ओ३म्
मेरी प्रथम दृष्टि में- ऐतरेयब्राह्मणविज्ञान
लेखक आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
सम्पादकद्वय प्रोफेसर वसन्तकुमार मदनसुरे B. Tech. (विद्युत् अभि.) M.Tech. Ph.D एवम्
डॉ. मोक्षराज आर्य एम.ए. (वैदिक वाङ्मय), आचार्य (धर्मशास्त्र) Ph.D
प्रथम संस्करण: चैत्र शुक्ला, श्रीरामनवमी 2069, दो हजार प्रतियों रविवार (01 अप्रैल 2012)
प्रकाशक
श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास (वैदिक एवं आधुनिक भौतिक विज्ञान शोध संस्थान) वेद विज्ञान मन्दिर, भागलभीम, भीनमाल जिला-जालोर (राजस्थान) पिन- 343029 फोन: 02969 292103, 9829148400, 7742419956
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सम्मान्य प्रबुद्ध पाठकगण! आप सभी सम्भवतः पूज्य आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के वेद विज्ञान अनुसंधान कार्य से परिचित हैं। अनेक वेदभक्त आर्य जनों, विद्वानों की प्रायः यह आशंका रही है कि पता नहीं आचार्य जी क्या शोध कर रहे हैं? क्या मिलेगा? अब तक क्या कुछ प्राप्त हुआ? कुछ भी परिणाम प्रकाशित क्यों नहीं कराया ? क्या आचार्य जी कोई यन्त्र, विमान आदि बना रहे हैं ? ईश्वर प्राप्ति के लक्ष्य को छोड़कर इसमें फंसना मूर्खता नहीं है ? इससे क्या होगा, इसकी क्या आवश्यकता है? इस प्रकार के कई विचार, व्यंग, शंकायें हम यदा कदा सुनते रहे हैं। इस सन्दर्भ में हम अपने समस्त वेदभक्त विद्वद्वन्धुओं, दानदाताओं और वैज्ञानिकों को यह निवेदन करना चाहते हैं कि परमपिता परमात्मा की असीम कृपा एवं आप सबके सहयोग से आचार्य जी ने ऐतरेय ब्राह्मण का प्रारम्भिक वैज्ञानिक भाष्य पूर्ण करके उपर्युक्त सभी आशंकाओं को दूर करने तथा भविष्य की महत्वपूर्ण योजना को आप सभी महानुभावों को विदित कराने हेतु अत्यन्त महत्वपूर्ण इस पुस्तक को महान् मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जी के पावन जन्म दिवस पर पूर्ण किया है। इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ने से न केवल उपर्युक्त प्रश्नों का समुचित उत्तर मिल सकेगा अपितु इस बात का स्पष्टतः आभास सबको हो सकेगा कि अब आचार्य जी का कार्य केवल उनके वेद को अपौरुषेय व सर्वज्ञानमय सिद्ध करने के संकल्प तक ही सीमित न रहकर समस्त वैदिक वाङ्मय को समझने की प्राचीन वैज्ञानिक आर्ष परम्परा के पुनरुद्धार का भी महान् हेतु बनेगा। इस लघु परन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ से न केवल वैदिक विद्वानों अपितु उच्च भौतिक वैज्ञानिक महानुभावों को भी एक नूतन आशा की ज्योति दिखायी देगी जिसके बारे में सम्पूर्ण रूप से अभी तक विचारा नहीं गया है।
मान्यवर। आचार्य जी ने वेद साधना के महान् यज्ञ में अपने जीवन की आहुति दे दी है तथा अहर्निश अपने को तपा रहे हैं। शक्ति से अधिक जो परिश्रम कर रहे हैं, उसे उनके निकटस्थ हम लोग ही जानते हैं। अब अपनी लक्ष्य सिद्धि तक ये न कुछ लिखना चाहते है और न कुछ व्याख्यानादि देना चाहते हैं। तब प्रत्येक वेदभक्त चाहे वे आर्य समाजी हों अथवा पौराणिक अथवा विशुद्ध विज्ञान के अध्येता हों, सबको उत्साह के साथ तन, मन व धन से विशेष सहयोग करना चाहिए। आर्यो! अब आपके केवल आपके स्वयं के आर्थिक सहयोग से ही बात नहीं बनेगी अपितु हर दानदाता को कार्यकर्ता की भाँति आगे आकर आचार्य जी को सर्वविध निश्विन्त करने का महान् पुरुषार्थ करना होगा।
आशा है आप सभी हमारे अनुरोध को स्वीकार कर इस ज्ञान विज्ञान के महान यज्ञ में अपनी-2 पवित्र आहुति देने हेतु उत्साह से आगे बढ़कर अपनी महान् वैदिक संस्कृति की विश्व में प्रतिष्ठित करने के साथ वर्तमान विज्ञान को शान्ति विधायक बनाने में हमारे साथ मिलकर चलेंगे।
इसी आशा के साथ
डॉ. पदमसिंह चौहान न्यास मंत्री
सम्पादकीय
(अ)
ओ३म्।
सुविज्ञानं चिकितुशे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
तयोर्यत्सत्यं यतरवृजीयस्तदित्सोमो अवति हन्त्यासत्।।
ऋग्वेद 7/104/12, अथर्व. 8/4/12
प्रमाणित तथ्य है कि कोई भी विद्या शाखा अकेली जीवित नहीं रह सकती बल्कि विभिन्न शाखायें एक साथ अस्तित्व में आती हैं। आधुनिक युग में भी गणित, भौतिकी, रसायन, जैविकी इत्यादि विज्ञान की विभिन्न शाखायें एक साथ विकसित होती गयी। इसी के साथ इन पर आधारित अन्य बहुत सी व्यवहारिक व तकनीकी पक्ष विकसित होते गये। इसके अतिरिक्त यह भी सिद्ध है कि एक ही विद्याशाखा के तकनीकी एवं व्यवहारिक के अतिरिक्त सैद्धान्तिक, प्रायोगिक व आनुसंधानिक पक्ष भी होते हैं। यदि इन सभी पक्षों में पूर्ण समन्वय न हो तो कालान्तर में वह विद्याशाखा लुप्त हो जाती है। हमारे देश में प्राचीन वैदिक काल में ये सभी विद्यायें अपने-2 पक्षों के साथ पूर्ण विकसित र्थी। जिस समय संसार के अन्य देशों में विद्या-विज्ञान का विशेष स्थान न था, उस समय हमारे देश में ये चरम स्थान पर थीं। रामायण व महाभारत कालीन अस्त्र-शस्त्र, विमान विद्या, शिल्पविद्या, चिकित्सा विज्ञान अत्युच्च कोटि का था। कुरुक्षेत्र के हथियारों के अवशेष व रामसेतु पर विकिरणों का प्रभाव यह बतलाता है कि उस समय नाभिकीय ऊर्जा का भी उपयोग होता था। इसमें विशेषता यह भी थी कि वे अस्त्र नियंत्रित भी हो सकते थे, साथ ही उन्हें निष्क्रिय करने वाले अन्य अस्त्र भी विद्यमान थे, जो आज नहीं है। युद्ध में गम्भीर घायलों की त्वरित व पूर्ण चिकित्सा की व्यवस्था होती थी। देव, राक्षस, गन्धर्व, असुर आदि वर्गों की विमान विद्या अब की अपेक्षा भी विशिष्ट थी।
सत्यार्थ प्रकाश की अनुभूमिका में महर्षि दयानन्द जी सरस्वती लिखते हैं, "यह सिद्ध बात है कि पाँच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद मत से भिन्न दूसरा कोई भी मत नहीं था।" इसी वेद मत के कारण न केवल आर्यों का सृष्टि से लेकर महाभारत काल तक सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य था अपितु इसी वेद मत से प्रसूत उच्च कोटि का ज्ञान विज्ञान भी भूमण्डल में प्रसिद्ध था। महाभारत युद्ध के कारण न केवल आर्यों का राज्य नष्ट हुआ अपितु इनकी ज्ञान विज्ञान की परम्परा भी धीरे-2 दुर्बल होते 2 लुप्त सी हो गयी। वैदिक परम्परा के अनुसार प्राणियों के तीन प्रकार के शरीर (स्थूल, सूक्ष्म व कारण) तथा पाँच कोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय) होते हैं। मनुष्य के उत्तरोत्तर श्रेष्ठता व शुद्धता निर्माण हेतु इन सबको उन्नत करना अनिवार्य है, जिससे भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति सम्भव होती है। इस कार्य के लिए मनुष्य को सृष्टि एवं सृष्टि सृजेता ईश्वर दोनों के उपयोग की आवश्यकता होती है। इनका ही यथायोग्य व्यवस्थित ज्ञान ही क्रमशः पदार्थ विज्ञान (Physical Science) एवं आध्यात्मिक विज्ञान कहलाता है। इन दोनों के ही सम्मिलित सदुपयोग से ही मानव जीवन सार्थक व आनन्दमय होता है। प्राचीन वैदिक विज्ञान इन दोनों का ही सम्मिलित व सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वांगीण रूप है परन्तु आज उस वैदिक विज्ञान के सर्वांगीण अध्ययन की महती आवश्यकता है। वर्तमान युग में इसके लिए महर्षि दयानन्द जी सरस्वती ने एक मार्गदर्शक का काम किया है। हमें इस हेतु आधुनिक विज्ञान को भी गम्भीरता से समझना होगा। महर्षि दयानन्द जी सरस्वती ने वेदों के पारमार्थिक एवं व्यवहारिक भाष्य किये परन्तु वे समयाभाव के कारण सांकेतिक भाष्य ही कर सके, जैसा कि आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक अपनी इस पुस्तक 'मेरी प्रथम दृष्टि में ऐतरेयब्राह्मणविज्ञान में लिखा है। काश! महर्षि को पूर्ण आयु मिलता और वे विस्तृत भाष्य कर पाते. साथ ही ब्राह्मणग्रन्थ, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, दर्शन, उपनिशद्, निरुक्त आदि समस्त आर्श साहित्य का भाष्य महर्षि कर जाते तो निश्चित ही भूखण्ड में भारत के वैदिक विज्ञान का सूर्य चमक रहा होता परन्तु दुर्भाग्यवश यह सब नहीं हो पाया। महर्षि के अनुयायी महर्षि की भावना को समझे बिना वेद का नाम लेने वाले रह गये। महर्षि ने कहा था कि अपरा विद्या का ही उत्तम फल परा विद्या है। वे अपने वेद भाष्य के जगह-2 पदार्थ विद्या, सृष्टि विद्या और शिल्प विद्या का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार के वैदिक अनुसंधान हेतु आर्य विद्वान् पं. भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कॉलर, पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक, स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ, स्वामी ब्रह्ममुनि जी, पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड, आचार्य उदयवीर जी शास्त्री, स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती, डा. सत्यव्रत जी राजेश जैसे दिवंगत एवं डा. रामनाथ जी वेदालंकार, आचार्य डा. विशुद्धानन्द जी मिश्र इत्यादि वर्तमान विद्वान् आग्रह करते रहे हैं। इस युग के विज्ञान के शीर्ष व्यक्ति सर अल्बर्ट आइंस्टाइन भी कहते हैं कि 'विज्ञान के बिना धर्म अंधा है और धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है।'
