मनुष्य-योनि में चले जाते है यह कदापि सम्भव नही है । और जब एक-एक दुष्कर्म से कुत्ते आदि की योनि में जाना पड़ता है, तो उसके अच्छे कर्मों का फलकथन मनु ने क्यों नही किया ? इससे स्पष्ट है कि यह कर्मानुसार योनि-प्राप्ति की मान्यता मनु की नही है । क्योंकि मनु तो यह मानते है कि अच्छे या बुरे कर्मों के करने से जैसे सत्वादि गुणों की प्रवृत्ति जीवों की होती है, वैसे-वैसे ही वे योनियाँ प्राप्त करते है । (घ) 59, 71-72 श्लोकों में मैत्राक्ष ज्योतिक आदि प्रेत-योनियों का वर्णन भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने प्रेत नामक कोई योनि-विशेष नहीं मानी है । प्रेत-योनि की कल्पना पौराणिक-युग की देन है । (ङ) 69 वें श्लोक में कहा है कि स्त्रियाँ भी दुष्कर्मों के कारण दुष्कर्म करने वालों की पत्नियाँ बनती है । यह मान्यता भी मनु-सम्मत नही हैं । क्योंकि स्त्रियाँ अगले जन्मों में स्त्रियां ही बने, यह अवैदिक सिद्धान्त है । मनु यदि ऐसा मानते होते तो सत्वादि गुणों के आधार पर जो 40-51 श्लोकों में विभिन्न योनियों में जाना माना है वहाँ स्त्रियों का पृथक् निर्देश अवश्य करते । अतः यह मान्यता मनुसम्मत नही है । क्योंकि जीवात्मा स्त्रीलिंगादि से रहित है । (च) 56-57 श्लोकों में शराबी, चोरी आदि कर्म करने वाले ब्राह्मण को किन-योनियों में जाना पड़ता है ? यह कथन जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक होने से मनु से विरुद्ध है । मनु के अनुसार जो शराब पीता है और चोरी करता है, वह ब्राह्मण ही नही है फिर ऐसे दुष्कर्म-रत को ब्राह्मण मानना जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्ध करना है और यह कथन मनु से विरुद्ध है । 3. अवान्तरविरोध- (क) 55 वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे को कुत्ता, सूकर, गधा, ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि विभिन्न योनियों में जाने का वर्णन है । क्या इन सभी योनियों में जाना पड़ता है, अथवा इनमें से किसी एक में ? यह स्पष्ट न होने से यह विधान-संशयास्पद ही है । ऐसे ही 56 इत्यादि श्लोकों वर्णन किया है । और यहाँ ब्रह्महत्यारे को कुत्ते की योनि लिखी है और 62 वें में रस चुराने वाले को कुत्ते की योनि लिखी है । इसी प्रकार 55 वें में ब्रह्महत्यारे को पक्षी की योनि लिखी है और 63 वें में तेल चुराने वाले को पक्षी की योनि लिखी है । इससे स्पष्ट है कि प्रक्षेपक की (53 श्लोकोक्त) एक-एक कर्म के आधार पर योनिविशेष की गणना उसके अपने कथन से ही विरुद्ध है । क्योंकि उसने स्वयं ब्रह्महत्या करने वाले और रस चुराने वाले की एक से अधिक कर्मों के आधार पर कुत्ते की योनि मानी है । (ख) और 61 वें श्लोक में विविध रत्नों की चोरी करने वाले मनुष्य को सुनार की योनि में जाना माना है । और 57 में श्लोकं में चोर-ब्राह्मण के लिये विभिन्न योनियों का परिगणन किया है । जब एक सामान्य नियम मानव-मात्र के लिये कह दिया है तब वर्णविशेष के लिए प्रथक् कथन करना उचित नहीं है । और यदि कोई उचित मानता ही है, तो क्षत्रियादि के चोरी करने पर क्या व्यवस्था होगी ?ऐसा कथन न करने से स्पष्ट है कि ये श्लोक विभिन्न प्रक्षेपकों ने बनाकर मिलाये है । और जिस समय व्यवसाय के आधार पर सुनारादि उपजातियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया, उस समय किसी ने इन श्लोकों को बनाया है, अतः ये सभी श्लोक परवर्ती है । क्योंकि मनु के अनुसार ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते है । 