शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार - ধর্ম্মতত্ত্ব

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18 March, 2024

शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार

 जैमिनि मत समीक्षा


वेद के सांख्यदर्शन आदि छह उपांग है। उनमें वेदान्तदर्शन छठा उपांग गाना जाता है। यह ब्रह्मविद्या का ग्रन्थ है। इसके रचयिता वेदों के महाविद्वान् श्री वेदव्यास है। वेदव्यास के पिता पाराशर और माता सत्यवती थी, जो एक मल्लाह की लड़की थी। श्री वेदव्यास का नाम कृष्णद्वैपायन था और वेदाभ्यास के कारण उनका नाम "वेदव्यास" प्रसिद्ध हुआ। उनका गौत्र-नाम "बादरायण" है।


श्री वेदव्यास जी ने वेदान्तदर्शन प्रथमाध्याय के तृतीय पाद में प्रसङ्गवश शूद्रों को ब्रहाविद्या एवं वेद पढ़ने के अधिकार की चर्चा की है जिसका यहाँ सूत्रनिर्देश पूर्वक उल्लेख किया जाता है- जैमिनि का मत- 1. मध्वादिष्वसम्भावदनधिकारं जैमिनिः ।। वेदान्त दर्शन 1.3.31


अर्थ- (मधु-आदिषु) मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषि है, जिनका संहिता-प्रन्थों में मन्त्रों के साथ उल्लेख किया जाता है। उन वैदिक ऋषियों में (असम्भवात्) किसी शूद्र का उल्लेख न होने से (अनधिकार जैमिनिः) जैमिनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं। 2. ज्योतींषि भावाच्च ।। वेदान्त 1.3.32।।


अर्थ- (च) और ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्षों का ही अधिकार है। जैसे कि यजुर्वेद में (ज्योतिष भावात) तीन ज्योतियों का ही वर्णन है-


यस्मान्न जातः परोऽन्योऽस्ति

य आविवेश भुवनानि विश्वा।

प्रजापतिः प्रजया संरराणः

त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी। 18.36।।


अर्थ- जिससे पर महान् कोई नहीं है, जो सब भुवनों लोकों में व्यापक है, प्रजापति परमेश्वर जो कि 16 सोलह कला सम्पन्न है, वह प्रजा को कर्मफल प्रदान करता हुआ तीन ज्योतियों से अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य से संयुक्त रहता चतुर्थ शुद्ध से नहीं। है, अन्यत्र वेद में भी लिखा है- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। (अथर्ववेद 9.71.1) अर्थात् ऋषि कहता है कि मैंने वर प्रदान करने वाली वेदमाता की स्तुति की है, जो कि उत्तम प्रेरणा करने वाले द्विजों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को ही पवित्र करने वाली है, शूद्रों को नहीं। वेदव्यास का मत- 

1. भावं तु बादरायणोऽस्ति हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.3211

 

अर्थ- (भावं तु बादरायणः) बादरायण अर्थात् वेदव्यास ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन में अधिकार का भाव मानते है (अस्ति, हि) क्योंकि मधुच्छन्दा आदि वैदिक ऋषियों में शूद्र ऋषियों का भी अस्तित्व है। जैसे दासीपुत्र कवष-ऐलूष अपोनप्नीय सूक्त का ऋषि है (ऐतरेय ब्राह्मण 2.3.1) और वेद में शूद्रों को वेदाध्ययन का स्पष्ट उल्लेख है-


यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः, ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ।। यजुर्वेद 26.211


अर्थ- वेद उपदेश करता है- हे मनुष्यो। जैसे में तुम्हें इस कल्याणी वाणी वेद का सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता हूँ वैसे तुम भी, ब्राहाण, क्षत्रिय, अर्थ वैश्य, शूद्र, स्व अपने सेवक और अरण जंगली मनुष्यों को भी वेद का उपदेश किया करो। 

2. शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यते हि।। वेदान्त दर्शन 1.3.3411 अर्थ- (शुक् अस्य तदनादश्रवणात) इस जानश्रुति नामक शूद्र का ब्रह्मविद्या एवं वेदाध वेदाध्ययन में अनादर सुनाई देने से वह शुक्-शोक से व्याकुल हो गया है वह शुक्-शोक से ह शुक-शोक से आद्रवित होने से ब्रह्मविद्या के उपदेश के लिये रेक्क नामक गुरु के पास द्रुत गति से गया (सूच्यते हि) इससे सूचित होता है कि वह जानश्रुति शोक से द्रवित होने से शूद्र है- शुच् द्रवः = शूद्र-शूद्र है। उस शूद्र को रेक्क ऋषि ने ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अतः शूद्र को भी ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है। (द्रष्टव्य छान्दोग्य उपनिषद 4.1.1) और ये शूद्र आदि शब्द गुणवाचक है, जातिवाचक नहीं, जैसे कि महाभाष्यकार पतञ्जलि लिखते है- सर्व एते शब्दा गुणसमुदायेषु वर्त्तन्ते ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रः। (महाभाष्य 5.1.115) अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये गुणसमुदायविशेष के वाचक है, जातिवाचक नहीं। पढ़ना-पढाना आदि गुणसमुदाय का नाम ब्राह्मण है। ऐसे ही सभी वर्षों में समझे। . क्षत्रियत्वगतेश्वोत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात् ।। वेदान्त 1.3.35।। अर्थ- (अत्तस्त्र क्षत्रियगतेः च) जानश्रुति पौत्रायण पहले शूद्र था, किन्तु गुण और कर्म के कारण वह फिर क्षत्रिय गति को प्राप्त हो गया। इससे यह सूचित होता है कि शूद्र आदि वर्ण गुण और कर्म से सिद्ध होते हैं और शूद्र को भी ब्रहाविद्या एवं वेदाध्ययन का अधिकार है।


