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18 March, 2024

क्या कुंताप सूक्त को ऋषि दयानंद ने मिलावट कहा ?

 लेखक - राज आर्य व यशपाल आर्य

अथर्ववेद के 20वें काण्ड के सूक्त 127 से 136 सूक्त पर्यन्त 10 सूक्तों को कुंताप सूक्त कहा जाता है। इन सूक्तों के ऊपर हम आज विचार करेंगे।

सर्वप्रथम हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि चारों वेद सृष्टि के आदि में ४ ऋषियों को प्राप्त होते हैं तथा वेद ही सब सत्य विद्याओं का ग्रंथ हैं इसी मत को प्रतिपादित करते हुए ऋषि दयानंद इस्लाम मत की समीक्षा जो लिखते हैं -

“और जो बाइबल इञ्जील आदि पर विश्वास करना योग्य है तो मुसलमान इञ्जील आदि पर ईमान जैसा कुरान पर है वैसा क्यों नहीं लाते? और जो लाते हैं तो कुरान १ का होना किसलिये? जो कहें कि कुरान में अधिक बातें हैं तो पहली किताब में लिखना खुदा भूल गया होगा! और जो नहीं भूला तो कुरान का बनाना निष्प्रयोजन है। और हम देखते हैं तो बाइबल और कुरान की बातें कोई-कोई न मिलती होंगी नहीं तो सब मिलती हैं। एक ही पुस्तक जैसा कि वेद है क्यों न बनाया?”


तथा इसी प्रकार अन्यत्र देखें-

“जो मूसा को किताब दी थी तो पुनः कुरान का देना क्या आवश्यक था? क्योंकि जो भलाई बुराई करने न करने का उपदेश सर्वत्र एक सा हो तो पुनः भिन्न-भिन्न पुस्तक करने से पुनरुक्त दोष होता है। क्या मूसा जी आदि को दी हुई पुस्तकों में खुदा भूल गया था?।।१४।।”


अतः ऋषि दयानंद के मत में मंत्र भाग ईश्वरोक्त होने से तथा ईश्वर में पुनरोक्त दोष के न होने से स्पष्ट है कि वे वेद मंत्रों को आदि से आज तक एक रूप में मानते थे।


अब पाठकवृंद! हमारे मत में चतुर्वेद विषय सूची नामक पुस्तक फर्जी है, क्योंकि उसके विषय और ऋषि के वेद भाष्य में कोई समानता देखने को नहीं मिलती तथा वेद में इस प्रकार प्रक्षेप होता तो ऋषि अपने मुख्य ग्रंथो में अवश्य लिखते जिस प्रकार ब्राह्मण भाग के वेद संज्ञा का खंडन लिखा तथा शक इस बात पर भी है कि यह ग्रंथ का ऋषि दयानंद के मृत्यु के पश्चात ही क्यों प्रकाशित हुआ?


अब देखो, महर्षि दयानंद ने स्पष्ट तौर पर अपने सत्यार्थ प्रकाश १४वें सम्मुलास में अथर्ववेद को २० कांडों से युक्त माना, अब यदि कोई कहे कि अथर्ववेद 20वें कांड में 143 सूक्त हैं जबकि कुंताप सूक्त तो केवल 10 सूक्तों (सूक्त 127 से 136 पर्यन्त) का नाम है, तो वहां कुंताप सूक्त छोड़ कर अन्य सूक्तों का ग्रहण होगा तो इसका उत्तर है कि ऋषि ने यहां कहीं भी कुंताप सूक्त का निषेध नहीं किया तो स्वतः ही उसका ग्रहण हो जायेगा। ऋषि लिखते हैं-

"यदि तुमने 'अथर्ववेद' न देखा हो, तो हमारे पास आओ, आदि से पूर्ति तक देखो अथवा जिस किसी अथर्ववेदी के पास बीस काण्ड युक्त मन्त्रसंहिता 'अथर्ववेद' को देख लो। कहीं तुम्हारे पैग़म्बर साहब का नाम वा मत का निशान भी न देखोगे। और जो यह 'अल्लोपनिषद्' है वह न 'अथर्ववेद' में, न उसके 'गोपथ ब्राह्मण' में है वा किसी शाखा में है।"

यहां ऋषि के वाक्यों से उनकी २० कांडो वाली मंत्र संहिता की उपस्तिथि तथा अथर्ववेदी ब्राह्मणों के यहां की मंत्र संहिता भाग की समानता स्पष्ट है।


ऋषि दयानंद सदा वेद को परम प्रमाण कहते हुए वे लिखते है -

"यदि तुमको सत्य मत ग्रहण की इच्छा हो, तो वैदिक मत को ग्रहण करो।"