प्रख्यात आर्य विद्वान् स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ अपनी लघु पुस्तिका 'वेद परिचय' में वेद में विज्ञान समझने के लिए विज्ञान की शब्दावली, परिभाषायें आदि की जानकारी होना जरूरी समझते हैं। उदाहरण के रूप में आधुनिक रसायनशास्त्र की अंग्रेजी भाषा में लिखी किसी पुस्तक को एक अंग्रेजी भाषा का स्नातकोत्तर पढ़ तो सकेगा परन्तु समझ नहीं सकेगा। इस प्रकार केवल व्याकरण वा साहित्य पढ़कर ही वेद के विज्ञान को नहीं समझा जा सकेगा। इसके लिए इसके साथ वैज्ञानिक प्रज्ञा एवं परिभाषाओं की भी महती आवश्यकता होगी।
आज दुर्भाग्य यही है कि साहित्य क्षेत्र में पारंगत अथवा केवल व्याकरण के विद्वान् वेद, ब्राह्मणग्रन्थ एवं दर्शनों को समझने व समझाने का प्रयास करते हैं। वैज्ञानिक प्रज्ञावान् कोई दिखायी देता नहीं। अतः महर्षि का 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है स्वप्न मात्र बनकर रह गया है।
सौभाग्य से आर्य जगत् में आचार्य श्री अग्निव्रत जी नैष्ठिक ने वेद, ब्राह्मणग्रन्थ व दर्शनों के वास्तविक उद्देश्य को महर्षि दयानन्द जी महाराज की मूल भावना के अनुसार समझने का प्रयास किया है व कर रहे हैं। आपने ऐतरेय ब्राह्मण का प्रारम्भिक वैज्ञानिक भाष्य अभी-2 पूर्ण किया है। हम अभी तक सुनते आये हैं कि ब्राह्मणग्रन्थों में सृष्टि विज्ञान है परन्तु परन्तु अभी तक इस विषय में किसी ने कुछ स्पष्ट किया हो, ऐसा जानकारी में नहीं आता। अब आचार्य जी का यह प्रारम्भिक भाष्य भी उपलब्ध सभी भाष्यों से विशिष्ट है। हाँ, इतना अवश्य है कि मैं विशुद्ध विज्ञान का व्यक्ति होने के कारण मेरी समझ में यह प्रारम्भिक भाष्य नहीं आता क्योंकि इसकी शब्दावली वैदिक ढंग की है, पुनरपि ऐसा संकेत मिलता अवश्य है कि इसके अन्तिम भाष्य में वैदिक विज्ञान का चमत्कारी स्पष्ट विवेचन मिल सकेगा। इस पुस्तक में आचार्य जी ने जो प्रश्न विशुद्ध विज्ञान के उठाये हैं और यह दावा किया है कि इनका उत्तर इस प्रारम्भिक व्याख्यान में भी उपलब्ध है परन्तु अभी उसे पूर्ण गोपनीय रखा है। केवल चार प्रश्नों के उत्तर नमूने के लिए सार्वजनिक भी कर दिये हैं। इस पुस्तक में वे एक सौ प्रश्न साधारण स्तर के नहीं हैं बल्कि कई प्रश्न अत्यन्त गम्भीर हैं। जब इन गम्भीर प्रश्नों का उत्तर इस प्रारम्भिक भाष्य में ही विद्यमान हैं तब निश्चित है कि अन्तिम व्याख्यान में आधुनिक विज्ञान के लिए एक नया प्रकाश मिल सकेगा। उधर वैदिक विद्वानों के सम्मुख जो 43 बिन्दु दिये हैं, वे भी साधारण स्तर के नहीं हैं। उनमें से कई बिन्दुओं पर अभी तक विचार भी नहीं गया है। उन बिन्दुओं का विवेचन अन्तिम भाष्य में होगा, जैसा कि आचार्य जी का दावा है, तो यह सम्पूर्ण वैदिक जगत् में एक क्रान्ति लायेगा और वह क्रान्ति महर्षि दयानन्द जी की भावना को ही साकार करेगी। आचार्य जी के प्रश्नों एवं उनके कथनानुसार ऐतरेय ब्राह्मण केवल सृष्टि उत्पत्ति का ही ही विज्ञान वि नहीं बल्कि सृष्टि विज्ञान के विभिन्न पक्षों यथा सृष्टि उत्पत्ति, कण भौतिकी, परमाणु-नाभिकीय भौतिकी, प्लाज्मा भौतिकी, खगोल भौतिकी आदि का विवेचक ग्रन्ध है। आचार्य जी ने इस लघु पुस्तिका में अपने कार्य का पूरा लेखा जोखा दिया है, जिसमें आगामी सम्भावित परिणाम, मार्ग की कठिनाइयाँ, वर्तमान स्थिति एवं विश्व में प्रचलित विभिन्न विद्याओं की विचारधाराओं का विशद विवेचन किया है। एक चर्चा के दौरान कि अपना वैदिक विज्ञान आधुनिक विज्ञान से शैली से किस प्रकार संगत होगा? आचार्य जी का कहना है- "वैदिक विज्ञान को आधुनिक से संगत करने का अन्तिम भाष्य में पूर्ण प्रयास करूँगा पुनरपि पूर्ण संगति नहीं आये तब भी विशेष चिन्ता नहीं करनी है।" वे एक उदाहरण द्वारा इस बात को स्पष्ट करते हैं-
'आज चिकित्सा क्षेत्र में ऐलोपैथी, आयुर्वेदिक, होम्योपैथी, यूनानी, प्राकृतिक व योग (व्यायाम, प्राणायाम) चिकित्सा आदि अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। सभी पद्धतियों की प्रक्रिया व सिद्धान्तों में भी भारी भेद है। ऐलोपैथी पद्धति कई रोगों का कारण जीवाणुओं को मानती है और इस पद्धति से वे चिकित्सा भी करते हैं तथा सफल भी होते हैं। सर्जरी तो इस समय इसी पद्धति की विश्व विख्यात है। तपेदिक (टी.बी.) की उत्तम चिकित्सा वर्तमान में केवल इसी पद्धति में उपलब्ध है। उधर आयुर्वेदिक पद्धति के सिद्धान्त से वात-पित्त-कफ की विषमता रोगों का कारण है। यह पद्धति इसी को लेकर जीर्ण व असाध्य माने जाने वाले रोगों की स्थायी चिकित्सा करने में सक्षम है। यदि ऐलोपैथी वाले चिकित्सक को कहा जाये कि 20 प्रकार के कफ रोग, 40 प्रकार के पित्त रोग तथा 80 प्रकार के वात रोग होते हैं तो वह चिकित्सक हँसेगा ही परन्तु आयुर्वेदज्ञ इन्हें इसी रूप में समझकर दूर करता ही है। उधर प्राकृतिक व यौगिक चिकित्सा केवल शरीर शोधन एवं व्यायाम, प्राणायाम से ही रोग निर्मूलन करने में सक्षम हैं। केवल शोधन से मलेरिया, टाइफाइड, डेंगू, चिकनगुनियां, दमा, मधुमेह, हृदयरोग, गठिया आदि रोग दूर हो सकते हैं. ऐसा कोई कोई भी ऐलोपैथी वाला कभी स्वीकार नहीं कर सकता है परन्तु यह है, पूर्ण सत्य। आचार्य जी का मानना है. 'परिणाम से ही पद्धति की प्रामाणिकता की परीक्षा होती है। यदि आधुनिक वैज्ञानिकों और आर्य भट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर आदि की गणनायें मेल खाती हैं, तब यदि उनकी पद्धतियाँ, परिभाषायें एवं शब्दावली भिन्न मले ही हो तो भी क्या समस्या है? हाँ, परिणाम अवश्य आना चाहिए, केवल विज्ञान-2 की रट लगाने अथवा अव्यवहारिक पद्धति को बतलाने से कुछ सिद्ध नहीं होगा।' आचार्य जी का यह मत मुझे उचित ही प्रतीत होता है। आशा है ऐतरेय के अन्तिम भाष्य से एक ऐसा वैदिक विज्ञान प्रकाशित होगा जो व्यवहारिक, प्रायोगिक एवं तकनीकी का उत्पादक होगा। हाँ, इस भाष्य से मूलभूत विज्ञान का ही प्रकाशन होगा, तकनीक का आविष्कार उच्च स्तरीय तकनीकी विशेषज्ञ ही इसकी सहायता से कर सकेंगे, जैसा कि आचार्य जी ने इस पुस्तक में लिखा भी है। हाँ, यह कार्य अति कष्ट साध्य है। महर्षि दयानन्द जी सरस्वती भी सत्यार्थ प्रकाश की अनुभूमिका में लिखते हैं कि विज्ञान गुप्त हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है। अतः किसी को भी इस कार्य में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
अन्त में पाठकों से निवेदन है कि इस पुस्तिका को ध्यानपूर्वक पढ़कर ही इस कार्य को विशिष्टता से जाना जा सकेगा। आशा है पाठक इसे पढ़कर, कार्य की महत्ता को समझकर आचार्य जी का सर्वविध सहयोग में तत्पर होंगे तथा दूसरों को भी इस हेतु प्रेरित करेंगे।
इसी आशा व विश्वास के साथ
प्रो. वसन्तकुमार मदनसुरे, अकोला (महा.)
