সরস্বতী সূক্ত - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

10 February, 2024

সরস্বতী সূক্ত

সরঃ+বতুপ+ঈ(স্ত্রী লিঙ্গে) সরঃ জ্যোতির আধার, বতুপ অর্থে বিদ্যমান, আর তার সঙ্গে স্ত্রী লিঙ্গে "ঈ" প্রত্যয় দিয়ে নসম শব্দটি হল "সরস্বতী"। পরমপুরুষের অনাদি জ্ঞানের অপ্রকাশিত ভান্ডার অপার করুণা বলে বিগলিত হয়ে ধরিত্রীর বুকে নদীর ন্যায় প্রবাহিত হচ্ছে।

ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः, देवता - सरस्वती, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः

पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती। 

य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥ ऋग्वेद - मण्डल  1; सूक्त  3; मन्त्र  10

विषय

विद्वानों को किस प्रकार की वाणी की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में ईश्वर ने कहा है-

पदार्थ

(वाजेभिः) जो सब विद्या की प्राप्ति के निमित्त अन्न आदि पदार्थ हैं, उनके साथ जो (वाजिनीवती) विद्या से सिद्ध की हुई क्रियाओं से युक्त (धियावसुः) शुद्ध कर्म के साथ वास देने और (पावका) पवित्र करनेवाले व्यवहारों को चितानेवाली (सरस्वती) जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान आदि गुण हों, ऐसी उत्तम सब विद्याओं को देनेवाली वाणी है, वह हम लोगों के (यज्ञम्) शिल्पविद्या के महिमा और कर्मरूप यज्ञ को (वष्टु) प्रकाश करनेवाली हो॥१०॥

भावार्थ

सब मनुष्यों को चाहिये कि वे ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ से सत्य विद्या और सत्य वचनयुक्त कामों में कुशल और सब के उपकार करनेवाली वाणी को प्राप्त रहें, यह ईश्वर का उपदेश है॥१०॥ [स्वामी दयानन्द सरस्वती के संस्कृत भाष्य के आधार पर]

विषय

सरस्वती की आराधना का फल

पदार्थ

१. गतमन्त्र के अनुसार हममें दिव्यगुणों का विकास हो इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्यायशील बनकर सरस्वती - ज्ञानाधिदेवता की आराधना करें  , इसलिए मन्त्र में कहते हैं कि (सरस्वती) - ज्ञानाधिदेवता (नः) - हमारे लिए (पावका) - पवित्रता की देनेवाली हो । इस सरस्वती की आराधना से  , नैत्यिक स्वाध्याय से हमारा जीवन पवित्र हो । ['न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' - ज्ञान ही अनुपम पवित्रता का सम्पादन करनेवाला है ।] सारी मलिनता अज्ञानजन्य है  , अतएव अज्ञान ही सारे क्लेशों का क्षेत्र है । वस्तुतः अज्ञान ही क्लेश है और ज्ञान ही सुख व स्वर्ग है । 

२. यह ज्ञान पवित्रता के सम्पादन से जहाँ पारलौकिक निःश्रेयस [मोक्ष] का साधन बनता है  , वहाँ यह सरस्वती (वाजेभिर्वाजिनीवती) [अन्नैरन्नवती - यास्क] अन्नों से अन्नवाली है  , अर्थात् प्रशस्त अन्नों को प्राप्त करानेवाली है  , इसलिए लौकिक दृष्टिकोण से यह अभ्युदय की साधिका है । इस सरस्वती की आराधना से मनुष्य उन सात्विक अन्नों को प्राप्त करनेवाला होता है  , जो उसे शक्तिशाली बनाते हैं  , त्याग की भावनावाला बनाते हैं [वाज - शक्ति  , त्याग] । 

३. इस सरस्वती की आराधना करनेवाला (धियावसुः) - [कर्मवसुः निरु०] ज्ञानपूर्वक कमों से धन का सम्पादन करनेवाला व्यक्ति (यज्ञं वष्टु) - यज्ञ की कामना करे  , अर्थात् [क] स्वाध्यायशील पुरुष ज्ञानी तो बनता ही है  , [ख] वह ज्ञान प्राप्त करके प्रत्येक कर्म को प्रज्ञापूर्वक करता है  , [ग] इन कर्मों के द्वारा ही वह धन कमाने का ध्यान करता है और [घ] धनार्जन करके वह यज्ञों की ही कामनावाला होता है  , उस धन का विनियोग यज्ञों में ही करता है  , विलास की वृत्तिवाला नहीं बन जाता । 