आगे स्वामंतव्यामंतव्यप्रकाश में लिखते है -

"मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में सबको एक-सा मानने योग्य है। मेरा, कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है"


कुंताप सूक्त के मंत्रों में कोई त्रिकाल में बाध्य ज्ञान नहीं तथा अन्य मंत्र भाग से असमानता भी देखने को नहीं मिलती।


इसके आगे लिखते है -

"२. 'चारों वेदों' को विद्या-धर्म-युक्त, ईश्वरप्रणीत संहिताओं- मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिसके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो, जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद हैं।"

यहां भी यही पढ़ने मिल रहा है कि वे मंत्र भाग को निर्भ्रांत रूप से ईश्वर प्रणीत और परम प्रमाण मानते थे।


अब कुछ विदेशियों के संदर्भों को भी उद्धृत करते हैं-

मैक्समूलर महोदय- Ancient Sanskrit Literature Page 117 में लिखते हैं- ऋग्वेद की अनुक्रमणी से हम उसके सूक्तों और पदों की पड़ताल करके निर्भीकता से कह सकते हैं कि अब भी ऋग्वेद के मन्त्रों, शब्दों और पदों की वही संख्या है, जो कात्यायन के समय थी।


Origin of Relgion Page 131-

वेदों के पाठ हमारे पास इतनी शुद्धता से पहुंचाये गए हैं कि कठिनाई से कोई पाठभेद अथवा स्वरभेद तक सम्पूर्ण ऋग्वेद में मिल सके।


मक्डोनेल महोदय A History of Sanskrit Literature Page 50 में लिखते हैं-

आर्यों ने प्राचीन काल से असाधारण सावधानता का वैदिक पाठ शुद्धता रखने और उसे परिवर्तन अथवा नाश से बचाने के लिए उपयोग किया। यह इतनी शुद्धता से सुरक्षित रखा गया है जो साहित्यिक इतिहास में अनुपम है।"

अतः प्राचीन पांडुलिपियों के आधार से क्रिटिकल एडिशन निकालने वाले शोधकर्ताओं ने भी वेद में मिलावट न होने की मुहर लगाई है।


अब देखिए ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के वेदनित्यत्वविचार विषय में ऋषि लिखते है -

"यथास्मिन्कल्पे वेदेषु शब्दाक्षरार्थसंबन्धाः सन्ति तथैव पूर्वमासन्नग्रे भविष्यन्ति च। कुतः, ईश्वरविद्याया नित्यत्वादव्यभिचारित्वाच्च । अत एवेदमुक्तमृग्वेदे —

सूर्या॑च॒न्द्रमसो॑ धा॒ताय॑थापूर्वम॑कल्पयत् इति । अस्यायमर्थः – सूर्यचन्द्रग्रहणमुपलक्षणार्थं, यथा पूर्वकल्पे सूर्यचन्द्रादिरचनं तस्य ज्ञानमध्ये ह्यासीत्तथैव तेनास्मिन्कल्पेऽपि रचनं कृतमस्तीति विज्ञायते । कुतः ईश्वरज्ञानस्य वृद्धिक्षयविपर्ययाभावात् । एवं वेदेष्वपि स्वीकार्य्यं, वेदानां तेनैव स्वविद्यातः सृष्टत्वात् ।"

अर्थात् " जैसे इस कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर, अर्थ और सम्बन्ध वेदों में हैं इसी प्रकार से पूर्वकल्प में थे और आगे भी होंगे, क्योंकि जो ईश्वर की विद्या है सो नित्य एक ही रस बनी रहती है। उनके एक अक्षर का भी विपरीतभाव कभी नहीं होता। सो ऋग्वेद से लेके चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की हैं कि इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, पद और अक्षरों का जिस क्रम से वर्त्तमान है इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है, उसकी वृद्धि, क्षय और विपरीतता कभी नहीं होती । इस कारण से वेदों को नित्यस्वरूप ही मानना चाहिए ।"

सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास के पठनपाठनविधि में ऋषि का यह कथन भी द्रष्टव्य है -

 जैसे ऋग्यजुः, साम और अथर्व चारों वेद ईश्वरकृत हैं, वैसे ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ चारों ब्राह्मण, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु-निरुक्त, छन्द और ज्योतिष छः वेदों के अङ्ग, मीमांसादि छः शास्त्र वेदों के उपाङ्ग; आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थवेद ये चार वेदों के उपवेद इत्यादि सब ऋषि-मुनि के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो-जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो, उस-उस को छोड़ देना, क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त स्वत: प्रमाण अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परत: प्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है। वेद की विशेष व्याख्या 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में देख लीजिए और इस ग्रन्थ में भी आगे लिखेंगे।