(ब)
समस्त वैदिक वाङ्मय एवं साहित्य की अनुपलब्धता एक बड़ी समस्या है। मूल संहिता भाग सहित प्रमुखतया 13 शाखायें ही उपलब्ध हैं, शेष 1108 शाखायें अप्राप्त हैं। उपवेद, प्रतिशाख्य, याज्ञिकी व शिल्प सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ या तो लुप्त हो गये या जला वा चुरा लिये गये। ग्रन्थों का यथाक्रम अप्राप्त होना प्रथम समस्या है।
दूसरी समस्या है, प्राप्त ग्रन्थों में विद्वानों की गति की। आचार्य कैयट, कुमारिल भट्ट, भास्कर, वाचस्पति मिश्र, महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसी निष्ठा, समर्पण, योग्यता व परम्परा के लोप से परे तक देखने की दृष्टि का अभाव होना। अर्थ-काम में आसक्त लोगों को धर्म का ज्ञान नहीं होता अर्थात् तत्वों के सूक्ष्म स्वरूप व ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता। अधार्मिक विद्वानों का अन्तःकरण पवित्र न होने से उसमें ईश्वरीय दिव्य प्रेरणायें अवरूद्ध हो जाती हैं। एक सच्चा साधक आकाश में विद्यमान अक्षर व शब्दराशि को जानकर अनेक रहस्यों से पर्दा हटा देता है। वह आर्ष दृष्टि न प्राप्त होना दूसरी समस्या है अर्थात् उपलब्ध ग्रन्थों को ही समझ लें तो भी बहुत उपकार संसार का सम्भव है।
उक्त दोनों समस्याओं के विद्यमान होने पर भी यदि कहीं कोई वैदिक ग्रन्थ समझने-समझाने की आशा व्यक्त करता हो तो क्यों न आर्य जाति में उल्लास होगा? आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक वर्षों से सनातन वैदिक धर्म को अपनी स्तरीय सेवायें प्रदान कर रहे हैं। उन्होंने सृष्टि के मूल कारणों को खोजते हुए सूक्ष्मतम तत्वों के स्वरूप को प्रकट करने का यत्न किया है। वैदिकों एवं भौतिक विज्ञानियों को आचार्य जी ने अनेक प्रश्न व समाधान प्रस्तुत किये हैं। वस्तुतः यह उनका अद्वितीय पुरुषार्थ है, जो व्यापक आकार ले रहा है।
इतिहास से ज्ञात होता है कि एक-2 तत्व या सूत्र की खोज से संसार भर के वैज्ञानिक विश्वस्तरीय ख्याति तथा आशातीत दानवैभव प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु आचार्य अग्निव्रत बिना किसी लौकिक स्वार्थ के निरन्तर जनहितार्थ एक नहीं सैकड़ों तत्व व सूत्रों का उद्घाटन करने में समर्थ दिखायी दे रहे हैं। इनके इस कार्य का आकलन भविष्य करेगा।
"मेरी प्रथम दृष्टि में ऐतरेयब्राह्मणविज्ञान" पुस्तक को पढ़कर आप यह अनुमान कर सकेंगे कि जो प्रश्न वैदिकों एवं भौतिक विज्ञानियों के समक्ष आचार्य जी ने उठाये हैं, वे कितने गम्भीर व महत्वपूर्ण हैं। जिन विषयों की ओर भौतिक विज्ञानी अभी सोच भी नहीं पाये हैं, उस ओर भी उन्होंने संकेत किया है। जिन्हें वैज्ञानिक अधूरा जानते हैं उसे पूर्णता की ओर अग्रेसित करने का विश्वास प्रकट किया है। इसी प्रकार वैज्ञानिक जिन विषयों को साधिकार जानते हैं उनमें ऐसा परिष्कार व भाव उत्पन्न किया है, जिससे वे समस्त प्राणियों के प्रति हितकारी सिद्ध हों।
इस पुस्तक में साधारण विषयों के ही संकेत हैं, गूढ़तम सिद्ध विषयों को प्रकट करने का समय अभी नहीं आया है। जब ऐतरेय ब्राह्मण का अन्तिम वैज्ञानिक भाष्य हो जायेगा तब सारा विद्वत्समुदाय आश्चर्यचकित होगा। गूंढ़ विषयों पर अनुसंधान की प्रक्रिया में उनका ईश्वरभक्त होना विशेष सहायक रहा है। कुछ प्रकरण तो ऐसे उपस्थित हुए जिसे समझने में उन्हें एकाधिक सप्ताह भी बीत गये तथा अनेक स्थल क्रमशः सहज ही सुलझते गये। इस प्रक्रिया में उनका कोई पूर्वाग्रही पक्ष नहीं रहा, जिससे तालमेल बिठाने में उन्हें उलझन हुई हो बल्कि ब्राह्मण ग्रन्थ की मौलिकता प्रकट करने का ही आग्रह रहा। प्रकरण का स्पष्ट होना उनके हृदय में किसी महोत्सव से कम नहीं होता था। उनकी विद्या साधना से यह भी उजागर हुआ है कि ऋषिगण अपनी विधा को किस प्रकार परम गोपनीय ढंग से सुरक्षित रखते थे? ऊपरी स्तर पर जो साधारण वाक्य प्रतीत होते थे, उनमें कितने रहस्य सिद्धान्त छिपे हैं? इसका अनुमान अब हम सभी कर सकेंगे। ब्राह्मणों के शब्दार्थ समझने से ज्यादा दुरूह है उसके पीछे छुपे विज्ञान को जानना।
ऐतरेय ब्राह्मण में नरबलि के तुल्य प्रतीत होने वाले प्रकरण कितने रहस्यमयी व उपकारी हो सकते हैं तथा उन रहस्यों के न जानने से कितने पाप होते रहे हैं? यह सब मूल की भूल से उपस्थित आर्यों को दुःखी करने वाले स्थल अब उनकी भावना व वेद की दृष्टि के अनुरूप खुल गये हैं, इससे हमें अपनी संस्कृति विरासत के प्रति गर्व का अनुभव होगा।
ऐतरेय ब्राह्मण के इस अनन्तिम भाष्य को पढ़कर यह तथ्य भी उजागर हो सकेगा कि जो थोड़े-बहुत वेद-शास्त्र उपलब्ध हैं, उनसे भी भरपूर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि इस कार्य से ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रति संस्कृतज्ञों की अरुचि समाप्त होगी।
ग्रन्थों से प्रक्षिप्त अंश निकालने की आवश्यकता व होड़ पर पुनः विचार करना होगा। ब्राह्मण ग्रन्थों में ऐसा करने पर विशेश गौर करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि जिन शास्त्रीय स्थलों को प्रक्षिप्त कहते हैं, वे नासमझी के कारण निकाल दिये जायें। यदि ऐसा पाप हुआ तो प्रकरण का क्रम विच्छेद होने से उपयोगी रहस्य हमेशा के लिए निरर्थक हो जायेगा, ऋषियों का उद्देश्य प्रभावित हो जायेगा। ...... किं ऋचा करिष्यति। ऐसे प्रक्षिप्त धारणा वाले विद्वानों की ऋचा क्या करेगी? वेदोक्त सप्त मर्यादाओं के साक्षात्रूप, नरपुङ्गव, भगवान् श्रीराम के जन्मोत्सव दिवस पर इस पुस्तक का प्रणयन न्यास के लिए गौरवपूर्ण व बधाइयों का हेतु है।
आर्यशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने ऋषि-मुनियों की रसायन, आयुध, यन्त्र, शोध प्रभृति प्रयोगशालाओं की रक्षा की। उक्त आदर्श को ध्यान में रखते हुए ऋषियों के तप से संग्रहित सृष्टि विद्या को प्रकट करने का आचार्य श्री का प्रयत्न स्तुत्य है।
इस पुस्तक से अनेक सामयिक प्रतिक्रियायें शम होंगी।
डॉ मोक्षराज विनीत
अजमेर
ओ३म्
प्रारम्भिक निवेदन
मेरे आदरणीय पाठकगण ! वर्षों से आप सब महानुभाव मेरे कार्य के विषय में सुनते, जानते रहे हैं। चाहे वह निन्दा के रूप में अथवा प्रशंसा के रूप में। हमारे न्यास से जो भी साहित्य अब तक प्रकाशित हुआ है, उसमें से सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक 'सृष्टि का मूल उपादान कारण विशुद्ध विज्ञान पर लिखी पुस्तक थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद "Basic Material Cause of the Creation" भी प्रकाशित हुआ। उसके बाद पिछले वर्ष प्रकाशित पुस्तकें "बोलो! किधर जाओगे? एवं 'सत्यार्थप्रकाश उभरते प्रश्न, गर्जते उत्तर पुस्तकें सिद्धान्त समीक्षा से सम्बन्धित थीं। इसके अतिरिक्त लगभग सभी पुस्तकें 'मांसाहार धर्म, अर्थ और विज्ञान के आलोक में के अतिरिक्त अपने वेद विज्ञान अनुसंधान कार्य को प्रचारित करने के लिए हमारे पास कोई प्रचारक उपलब्ध नहीं है, इसलिए विज्ञापक साहित्य भी लिखना मेरे लिए अनिवार्य हो गया था। फिर भी वह साहित्य मात्र एक विज्ञापन नहीं है अपितु वेद विज्ञान अनुसंधान की महत्ता और प्रक्रिया को बतलाने का महत्वपूर्ण साधन भी है। अब जब मेरे ऐतरेय ब्राह्मण का रफ व्याख्यान पूर्ण हो चुका है और अनेक महानुभाव उतावलेपन से मेरे कार्य का परिणाम शीघ्र आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं तथा मुझसे बार-2 पूछ रहे हैं कि कितना काम और कितना शेष है? लगभग 8 वर्षों से हुआ अनेक दानदाता व सहयोगी कार्यकर्ता यह सब जानने की इच्छा करें, तो उन्हें इसका पूर्ण अधिकार है। उन्हें नहीं पता कि मैं किस कठिन प्रक्रिया से गुजरता हुआ एकाकी अपने कार्य में लगा हुआ हूँ। मेरी कठिनाइयां निम्न लिखित हैं-
1. मैं वैदिक साहित्य के पठन-पाठन की वर्तमान में प्रचलित सभी परम्पराओं से असन्तुष्ट ही हूँ। मेरी दृष्टि में कोई भी परम्परा वैदिक आर्ष परम्परा को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती प्रतीत नहीं होती। लगभग सभी पौराणिक परम्पराएं अपने अध्येताओं को कर्मकाण्डोपजीवी मात्र बनाने वाली हैं। इधर आर्य समाज का विद्वत्समाज भी महर्षि देव दयानन्द जी महाराज की प्रतिभा को पहचानने में असमर्थ सा प्रतीत हो रहा है और वह केवल पुरोहित. उपदेशक तैयार करने तक ही सीमित हो गया है।
