क्या वेद में दासों की हत्या वा प्रताड़ना का विधान है ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

সাম্প্রতিক প্রবন্ধ

Post Top Ad

স্বাগতম

18 February, 2024

क्या वेद में दासों की हत्या वा प्रताड़ना का विधान है ?

 ओ३म् अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानुष:।

त्वं तस्या मित्रहन्वधर्दासस्य दम्‍भय॥ [ऋ.१०.२२.८]


ऋग्वेद के इस मन्त्र में कुछ लोग दासों की हत्या का आरोप लगाते वा लगा सकते हैं। इस कारण हमने इसका त्रिविध भाष्य करना उचित समझा। 


वेद के सभी पद यौगिक हैं, इस कारण वेद का अर्थ करने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों व निरुक्‍त शास्त्र का गम्‍भीर अध्ययन अनिवार्य है। वेद की यौगिकता के कारण प्रत्येक वेद मन्त्र के न्यूनतम तीन प्रकार के अर्थ होते हैं। इसमें प्रथम अर्थ— आधिदैविक (पदार्थ विज्ञान सम्‍बन्धी), द्वितीय अर्थ— आधिभौतिक अर्थात् व्यावहारिक तथा तृतीय अर्थ होता है— आध्यात्मि‍क। इनमें से प्रत्येक श्रेणी के अर्थ भी एक से अधिक हो सकते हैं। हम यहाँ उदाहरण के रूप में तीनों श्रेणियों में से एक-एक अर्थ अर्थात् कुल तीन अर्थ करते हैं—


अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानुष:।

त्वं तस्या मित्रहन्वधर्दासस्य दम्‍भय॥ [ऋ.१०.२२.८]


इस मन्त्र के ऋषि विमद ऐन्द्र प्राजापत्य वसुकृत् वा वासुक्र हैं। इसका अर्थ यह है कि इन्द्रतत्त्व से उत्पन्न होने वाली कुछ विशेष उत्तेजित रश्मियों [प्रजापति: = आनुष्टुभ: प्रजापति: (तै.ब्रा.३.३.२.१.), प्राणो हि प्रजापति: (श.४.५.५.१३), प्रजापतिर्ह्यात्मा (श.६.२.२.१२), अनुष्टुप् छन्द रश्मियों से उत्सर्जित होने वाली प्राण एवं सूत्रात्मा वायु रश्मियों [वसुक्र: = ब्रह्म वै वसुक्र: (ऐ.आ.१.२.२)] एवं विभिन्न बलों को उत्पन्न करने वाली रश्मियों से इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति‍ होती है। इसका देवता इन्द्र और छन्द पादनिचृद् बृहती होने से इसके दैवत और छान्दस प्रभाव से इन्द्रतत्त्व (तीक्ष्ण विद्युत्) तेजी से पदार्थ को संघनित करने लगता है। इसका आधिदैविक भाष्य इस प्रकार है—


आधिदैविक भाष्य—

(अकर्मा) निष्क्रिय कण आदि पदार्थ (दस्यु:) [दस्यु: = दस्युर्दस्यते: क्षयार्थात् उपदस्यन्त्यस्मिन् रसा: उपदासयति कर्माणि (निरु.७.२२), रस: = वाङ्नाम (निघं.१.११) अन्ननाम (निघं.२.७.), रसो वा आप: (श.३.३.३.१८) वे पदार्थ, जिनके अन्दर विद्यमान वाक् रश्मियाँ क्षीण हो चुकी हैं, जिनके अन्दर विद्यमान कणों वा रश्मियों की संयोजकता क्षीण हो गई है और इस कारण, जिनकी क्रियाशीलता क्षीण हो गई है अथवा जो संयोग प्रक्रिया को क्षीण करने वाले हैं, ऐसे पदार्थ दस्यु कहलाते हैं। (अन्यव्रत:) जो पदार्थ विरुद्ध कर्म करने वाले होते हैं अर्थात् जो अपक्रियाओं से युक्‍त होते हैं। (अमानुष:) [मानुष: = यन्मन्द्रं मानुषं तत् (तै.सं.२.५.११.१.)] जो कण आदि पदार्थ आकर्षण बलयुक्‍त नहीं होते। (न:, अभि, अमन्तु:) जो हमें अर्थात् इस छन्द रश्मि को उत्पन्न करने वाली सूक्ष्म रश्मियों अर्थात् आकर्षण बल अथवा विद्युत् की अवमानना करने वाले अर्थात् उससे अप्रभावित रहने वाले (दासस्य, तस्य) जो पदार्थ विभिन्न संयोग क्रियाओं को क्षीण कर देते हैं, उन पदार्थों का (अमित्रहन्, त्वम्) अमित्र अर्थात् प्रतिकर्षण बलयुक्‍त पदार्थों एवं उदासीन पदार्थों को नष्ट करने वाला इन्द्रतत्त्व (वध:, दम्‍भय) विनाशक रूप लेकर इन सभी बाधक पदार्थों को नष्ट वा नियन्त्रित करता है। 