यहां ऋषि ने चारों वेदों को स्वतः प्रमाण कहा है और ऋषिकृत ग्रंथों को परतः प्रमाण तथा यह भी कहा है कि ऋषि कृत ग्रंथों में जो वेद विरुद्ध होवे उसे त्याग देवें तथा वेद निर्भ्रांत ईश्वर का ज्ञान होने से स्वतः है। अब विचारें यदि ऋषि का यह मत होता कि कुंताप सूक्त मिलावट है तो क्या यहां चारों वेद संहिताओं को पूर्णतः प्रामाणिक कहते? क्या जैसे अन्य ऋषि कृत ग्रंथों में मिलावट को त्यागने को कहा क्या वैसे ही कुंताप सूक्त को त्यागने को नहीं बोलते? किन्तु ऐसा नहीं कहा इससे भी सिद्ध होता है कि ऋषि कुंताप सूक्त को मिलावट नहीं मानते थे। इसी प्रकार ऋषि जहां भी शास्त्रार्थ करते थे वहां वेदों को परम प्रमाण कहते थे यह नहीं कि कुंताप सूक्त को त्याग कर सारा वेद परम प्रमाण है।

जरा विचार करिए जो ऋषि दयानंद अपने सभी ग्रंथ में वैदिक धर्म से संबंधित सभी बातों की पुष्टि के लिए ऋषियों व वेद का प्रमाण देते थे क्या वे इतनी बड़ी बात बिना प्रमाण के बोल सकते हैं? कदापि नहीं।

विचार करें, ऋषि ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वेद से जुड़ी ब्राह्मण ग्रंथ वेद हैं वा नहीं इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान दिया, क्या वे इस महत्वपूर्ण विषय को अछूता ही छोड़ देंगे? वस्तुतः यह विषय भी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का ही होना चाहिए लेकिन वहां इसकी लेश मात्र भी चर्चा नहीं है।

अब आप सभी पाठकगण समझ ही चुके हैं जैसी आज वेद संहिता उपलब्ध है उसी प्रकार पूर्व भी थी और आगे भी रहेगी। वेद सदा एक रस में बने रहते है उनमें एक अक्षर का भी भेद नहीं होता, उनमें वृद्धि एवं क्षय नही होता।

जटा, माला, शिक्षा, लेखा, ध्वजा, दण्ड, रथ, घन आदि प्रकारों से वेद मन्त्रों के उच्चारण का विधान किया गया है जिससे उन्हें वैज्ञानिक रूप से ब्राह्मणों ने परंपरा से सुरक्षित रख आजतक ले आए। 

अब जो नव आर्य समाजी ये दावा करते हैं कि कुंताप सुक्तान्तर्गत मंत्रों का अन्य ब्राह्मण इत्यादि में वर्णन नहीं है तो ये उनकी भ्रांति ही है क्योंकि एतरेय ब्राह्मण आदि में स्पष्ट रूप से इन मंत्रों पर व्याख्या किया गया है। इसके लिए कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं -

सर्वप्रथम हम ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण उद्धृत करते हैं, ऋग्वेद 30वें अध्याय के के खंड 6 से 10 तक कुंताप सूक्त का विनियोग मिलता है, देखें प्रमाण





अब हम गोपथ ब्राह्मण का प्रमाण देते हैं, गोपथ ब्राह्मण के 6वें प्रपाठक में भी कुंताप सूक्त के मंत्रों का विनियोग किया गया है, देखें प्रमाण-

गोपथ ब्राह्मण उ० 6/12,13 में कुंताप सूक्त का विनियोग है।







गोपथ ब्राह्मण उ० 6/14 में भी आप देख सकते हैं, यहां भी विनियोग है।




गोपथ ब्राह्मण उ० 6/14 में भी आप देख सकते हैं, यहां भी विनियोग है।



अब हम आश्वलायन श्रौत् सूत्र का प्रमाण देते हैं। आश्वलायन श्रौत् सूत्र अष्टम अध्याय के तृतीय का 7वाँ सूत्र उससे आगे का यह प्रमाण देखें, यहां भी कुंताप सूक्त का विनियोग है।


 यहां वैतान सूत्र भी देखें। इसमें अध्याय 6, कं० 2, सू० 19 से 31 पर्यन्त कुंताप सूक्त का विनियोग है।



इन सभी संदर्भों को देखें तो इन सूक्तों का वेद भाग होने में प्रमाण निर्विवाद रूप से सुस्पष्ट हो जाता है। 

अब हम परोपकारिणी सभा से प्रकाशित अथर्ववेद संहिता का प्रमाण देते हैं, इसमें भी कुंताप सूक्त है, देखें प्रमाण-






पूर्वपक्ष - कुंताप सूक्त के दो मंत्रों (अथर्व० २०/१३२/१,२) से अल्लोपनिषद् की सिद्धि होती है। अतः सिद्ध होता है कि यह मूल वेद का भाग नहीं किन्तु प्रक्षिप्त है।