तो कहीं-2 सरकारी परीक्षाएं दिलाकर सरकारी कर्मचारी बनाने के साधन हो रहे हैं परन्तु वेद की महती वैज्ञानिकता को समझने-समझाने की न तो इच्छा दिखायी दे रही है और न प्रतिभा। उधर महर्षि को अपना कार्य अधूरा छोड़कर जाना पड़ा, तब उस अधूरे कार्य को उन्हीं की भावना के आलोक में समझना एक बड़ी चुनौती है। मेरा इस कार्य में कोई मार्गदर्शी अथवा साथी नहीं है। आज जिस प्रकार का साहित्य सृजन आर्य समाज में हो रहा है, वैसा यदि चाहता तो अब तक बहुत कुछ लिख चुका होता परन्तु मेरा ऐसा प्रयोजन कभी नहीं रहा। मैं सब कुछ स्पष्ट, प्राचीन ऋषियों का ही नहीं अपितु सृष्टि-सृजेता परमात्मा के वैदिक विज्ञान को समझने पुनः सबको समझाने की भावना रखता हूँ। हाँ. मैं अपने पौराणिक जो स्वयं को सनातनी कहते हैं को यह अवश्य सूचित करना चाहूँगा कि भले ही आज का अभागा आर्य समाज अपने आदर्श भगवत्पाद महर्षि दयानन्द जी एवं वेद को भूलता जा रहा है आर्य समाज का हर प्रकार से पतन शोचनीय अवस्था तक हो चुका है, जिसकी मैंने इस पुस्तक में यत्र-तत्र चर्चा की है, पुनरपि मेरे इस वेद कार्य के लिए आर्थिक व मानसिक सहयोग करने वाले विशुद्ध आर्य समाजी ही हैं। कुछ पौराणिक विचारधारा वाले महानुभाव जिन्हें पूर्ण पौराणिक भी नहीं कहा जा सकता, मेरे व्यक्तिगत सहयोगी वह भी नगण्य संख्या में स्थानीय स्तर पर कोई 2 अवश्य हैं। मैंने अपना साहित्य पौराणिक जगत् के लगभग सभी शंकराचार्यों, कई ख्यातिर्लब्ध महामण्डलेश्वरों को भेजा था परन्तु वे तो श्रीमन्त बने अपने ही मद एवं गहरी मोहनिद्रा में मग्न प्रतीत होते हैं। जब मैंने अपने पाली मारवाड़, कार्यालय से प्रथम विज्ञप्ति श्रीमान् अशोक जी सिंघल तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रिय अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद् को भेजी थी, तो उन्होंने बहुत प्रशंसा भरा पत्र लिखा था और ऐसा करते हुए भी आर्थिक सहयोग में असमर्थता दर्शा दी। वे ईंट पत्थरों के भवनों वा मेलों पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकते हैं परन्तु वेद के इस महान् कार्य के लिए विश्व हिन्दू परिषद् के पास इतनी निर्धनता है। विश्व हिन्दू परिषद् के ही एक अन्य प्रसिद्ध धर्माचार्य श्रीमद् आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी महाराज मेरा साहित्य प्राप्त होते ही धन्यवाद व आभार व्यक्त करते हैं। लगभग एक-डेढ़ वर्ष पूर्व उन्होंने दूरभाष पर कहा था- "आचार्य जी! भगवान् दयानन्द जी महाराज के उत्तराधिकारी आर्य समाज ने जितने बलिदान किये हैं, उतने भारत की अन्य किसी हिन्दू संस्था ने नहीं किये। कई तो ऐसे बलिदानी आर्य पुरुष होंगे, जिनको कोई जानता भी नहीं होगा। आपका कार्य बहुत महान् है पुनरपि मेरा निवेदन है कि आप आर्य समाज के गुमनाम बलिदानी वीरों का इतिहास भी लिखने का कष्ट करें। यह बहुत बड़ा आवश्यक व महत्वपूर्ण कार्य है। मैंने प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु जी से भी यही आग्रह किया है।" पिछले वर्ष मैंने उन्हें 'बोलो! किधर जाओगे?' नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक भेजी। उन्होंने प्राप्त करते ही मुझे फोन करके धन्यवाद दिया परन्तु अभी तक मेरे साहित्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्शायी और न इस वेद साधना के महान् यज्ञ में किसी पौराणिक धर्माचार्य, नेता वा पूंजीपति ने अपनी किसी प्रकार की आहुति का प्रस्ताव रखा। मुझे आश्चर्य है कि जो पौराणिक जगत् वेद, ऋषि, मुनि, देवी, देवता, यज्ञ, भारतीय संस्कृति-सभ्यता की बात करता है, जिसके पास लाखों साधुओं की भीड़ है, जिसके मन्दिरों में अपार सम्पदा का भण्डार है, वह पौराणिक जगत् क्यों नहीं अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग वेद विद्या के लिए करने के बारे में विचार भी करता? हाँ, जैसलमेर के स्व. श्रीमान् संत हरवंशसिंह जी निर्मल (श्री भादरिया जी महाराज) ने अवश्य लाखों की सम्पत्ति का प्रस्ताव भेजा था परन्तु उन्होंने मुझे वहां उन्हीं के मन्दिर में रहने का आग्रह किया था। वैसे स्वतंत्र रूप से वही राष्ट्रिय राजमार्ग 15 पर एक सौ बीघे भूमि, भवन आदि का भी प्रस्ताव भेजा था परन्तु मैंने इस आशंका से उसे स्वीकार नहीं किया कि कहीं उनके ट्रस्टी लोग महाराज जी के दिवंगत होने के पश्चात् हस्तक्षेप न करें। मैं उस महात्मा को अवश्य महान् उदार एवं विद्याप्रेमी मानता हूँ। सचमुच ऐसा प्रस्ताव तो किसी आर्य संस्था ने भी नहीं भेजा परन्तु अब समस्त पौराणिक जगत् में कोई ऐसा महात्मा प्रतीत नहीं होता। मैं समस्त पौराणिक बन्धुओं से निवेदन करूँगा कि मेरे भाई! इस पुस्तक में यद्यपि मैंने आर्य समाजी व पौराणिक दोनों ही के प्रति अपनी वेदना भी कहीं 2 दर्शायी है परन्तु क्या आप नहीं सोचते कि पौराणिक भाइयों ने देवता स्वरूप भगवान् दयानन्द जी को बार-2 विष दिया और अन्त में मार ही डाला परन्तु क्या कहीं किसी आर्य समाजी भले ही सच्चे आर्य समाजी नहीं हों, तो भी उन्होंने क्या किसी पौराणिक धर्माचार्य की हत्या की? उन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन अवश्य किया, वह भी इस कारण क्योंकि मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है और भारत के पतन का एक बहुत बड़ा कारण है परन्तु फिर भी क्या किसी आर्य समाजी ने कभी कोई मन्दिर तोड़ा? हाँ, हैदराबाद में मन्दिरों को बचाने में आर्य समाजी ही अग्रणी रहे, बलिदान हुए, जेलों में यातनाएं सहीं। सब किसके लिए सहा? बोलो! मेरे भाई! आर्य समाजी इतने बुरे नहीं है, जितनी आप गाली देते हैं। मेरे जैसे उदार आर्य समाजी को भी विशुद्ध वैदिक कार्य के लिए आप कभी कोई सहयोग नहीं कर पाये। कोई रुचि तक नहीं ले पाये। मैं तो फिर भी न केवल आप और आर्य समाज अपितु समस्त मानव जाति जो आज खण्ड-2 हो रही है, को एकता के सूत्र में बांधने हेतु एक सेतु बनाना चाहता हूँ और वह सेतु होगा- महर्षि दयानन्द जी महाराज से पूर्व जाते-2 आद्य महर्षि ब्रह्मा जी महाराज के द्वारा प्रस्तुत वेद विज्ञान का, जो मूलतः स्वयं परमपिता परमात्मा की देन है।
2. मेरे मित्र वैज्ञानिक महानुभाव जिस प्रकार से मुझसे शीघ्रता की आशा करते हैं, उनसे मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि आपकी पद्धति से हमारी यह पद्धति बहुत भिन्न है। आपके यहां जो भी वैज्ञानिक साहित्य उपलब्ध है, वह स्पष्ट भाषा में है। वहां electron का अर्थ electron नामक कण विशेष ही है, अन्य कुछ भी नहीं। Water का अर्थ जल ही है, अन्य कुछ भी नहीं। Physicist का अर्थ भौतिकशास्त्री ही है, अन्य कुछ भी नहीं। energy का अर्थ ऊर्जा ही है. अन्य कुछ भी नहीं। मेरे मान्य वैज्ञानिक महानुभाव! जरा, आप इस बात पर विचार करने का कष्ट करें कि मानलें यदि electron शब्द का अर्थ cow, horse, fire, earth, sound आदि, water शब्द का अर्थ God, elephant, wave आदि, Physicist का अर्थ energy. electricity, mind आदि एवं energy शब्द का अर्थ rider, wind, donkey आदि सैकड़ों अर्थ होते। आपको कोई यह भी बताने वाला भी नहीं होता कि कौन सा अर्थ कहाँ ग्रहण करना है? कोई आपका साथी, सहयोगी भी न होता तब आपको फिजिक्स पढ़ने में कितनी कठिनाई होती? इस पर आप यह कह सकते हैं कि फिर वैदिक भाषा ऐसी क्यों है, जिसमें एक पद के अनेक बेमेल अर्थ भी निकल सकते हैं? आपका यह प्रश्न सर्वथा उचित है, जिसका उत्तर भी मैं अपने अन्तिम व्याख्यान की भूमिका में दूँगा।
मेरे पास उपलब्ध कोश में अग्नि पद के केवल ब्राह्मण ग्रन्थों से ही 771 सन्दर्भ दिये हैं। उन सन्दर्भों में क्या 2 अर्थ निकलता है, यह भी विचारना। इन सन्दर्भों के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द जी महाराज द्वारा वेद भाष्य के 'अग्नि' शब्द के अनेक अर्थ यथा- राजा, सेनापति, आचार्य, परमात्मा, जीवात्मा, विद्वान्, आग, विद्युत् आदि दिये हैं। इन सबमें से केवल एक को छांटकर प्रयोग करना। कोई मार्गदर्शक नहीं. कोई साथी सहयोगी नहीं। सर्वथा एकाकी परमात्मा के विश्वास पर अर्थ का चयन करना। इनमें से भी कोई अर्थ अनुकूल प्रतीत न हो तो अपने आप अर्थ की ऊहा करनी। इसी प्रकार अन्य शब्दों के भी अनेकों अर्थों में से इसी प्रकार एक अर्थ का चयन करके सभी शब्दों के चयनित अर्थों में परस्पर संगति लगानी, फिर उस समन्वय के बाद उनकी वैज्ञानिकता सिद्ध करनी। कहीं गणित का आश्रय नहीं, प्रयोग-प्रेक्षण की कोई सुविधा नहीं। इसके बावजूद भी ऐसा विज्ञान निकालना जिस पर आप वैज्ञानिक महानुभाव अपना गणित, प्रयोगादि प्रक्रियाएं भी लागू कर सकें। आप ही विचारें कि मेरा कार्य आपके कार्य की अपेक्षा कितना कठिन है?
