मांस मनुष्य का भोजन नहीं - ধর্ম্মতত্ত্ব

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18 February, 2024

मांस मनुष्य का भोजन नहीं

पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जितने भी संसार में प्राणी हैं, सब अपने-अपने स्वभाव भोजन को भली-भांति जानते तथा पहचानते हैं। अपने भोजन को छोड़कर दूसरे पदार्थों को सर्वथा अभक्ष्य समझते हैं, उनको न देखते हैं, न सूंघते हैं। अतः अपने आपको सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले इस मनुष्य से तो सभी अन्य प्राणी ही अच्छे हैं। जैसे जो पशु घास आदि चारा खाते हैं, वे मांस की ओर देखते भी नहीं और जो मांसाहारी पशु हैं, वे घासफूस की ओर खाने के लिये दृष्टिपात तक नहीं करते। उसी प्रकार कन्दमूल और फलफूल भक्षी प्राणी इन पदार्थों को छोड़कर घास-फूस नहीं खाते। इसी प्रकार पेय पदार्थों की वार्ता है। भयंकर से भयंकर प्यास लगने पर भी कोई पशु मद्य, शराब, सोडावाटर, चाय, काफी और भंग आदि नहीं पीते। परन्तु यह अभिमानी मनुष्य संसार का एक विचित्र प्राणी है, इसको भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं, पेय-अपेय की कोई मर्यादा नहीं। यह खान-पान में सर्वथा उच्छृंखल है, खानपान में इसका कोई नियम नहीं। यह सर्वभक्षी बना हुवा है। पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि सबको चट कर जाता है। इसका उदर (पेट) सभी प्राणियों का कब्रिस्तान बना हुआ है। निरपराध निर्बल प्राणियों को मारकर खाने में इसने न जाने कौन सी वीरता समझ रक्खी है। राष्ट्रीय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी पुस्तक भारत-भारती में इसका अच्छा चित्र खींचा है -


वीरत्व हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का, कुछ भी विचार उन्हें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का। केवल पतंग विहंगमों में, जलचरों में नाव ही, बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही ॥ 

पृष्ठ २


अर्थात् जो अपने शत्रुओं का वध (हिंसा) युद्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे, आज वे भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिये अपनी वीरता दिखाते हैं। पापी मनुष्य ने सब प्राणी खा लिये। केवल आकाश में उड़ने वालों में कागज के पतंग, जल में रहने वालों में लकड़ी की नाव और चौपाये पशुओं में केवल चारपाई को यह नहीं खा सका। यही इसके भक्ष्य नहीं बने। इन तीनों को छोड़कर शेष सबको इसने अपने पेट में पहुंचा दिया। इसी के फलस्वरूप मनुष्य सभी प्राणियों की अपेक्षा अधिक रोगी वा दुःखी रहता है।

महर्षि दयानन्द जी ने इस सत्य को इस प्रकार प्रकट किया है-

"क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है। जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहें वे अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करें। क्योंकि जिन मिथ्या भाषणादि पापकर्मों का फल दुःख है उनको छोड़ सुख रूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करें।"


महर्षि दयानन्द जी ने दुःख का कारण असत्य भाषणादि कमर्मों को लिखा है। अहिंसा का स्थान यमों में सत्य से प्रथम है। क्योंकि-"तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः"

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (थोरी त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- पांच यमों में महर्षि योगिराज पतञ्जलि ने अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है। इसे सार्वभौम धर्म माना है।

महर्षि दयानन्द जी ने बहुत बलपूर्वक लिखा है-

"जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गी आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुये हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ोतरी होती जाती है।"


पृष्ठ ३


"जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्य आदि प्राणी वर्तते थे।'


क्योंकि सभी पृथिवी के मनुष्य वेदाज्ञा तथा ऋषियों के धर्मोपदेशानुसार चलते थे। इसीलिए सुखस्य मूल धर्मः सुख का मूल धर्म है, महर्षि चाणक्य की इस आज्ञानुसार धर्माचरण करने से सब सुखी थे, रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ थे। स्वस्थ मानव ही पूर्णतया सुखी होता है। स्वस्थ रहने के लिये ऋषियों ने भोजन के विषय में तीन नियम बनाये हैं।


एम बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी ने जिज्ञासा की और तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है?


प्रश्न - "कोऽरुक्, कोऽरुक्, कोऽरुक्


उत्तर - "ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्


कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है? कौन नीरोग रहता है ?