4. शैली विरोध- (क) इन श्लोकों की शैली निराधार, निन्दायुक्त अतिशयोक्तिपूर्ण और परोक्ष-भयप्रदर्शनमात्र है । मनु की शैली में ऐसी बातों का सर्वथा अभाव होता है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त बातों का वर्णन और एक योनि में जाने के विभिन्न कर्मों को कहकर एक कर्म को योनि प्राप्त का कारण कहना , इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों का कथन मनु की शैली से विरुद्ध है । (ग) मनु ने सर्वत्र समता तथा न्यायोचित शैली से प्रवचन किया है , किन्तु यहाँ पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । जैसे-55वें श्लोक में ब्रह्महत्यारे का विभिन्नयोनियों में जाना लिखा है, क्षत्रियादि के हत्यारे का क्यों नही ? 58 वें में गुरु-पत्नी से संभोग करने वाले को दण्डस्वरूप योनियो में जाने का कथन है , दूसरे पुरुषों की स्त्रियों से संभोग करने वाले को दण्ड क्यों नही ? इस प्रकार का वर्णन मनु कहीं नही करते, क्योंकि मनु की शैली में समता का भाव रहता है । (घ) मनु की शैली में चारवर्णों के धर्मों का वर्णन है । परन्तु इनमें (61 वें में) सुनारादि उपजातियों का कथन परवर्ती है । मनु के शास्त्र में इन उपजातियों के लिये कोई स्थान नही है । अतः शैली-विरोध के कारण य सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । ये छः (12/75-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोको में शुभाशुभ कर्मों के फल का सामान्य रूप स कथन किया गया है । इसी प्रसंग से पूर्वापर श्लोकों की सम्बद्धता है । परन्तु (75-80) श्लोकों में तामिस्रादि नरकों को स्थान-विशेष मानकर उनमें दुःखों के भोगने की बातें, और दुःखमय योनियों की प्राप्ति का कथन उस प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक अप्रासंगिक है । (ख) (39-51) श्लोकों में शुभाशुभ कर्मों के फल और शुभाशुभ गतियों का वर्णन किया जा चुका है । उस प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः दुःखप्राप्ति रूप प्रसंग का प्रारम्भ करना असंगत है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 12/74 में ’तास्वह योनिषु’ कहकर स्पष्ट किया है कि इसी संसार में विभिन्न योनियों में शुभाशुभ कर्मानुसार जीवों को जाना पड़ता है । और 39 वें श्लोक मे भी इस संसार में ही विभिन्न गतियाँ मानी है । और इन श्लोकों में जो विभिन्न योनियाँ मानी है, वे सब इस संसार में ही है । पुनरपि तामिस्रादि नरकों लोकविशेष मानने की बाते कहना पूर्वोक्त से विरुद्ध है । और नरकादि के विषय में मनु की मान्यता का स्पष्टीकरण 4/87-91 श्लोकों की समीक्षा में द्रष्टव्य है । (ख) और 78-80 श्लोकों में ऐसी-ऐसी बातों का उल्लेख है जिनकों पापकर्मों का फल कहना मनुसम्मत नही हो सकता । जैसे -80 में वे बुढ़ापे को प्राप्त करना, मृत्यु को प्राप्त करना, (79 मे) बन्धुओं का वियोग होना, मित्र-प्राप्त करना इत्यादि, जिनको कर्म-फलरूप दुख मानना उचित नहीं है । क्योंकि बुढ़ापा, मृत्यु आदि तो अपरिहार्य है, इनसे शुभकर्म करने वाला भी नही बच सकता । अतः इन्हें दुष्कर्मों का फल कहना ठीक नहीं । मनु ऐसी अयुक्तियुक्त बाते कदापि नहीं कह सकते । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