3. इसके अतिरिक्त यदि किसी शोधकर्ता को संस्था भी चलानी पड़े, वित्तीय प्रबन्धन भी करना पड़े, पूर्ण निश्चित आयस्रोत न हो, तब यह कार्य कितना कठिन होगा। शरीर भी बलवान् व पूर्ण स्वस्थ न हो। हाँ, शरीर से काम चलाने के लिए उस पर भी बहुत समय व्यायाम. प्राणायाम एवं सावधानी पूर्ण नियत दिनचर्या आदि के साथ-2 उचित खानपानादि का भी बहुत ध्यान रखना पड़ता है। आज के बेईमान व भ्रष्ट युग में यह भी चिन्तन रहे कि कहीं पाप से अर्जित धन न आ जाये अन्यथा मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है।
सोचें! तब मेरी कैसी कठिनाई है? इन तीन बाधाओं को अब तक तो ईश्वर की कृपा से पार पाता आ रहा हूँ। वित्त व्यवस्था मेरे सहयोगी महानुभाव कर रहे हैं और उन्हें ही करते रहना होगा। वर्तमान वैज्ञानिक क्षेत्र में मेरे प्रोत्साहक व मार्गदर्शक हैं विश्व प्रसिद्ध थ्योरिटीकल एस्ट्रो फिजिसिस्ट प्रो. ए.के. मित्रा साहब, जो भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (BARC), मुम्बई में थ्योरिटीकल एस्ट्रोफिजिक्स में सेक्शन हैड हैं। भारत में थ्योरिटीकल एस्ट्रोफिजिक्स क्षेत्र में कार्य करने वाले सर्वप्रथम वैज्ञानिक तथा कॉस्मिक स्रोतों में अल्ट्रा हाई इनर्जी गामा किरणों के उत्पादन में फोटो मैसोन की भूमिका को दर्शाने वाले विश्व के प्रथम खगोल विज्ञानी हैं। ब्लैक होल थ्यौरी की विश्व प्रचलित अवधारणा के स्थान पर ECO (Eeternally Collapsing Objects) की नयी अवधारणा प्रस्तुत करने वाले विश्व के प्रथम भौतिक वैज्ञानिक साथ ही बिग बैंग मॉडल को चुनौती देने वाले विश्व प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक हैं। आप 25 अगस्त 2004 को प्रथम परिचय से ही मेरे अति निकट मित्रवत् बन गये हैं। दो अन्य अन्तर्राष्ट्रिय वैज्ञानिक जिनमें एक हैं प्रो. ए.आर. राव साहब, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फण्डामेन्टल रिसर्च (TIFR) कोलाबा, मुम्बई में एस्ट्रोनॉमी एण्ड एस्ट्रो फिजिक्स विभाग के हैड हैं। आप डेनिस स्पेश रिसर्च इंस्टीट्यूट. डेनमार्क में एक वर्ष 1987-88 में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे हैं तथा विभिन्न उपग्रहों यथा PSLV-D3, GSLV-D2, Coronods-poton (Russion) के महत्वपूर्ण भागों में मुख्य अन्वेषणकर्ता तथा इस वर्ष छोड़े जाने की सम्भावना वाले उपग्रह PSLV-C22 के भी मुख्य अन्वेषणकर्ता हैं। दूसरे हैं भारत के प्रख्यात पार्टिकल फिजिसिस्ट प्रो. ए.के. मण्डल साहब, ये भी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फण्डामेन्टल रिसर्च (TIFR) कोलाबा, मुम्बई में प्रोफेसर तथा न्यूट्रिनो आब्जर्वेट्री के सम्पूर्ण भारत के हैड हैं। इसके साथ ही विश्व की सबसे बड़ी भौतिकी प्रयोगशाला CERN (जिनेवा, स्विटजरलैण्ड) में इस समय चल रहे महाप्रयोग में भारत की ओर से 70 वैज्ञानिक व इंजीनियरों के दल के भी आप ही मुखिया हैं। मैं वैदिक विद्वानों को बड़ी विनम्रता से अवगत कराना चाहता हूँ कि इन तीनों महान् वैज्ञानिकों में अतीव विनम्रता, सरलता, आत्मीयता, अतिथि सत्कार तथा सहयोग का भाव देखा है, जो दुर्दैव से संस्कृतज्ञ वा वेदज्ञ कहाने वालों में दुर्लभ हो गया है। वस्तुतः मुझे इस क्षेत्र में कार्य करने के मुख्य प्रेरक मान्यवर प्रो. मित्रा साहब ही हैं और उनसे मिलाने का एकमात्र श्रेय है- N.P.C.I.L. मुम्बई से सेवानिवृत्त एडीशनल चीफ इंजीनियर श्री विजयकुमार जी भल्ला को। इनके अतिरिक्त मैं मुम्बई, सूरत विश्वविद्यालय आदि के जिन भी भौतिकविदों से मिलता हूँ, सबमें मैंने मेरे प्रति अपार मैत्री भाव देखा है। मैं वर्तमान विज्ञान के सिद्धान्तों से पूर्णतः सहमत नहीं हूँ परन्तु इनकी भावना से अभिभूत हूँ। काश! ऐसी भावना सभी वैदिक विद्वान् कहाने वालों में आ जाये, तो मेरा काम कितना सरल हो जाता परन्तु जैसा भी वातावरण हो, मुझे अनवरत अपने पथ पर बढ़ना ही है। मान्यवर मित्रा साहब एवं मान्यवर राव साहब तो मेरे इस वेद विज्ञान मन्दिर में 9 अक्टूबर 2011 को पधारे भी। ये वैज्ञानिक जिनकी आयु क्रमशः 55 व 57 वर्श की है, अपने जीवन में प्रथम बार (आचार्य धर्मबन्धु जी के शिविरों को छोड़) जन सामान्य को सम्बोधित करने आये वह भी हमारे भागलभीम जैसे पिछड़े गांव में बने इस छोटे से संस्थान में, यह हमारे लिए ही नहीं अपितु समस्त आर्य जगत् के लिए गौरव की बात है।
अस्तु, मैं अपने निष्काम न्यासी महानुभावों एवं न्यास से जुड़े सभी सहयोगी जनों व दानदाताओं के श्रद्धा भरे पवित्र धन के दान से आगे बढ़ रहा हूँ। वस्तुतः ये मेरे सभी सहयोगी ही मेरे कार्य के आधार हैं। परमपिता परमात्मा सर्वाधार है, ही। मैं अब तक के अपने कार्य में सच्चिदानन्द परमात्मा की अनुपम कृपा को साक्षात् अनुभव किया है। उसी प्रभु की कृपा से मेरा अपने लक्ष्य का प्रथम चरण पूर्ण हो गया है। अब अपने अन्तिम व्याख्यान (भाष्य) की भूमिका जिसमें वैदिक पदों के स्वरूप के वैज्ञानिक स्वरूप को यथा सम्भव स्पष्टरूपेण परिभाषित करने के लिए दर्शन, निरुक्त, उपनिषद्, छन्दशास्त्र, महाभारत के कुछ प्रसंग. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं पं. भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कॉलर, पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक के ग्रन्थ आदि का स्वयं पुनः अध्ययन करना होगा। इन ग्रन्थों में मैंने जो पूर्व में रेखांकन किए हैं, उन पर पुनः गम्भीर चिन्तन अपनी उसी शैली से करना होगा, जो मैंने ऐतरेय ब्राह्मण के इस प्रारम्भिक व्याख्यान में अपनायी है। मैं वर्तमान विद्वानों की चिन्तन शैली से अपना कोई सहयोग नहीं देख पा रहा हूँ। इस समय मेरे पास तीन शोध सहायक (वैतनिक) कार्यरत हैं। उनसे केवल महर्षि दयानन्द जी के वेद भाष्य में से कुछ संकलन करवा रहा हूँ। उस संकलित भाग को मुझे अपनी इसी दृष्टि से विचारना होगा। आधुनिक भौतिक विज्ञान की गम्भीर समस्याओं को समझने में उच्च स्तरीय वैज्ञानिकों से सम्पर्क यथावत् बनाये रखना व बढ़ाना होगा तथा अपने रफ व्याख्यान को पुनः गम्भीरता से पढ़ना होगा। मैं इस सब कार्य के लिए समय कम से कम तीन वर्ष तो मानकर चल रहा हूँ। जिसमें ग्रन्थ की भूमिका पूर्ण हो जायेगी। इसके पश्चात् मैं अपने भाष्य को अन्तिम रूप देने में लगूँगा। जिस भाष्य के रफ रूप को तैयार करने में लगभग 4 वर्ष लगे उसे अन्तिम व विस्तृत रूप देने में भी 4 वर्ष तो लगेंगे ही, ऐसा मेरा अनुमान है। फिर उसे प्रिण्ट कराने आदि में समय लगेगा। फिर उसे पूर्ण सुरक्षित करने के पश्चात् ही प्रकाश में लाऊँगा और मेरे पास महाशिवरात्रि विक्रमी सं. 2077 अर्थात् सन् 2021 तक ही समय है। पाठक ! जरा विचारें कि अकेले व्यक्ति के लिए जबकि वेद ब्राह्मण विषय में उसका शंका समाधानकर्ता तो दूर रहा. संवादकर्ता भी कहीं दिखायी नहीं देता हो, इतना सब कार्य इतने समय में करना क्या अति दुष्कर नहीं है? फिर भी मुझसे मुझसे बार-2 जल्दी-2 करने का आग्रह किया जाता है। अब तक किये कार्य को प्रकाशित करवाने की हठ की जाती है। मैं नहीं समझ पा रहा कि ऐसे सहयोगी जनों को मैं अपने कार्य की दुष्करता व गम्भीरता कैसे समझाऊं? जो कार्य आर्य समाज के 135 वर्ष के इतिहास में सब वैदिक अनुसंधानकर्ता एवं अनेक संसाधनों से सम्पन्न सभा-संस्था नहीं कर पाये, पौराणिक भाई तो जड़-पूजा एवं भागवत आदि कुग्रन्थों को ही महिमामण्डित करते रहे। वेदों का तो नाम भी लेना भूल गये। जो वेद की बात करते हैं, वे भी वेदपाठ तक ही सीमित हैं। उस कार्य को करने के लिए इतना उतावलापन मैं कैसे सहन कर पाऊँगा? मुझे निश्चिन्तता चाहिए, सहयोग चाहिए (वह भी केवल पवित्र महानुभावों का), पूज्यजनों का आशीर्वाद चाहिए। मेरा पुनः स्पष्ट निवेदन है कि मेरे पास इस कार्य को करने का कोई संक्षिप्त मार्ग (शॉर्ट कट) नहीं है। यदि कोई विद्वान् इस कार्य का ऐसा मार्ग जानने का दावा करता है, तो मेरा निवेदन है कि इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ लें, तदुपरान्त कृपया मुझे भी वह जादू विद्या सिखाने की कृपा करें, जिससे मैं तत्काल अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकूँ। इस विषय में 'जगत् एवं वेद दोनों को समझना सरल नहीं' नामक अध्याय अवश्य पढ़ने का कष्ट करें।