यह क्या पता कि जानश्रुति पौत्रापण गुण और कर्म से क्षत्रिय हो गया था? इसका उत्तर यह है- (वेत्ररथेन लिङ्गात) जानश्रुति के पास चैत्ररथ था- अश्र्वतर (खच्चर) वाला रथ चैत्ररथ कहलाता है, जो कि क्षत्रिय के पास ही होता है।

यदि शूद्र का ब्रह्मविद्या में अधिकार है तो उस जानश्रुति का उपनयन संस्कार क्यों नहीं किया? इसका उत्तर यह है-


4. संस्कारपरामर्शात् तदभावाभिलापात् ।। (वेदान्तदर्शन 1.3.36)


अर्थ- (संस्कार-परामर्शात) शास्त्र के अध्ययन में उपनयन संस्कार का सम्बन्ध बतलाया जाता है. इसलिये यह विचार उत्पन्न हुआ, किन्तु (तदभाव-अभिलापात) कहीं उस उपनयन संस्कार के अभाव का भी कथन मिलता है। जैसे- तं होपनिन्ये (शतपथ 1.5.3.13) यहाँ उपनयन संस्कार का विधान है और तान् हानुपनीयेतदुवाच....... (छान्दोग्य उपनिषद् 5.11.7) अर्थात् प्राचीन शाल आदि ब्राह्मणों को कैकेय अश्वपति ने वैश्वानर-विद्या का उपनयन संस्कार के बिना ही उपदेश किया था। अतः उपनयन संस्कार के बिना भी ब्रहाविद्या की शिक्षा की जा सकती है। अतः ब्रह्मविद्या के अधिकार में उपनयन संस्कार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।


गुण और कर्म ही उच्च और अवच का कारण है, जन्म नहीं। जैसे- 5. तदभावनिर्धारणे च प्रवृत्तेः ।। (वेदान्तदर्शन 1.3.37)


अर्थ- (तदभावनिर्धारणे च) और उस वेदाध्ययन विरोधी गुण और कर्म के अभाव का निर्धारण निश्चय हो जाने पर (प्रवृत्तेः) वेद-अध्यापन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। क्योंकि गुण ओर कर्म ही उच्च और अवच वर्ण का कारण है। जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है- सत्यकाम जाबाल हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर बोला- में आपके पास ब्रह्मचारी रहूंगा, यदि आपकी आशा हो तो में आपके पास रहूं। आचार्य गौतम ने पूछा- हे सोग्या तेरा क्या गोत्र है? वह कहने लगा- मेरा क्या गोत्र है, यह में नहीं जानता। मैंने अपनी माता जबाला से पूछा था, उसने कहा- में अनेक लोगों की परिचारिणी (सेविका) रही हूँ और यौवनकाल में मैंने तुझे प्राप्त किया है, इसलिये में नहीं जानती कि तेरा क्या गोत्र है? हे गुरुवर । इसलिये में तो सत्यकाम जाबाल हूँ। गुरु गौतम ने कहा- यह बात कोई अब्राहाण नहीं कह सकता, अर्थात तू ब्राह्मण है। हे सोग्य। तू समिधा ले आ, मैं तुझे अपने समीप रखूंगा तुझे वेद की शिक्षा करूंगा, क्योंकि तू सत्यभाषण से विचलित नहीं हुआ है।


इस प्रकार यहाँ अज्ञात कुल शिष्य का भी वेद अध्ययन में अधिकार का विधान किया गया है। सत्यभाषण के गुण से ही अज्ञात कुल सत्यकाम जाबाल को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ। वेदाध्ययन में चा चारों वर्षों के बालकों का अधिकार है, किन्तु गुण-कर्म से हीन का नहीं। जैसे-


6. श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात् स्मृतेश्च ।। (वेदान्तदर्शन 1.3.38)


अर्थ- (श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात) गुण और कर्म से हीन किसी को भी वेद श्रवण और अध्ययन का प्रतिषेध किया गया है।

जैसे-

1. नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः । (श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.22) अर्थात् अप्रशान्त चित्तवाले पुरुष को

ब्रह्मविद्या का दान नहीं करना चाहिये।


2. विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मिl असूयकानृजवेऽयताय न मा ब्रूयां App Spinbie न मा ब्रूयां वीर्यवती यथा स्याम ।। (निरुक्त 2.14)


अर्थ- विद्या ब्राह्मण विद्वान् के पास आई और कहने लगी- तू मेरी रक्षा कर, में तेरी शेवधि खजाना हूँ। तू असूयक निन्दक, अनुजु कुटिल, अपत असंयमी जन को मेरा उपदेश मत करना, जिससे में सदा वीर्यवती बलशालिनी बनी रहें।


3. पृथिवीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णा दद्यान्त्र देयं त्विदमसंयताय ।। (महाभारत शान्तिपर्व)


अर्थ- रत्नों से पूर्ण इस पृथिवी का दान कर देवे, किन्तु असंयत असंयमी जन को ब्रह्मविद्या का उपदेश न करे। भाव यह है कि ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार चारों वर्णों का है, किन्तु गुणहीन जन का नहीं। जैसे- एतरेय ग्रन्थ की रचना की, जो ऋग्वेद की सर्वप्रथम महीदास शूद्र था, किन्तु उसने ऋग्वेद को पढकर ऐतरेय ब्राह्मण नामक व्याख्या है। महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि तक ऋषियों के मतों का सम्मान किया है, किन्तु यहाँ ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन विषयक जैमिनि मुनि का मत वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं है। वेदव्यास और ऋषि दयानन्द के अनुसार चारों वर्णों के गुणवान बालकों को ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार है, गुणहीन को नहीं। पण्डित सुदर्शन देव आचार्य

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