यथा यथा निषेवन्ते विषयान्विषयात्मकाः ।

तथा तथा कुशलता तेषां तेषूपजायते ।।12/73


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
विषयों में आत्मा को लगाने वाला मनुष्य जिस-जिस प्रकार विषयों का सेवन करता है उस-उस प्रकार विषयों में कुशल होता है।
टिप्पणी :
श्लोक में जो विषयों में कुशल होना लिखा है उसके अर्थ विषयों में आसक्त होने के हैं और उसके साधन के सामान पर अधिकार प्राप्त कर लेना परन्तु विषय से सुरवाशा न रखनी चाहिये। विषय की इच्छा यद्यर्पि विषय साधन जुटाने में चतुर हैं परन्तु वास्तव में बुद्धिहीन हो जाता है क्योंकि बुद्धि स्वतंत्रता चाहती है और विषयेच्छा परतन्त्र बनाती है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
विषयी स्वभाव के मनुष्य जैसे-जैसे विषयों का सेवन करते जाते है वैसे-वैसे उन विषयों में उनकी आसक्ति अधिक बढती जाती है।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
विषयी पुरुष जैसे-जैसे विषयों का सेवन करते हैं वैसे-वैसे वे उन विषयों में कुशल हो जाते हैं।

तेऽभ्यासात्कर्मणां तेषां पापानां अल्पबुद्धयः ।

संप्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु तास्विह योनिषु ।।12/74


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पाप कर्मों के अभयस्त होकर उन्हीं शरीरों में बहुत बार के दुःखों को भोगते हैं वह सब निर्बुद्धि है।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
फिर वे मन्दबुद्धि मनुष्य उन विषयों से उत्पन्न पापकर्मों को बारम्बार करते हैं, और उसके कारण पुनः पापकर्मों से प्राप्त होने वाली उन-उन योनियों में अर्थात् जिस पाप से जो योनि प्राप्त होती है (12/39-51) उसको प्राप्त करके इसी संसार में दुःखों को भोगते है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यह निर्बुद्धि लोग उन-उन कर्मों के अभ्यास से उन-उन योनियों में दुःख उठाते हैं।

तामिस्रादिषु चोग्रेषु नरकेषु विवर्तनम् ।

असिपत्रवनादीनि बन्धनछेदनानि च ।।12/75

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तामिस्र नाम मूर्खता से व्याप्त जो अर्थात् अति दुःख देने वाला नरक में जिसका वर्णन अध्याय 4 के 89 तथा 90 श्लोकों में किया है जिसमें शरीर अंगों आदि का बांधना आदि दुःखों में दुःख पाते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

विविधाश्चैव संपीडाः काकोलूकैश्च भक्षणम् ।

करम्भवालुकातापान्कुम्भीपाकांश्च दारुणान् ।।12/76

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
और विविध प्रकार के शोक व दुःख को प्राप्त करते हैं कौवा, व उल्लू पक्षी उनको भक्षण करते हैं, उष्ण (गर्म) बालू की उष्णता को प्राप्त होते हैं, अत्यन्त भीषण कुम्भी पाक नाम नरक के दुख भोगा करते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

संभवांश्च वियोनीषु दुःखप्रायासु नित्यशः ।

शीतातपाभिघातांश्च विविधानि भयानि च ।।12/77

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सदैव अति दुख वाली गर्हित (दूषित) नालियों में उत्पत्ति, शील, तप (गर्मी) से दुख और विविध प्रकार के भय पाते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

असकृद्गर्भवासेषु वासं जन्म च दारुणम् ।

बन्धनानि च काष्ठानि परप्रेष्यत्वं एव च ।।12/78

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बारम्बार माता के गर्भ से उत्पन्न होने के क्लेश को उठाना, प्रायः बन्धन अर्थात् बन्द होना और दुःख का होना और दूसरों की सेवकाई का बोझ उठाते हैं।

बन्धुप्रियवियोगांश्च संवासं चैव दुर्जनैः ।

द्रव्यार्जनं च नाशं च मित्रामित्रस्य चार्जनम् ।।12/79

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बान्धवों तथा प्रिय लोगों से वियोग, दुर्जनों का संसर्ग व रहन सहन तथा धन का संचित होना तदनन्तर उसका लोप (नाश) हो जाना, मित्र शत्रु का मिलना इन सब को पाते हैं।
टिप्पणी :
धन संचय होकर नाश हो जाना एक बड़ा भारी क्लेश है और धन किसी के पास भी तीन पीढ़ी (पुस्त) से अधिक नहीं ठहरता अतएव इससे पूरा दुःख है तथा आत्मा को कुछ लाभ नहीं हो सकता अतः लक्ष्मी की अभिलाषा करने वालों को धर्म के कार्यों में लगना चाहिये।