भावार्थ

भावार्थ - स्वाध्याय मनुष्य को पवित्र बनाता है  , उत्तम धनों को प्राप्त कराता है । यह स्वाध्यायशील पुरुष प्रज्ञापूर्वक कर्मों से धनार्जन करके उस धन का यज्ञों में विनियोग करता है । [ हरिशरण सिद्धान्तालंकार]

विषय: वेद वाणी का वर्णन ।

भावार्थ ( वाजेभिः) बलों, ज्ञानों, ऐश्वर्यों और अन्नों से (वाजिनीवती) बल, ज्ञान, ऐश्वर्य और अन्नादि को सिद्ध करनेवाली क्रिया से युक्त (पावकाः) सबको पवित्र करनेवाली ( सरस्वती ) शुद्ध जलों से युक्त नदी के समान उत्तम ज्ञानमयी और गुरु परम्परा से बहनेवाली वेदवाणी और उसको धारण करनेवाले विद्वान् जन ( धियावसुः ) परस्पर संग उत्तम कर्म और ज्ञान के ऐश्वर्य को धारण करनेवाले होकर यज्ञ, शिल्प व्यवहार विद्याभ्यास और आत्मा और राष्ट्र को (वष्टु ) प्रकाशित करें। [ऋग्वेद संहिता भाषा भाष्य (पं. जयदेव शर्मा)]

ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - सरस्वती छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्। 

य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥  ऋग्वेद - मण्डल  1; सूक्त  3; मन्त्र  11

विषय: ईश्वर ने वह वाणी किस प्रकार की है, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थ: (सूनृतानाम्) जो मिथ्या वचन के नाश करने, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करने (सुमतीनाम्) अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की (चेतन्ती) समझने तथा (चोदयित्री) शुभगुणों को ग्रहण करानेहारी (सरस्वती) वाणी है, वही (यज्ञम्) सब मनुष्यों के शुभ गुणों के प्रकाश करानेवाले यज्ञ आदि कर्म (दधे) धारण करनेवाली होती है॥११॥

भावार्थ: जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्यायुक्त और छल आदि दोषरहित विद्वान् मनुष्यों की सत्य उपदेश करानेवाली यथार्थ वाणी है, वही सब मनुष्यों के सत्य ज्ञान होने के लिये योग्य होती है, अविद्वानों की नहीं॥११॥ ऋग्वेद भाष्य (स्वामी दयानन्द सरस्वती के संस्कृत भाष्य के आधार पर)

विषय

ईश्वर ने वह वाणी किस प्रकार की है, इस बात का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

या सूनृतानां सुमतीनां विदुषां चेतन्ती चोदयित्री सरस्वती अस्ति, सा एव वेदविद्या संस्कृता वाक् यज्ञं दधे दधाति॥११॥

पदार्थ

(या)=जो (सूनृतानाम्) सुतरामूनयत्यनृतं यत्कर्म तत् सून् तदृतं यथार्थं सत्यं येषां ते सूनृतास्तेषाम् = जो मिथ्या वचन के नाश करने, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करने, (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्बुद्धिर्येषां ते= अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की, (चेतन्ती) सम्पादयन्ती सती= समझने तथा, (चोदयित्री) शुभगुणग्रहणप्रेरिका= शुभगुण ग्रहण  से प्रेरित करने वाली,  (सरस्वती) वाणी= वाणी,  (अस्ति)=है, (स)= वह, (एव)= ही, (वेदविद्या)= वेदविद्या, (संस्कृता)= अत्यन्त परिमार्जित, (वाक्)= वाणी, (यज्ञम्) पूर्वोक्तम्=पूर्व में कहे गए गुणों को, (दधे) दधाति =धारण करने वाली  होती  है।

महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

जो निश्चित रूप से आप्तों के सत्य लक्षण हैं, जो पूर्ण विद्यायुक्त और छल आदि दोषों से रहित यथार्थ वाणी है, वह मनुष्यों के सत्य ज्ञान के लिए योग्य होती है, अन्यों के लिए नहीं॥११॥

विशेष

अनुवादक की टिप्पणी- महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार आप्त की परिभाषा-जो छलादि दोषरहित, धर्मात्मा, विद्वान् सत्योपदेष्टा, सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको 'आप्त' कहते हैं।

पदार्थान्वयः(म.द.स.)