प्रिय पाठक ! अब तक तो मैं अपने कार्य की जानकारी देने के लिए कुछ पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखता भी रहा परन्तु अब तो मैं कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं रखता। मुझे बहुत अध्ययन एकाकी ही करना है। लक्ष्य बहुत बड़ा है, समय बहुत कम है, मेरा सामर्थ्य भी अल्प है। मैं विचार कर रहा हूँ कि क्या मेरे अन्तिम भाष्य प्रकाशित होने तक अर्थात् लगभग 8 वर्ष तक मैं किसी सहयोगी को नवीन सामग्री कुछ न कुछ नहीं भेजूँ, तब भी क्या वे मेरे साथ इसी भावना से जुड़े रहने का धैर्य रख सकेंगे? कुछ और सहयोगी वैतनिक बढ़ाने पड़े तो क्या वित्तीय व्यवस्था बराबर बनी रहेगी? यह सब विचार कर में चिन्ता में भी पड़ जाता हूँ। परन्तु विचार आता है कि जैसे मेरे अध्ययन चिन्तन में परमात्मा की कृपा रहती है तथा अब तक उसी दयालु की कृपा से सहयोगी जुड़ते आ रहे हैं, वैसे ही सब काम सदा उसी परमात्मा की कृपा व प्रेरणा से होते रहेंगे। ईश्वरीय कार्य ईश्वरीय कृपा से ही पूर्ण होगा। सबसे बड़ी बात है कि सब धैर्य कैसे रखें? उन्हें अनुसंधान कार्यों की गम्भीरता कैसे समझ आये? एक-2 वैज्ञानिक का जीवन एक ही खोज में खप जाता है, जबकि उसके पास स्पष्ट भाषा में वैज्ञानिक साहित्य होता है। संसार में उसके पास अनेक संवाद करने वाले अन्य वैज्ञानिक होते हैं। उसे कोई वित्तीय चिन्ता वा चिन्तन नहीं करना पड़ता। इधर अपने ऐतरेय ब्राह्मण व्याख्यान के द्वारा मैं इस पुस्तक में संकेत किये जाने वाले अनेक रहस्यों का उद्घाटन करने की आशा करता हूँ, तब मेरे भाई! मुझसे शीघ्रता मत चाहो। मैं सबसे पत्र तो क्या फोन से भी सतत सम्पर्क नहीं रख पाता, यह मेरी विवशता है। इसके साथ ही सभी सहयोगी जनों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि मेरा लक्ष्य पूर्ण होने से पूर्व मुझे किसी भी कार्यक्रम में आने का आग्रह न किया जाये। मेरे किसी प्रकार के सम्मान, अभिनन्दन आदि के आयोजन का विचार भी नहीं किया जाये। क्योंकि लक्ष्य सिद्ध होने से पूर्व मैं इस कार्य के लिए कोई सम्मान, पुरस्कार व अभिनन्दन न कराने का संकल्प ले चुका हूँ। मैं कभी स्वयं पढ़ते 2 थक जाऊँ तो भले ही अनुकूलता से कहीं भ्रमणार्थ चला जाऊं। हाँ, एक बात विनम्रता से निवेदित कर देना चाहता हूँ कि कोई भी मेरे विरोधी वा सहयोगी भले ही वे कितने ही निकट हों, यदि मेरे रफ व्याख्यान को देखने वा उस पर चर्चा का आग्रह करें, तो मैं अभी ऐसा कदापि नहीं करूँगा। आशा है वे मेरी विवशता मानकर क्षमा करेंगे। जो भी व्याख्यान मैंने अपने साहित्य में उधृत कर दिया है, उसी से सन्तोष करें। मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ। शक्ति से अधिक श्रम करना होता है। मैं अपने सभी मार्गदर्शक उपर्युक्त वैज्ञानिकों, सभी न्यासी व न्यास से जुड़े सहयोगी महानुभावों, दानदाताओं का हृदय से कृतज्ञ हूँ। मैं उनके विश्वास को प्राणपण से निभाने का पूर्ण पुरुषार्थ कर रहा हूँ। इस पुस्तक को लिखने में मेरे न्यासी तथा मित्र सरल हृदय प्रोफेसर वसन्तकुमार जी मदनसुरे M.Tech. Ph.D. ने कुछ उपयोगी सुझाव देकर पुस्तक को कुछ और स्पष्ट करने हेतु मुझसे आग्रह किया और सृष्टि एवं वेद दोनों को समझना सरल नहीं अध्याय को उन्होंने ही जुड़वाया है, जिसे मैंने स्वीकारा भी है। एतदर्थ मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। यदि परमपिता परमात्मा की महती कृपा एवं मेरे प्रारब्धवश मेरा शरीर सुरक्षित व कार्य करने योग्य स्वस्थ रहा और आप सबका पवित्र निष्काम सहयोग व पूर्ण धैर्य बना रहा, तो लक्ष्य अवश्य पूर्ण होगा ऐसी मेरी आशा शा है अन्यथा मेरा संकल्प अटल रहेगा। कुछ महानुभाव शंका करते हैं कि मैंने वेद की अपौरुषेयता व वैज्ञानिकता को सिद्ध करने का संकल्प लिया था परन्तु वेद अथवा सृष्टि-उत्पत्ति को छोडकर ऐतरेय ब्राह्मण का भाष्य करने लग गया। ऐसे मेरे बन्धु जब इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ेंगे तो उन्हें विदित हो जायेगा कि मेरा वर्तमान कार्य लक्ष्य से भी बहुत आगे की यात्रा तय करेगा। मैं केवल कर्म करने में स्वतंत्र हूँ। फल प्रभु ही देंगे। मैं पूर्णरूपेण अपने महान् आदर्श पुरुष परमयोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण महाराज के कथन को आधार बनाकर आप सबसे निवेदन करूँगा- "कर्मण्येवाधिकारो मे मा फलेषु कदाचन" अर्थात् मैंने तो स्वयं पूर्णरूपेण प्रभु को सौंप दिया है।
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में।।
यह मेरी अटल मानसिकता बन गयी है। इसी भावनावश प्रातः जागरण के मंत्रों के पश्चात् अपने प्रभु से यही प्रार्थना सदैव करता हूँ -
भगवान् मेरी नैया, अब पार लगा देना अब तक तो निभाया है, आगे भी निभा लेना।
मैंने अपने प्रारम्भिक (रफ) व्याख्यान को भगवान् श्रीराम जी के पवित्र जन्मदिन श्रीरामनवमी 2069 (01 अप्रैल 2012) तक पूर्ण करने का लक्ष्य बनाते हुए मन में यह विचार किया था- "हे प्रभो! यदि मैं अपने प्रारम्भिक व्याख्यान को श्रीरामनवमी तक पूर्ण न कर सका तो मैं अपने लक्ष्य को भी अपनी समयावधि में पूर्ण करने के प्रति संदेह में पड़ जाऊँगा।" मेरे प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुनी और मैंने व्यायामजनित रीढ़ की चोट को सहते हुए भी अति परिश्रम करके चैत्र कृष्णा। 16/2069 को अर्थात् निर्धारित समय से 18 दिन पूर्व ही पूर्ण कर लिया और इस पुस्तिका को महान् वेदवेदांगवेत्ता, पूर्ण स्थितप्रज्ञ, महायोगिराज, महाजितेन्द्रिय, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम जो न केवल इस आर्यावर्त राष्ट्र के अपितु विश्व भर के नायक व आदर्श हैं, की स्मृति एवं इस युग के महान् वेदद्वष्टा भगवत्पाद महर्षि दयानन्द जी सरस्वती की पावन भावना के अनुसार उनके प्रति अपने अत्यन्त श्रद्धोपेत हृदय से भगवान् श्रीराम वा ऋषियों वा वैदिक परम्परा के पवित्रहृदय भक्तजनों एवं सत्य-धर्म-विज्ञान के पिपासु मानव मात्र की सेवा में समर्पित करता हूँ।
चैत्र शुक्ला, श्रीरामनवमी 2069, रविवार (01 अप्रेल 2012)
मां मानवता का विनम्र सेवक अग्निव्रत नैष्ठिक
पूर्व पीठिका
मेरे आदरणीय महानुभाव ! 10 अक्टूबर 2004 से वेद विज्ञान अनुसंधान का औपचारिक अनुसंधान प्रारम्भ करके मैंने चैत्र कृष्णा (दक्षिण भारत में फाल्गुन कृष्णा) 6/2068 विक्रम सं. तदनुसार 13 मार्च 2012 को अपने कार्य का प्रथम चरण पूर्ण कर चुका हूँ। अपना कार्य प्रारम्भ करते समय मुझे आर्य जगत् के किसी भी विद्वान् से यह मार्गदर्शन नहीं मिला कि मैं अपना कार्य कैसे प्रारम्भ करू? अपना कार्य प्रारम्भ करने से लगभग 6 वर्ष पहले से वेद गोष्ठियों में जाकर वेद विज्ञान सम्बन्धी अनुसंधान कार्य से कोई संतुष्टि नहीं हुई। प्रति वर्ष आयोजित ऋषि मेला, अजमेर, महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर में सन् 2000 में आयोजित राष्ट्रिय वेद गोष्ठी एवं अगस्त 2004 में बंगलोर में आयोजित वर्ल्ड कांग्रेस ऑन वैदिक सायंसेज में भी जाकर विद्वानों के विचार सुनने व अपने विचार रखने का अवसर प्राप्त हुआ। उस सब के अनुभव से मुझे विद्वानों एवं वैज्ञानिकों में प्रचलित निम्न विचारधाराओं को अनुभव हुआ-
1. अधिकांश विद्वान वर्तमान विज्ञान से न केवल प्रभावित दिखायी दिये
अपितु उसके सम्मुख दीन हीन बनकर उनका अन्धानुकरण करते भी दिखायी दिये। ऐसे विद्वानों को न केवल उच्च स्तरीय वैज्ञानिकों के अपितु सामान्य स्तर के वैज्ञानिकों के विचारों की वैदिक विज्ञान से पुष्टि करते देखा। मैंने यह भी देखा कि उन वैदिक विद्वानों को आधुनिक विज्ञान का कोई गम्भीर ज्ञान नहीं था, पुनरपि वे वैदिक विद्वानों में बड़े वेद विज्ञान अनुसंधानकर्ता के रूप में प्रस्तुत किये जा रहे थे।