जरां चैवाप्रतीकारां व्याधिभिश्चोपपीडनम् ।

क्लेशांश्च विविधांस्तांस्तान्मृत्युं एव च दुर्जयम् ।।12/80

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अप्रतीकार (औषधि न होने वाली) व्याधि व जरा (बुढ़ापा) से दुख व विविध प्रकार (नाना भाँति) के कष्ट उठाने के उपरान्त मृत्यु इन सबको पाते हैं।

यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते ।

तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलं उपाश्नुते ।।12/81


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो जिस विचार से किसी काम को करता है वह उसी प्रकार का शरीर धारण करके उस कर्म के फल को भोग करता है अर्थात् जो धर्म के विचार से उपकार व भलाई करते हैं वह धर्म का फल भोगते और जो यश के विचार से भलाई करते हैं वह यश प्राप्त करते हैं। अथवा यह समझ कर कि सतोगुणी कर्मों के करने से सतोगुणी शरीर को व रजोगुणी कर्मों से रजोगुणी शरीर को तथा तमोगुणी कर्म करने से तमोगुणी शरीर को प्राप्त करते हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मनुष्य जैसी अच्छी या बुरी भावना से जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, वैसे-वैसे ही शरीर पाकर उन कर्मों के फलों को भोगता है ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फलोदयः ।

नैःश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं निबोधत ।।12/82


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मैंने यह सब सारे कर्मों के फल को वर्णन किया तदनन्तर अब ब्राह्मण के मोक्ष देने वाले कर्म को वर्णन करता हूँ।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यह (12/3-81) कर्मों के फल का उद्भव सम्पूर्ण रूप में तुमसे कहा । अब विद्वानों या ब्राह्मण आदि द्विजों के (निःश्रेयसकरं कर्म निबोधत-) मोक्षदायक कर्मों को सुनो ।
टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं इन्द्रियाणां च संयमः ।

अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ।।12/83


 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेद पाठ, जप, ज्ञान, इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा (किसी जीव को न मारना) गुरु की सेवा शुश्रुषा करना यह सब कर्म बड़े कल्याणकारी हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
वेदों का अभ्यास(12/94-103), तप=व्रतसाधना(12/104), ज्ञान=सत्यविद्याओं की प्राप्ति (12/104), इन्द्रियसंयम (12/92), धर्मक्रिया=धर्मपालन एवं यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान और आत्मचिन्त=परमात्मा का ज्ञान एवं ध्यान, ये छः मोक्ष-प्रदान करने वाले सर्वोत्तम कर्म है ।
टिप्पणी :
अनुशीलन- उपलब्ध संस्करणों में इस श्लोक के तृतीय पाद में अहिंसा गुरुसेवा च पाठ मिलता है । यह पाठभेद किया गया है जो मनुस्मृति के अनुरूप नही है । यहां धर्मक्रियाsत्मचिन्ता च पाठ ही उपयुक्त है । इसकी पुष्टि में निम्न प्रमाण है— (1) 83 वें श्लोक में निःश्रेयस कर्मों की परिगणना है, परिगणना के बाद छह कर्मों से सम्बन्धित व्याख्यान 85-115 श्लोकों में है । इस व्याख्यान में अहिंसा और गुरुसेवा का कही उल्लेख नही है अपितु आत्मज्ञान और धर्म क्रिया का है । श्लोकार्थ में ततत् वर्णन वाले श्लोकों की संख्या दे दी है । (2) मनु ने सात्विक कर्मों को ही निःश्रेयसकर्म माना है । इस श्लोक में अन्य सभी कर्म तो वही है, केवल दो में पाठभेद कर दिया है । सात्विक कर्मों का वर्णन है 12/31 में है । वही पाठ यहां ग्रहण करना मनुसम्मत है क्योंकि वही कर्म मनु-मत से सर्वश्रेष्ठ है और वही मुक्तिदायक हो सकते है । अतः प्रस्तुत पाठ सही है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
 