भावार्थ— इस सृष्टि में विशेषकर सूर्यादि लोकों की उत्पत्ति‍ के समय अनेक पदार्थ कम ऊर्जा वाले होने के कारण निष्क्रिय होते हैं। कहीं असुर ऊर्जा (तथाकथित डार्क एनर्जी) विभिन्न सम्‍पीडन, संघनन व संयोजन क्रियाओं में बाधा डालती है। कहीं कुछ पदार्थ तीव्र प्रतिकर्षण बलयुक्‍त हो सकते हैं। ऐसे पदार्थ विद्युत् चुम्‍बकीय बलों के कारण भी संयोग प्रक्रियाओं में भाग लेने योग्य नहीं हो पाते, उन्हें तीक्ष्ण विद्युत् तरंगें नष्ट कर देती हैं, जिससे लोकों के निर्माण की प्रक्रिया यथावत् प्रारम्‍भ हो जाती है।


आधिभौतिक (व्यावहारिक) भाष्य—

(अकर्मा) जो व्यक्‍ति‍ अकर्मण्य है अर्थात् आलसी व प्रमादी है, (दस्यु:) जो सार्वजनिक हितों को नष्ट करने वाला चोर व डाकू है, (अन्यव्रत:) जो न करने योग्य कर्मों को करता है, (अमानुष:) जो मानवता के विरुद्ध आचरण करता है, (न:, अभि, अमन्तु:) जो हमारा तिरस्कार वा अपमान करता है अथवा (तस्य, दासस्य) पुण्य कर्मों को क्षीण करने वाला है, उन सभी को (त्वम्, अमित्रहन्) शत्रुओं के हन्ता हे राजन्! आप ऐसे दास अर्थात् सामाजिक हितों का क्षय करने वाले पापियों के (वध:, दम्‍भय) दण्डदाता होकर उन्हें दण्डित कीजिए। 


भावार्थ— संसार में प्रत्येक मनुष्य को कर्मशील अवश्य होना चाहिए। अकर्मण्य एवं आलसी व्यक्‍ति‍ समाज और राष्‍ट्र पर भार होते हैं। जो व्यक्‍ति‍ चोर और डाकू होते हैं अथवा किसी अन्य प्रकार से सार्वजनिक हितों को बाधा पहुँचाते हैं, जो व्यक्‍ति‍ धर्म और सदाचरण के विरुद्ध आचरण करते हैं, ऐसे मानवता विरोधी मनुष्य, जो जनसामान्य के हितों को चोट पहुँचायें अथवा उनका तिरस्कार वा अपमान करें, तब न्यायप्रिय राजा को चाहिए कि ऐसे अपराधियों को समुचित दण्ड देकर राष्ट्र को संगठित, समृद्ध, सुरक्षित और क्रियाशील बनाये रखे। 


आध्यात्मि‍क भाष्य—

हे ईश्वर! (अकर्मा) मेरे मन में विद्यमान अकर्मण्यता वा प्रमाद (दस्यु:) मेरे मन में परद्रव्यहरण अथवा कोई हिंसक भाव हो (अन्यव्रत:, अमानुष:) अथवा कोई अमानवीय दुराचरण आदि के भाव हों, (न:, अभि, अमन्तु:) जो हमारे मन में उठने वाले शुभ संकल्पों व सद्विचारों का तिरस्कार करते हों, (तस्य, दासस्य) उन ऐसी प्रवृत्ति‍यों, जो हमारे पुण्य को क्षीण करने वाली होती हैं, (त्वम्, अमित्रहन्, वध:) हे पापनाशक परमेश्वर! आप हमारे अन्दर जो भी शत्रुता, ईर्ष्या-द्वेष व पाप की प्रवृत्ति‍याँ हैं (दम्‍भय) इन सब दुष्प्रवृत्ति‍यों को नष्ट कर दीजिए।