सिद्धान्त पक्ष - सर्वप्रथम वे दोनों मंत्र देखें-

आदलाबुकमेककम्॥१॥

अलाबुकं निखातकम्॥२॥

(अथर्व० २०/१३२/१,२)

सर्वप्रथम हम इस मंत्र के देवता पर विचार करें तो अथर्ववेद संहिता में हमें इसके देवता व ऋषि का नाम नहीं मिला किन्तु vedicscriptures.in पर इसके देवता व ऋषि प्रजापति को बताया गया है। अब इसी से इसमें अल्ला खोजने वालों का खंडन हो जाता है क्योंकि इस मंत्र का देवता प्रजापति है न कि अल्ला।

हम यहां इन मंत्रों का भाष्य नहीं करेंगे किन्तु जिन पदों से अल्लोपनिषद् को वेद सम्मत सिद्ध किया जाता है उनको देखेंगे और जानेंगे कि क्या उसमें अल्ला, पैगंबर आदि सिद्ध होते हैं वा नहीं

वे मुख्यतः दो शब्द हैं, जिनकी व्युत्पत्ति व व्याकरण से अर्थ निम्न है-

जिसमें सबसे पहला अलाबुकम् शब्द है, इसके अर्थ के लिए हम उणादि कोष देखते हैं-

[नञि] लम्बेर्नलोपश्च। [उ० को० १/८७] के भाष्य में महर्षि दयानन्द लिखते हैं-

न लम्बतेऽधो न स्रवति गच्छति सा अलाबूः, तुम्बी वा।

इस व्युत्पत्ति से तुम्बी के अतिरिक्त अन्य अर्थ भी संभव हैं।

इसी प्रकार दूसरा शब्द निखातकम् है

वामन शिवराम आप्टे कृत संस्कृत हिन्दी कोष में निखात शब्द में नि उपसर्ग खन् धातु व क्त प्रत्यय माना है। इसमें भी अल्ला व अल्लोपनिषद् की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। अतः आपका यह हेतु देना कि कुंताप सूक्त के दो मंत्रों से अल्लोपनिषद् की सिद्धि होने से वह प्रक्षिप्त है, इसका खंडन होता है।

आश्वलायन श्रौत् सूत्र (८/३/१७) में भी अथर्ववेद 20/132/2 का विनियोग किया गया है, देखें प्रमाण


पूर्व पक्ष - कुंताप सूक्त में नराशंस शब्द आया है, और अरबी में इसका अर्थ मुहम्मद होता है। अतः सिद्ध होता है कि यह मुहम्मद के बाद किसी की रचना है।

सिद्धांती - वाह जी वाह! क्या तर्क लाया है आपने। वेद का अर्थ करने के लिए अरबी डिक्शनरी देखनी पड़ेगी? जैसे अंग्रेजी में कोई कहे I go तो इसका भाव समझने के लिए आप go का अर्थ संस्कृत का गो (गाय) से लेंगे? आप जैसे उत्कृष्ट बुद्धि के लोग ही वेदों में शिव, विष्णु, कृष्ण आदि महापुरुषों का इतिहास वेद में खोजने का प्रयास करते हैं। वेद का अर्थ करने के लिए आर्ष ग्रंथ, तर्क व ऊहा की आवश्यता होती है न कि अरबी डिक्शनरी की।

नाराशंस का अर्थ करते हुए भगवान् यास्क लिखते हैं -

येन नराः प्रशस्यन्ते स नाराशंसो मन्त्रः।

(निरुक्त ९/९)

अर्थात् मनुष्य के प्रशंसा परख मंत्र वा विचार नाराशंस कहाते हैं।

अब बताइए इसमें कहां मुहम्मद सिद्ध हो रहा है?


पूर्वपक्ष - आचार्य सायण ने कुंताप सूक्त पर भाष्य नहीं किया इसलिए वह मिलावट है।

सिद्धान्त पक्ष - यह अनैकांतिक हेत्वाभास है। क्योंकि सायण ने और भी अनेक मंत्रों का नहीं किया है। उदाहरण के लिए यह मंत्र देखें -

ए॒तद्वा उ॒ स्वादी॑यो॒ यद॑धिग॒वं क्षी॒रं वा मां॒सं वा तदे॒व नाश्नी॑यात् ॥

(अथर्ववेद काण्ड 9; सूक्त 6; पर्याय 3; मन्त्र 9)

इसपर भी नहीं किया है।


अतः "चतुर्वेद विषय सूची" ऋषि दयानंद कृत नही है। वेदों में लेश मात्र भी मिलावट नही है। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करें। अस्तु! इसी के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

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