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
1) वेदाभ्यास, (2) तप, (3) ज्ञान, (4) इन्द्रियों का संयम, (5) अहिंसा, (6) गुरु-सेवा यह निश्रेयस अर्थात् मोह के देने वाले कर्म हैं।

सर्वेषां अपि चैतेषां शुभानां इह कर्मणाम् ।

किं चिच्छ्रेयस्करतरं कर्मोक्तं पुरुषं प्रति ।।12/84

यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन सब शुभ कर्मों में से प्रत्येक कर्म मनुष्यों की मोक्ष के हेतु अत्यन्त कल्याण करने वाले हैं।
 
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (12/84 वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध – यह श्लोक पूर्वापर श्लोकों को भंग कर रहा है । क्योंकि 83 वें श्लोक में मोक्ष देने वाले छः कर्मों का उल्लेख किया है और 85 वें में उन सभी क्रमों में आत्म-ज्ञान को मोक्ष-प्राप्ति में सर्व-प्रमुख बताया है । परन्तु 84 वें श्लोको में न तो कोई विशेष बात ही कही है और वह पूर्वापर-प्रसंग को मिलाने में साधक ही है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है । ये सभी (12/86-90) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है- 1. प्रसंग-विरोध- यहां पूर्वापर श्लोकों का प्रसंग आत्म-ज्ञान का है । 85 वें श्लोक में मोक्षप्राप्ति के लिये आत्म-ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट माना है । और 91 वें श्लोक में भी आत्म-ज्ञान का ही प्रसंग है । इस प्रकार पूर्वापर के श्लोकों में परस्पर संबन्ध है है । इन श्लोकों ने उस प्रसंग को भंग कर दिया है । इसलिये ये प्रसंग-विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त श्लोक है । 2. विषय-विरोध- मोक्ष-प्राप्ति के लिये जिन छः कर्मों का परिगणन किया है, उनमें आत्म-ज्ञान को मुख्य माना है । अतः प्रस्तुत विषय है मोक्ष प्राप्ति । उस विषय में वैदिक कर्मों के भेद (प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मों के कारण) बताना, और उन कर्मों का प्रथक्-प्रथक् फल बताना विषय विरुद्ध है । (88-90) श्लोकों में पूर्वापर विषय से भिन्न ही प्रवृत्ति-निवृत्ति कर्मों का विषय प्रारम्भ किया गया है । 3. अवान्तर-विरोध- 86 श्लोक में मोक्ष के छः कर्मों से वैदिक कर्मों को अधिक कल्याण कारक बताया है । इसीलिये ’श्रेयस्करतरम्’ शब्द में तुलना बताने वाला आतिशयिक प्रत्यय लगाया है । जिससे स्पष्ट है कि इन छः कर्मों से वैदिक कर्म भिन्न है । परन्तु 87 वें श्लोक में कहा है कि ये सभी छः कर्म वैदिककर्मो के अन्तर्गत ही है . यदि ये सभी कर्म वैदिक है, तो पूर्व श्लोक में वैदिक कर्मों की पृथक् उत्कृष्टता का कथन क्यों किया है ? और यदि ये कर्म मोक्ष देने वाल है, परन्तु 88 वे मे वैदिक कर्मो में प्रवृत्त कैसे हो सकती है ? इस प्रकार प्रक्षेप करने वाले के श्लोकों में परस्पर विरोध है । और यह विरोध मनुप्रोक्त न होने से मौलिक नही है । 4. अन्तर्विरोध- 83 वें श्लोक में मोक्ष देने वाले जो छः प्रकार के कर्म लिखे है, उन सभी को वेदोक्त माना है । इन कर्मों से (86 वें में) वैदिक कर्मों को पृथक् और श्रेष्ठ बताया है और इन छः कर्मों को (जिनमें वेदाभ्यास भी है) वैदिक न मानना परस्पर-विरोधी कथन है । अतः यह प्रतीत होता है कि इन श्लोकों का रचयिता कोई मनु से भिन्न है, जिसने पूर्वोक्त कर्मों के विषय में ऐसी खण्डनात्मक बातें लिखी है । टिप्पणी :
पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार

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