भावार्थ— हमारे मन में निरन्तर अच्छे वा बुरे विचारों का उदय होता रहता है। हम ईश्वर के उपासकों को चाहिए कि हम परमेश्वर से अपने अन्दर विद्यमान काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, हिंसा, वैमनस्य आदि के दुष्ट विचारों को दूर करने की नित्य प्रार्थना करें। परन्तु प्रार्थना से पहले यह भी आवश्यक है कि उन विचारों को दूर करने के लिए हम पूर्ण पुरुषार्थ भी करें, क्‍योंकि बिना पुरुषार्थ के प्रार्थना करना न तो वांछनीय है और न फलदायक ही।

भाष्यकार- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

नोट : यदि आप वेदों के वास्तविक स्वरूप को विश्वभर में प्रचारित करने में अपना योगदान देना चाहते हैं, तो वेद के मन्त्रों के त्रिविध भाष्य वाले लेखों का अधिक से अधिक प्रचार करने का कष्ट करें। यहाँ एक मन्त्र का भाष्य दिया गया है, हम भविष्य में समय-समय पर ऐसे भाष्य प्रचारित करते रहेंगे।

ऋषि जयन्ती पर विवाद क्यों?


सम्मान के योग्य मेरे आर्य विद्वानों एवं आर्य महानुभावो!

 

बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि जहाँ एक ओर सार्वदोशिक आर्य प्रतिनिधि सभा एवं भारत सरकार के सहयोग से महर्षि दयानन्द की २००वीं जयन्ती, आर्य समाज स्थापना की सार्ध शताब्दी एवं स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान की शताब्दी के संयुक्त कार्यक्रमों की त्रिवार्षिक कार्यक्रम श्रृंखला का आयोजन बड़ी धूमधाम से कर रही है। इसके लिए ज्ञान ज्योति महोत्सव समिति का गठन भी हुआ है, उधर दूसरी ओर आचार्य लोकेश जी दार्शनेय यह अभियान पूर्ण पुरुषार्थ के साथ चला रहे हैं कि ऋषि दयानन्द के जन्म को २०० वर्ष अगले वर्ष अर्थात् वि० सं० २०८१ सन् २०२५ में होंगे। उनके अनुसार ऋषि का जन्म २० सितम्बर १८२५ को हुआ था। मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि आज आर्य विद्वानों को परस्पर झगड़ने, नये-नये विवाद खड़े करने, स्वयं को ही स्वतः प्रमाण मानने तथा विधर्मियों के आक्षेपों के समक्ष गाँधी के बन्दर बन जाने का रोग कहाँ से लग गया है? कुछ समय पूर्व श्री आदित्य मुनि जी एवं डॉ. ज्वलन्त कुमार जी शास्त्री के मध्य ऋषि उद्यान, अजमेर में एक संवाद वा शास्त्रार्थ भी हुआ था‚ उसका परिणाम तो क्या रहा, जानकारी में नहीं आया, परन्तु उसे परोपकारी पत्रिका में अक्षरश: प्रकाशित किया गया था। मैंने भी उसे पढ़ा था। मुझे प्रतीत हुआ कि डॉ. ज्वलन्त कुमार जी शास्त्री का पक्ष कुछ प्रबल था। श्री आदित्य मुनि जी और इनके गुरु पं० उपेन्द्र राव जी के कारनामों से मैं भलीभाँति परिचित हूँ। ये दोनों ही शास्त्रज्ञान से शून्य, परन्तु क्लर्क के कार्य में पूर्ण निपुण रहे हैं। कौन सा वेद मन्त्र कहाँ कितनी बार आया, इसकी तालिका बना कर ही वेद के मर्मज्ञ प्रसिद्ध हो गये। इनके अनुसार वेद पौरुषेय है, उसके कोई नियम नहीं है, उसके उपदेश जंगली हैं.....आदि-आदि। अब ऐसे व्यक्ति भी शोधनिपुण वैदिक विद्वान् के रूप में आर्यों को मान्य हैं, तब तो उन्हें समझाना ही व्यर्थ है। 


