रामभद्राचार्य और आर्य समाज - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

সাম্প্রতিক প্রবন্ধ

Post Top Ad

স্বাগতম

23 July, 2024

रामभद्राचार्य और आर्य समाज

 स्वामी भद्राचार्य जी का अनर्गल प्रलाप  

रामभद्राचार्य

स्वामी रामभद्राचार्य जी का एक वीडियो प्रचारित हो रहा हैं।  भद्राचार्य जी ने स्वामी दयानन्द जी पर अनावश्यक टिप्पणी करते हुए कहा कि स्वामी जी ने रामायण और महाभारत को काल्पनिक बताया हैं। भद्राचार्य जी का कहना है कि श्री राम और श्री कृष्ण जी का वेदों में वर्णन हैं। 

भद्राचार्य जी ने यह टिप्पणी कर अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। उनकी भ्रान्ति का निवारण आवश्यक है। राम और कृष्ण मानवीय संस्कृति के आदर्श पुरुष हैं। कुछ बंधुओं के मन में अभी भी यह धारणा है कि महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज राम और कृष्ण को मान्यता नहीं देता है। प्रत्येक आर्य अपनी दाहिनी भुजा ऊँची उठाकर साहसपूर्वक यह घोषणा करता है कि आर्यसमाज राम-कृष्ण को जितना जानता और मानता है, उतना संसार का कोई भी आस्तिक नहीं मानता। कुछ लोग जितना जानते हैं, उतना मानते नहीं और कुछ विवेकी-बंधु उन्हें भली प्रकार जानते भी हैं, उतना ही मानते हैं।

1. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के संबंध में स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश लिखा है, 

"प्रश्न-रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापित किया है। जो मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्ति स्थापना क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते?
उत्तर- रामचन्द्र के समय में उस मन्दिर का नाम निशान भी न था किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ ‘राम’ नामक राजा ने मंदिर बनवा, का नाम ‘रामेश्वर’ धर दिया है। जब रामचन्द्र सीताजी को ले हनुमान आदि के साथ लंका से चले, आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे, तब सीताजी से कहा है कि-
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः।
सेतु बंध इति विख्यातम्।।
वा0 रा0, लंका काण्ड (देखिये- युद्ध काण्ड़, सर्ग 123, श्लोक 20-21)

‘हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना-ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव महादेव परमात्मा है, उसकी कृपा से हमको सब सामग्री यहॉं प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हमने बांधकर लंका में आ के, उस रावण को मार, तुझको ले आये।’ इसके सिवाय वहॉं वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।
(द्रष्टव्य- सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लासः, पृष्ठ-303)

इस प्रकार उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान राम स्वयं परमात्मा के परमभक्त थे। उन्होंने ही रामसेतु बनवाया था।

2. स्वामी दयानन्द रामायण और महाभारत को काल्पनिक मानते तो सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय सम्मुलास में पठन-पाठन विषय के अंतर्गत स्वामी जी वाल्मीकि रामायण और महाभारत के पढ़ने का विधान नहीं करते। 

स्वामी दयानन्द लिखते है,

" तत्पश्चात मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्व अंतर्गत विदुरनीति आदि अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यतागति हो , वैसे काव्यरीति अर्थात पदच्छेद , पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य, विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। "
इससे स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सकता। 

3.   स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज श्री कृष्ण जी को योगिराज के रूप में सम्मान देता हैं। स्वामी दयानंद जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते हैं,
" पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता एवं उन्हें आप्त (श्रेष्ठ) पुरुष कहा है। स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान् विद्वान् सदाचारी, कुशल राजनीतीज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक मानते हैं फिर श्री कृष्ण जी के विषय में चोर, गोपिओं का जार (रमण करने वाला), कुब्जा से सम्भोग करने वाला, रणछोड़ आदि प्रसिद्ध करना उनका अपमान नहीं तो क्या है? "

बोलो योगिराज श्री कृष्ण जी की जय। 

4. स्वामी दयानन्द के पूना प्रवचन में इक्ष्वाकु से लेकर महाभारत पर्यन्त इतिहास पर विस्तार से चर्चा की हैं। अगर स्वामी जी रामायण और महाभारत को काल्पनिक मानते तो इनकी चर्चा क्यों करते?