उत्तर (१) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (२) हितकारी भोजन करता है, (३) और जो मितभोजन - भूख रखकर अल्पाहार करता है, वह सर्वचा रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ वा सुखी रहता है।


मांसाहार कभी धर्मानुसार मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता। मांसाहारी ऋतभुक् नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिये मांस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध प्राणी को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिंसा है और हिंसा से प्राप्त हुई भोग की सामग्री भक्ष्य नहीं होती। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं "जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है।"


पृष्ठ ४


(२) हितभुक्- जो हितकारी पदार्थों का भोजन करता है, वह हितभुक् सदा स्वस्थ रहता है।


(३) जो भूख रखकर थोड़ा मिताहार करता है, वह पूर्ण स्वस्थ होता रहता है। इस विषय में महर्षि दयानन्द


जी सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं-


"जिन पदार्थों से स्वास्थ्य, रोगनाश, बुद्धिबल, पराक्रमवृद्धि और आयुवृद्धि होवे, उन तण्डुल, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्ट आदि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मित आहार भोजन करना, सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, उन उन का सर्वधा त्याग करना और जो जो जिसके लिये विहित हैं, उन उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।"


अतः जो पदार्थ हिंसा से किसी को सताकर, मारकर, छल कपट, अधर्म से प्राप्त हों, उनका कभी सेवन नहीं करना चाहिये । ईश्वर सभी प्राणियों का पिता है। सब उसके पुत्र तुल्य हैं, वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को अपने पुत्र पशु पक्षी आदि की हिंसा करके खाने की आज्ञा कैसे दे सकता है, तथा अपने पुत्रों की हिंसा से कैसे प्रसज हो सकता है? महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-


"क्या एक को प्राण कष्ट देकर दूसरों को आनन्द कराने से दयाहीन ईसाइयों का ईश्वर नहीं है? जो माता पिता एक लड़के को मरवाकर दूसरे को खिलाते तो महापापी नहीं हो ? इसी प्रकार यह बात है क्योंकि ईश्वर के लिये सब प्राणी पुत्रवत् हैं, ऐसा न होने से इनका ईश्वर कसाईवत् काम करता है और सब मनुष्यों को हिंसक भी इसी ने बनाया है।" - सत्यार्थप्रकाश

वे आगे लिखते हैं-


"जिसको कुछ दया नहीं और मांस के खाने में आतुर रहे वह बिना हिंसक मनुष्य के कभी ईश्वर हो सकता है? मनुष्य का स्वाभाविक गुण दया है और दयाहीन हिंसक होकर ही मनुष्य मांस


पृष्ठ ५


खाने के लिये अन्य प्राणियों के प्राण लेता है तथा इसको मांस खाने को मिलता है। मांसाहारी अपने इस स्वाभाविक गुण दया, प्रेम, सहानुभूति को तिलाञ्जलि देकर। शनैः शनैः सर्वथा अत्याचारी, निष्ठुर, निर्दयी, कसाई बन जाता है। फिर उन को हजारों पशुओं के गले को छुरी से काटते हुए तनिक भी दया नहीं आती।" मनु जी महाराज ने तो आठ कसाई लिखे हैं-


अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।


संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥


सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले - ये सब घातक हैं। अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं। ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। मनु जी लिखते हैं-


योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।

स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥


जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता। क्योंकि पापी अधर्मी को कभी सुख नहीं मिलता। पाप का ही तो फल दुःख है। हिंसक से बढ़कर पापी कोई नहीं होता। इसलिये अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म कहा है और इसीलिये यों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।


न च प्राणिवधः स्वर्ण्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥ प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों का वध वा हिंसा स्वर्गकारक


पृष्ठ ६


नहीं है अर्थात् दुःखदायी है। निरपराध प्राणियों के प्राण लेकर अपने पेट को भरना अथवा अपनी जिह्वा का स्वाद पूर्ण करना घोर अन्याय और महापाप है और पाप का फल दुःख है। सभी महापुरुषों, सन्त-साधु, महात्माओं तथा धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार की निन्दा की है तथा इसे वर्जित तथा निषिद्ध ठहराया है।