श्री आचार्य लोकेश जी दार्शनेय की कुछ मान्यताएँ यथा-मास का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष से होता है, तो सत्य है, जिसे सम्पूर्ण भारतवर्ष के ज्योर्तिविदों को मानकर कालदर्शकों की एकरूपता बनाने में सहयोग करना चाहिए, परन्तु सृष्टि संवत्, जिसका उल्लेख ऋषि दयानन्द के ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में किया है, को नकारना मुझे तो अभी स्वीकार नहीं हैं। इस विषय में रामलाल कपूर ट्रस्ट एवं आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट में मतभेद रहे हैं। रामलाल कपूर ट्रस्ट के विद्वान् संधिकाल जोड़कर १९७ करोड़ वर्ष वाला सृष्टि संवत् मानते रहे हैं और आ. सा. प्रचार ट्रस्ट के विद्वान् ऋ०भा० भू० वाला १९६ करोड़ वाला संवत् मानते रहे हैं। ‘दयानन्द सन्देश’ का इस विषय में सृष्टिसंवत् विशेषांक भी बहुत वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था और तभी मैंने उसे पढ़ा था। इसमें मुझे आचार्य श्री राजवीर जी शास्त्री का ही १९६ करोड़ वर्ष वाला पक्ष अधिक तर्कसंगत प्रतीत हुआ। दु:ख की बात यह है कि आर्यसमाज में आज भी दोनों पक्ष चल रहे हैं। 


आचार्य लोकेश जी दार्शनेय हमारे एक न्यासी प्रो० (डॉ०) वसन्त कुमार जी मदनसुरे, अकोला (महाराष्ट्र) द्वारा उनके पक्ष पर उठायी गयी किसी भी आपत्ति का कभी उत्तर नहींं देते। प्रो० वसन्त जी सामान्य व्यक्ति नहींं है, बल्कि उनका वैदिक ग्रन्थों का गम्भीर स्वाध्याय है और इंजीनियरिंग के प्रोफेसर होने से उनकी तर्क व विश्लेषण की क्षमता अच्छी है। इस कारण आचार्य दार्शनेय जी को उनसे संवाद करना चाहिए। मैं यहाँ २०० वर्ष वाले बिन्दु पर यह कहना चाहता हूँ कि निश्चित ही महर्षि के जन्म को २०८१ वि० सं० में ही दो सौ वर्ष पूर्ण होंगे, परन्तु टंंकारा के कार्यक्रम के मंच का चित्र प्रिय डॉ. मोक्षराज आर्य ने मुझे भेजा था। उस पर २००वाँ जन्मोत्सव लिखा था, न कि २००वीं जयन्ती। १९९ वर्ष पूर्ण होने पर २००वाँ जन्म दिवस तो हो ही जाता है, क्योंकि प्रथम जन्मोत्सव तो १८८१ में ही उनके जन्म के  समय मनाया होगा। तब २०८० में २००वाँ जन्मोत्सव क्यों नहीं होगा? हाँ, जन्म की २००वीं वर्षगाँठ नहींं होगी, वह १९९ वीं ही होगी। बैनरों पर २००वींं जयन्ती लिखने का तात्पर्य तो यही है कि २०० वर्ष के आगे व पीछे के कुल तीन वर्ष तक कार्यक्रम मनाने हैं। इस शृंखला का नाम २००वींं जयन्ती है, इसके अतिरिक्त शृंखला का नाम और क्या रखा जा सकता था? मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं न तो सार्वदेशिक सभा और ज्ञान ज्योति महोत्सव समिति का अधिवक्ता वा प्रवक्ता हूँ और न इनका कोई साधारण सा सदस्य ही हूँ, पुनरपि प्रत्येक अच्छे कार्य का समर्थन करना मेरा धर्म है, क्योंकि ऋषि दयानन्द मेरे भी तो आदर्श हैं।