(या) जो (सूनृतानाम्) मिथ्या वचन को नाश करनेवाली, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करनेवाली, (सुमतीनाम्) अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की (चेतन्ती) समझने तथा (चोदयित्री) शुभगुणों के ग्रहण करने से प्रेरित करनेवाली (सरस्वती) वाणी (अस्ति) है। (स) वह (एव)  ही (वेदविद्या) वेदविद्या है और (संस्कृता) अत्यन्त परिमार्जित (वाक्) वाणी है, (यज्ञम्) जो पूर्व में कहे गए गुणों को (दधे) धारण करने वाली  होती  है।

संस्कृत भाग

पदार्थः(महर्षिकृतः)- (चोदयित्री) शुभगुणग्रहणप्रेरिका (सूनृतानाम्) सुतरामूनयत्यनृतं यत्कर्म तत् सून् तदृतं यथार्थं सत्यं येषां ते सूनृतास्तेषाम्। अत्र 'ऊन परिहाणे' अस्मात् क्विप् चेति क्विप्। (चेतन्ती) सम्पादयन्ती सती (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्बुद्धिर्येषां ते सुमतयस्तेषां विदुषाम् (यज्ञम्) पूर्वोक्तम्। (दधे) दधाति। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। (अष्टा०३.४.६) अनेन वर्त्तमाने लिट्। (सरस्वती) वाणी॥११॥

विषयः- पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।

अन्वयः- या सूनृतानां सुमतीनां विदुषां चेतन्ती चोदयित्री सरस्वत्यस्ति, सैव वेदविद्या संस्कृता वाक् यज्ञं दधे दधाति॥११॥

भावार्थः(महर्षिकृतः)- या किलाप्तानां सत्यलक्षणा पूर्णविद्यायुक्ता छलादिदोषरहिता यथार्थवाणी वर्त्तते, सा मनुष्याणां सत्यज्ञानाय भवितुमर्हति नेतरेषामिति॥११॥

ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - सरस्वती छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। 

धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥  ऋग्वेद - मण्डल  1; सूक्त  3; मन्त्र  12

विषय

ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थ

जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है॥१२॥

भावार्थ

इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥१२॥ 

दो सूक्तों की विद्या का प्रकाश करके इस तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति के निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये। दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने अशुद्ध प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥ (स्वामी दयानन्द सरस्वती के संस्कृत भाष्य के आधार पर)


विषय: ज्ञान का महान् समुद्र

पदार्थ:-

१. गतमन्त्र के अनुसार आराधक के 'विचार  , उच्चार व आचार' को पवित्र करनेवाली यह (सरस्वती) - ज्ञानाधिदेवता (महो अर्णः) - एक महान् जल है । ज्ञान - प्रवाह से बहने के कारण जलरूप है । यह सरस्वती ज्ञान का समुद्र ही है । 
२. यह सरस्वती (केतुना) - ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (प्रचेतयति) - आराधक को प्रकृष्ट चेतना प्राप्त कराती है  , उसके हृदयान्तरिक्ष को ज्ञान के प्रकाश से उयोतित कर देती है ।
३. यह (सरस्वती) - वेदवाणी (विश्वा धियः) सम्पूर्ण ज्ञानों को (विराजति) - विशेषरूप से दीप्त करती है  , अर्थात् यह सब सत्यविद्याओं का आगार है  , ज्ञानों का कोश है । प्रभु ने मानव - उन्नति के लिए आवश्यक प्रत्येक सत्यज्ञान का इसमें प्रकाश किया है । उस पूर्ण प्रभु का दिया हुआ यह ज्ञान सचमुच पूर्ण ही है । इस महान् ज्ञान - समुद्र में तैरनेवाला पुरुष एक अद्भुत आनन्द प्राप्त करता है । संसार के सभी आनन्दों में इस आनन्द का स्थान सर्वोच्च है । 

भावार्थ - वेदवाणी ज्ञान का समुद्र है  , सब सत्य - विद्याओं का मूल है । यह अपने प्रकाश से आराधक के हृदय को प्रकृष्ट चेतना प्राप्त कराती है । 