2. कुछ वैदिक विद्वान् ऐसे भी मिले जिनकी आधुनिक विज्ञान में कोई रुचि दिखायी नहीं दी। पुनरपि वे वेद विज्ञान के नाम पर व्याकरण, निरुक्त और ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करने का प्रयास करते थे। वैदिक विज्ञान का प्रयोगात्मक रूप संसार के सम्मुख लाने का न तो उनका कोई प्रयोजन देखा और न इच्छा शक्ति। उनका कथित वैदिक विज्ञान किसी एक ग्रन्थ के आधार पर नहीं बल्कि "कहीं की इंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा" के अनुसार ही होता है। इसी शैली से अनेक विद्वानों ने वेद विज्ञान के नाम पर ग्रन्थ भी लिखे तथा पत्रवाचन भी किये परन्तु किसी एक ग्रन्थ का वैज्ञानिक भाष्य कभी देखा नहीं गया। महर्षि दयानन्द जी सरस्वती के पश्चात् पं. भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कॉलर ही एक मात्र ऐसे विद्वान् दिखायी देते हैं, जिनका अध्ययन बहुत विशाल था। जिन्होंने न केवल प्राचीन भारतीय एवं वैदिक वाङ्मय के इतिहास का गंभीर अनुसंधान किया अपितु वैदिक वाङ्मय में अति उच्च पदार्थविज्ञान की भी ऊहा की, जिसको साकार करने का स्वप्न पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक जैसे वैदिक वाङ्मय के प्रौढ़ विद्वान् जीवन पर्यन्त करते रहे परन्तु अधिकांश आर्य जगत् ने इस विषय की उपेक्षा ही की। इस सम्बन्ध में मेरा मानना यह है कि अधिकांश विद्वान् वैज्ञानिक प्रतिभा से हीन हैं अथवा वे कम परिश्रम से बहुत फल पाना चाहते हैं। हाँ, इतना फिर भी कहूँगा कि पं. भगवद्दत्त जी की ऊहा व अनुसंधान कहीं भी स्पष्ट नहीं हो पाया है। वे व्यापक लेखन करते रहे परन्तु किसी एक ग्रन्थ को भी स्पष्ट व्याख्यात नहीं कर सके। इस कारण उनका हर ग्रन्थ पुनः स्पष्ट व्याख्या चाहता है। हाँ, उनके ग्रन्थों से कोई भी प्रतिभाशाली अनुसंधाता विद्वान् प्रेरणा अवश्य ले सकता है। मुझे तो महर्षि जी के पश्चात् इन्हीं के ग्रन्थों से सर्वाधिक प्रेरणा मिली है, भले ही वह सांकेतिक ही क्यों न हो। मैं कहीं 2 पण्डित जी की ऊहा से असहमत भी हूँ। पुनरपि उनके प्रति मेरे मन में अत्यन्त आदर का भाव है।
3. इस विचारधारा में वर्तमान विज्ञान के वे विद्वान् आते हैं, जिनकी वेद अथवा अन्य प्राचीन भारतीय साहित्य एवं तज्जन्य संस्कृति एवं ज्ञान विज्ञान पर श्रद्धा तो है और वे इसी श्रद्धा के वशीभूत बड़े-2 आयोजन करके एवं योजनाएं बना करके सुसंगठित रूप से भारत के गौरव को विश्व में स्थापित करने का स्वप्न देखते हैं परन्तु वे भारतीय ग्रन्थों अथवा वेद आदि शास्त्रों को व्यवस्थित ढंग से पढ़ने का न तो पुरुषार्थ करना चाहते हैं और न धैर्य रखना चाहते हैं। उनकी सोच अधिकांशतः मध्यकालीन आचार्यों जैसे आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं भास्कराचार्य आदि तक ही सीमित है। कहीं 2 महर्षि भरद्वाज एवं कणाद का नाम भी ले लेते हैं। ये महानुभाव वर्तमान विज्ञान के कुछ सिद्धान्तों को उपलब्ध प्राचीन भारतीय साहित्य के हिन्दी अनुवादों में ढूंढ़ते हैं। विज्ञान भारती के मेरे अधिकांश मित्र इसी शैली से काम कर रहे हैं। लगभग 4-5 वर्ष पूर्व अटलाण्टा विश्वविद्यालय, यू.एस.ए. में गणित के प्रोफेसर डा. भूदेव जी शर्मा ने भी मुझे इसी शैली से अनुसंधान करने का सुझाव दिया था। इनमें एक भयंकर दोष यह है कि ये किसी अन्य पद्धति के अनुसंधाता की बात सुनने में विश्वास नहीं करते बल्कि अपनी हठ के पक्के होते हैं, जो किसी भी सत्यशोधकर्ता को शोभनीय नहीं है। लगता है कि ये काम में कम नाम में विश्वास अधिक करते हैं।
4. इसके अतिरिक्त विद्या और विज्ञान की आधुनिक जगत्प्रसिद्ध परम्परा सर्व विदित है, ही। जिसे हम वैदिक अथवा भारतीय आदर्शों का अहंकार करने वाले मैकाले शिक्षा आदि कहकर निन्दा करते हैं, परन्तु इस शिक्षा के विकसित व विस्तृत ज्ञान-विज्ञान और टैक्नोलॉजी का पूरा लाभ उठाते हैं। ब्रह्मचारी से लेकर संन्यासी, धनी से लेकर निर्धन, उच्च शिक्षित से लेकर निरक्षर, राष्ट्र भक्त अथवा पाश्चात्य सभ्यता के भक्त, रोगी-भोगी अथवा योगी, बूढ़े बच्चे व युवा, महिला वा पुरुष, सभी सम्प्रदायी, भाषायी वा सभी देशों के लोग इस वर्तमान ज्ञान-विज्ञान और तकनीक का पूरा लाभ उठा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इस परम्परा की कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता। सारी दुनिया के वैज्ञानिक, शिक्षाविद्, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री आदि सभी इसी परम्परा को पुष्पित व पल्लवित कर रहे हैं। यह परम्परा किसी भी ग्रन्थ विशेष को प्रमाण नहीं मानती बल्कि यह केवल और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानने का दावा करती है। जितना 2 प्रयोगात्मक रूप से सिद्ध होता जाता है, उतना ही उतना उन्हें प्रमाण के रूप में स्वीकार्य होता है।
5. इस विचार धारा के प्रवर्तक अथवा मुख्य प्रचारक जयपुर के राजपण्डित मधुसूदन जी ओझा एवं उनके सुयोग्य शिष्य पं. मोतीलाल जी शास्त्री माने जा सकते हैं। इनकी विचारधारा प्रायः ब्राह्मण ग्रन्थों पर आधारित है। ये ब्राह्मण ग्रन्थों की वैज्ञानिक व्याख्या नाम से ऐसी क्लिष्ट व्याख्या करते हैं कि वह सारी व्याख्या अत्यन्त रहस्यपूर्ण तथा नितान्त अस्पष्ट हो जाती है। पण्डित मधुसूदन जी ओझा के विषय में वैदिक वाङ्मय के प्रौढ़ विद्वान् आचार्य विश्वश्रवा व्यास अपने "ऋग्वेद महाभाष्यम्" नामक ग्रन्थ में उन्हें वेदावतार की संज्ञा देते हैं। वहीं आर्य समाज के एक अन्य प्रौढ़ वैदिक विद्वान् पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक राजस्थान पत्रिका दैनिक 31 मार्च 1996 में पं. भगवद्दत्त रिसर्च स्कालर के द्वारा उन्हें चलता फिरता पुस्तकालय कहलाते हैं। श्री ओझा जी के विषय में पं. मीमांसक जी यह भी लिखते हैं कि वे किसी भी वैदिक वा पौराणिक परम्परा को स्वीकार नहीं करते थे। ये अपनी अहंकार भरी व्याख्या शैली में ब्राह्मण ग्रन्थों की काल्पनिक रहस्यमयी वैज्ञानिक व्याख्या करते थे। आज भी इस परम्परा के कुछ विद्वान् भारत में इसी काल्पनिक व्याख्या शैली का अनुकरण कर रहे हैं। श्री अरविन्द घोश की वैदिक अवधारणा भी प्रायः रहस्यमय व अस्पष्ट है।
अब हम इन पांचों विचारधाराओं पर क्रमशः संक्षिप्त समीक्षा लिखने का प्रयास करते हैं-
1. इस पद्धति में मुझे मुख्य दोष यह दिखायी देता है कि वे वर्तमान विज्ञान को वैदिक ग्रन्थों में बलात् थोपने का प्रयास करते हैं और इसके लिए वैदिक पदों का अर्थ करने में वे सामान्य व्याकरण के अतिरिक्त निरुक्त वा ब्राह्मण ग्रन्थ अथवा स्वयं वेदादि का कोई सुसंगत आधार लेने का प्रयास नहीं करते। वे यह भी नहीं सोचते कि वर्तमान विज्ञान प्रयोग करने के साधनों की सामर्थ्य के अनुसार संशोधित होता रहता है। तब आज जिस सिद्धान्त को वर्तमान विज्ञान के चकाचौंध से प्रभावित होकर किसी वेदादि शास्त्र में आरोपित करने का प्रयास करते हैं, वही सिद्धान्त यदि आगामी पीढ़ी द्वारा संशोधित हो जाये तब हमारे वैदिक पदों के उन अर्थों का क्या होगा? जिनको हमने पूर्व सिद्धान्त के आधार पर निर्धारित किया था। यदि हम भी उसे संशोधित करें तो हमारे उस संशोधन का आधारभूत कारण क्या होगा? जबकि उनके संशोधन का आधार उनके प्रयोग व प्रेक्षण होते हैं। क्या हमारे संशोधन का आधार केवल वैज्ञानिकों की नकल ही होगी? वैज्ञानिक तो कठोर परिश्रम करते हैं परन्तु ये विद्वान् बिना परिश्रम फल की कामना से नकल पर ही दृष्टि जमाये रहते हैं। दूसरा दोष इस पद्धति में यह दिखायी देता है कि इससे वैदिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति स्वाभिमान और सम्मान का उचित भाव उत्पन्न नहीं होगा क्योंकि अनुकरण करने की प्रवृत्ति हमारे अन्दर हीन एवं पराधीनता की भावना को ही जाग्रत करेगी, जिसको कदापि श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता। तीसरा दोष इस प्रणाली में यह माना जायेगा कि यह परम्परा वैदिक ऋषियों की मौलिक परम्परा के अनुकूल नहीं होगी क्योंकि यह केवल "मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना" के आधार पर स्वच्छन्द विचरेगी। जिसके आधार पर किसी भी क्रमबद्ध एवं सुसंगत भारतीय वैदिक वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली का आविष्कार नहीं हो सकेगा। घुणाक्षर न्याय से कुछ पाने का प्रयास चलता रहेगा।