मैं तो सभी विद्वानों से यही चाहूँगा कि वेदादि शास्त्रों पर जो घृणित आक्षेप विधर्मियों ने किए हैं वा कर रहे हैं, उनके लिए अपने बौद्धिक व शास्त्रीय बल का प्रयोग करें, न कि परस्पर विवाद खड़ा करके रहे-सहे संगठन को और भी खण्ड-खण्ड करें। हाँ, १२ फरवरी को जन्म दिन मनाना बौद्धिक दासता का प्रतीक है, इसे अवश्य दूर करके जब अगले वर्ष ऋषि जन्म को २०० वर्ष पूर्ण हो जायें, तब फाल्गुन कृ० दशमी को ही मनाना चाहिए और सरकार को भी यह बात बता देनी चाहिए। कहीं दीपावली, होली, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, श्रीरामनवमी को अंग्रेजी तिथियों से मनाने की कभी चाल न चली जाये? यह भारत है, जिसका मात्र शरीर ही बचा है, आत्मा तो कब का निकल कर कहीं चला गया है। मैंने सभी विद्वानों व सभाओं को विधर्मियों द्वारा प्राप्त आक्षेपों के १३४ पृष्ठ भेजे थे, उस पर सब मूक बधिर बने हैं, लेकिन जयन्ती पर अपनों से ही विवाद कर रहे हैं, युद्ध के लिए उद्यत हैं। हाँ‚ इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि ज्योतिष विषय पर आचार्य लोकेश जी‚ स्वामी श्री ब्रह्मानन्द जी सरस्वती‚ कामारेड्डी के साथ अधिकारी विद्वानों का प्रीतिपूर्वक संवाद अवश्य होना चाहिए।


मैं आचार्य लोकेश जी आदि से यह जानना चाहता हूँ कि जब लम्बे समय से फा० कृ० दशमी को ही सम्पूर्ण आर्य जगत् जन्मदिन मनाता रहा है और अब भारत सरकार भी आर्य समाज के इस अभियान में साथ है, तब आप सरकार के साथ-साथ सभी विधर्मियों को आखिर क्या बताना चाहते हैं? आप यह दर्शाना चाहते हैं कि देखो, आर्य समाजियों से बढ़ कर स्वजाति द्रोही और कोई नहीं हो सकता। आपके मनोरथ सिद्ध हो भी जायें, तो उससे लाभ किसको होगा? यदि मान लें कि यह जन्मतिथि मिथ्या भी हो, तो क्या धर्म रसातल को चला जायेगा? वेद व आर्य सनातन धर्म पर विधर्मी आक्रमण कर रहे हैं, आपकी पीढ़ी पाश्चात्य कुसंस्कारों की दासी बन चुकी हैं, ऋषियों व देवों को अपमानित किया जा रहा है, ऋषि दयानन्द के ही नहीं, अपितु सभी आर्ष ग्रन्थों पर घृणित आरोप लगाये जा रहे हैं, उससे आप को कोई पीड़ा नहीं होती। जन्मतिथि बदलने से क्या धर्म बच जायेगा? मानवता बच जायगी? 


जरा विचारो! जिस कार्य को करने से धर्म बचे, संगठन बचे, मानवता के प्राण बचें, उस पर कान धरो, अन्यथा आप व सम्पूर्ण संगठन देश में उपहास के पात्र बन कर रह जायेंगे। आप की इसी फूट के कारण ही आर्य समाज की तेजस्विता समाप्त हो चुकी है, कोई पूछता नहीं है। यह बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से सीखो। लडना है तो विधर्मियों से बौद्धिक युद्ध करो, अन्यथा मौन रहना ही अच्छा है। मैं मानता हूँ कि जन्मतिथि की यथार्थता की जाँच भी होनी चाहिए, परन्तु इस समय देश व संसार में वेदादि शास्त्रों की दशा, जो मृतप्राय है और सारा देश और स्वयं आर्य समाज भी बौद्धिक दास बन गया है, उसकी रक्षा करना सर्वाेपरि धर्म है। जब इस दशा की चर्चा विद्वानों से करता हूँ, तो वे मुझे ही कोसने लग जाते हैं और जयन्ती मनाने से वेद की रक्षा हो जायेगी, ऐसा मान बैठे हैं। पुनरपि मैं इन समारोहों के लिए सार्वदेशिक सभा एवं सम्पूर्ण आर्यजगत् को बधाई देता हूँ। ईश्वर सबको सद् बुद्धि प्रदान करे। 


–आचार्य अग्व्रित नैष्ठिक

पूरा लेख पढ़े– https://bit.ly/49Iu76R

No comments:

Post a Comment

ধন্যবাদ

বৈশিষ্ট্যযুক্ত পোস্ট

যজুর্বেদ অধ্যায় ১২

  ॥ ও৩ম্ ॥ অথ দ্বাদশাऽধ্যায়ারম্ভঃ ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥ তত্রাদৌ বিদ্বদ্গুণানাহ ...

Post Top Ad

ধন্যবাদ