विशेष - इस तृतीय सूक्त का आरम्भ द्वितीय सूक्त की समाप्ति पर वर्णित 'मित्रावरुण' की ही आराधना से होता है । 'मित्रावरुण' यह प्राणापान का भी नाम है । प्राणशक्ति मित्र है तो अपान वरुण है । प्राणशक्ति के होने पर मनुष्य मित्रता व स्नेह की वृत्तिवाला होता है । अपान के ठीक कार्य करने पर द्वेष भी मनुष्य से दूर रहता है । कोष्ठबद्धता की वृत्तिवाले ईर्ष्यालु  , द्वेषी व चिड़चिड़े होते हैं । प्राणापान की साधना से मनुष्य शुभ वृत्तिवाला बनता है [१] । इस साधना से अशुभ वासनाएँ दूर होती हैं [३] । इनको दूर करके मनुष्य प्रभु के साक्षात्कार के योग्य होता है [४] । उसके अन्दर उत्तरोत्तर दिव्यगुणों की वृद्धि होती है [७] । इन दिव्यगुणों के विकास के लिए ही वह सरस्वती की आराधना करता है  , ज्ञान का पुजारी बनता है [१०] । यह सरस्वती की आराधना  , ज्ञानरूप परमैश्वर्यवा9ले प्रभु की उपासना उसे 'सुरूप' बनाती है । इस वर्णन से अगला सूक्त आरम्भ होता है - [(हरिशरण सिद्धान्तालंकार)]

ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः, देवता - सरस्वती, छन्दः - निचृज्जगती, स्वरः - निषादः

[भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥]

इ॒यम॑ददाद्रभ॒समृ॑ण॒च्युतं॒ दिवो॑दासं वध्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे॑। 

या शश्व॑न्तमाच॒खादा॑व॒सं प॒णिं ता ते॑ दा॒त्राणि॑ तवि॒षा स॑रस्वति ॥१॥  

ऋग्वेद - मण्डल  6; सूक्त  61; मन्त्र  1

विषय: अब चौदह ऋचावाले एकसठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में यह वाणी क्या देती है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थ: हे (सरस्वति) विदुषी (या) जो (इयम्) यह (वध्र्यश्वाय) बढ़ानेवाले घोड़ों से युक्त (दाशुषे) दानशील के लिये (रभसम्) वेग (ऋणच्युतम्) ऋण से छूटे (दिवोदासम्) विद्या प्रकाश के देनेवाले को (अददात्) देती है तथा (शश्वन्तम्) अनादि वेदविद्याविषय जो कि (अवसम्) रक्षक तथा (पणिम्) प्रशंसनीय है उसको (आचखाद) स्थिर करती है, वह (ते) आपके (तविषा) बल से (ता) उन (दात्राणि) दानों को देती है, यह जानो ॥१॥

भावार्थ

जो स्त्री विद्या शिक्षायुक्त वाणी को ग्रहण करती है, वह अनादिभूत वेदविद्या को जानने योग्य होती है, वह जिसके साथ विवाह करे, उसका अहोभाग्य होता है, यह जानने योग्य है ॥१॥


विषय

सरस्वती नदी से यन्त्र संचालक वेग और वल प्राप्ति के समान प्रभु और वेदवाणी से ऐश्वर्य, ज्ञान और शक्ति का लाभ ।

भावार्थ: हे ( इयम् ) यह सरस्वती, वेगयुक्त जल, वाणी, नदी जिस प्रकार ( वध्र्यश्वाय ) अश्व अर्थात् वेग से जाने वाले प्रवाह को रोकने या उसको और अधिक बढ़ाने वाले पुरुष को ( ऋण-च्युतं ) जल से प्राप्त होने वाला, ( दिवः दासम्) तेज या विद्युत् का देने वाला ( रभसम् ) वेग ( अददात् ) प्रदान करता है । और ( यः ) जो नदी ( शश्वन्तम् ) निरन्तर चलने वाली और ( पणिं ) व्यवहार योग्य, उत्तम ( अवसं ) गति को (आचखाद ) स्थिर रखती है और उसके ( ता तविषा दात्राणि ) वे २ नाना प्रकार के बलयुक्त दान हैं उसी प्रकार यह सरस्वती, वाणी वा ज्ञानमय प्रभु ! ( वध्र्यश्वाय ) अपने इन्द्रिय रूप अश्वों को बांधकर संयम से रहने वाले और ( दाशुषे ) अपने आपको उसके अर्पण करने वाले भक्त को वा ज्ञानदाता विद्वान् को, ( ऋण-च्युतं ) ऋण से मुक्त करने और ( दिवोदासं ) ज्ञान प्रकाश देने वाले ( रभसं ) कार्य साधक बल और ज्ञान ( अददात् ) प्रदान करती है और ( या ) जो ( शश्वन्तम् ) अनादि काल से विद्यमान, नित्य, ( अवसम् ) ज्ञान, रक्षा बल, और (पणिम् ) व्यवहार साधक, वा स्तुत्य ज्ञान वा ज्ञानवान् पुरुष को (आचखाद ) स्थिर कर देती है । हे ( सरस्वति ) उत्तम ज्ञान वाली वाणि ! ( ते ) तेरे ( तविषा ) बड़े ( ता दात्राणि ) वे, वे, अनेक दान हैं । स्त्रीपक्ष में – योषा वै सरस्वती वृषा पूषा ॥ शत० २ ॥ ५॥१॥ ११ ॥ ( इयम् ) यह स्त्री ( दाशुषे ) अन्न, वस्त्र वीर्य सर्वस्त्र देने वाले ( वध्र्यश्वाय ) इन्द्रिय बल को बढ़ाने वाले, वीर्यवान् पुरुष के लिये ( रभसम् ) दृढ़ ( ऋण-च्युतम् ) पितृऋण से मुक्त कर देने वाले ( दिवः-दासं ) प्रसन्नतादायक पुत्र प्रदान करती है । ( अवसं ) रक्षक (पणिं ) स्तुत्य पति को ( शवन्तम् ) पुत्रादि द्वारा सदा के लिये ( आचखाद ) स्थिर कर देती है, स्त्री के वे नाना बड़े महत्वयुक्त ( दात्रा ) सुखमय प्रदान है ।

ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सरस्वती छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

इ॒यं शुष्मे॑भिर्बिस॒खाइ॑वारुज॒त्सानु॑ गिरी॒णां त॑वि॒षेभि॑रू॒र्मिभिः॑। 

पा॒रा॒व॒त॒घ्नीमव॑से सुवृ॒क्तिभिः॒ सर॑स्वती॒मा वि॑वासेम धी॒तिभिः॑ ॥२॥ 

ऋग्वेद - मण्डल  6; सूक्त  61; मन्त्र  2

विषय: फिर वह क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थ

हे विद्वानो ! जो (इयम्) यह (शुष्मेभिः) बलों से (बिसखाइव) कमल के तन्तु को खोदनेवाले के समान (तविषेभिः) बलों और (ऊर्मिभिः) तरङ्गों से (गिरीणाम्) मेघों के (सानु) शिखर को (अरुजत्) भङ्ग करती है उस (पारावतघ्नीम्) आरपार को नष्ट करनेवाली (सरस्वतीम्) वेगवती नदी को (धीतिभिः) धारण और (सुवृक्तिभिः) छिन्न-भिन्न करनेवाली क्रियाओं से (अवसे) रक्षा के लिये जैसे हम लोग (आ, विवासेम) सेवें, वैसे तुम भी इसको सदा सेवो ॥२॥

भावार्थ

इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कमलनाल तन्तुओं को खोदनेवाला कमलनाल तन्तुओं को प्राप्त होता है, वैसे ही पुरुषार्थी मनुष्य उत्तम विद्या को प्राप्त होते हैं और जैसे बिजुली मेघ के अङ्गों को छिन्न-भिन्न करती है, वैसे ही सुन्दर शिक्षित वाणी अविद्या के अङ्गों और संशयों का नाश करती है ॥२॥ (स्वामी दयानन्द सरस्वती के संस्कृत भाष्य के आधार पर)


भावार्थ

जैसे नदी ( बिसखा:-इव ) कमल के मूल उखाड़ने वाले के समान ( उर्मिभिः तविषेभिः ) बलवान् तरंगों से ( गिरीणां सानु अरुजत् ) पर्वतों वाले चट्टानों को तोड़ डालती है और जिस प्रकार विद्युत् ( शुष्मेभिः ) बलयुक्त प्रहारों से ( गिरीणां सानु ) मेघों या पर्वतों के शिखरों को अनायास तोड़ फोड़ डालती है, उसी प्रकार ( इयं ) यह वाणी (शुष्मेभिः) बलयुक्त (तविषेभिः) बड़े २ ( ऊर्मिभिः ) तरंगों से युक्त उल्लासों से ( गिरीणां ) स्तुति वा वाणियों के प्रयोक्ता विद्वान् पुरुषों के ( सानु ) प्राप्तव्य ज्ञान को (अरुजत् ) तोड़ देती है । उसे (पारावतघ्नी) परब्रह्मस्वरूप ‘अवत’ अर्थात् प्राप्तव्य पद तक पहुंचने वाली, वहां तक का ज्ञान देने वाली (सरस्वतीम् ) प्रशस्त ज्ञानयुक्त वेद वाणी को ( सु-वृत्तिभिः ) उत्तम मलनाशक, पापशोधक ( धीतिभिः ) अध्ययनादि-कर्मों से ( आ विवासेम) अच्छी प्रकार सेवन करें, उसका निरन्तर अभ्यास करें । [पं. जयदेव शर्मा]  


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