2. इस पद्धति पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस पद्धति के विद्वान् ऐसी भाषा में अपने विज्ञान को प्रकाशित करना चाहते हैं, जिसे आधुनिक कोई व्यक्ति समझता ही नहीं और न जिसको प्रयोगशाला में प्रयुक्त किया जा सकता है। इस कारण से इस पद्धति पर प्रवचन व पत्रवाचन करके अपने ही सम्प्रदाय के विद्वानों में प्रतिष्ठा और दक्षिणा तो प्राप्त की जा सकती है परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से हम पूर्णतः पाश्चात्य विज्ञान पर ही निर्भर रहने को विवश होते हैं। फिर भी हम वैदिक ज्ञान-विज्ञान की प्रतिष्ठा हेतु नहीं बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और आजीविका के लिए वैदिक विद्या को पूर्ण व श्रेष्ठ एवं पाश्चात्य विद्या को अपूर्ण एवं हीन सिद्ध करने में पूरा मिथ्या छल, बल लगाते हैं। आर्श शिक्षा प्रणाली की वकालत करते हुए भी अपनी संतान को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से संचालित पाश्चात्य शिक्षा के विद्यालयों में ही पढ़ाने में गौरव अनुभव करते हैं। इससे यह सिद्ध स्वतः ही होता है कि उनके अन्दर कहीं न न कहीं यह विचार छुपा होता है कि वैदिक विज्ञान अव्यवहारिक, अनुपयोगी और कल्पना मात्र है। यही कारण है कि आज आर्य समाज अथवा पौराणिक सम्प्रदायों के गुरुकुलों से विद्या का प्रकाश होता कहीं भी प्रतीत नहीं होता। इस विचारधारा में कुछ ऐसे स्वयम्भू मनचले योगी भी देखे जाते हैं जो पदार्थ विज्ञान को मानव के चरम लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा बतलाते हैं, जबकि वे स्वयं इस आधुनिक पदार्थ विज्ञान की उच्चतम टैक्नोलॉजी का प्रयोग दैनिक जीवन में जन सामान्य की अपेक्षा बहुत अधिक कर रहे होते हैं। ये कथित विद्वान् इतना भी नहीं विचारते कि जो वेद 'विष्णोः कर्माणि पश्यत' कहकर सृष्टि को जानने का आदेश देता है। महर्षि भगवन्तों ने न केवल अध्यात्म विद्या के चरम स्तर को प्राप्त किया था अपितु चरम स्तर के पदार्थविज्ञान को भी विकसित करते हुए महान् साहित्य लिखा था। महर्षि दयानन्द जी महाराज योगविद्या में पारंगत होकर भी विद्या की पिपासा में जीवन भर अध्ययन करते रहे। जर्मनी के वैज्ञानिक प्रो. जी. वाइज से पत्र व्यवहार होता रहा परन्तु आज स्वयम्भू योगी वेदविद्या व वर्तमान विज्ञान दोनों को अनावश्यक बताकर आर्यों को मूर्ख बना रहे हैं। वे अपनी दुर्बलता को छुपाने के लिए वेदविद्या को ही अनावश्यक बता देते हैं। जब योगदर्शनकार ने शास्त्र अर्थात् वेद की अनिवार्यता स्वीकार की तो कौन योगी कहलाने वाला वेदाध्ययन को अनावश्यक कहने की मूर्खता करेगा? इधर विज्ञान जिसके बिना जीवन का निर्वाह भी सम्भव नहीं, उसका विरोध मूर्खता की पराकाष्ठा है। हम जानते हैं कि जैन ग्रन्थों में कृषि, बागवानी, कूप खोदना, चूल्हा जलाना पाप कहा है। जैन साधु इनका पूर्ण पालन करते हैं परन्तु उनके भक्त ये सब करते हुए भी उन साधुओं का पेट भरते हैं। वैसे ही हमारे यहाँ भी ये साधु बाबा हो गये। जिनके लिए आंख बंद करना ही मुख्य लक्ष्य है। वेद पढ़ना, विज्ञान पढ़ना, व्यापार-कृषि करना सब अनावश्यक है। इतने पर उनके भक्त इन कामों से ही धन अर्जित करके उन विद्वानों को दान-दक्षिणा देते हैं। वे भोले भाई यह नहीं जानते कि धर्म व विज्ञान दोनों समानार्थक शब्द हैं। महर्षि कणाद जी अपने वैशेषिक दर्शन में धर्म की व्याख्या की प्रतिज्ञा करके लौकिक उन्नति व मुक्ति दोनों का साधक धर्म को बताते हुए पदार्थविज्ञान का विशद विवेचन करते हैं। पता नहीं कैसे ये महानुभाव वैशेषिक दर्शन को पढ़ते व पढ़ाते हैं? महर्षि दयानन्द जी 'यज्ञ' पद का अर्थ 'शिल्पविज्ञान' करते हुए सर्वत्र विज्ञानादि ऐश्वर्य को पाने की चर्चा करते हैं परन्तु ये विज्ञान से दूर रहने का उपदेश देते हैं, महदाश्चर्य। इसी विचारधारा के कुछ विद्वान् वैदिक ग्रन्थों में से इलेक्ट्रॉन, प्रोटान आदि की विद्यमानता की बात करने वाले का बड़ा उपहास करते हैं। मेरी दृष्टि में उनका यह अज्ञान वा द्वेषजन्य महान् दोष है। क्या वे इतना भी नहीं जानते कि सृष्टि सभी के लिए एक जैसी ही है, तब वर्तमान विज्ञान जो अपने प्रयोगात्मक बल पर सर्वत्र प्रसिद्धि पा रहा है, वह विज्ञान हमारे ग्रन्थों में उसी रूप में क्यों नहीं होगा? यदि कोई व्यक्ति किसी विदेशी को समझाने के लिए भारतीय इतिहास में Cow, elephant, Horse की विद्यमानता को सिद्ध करे तो क्या किसी वैदिक विद्वान् को ऐसे अनुसंधान कर्ता पर व्यंग करने चाहिए? यदि हाँ, तो अपने कथित विज्ञान को क्या अपनी तिजोरी में ही बन्द करके रखा जाये? मेरा स्पष्ट मत है कि भाषा के भेद से सृष्टि प्रक्रिया में भेद नहीं हो सकता, जिसको वर्तमान विज्ञान इलेक्ट्रॉन कहता है और इस इलेक्ट्रॉन के आधार पर संसार में विकसित इलेक्ट्रॉनिक्स के सिद्धान्त, वर्तमान उच्च तकनीक को व्यापक और प्रसिद्ध बना रहे हैं। इस कारण यह इलेक्ट्रॉन कोई काल्पनिक सत्ता नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि हम अपने वैदिक वाङ्मय में सम्पूर्ण सृष्टि के ज्ञान का दावा करें तो उसमें इलेक्ट्रॉन आदि का किसी दूसरे नाम से विद्यमान होना अवश्यम्भावी है। इसलिए हमें किसी भाषा और विज्ञान की किसी भी परम्परा का यूँ अन्धा विरोध नहीं करना चाहिए। साथ ही किसी भी ईर्ष्याजन्य विरोध का पाप नहीं करना चाहिए। जहाँ कहीं मेरे प्रश्नों में इलेक्ट्रॉनादि के स्तर पर दिशा का प्रश्न है, तो ये विद्वान् मेरे दिशा सम्बन्धी प्रश्न पर उपहास करते हैं कि वहाँ इतने सूक्ष्म स्तर पर दिशा कहाँ से तय होगी? उनको प्रतीत होता है कि दिशाएं सूर्योदय से निर्धारित होती हैं। मैं ऐसे बन्धुओं को कैसे समझाऊँ कि सूक्ष्म कणों के संसार में दिशा निर्धारण सूर्य से नहीं बल्कि उन कणों के दक्षिणावर्त-वामावर्त घूर्णन से तय होती है और उन प्रश्नों में ऐसी ही दिशा से मेरा तात्पर्य है। जब ये विद्वान् समझना न चाहें, तो उनसे माथापच्ची का समय भी मेरे पास कहाँ है?
3. इस शैली में मुख्य दोष यह है कि ये विद्वान् वर्तमान विज्ञान तो जानते हैं परन्तु वैदिक ज्ञान-विज्ञान के निकट नहीं पहुँच पाते। इनको यह भी स्पष्ट ज्ञान नहीं होता कि वैदिक ज्ञान-विज्ञान की परम्परा कहाँ से और किस प्रकार प्रारम्भ होती है? वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, निरुक्त आदि से तो वे सर्वथा दूर ही रहते हैं। केवल कुछ ग्रन्थों के हिन्दी भाष्यों के आधार पर आधुनिक विज्ञान की कुछ संगति लगाने पर ही वे अपने को कृत-कृत्य समझने लग जाते हैं। इस शैली में भी वे प्रायः सभी दोष विद्यमान प्रतीत होते हैं, जो प्रथम शैली में हमने बताये हैं।
4. इस परम्परा में यद्यपि इतने गुण हैं, जिसके कारण इसकी विजय पताका सम्पूर्ण भू-मण्डल में फहरा रही है और जिसके तेज के कारण हर प्रकार की विचारधारा चारधारा का तेज क्षीण हो गया है। बड़े-2 कट्टर मजहबी विचार भी इस विचारधारा के आगे अपनी-2 कट्टरता को त्याग कर साथ-2 पढ़ते-बढ़ते दिखायी देते हैं। कुरान, बाईबिल एवं पुराणों की अनेकों विज्ञान विरुद्ध कल्पनाएं भले ही धर्म कथाओं, सभाओं एवं जलसों में खूब प्रचारित की जाती हों और पूर्व काल में जिसका विरोध करने पर कट्टरपंथियों ने बड़े 2 वैज्ञानिकों और समाज सुधारकों को भले ही प्राण दण्ड दिये गये हों, परन्तु आज उन्हीं विचारधाराओं को कट्टरपंथी रूढ़िवादी भी उत्साह के साथ पढ़ रहे हैं। यह इस विचारधारा की सबसे बड़ी जीत है। यह विचारधारा कथित जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, भाषा एवं देश से ऊपर उठकर सकल विद्या और विज्ञान के विश्व की एक मात्र साम्राज्ञी बन गयी है। आज का प्रबुद्ध वर्ग, मीडिया सभी कोई वैज्ञानिक सोच की दुहाई देते हुए हर प्राचीन परम्परा को इसी की कसौटी पर कसने की अनिवार्यता पर बल देते हैं। इसके विरुद्ध किसी विचारधारा को रूढ़िवादी और पाखण्ड बताकर तिरस्कार और उपहास का पात्र बनाया जाता है। यद्यपि कट्टर मजहबी लोग आज भी दो घोड़ों पर एक साथ सवार होने का प्रयत्न करते हैं परन्तु ऐसे लोगों की प्रामाणिकता नहीं मानी जाती। यह बात सत्य है कि आज इस विचारधारा ने सम्पूर्ण मानव जाति को एक सार्वभौम मार्ग दिखाने का प्रयत्न किया है एवं अनेक भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी की है। परन्तु यह पद्धति भी पूर्णतः निर्दोश व निरापद नहीं है। इसके कुछ निम्नलिखित कारण विचारणीय है-
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