वेद में मांस भक्षण निषेध

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वैसे तो मानने को वेद, धम्मपद, तौरेत, जबूर, इञ्जील, बाईबल और कुरान सभी धार्मिक ग्रन्थ माने जाते हैं। किन्तु वेद को छोड़कर सब अन्य ग्रन्थ भिन्न-भिन्न मत और सम्प्रदायों के हैं। इन सम्प्रदायों के पुराने से पुराने ग्रन्च महाभारत काल से पीछे के ही हैं। इन की आयु चार हजार वर्ष से अधिक किसी की भी नहीं है। यथार्थ में ये ग्रन्थ धार्मिक ग्रन्थ की कोटि में नहीं आते। इनको किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रन्थ कहा जा सकता है, फिर भी इनके इन सम्प्रदायों में से भी अधिकतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मांस भक्षण का निषेध किया है। यथार्थ में सच्चे धर्म का आदि स्रोत वेद ही है। इसलिये मनु जी महाराज ने धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म को जानना चाहें, उनके लिये परम श्रुति अर्थात् वेद ही है, यह माना है।


जब जब परमात्मा सृष्टि की रचना करता है, तब तब अपने परम पवित्र ज्ञान को प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रकाशित करता है। वेद के किन्हीं एक दो सिद्धान्तों को पकड़ कर चतुर लोग अपने ग्रन्थों की रचना करके नये नये सम्प्रदायों और मतों को खड़ा कर लेते हैं और उन्हीं को धर्म का नाम दे देते हैं। यथार्थ में धर्म अनेक नहीं होते, धर्म और सत्य एक ही होता है। जैसे दो और दो चार ही होते हैं, न्यून वा अधिक नहीं होते। इसलिये महर्षि दयानन्द ने वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आयाँ (श्रेष्ठ पुरुषों) का परम धर्म है यह लिखकर इस सत्यता पर अपनी मोहर लगाई है।


पृठ ७


बाह्य अन्धकार को दूर करने के लिये परम दयालु प्रभु ने जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश दिया है इसी प्रकार मानव के आन्तरिक अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिये ज्ञानरूप वेदज्योति का प्रकाश किया है। इस बात को सभी एकमत होकर स्वीकार करते हैं कि वेद सब से प्राचीन है। यहां तक कि विदेशी विद्वानों के मतानुसार भी संसार के पुस्तकालय में सब से प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ वेद ही माने जाते हैं। वहां लिखा है-


इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम् ।

त्वष्टुं प्रजानां प्रथम जनित्रमग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥ (यजुर्वेद अ० १२, मन्त्र ४०) 

इन ऊन रूपी बालों वाले भेड़, बकरी, ऊंट आदि चौपाये, पक्षी आदि दो पग वालों को मत मार। 

यदि नो गां हमि यद्यश्च यदि पूरुषम् । 

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ।-(अथर्ववेद १।१६।)


यदि हमारी गौ, घोड़े पुरुष का हनन करेगा तो तुझे शीशे की गोली से बेच देंगे, मार देंगे जिससे तू हननकर्ता न रहे। अर्थात् पशु, पक्षी आदि प्राणियों के वध करने वाले कसाई को वेद भगवान् गोली से मारने की आज्ञा देता है। वेदों में मांस खाने का निषेध इस रूप में किया है। मांस बिना पशुहिंसा के प्राप्त नहीं होता है। अन्नु, गो, अजा (बकरी), अवि (भेड़) आदि नाम लेकर पशुमात्र की हिंसा का निषेध किया है और द्विपद शब्द से पक्षियों के मारने का भी निषेध है। पशुओं को पालने की आज्ञा सर्वत्र मिलती है-

पृष्ठ ८


यजमानस्य पशून् पाहि ॥१॥१॥ (यजुर्वेद)


मनुस्मृति के प्रमाण पहले दे चुके हैं। मांस न खाने का फल सौ अश्वमेध यज्ञों के समान बताया है।


वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।

मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥ मनु ५।५३॥


जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जीवन भर मांस नहीं खाता है, दोनों को समान फल मिलता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है-


सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा।

गृहेऽपि निवसन् विप्रो मुनिर्मासविवर्जनात् ॥- (आचाराध्याय ७।१८०॥)


विद्वान् विप्र सर्वकामनाओं तथा अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त होता है। ऐसा गृहस्थी जो मांस नहीं खाता, वह घर पर रहता हुआ भी मुनि कहलाता है। इस युग के विधाता महर्षि दयानन्द ने मांस भक्षण का सर्वथा निषेध किया है। वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं-


१. : मद्य मांस आदि मादक द्रव्यों का पीना ये स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं।

२. : मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें।

३.: जो मादक और हिंसा कारक (मांस) द्रव्य को छोड़ के भोजन करने हारे हों, वे हविर्भुज (हवन यज्ञशेष खाने वाले) हैं।


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