5. रामभद्राचार्य जी वेद मन्त्रों में श्री राम जी का वर्णन बता रहे हैं। स्वामी दयानन्द वेदों को इतिहास की पुस्तक नहीं मानते क्यूंकि वेदों का ज्ञान सृष्टि के आदि में प्रकट हुआ हैं।  ऐसे में उनमें इतिहास कहाँ से वर्णित होगा। 

स्वामी दयानन्द इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है,

" इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात् लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उसके जन्मे पश्चात् होता है । वेदों में किसी का इतिहास नहीं। किन्तु जिस-जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस-उस शब्द का प्रयोग किया है। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा या विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं है।"

6. क्या वेदों में रामायण के श्रीराम-सीता का वर्णन है ?

वेदों में राम, कृष्ण आदि शब्दों के नाम पर ही नामकरण हुए हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वेदों में श्री राम और श्री कृष्ण जी आदि का वर्णन हैं। 

ऋग्वेद 2/2/8 में आये राम्याः का अर्थ स्वामी दयानन्द ने रात्रि किया है। ऋग्वेद 6/ 65/1 में आये राम्यासु का अर्थ स्वामी दयानन्द ने रात्रि किया है। ऋग्वेद 3/34/12 में आये रामी: का अर्थ स्वामी दयानन्द ने आराम की देने वाली रात्रि किया है। ऋग्वेद 10/3/3 में आये राम शब्द का सायण ने अर्थ कृष्ण रंग वाला किया है। इस प्रकार से राम शब्द के अर्थ वेदों में काले रंग, अन्धकार और रात्रि के रूप में हुए हैं। इनसे रामायण के पात्र श्रीराम किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते। वैद्यनाथ शास्त्री और अमर सिंह जी निरुक्त 12/13 का उद्धरण देकर राम शब्द से काला ग्रहण करते हैं।

अथर्ववेद 13/3/2668 में अर्जुन को द्रौपदी (कृष्णा) का पुत्र बताया गया है। वेदों में इतिहास मानने वाले क्या यह स्वीकार कर सकते हैं कि अर्जुन द्रौपदी का पुत्र था ? नहीं । स्वामी विद्यानन्द  शतपथ ब्राह्मण 9/2/3/30 का प्रमाण देते हुए लिखते हैं कि यहाँ कृष्णा अर्थ रात्रि का है एवं रात्रि से उत्पन्न होने आदित्य अथवा दिन (अर्जुन) उसका पुत्र है । इस प्रकार से यहाँ इतिहास वर्णन नहीं है ।

7. क्या वेदों में श्रीकृष्ण-राधा, अर्जुन आदि महाभारत के पात्रों का वर्णन है ?

वेदों में कृष्ण-राधा शब्द अनेक मन्त्रों में आया है। वेदों में इतिहास मानने वाले प्रायः कृष्ण शब्द से महाभारत के श्रीकृष्ण जी का वेदों में वर्णन दर्शाने का प्रयास करते हैं। राधा का वर्णन महाभारत में नहीं मिलता। वेदों में कृष्ण शब्द का अर्थ काला रंग, आकर्षक, काला दिन, काला बादल आदि हैं ।

स्वामी दयानन्द भाष्य अनुसार ऋग्वेद 1/58 /4 में कर्षणरूप गुण, ऋग्वेद 1/73/7 और ऋग्वेद 1/92/5 में काला रंग, ऋग्वेद 1/101/4 में विद्वान्, ऋग्वेद 1/115/4 में काले-काले अन्धकार, ऋग्वेद 1/164/47 में खींचने योग्य, ऋग्वेद 6/9/1 में रात्रि, ऋग्वेद 7/3/2 में आकर्षण करने योग्य, यजुर्वेद 21/52 में भौतिक अग्नि से छिन्न अर्थात् सूक्ष्मरूप और पवन के गुणों से आकर्षण को प्राप्त, यजुर्वेद 24/30 में काला हरिण, यजुर्वेद 24/40 में काले रंग वाला, यजुर्वेद 29/58 में काले गरने वाला पशु, यजुर्वेद 29/59 में काला बकरा, यजुर्वेद 30/21 में काले रंग वाले आदि अर्थ किया है। 

ऋग्वेद 3/51/10 में राधा पद आता है जिससे कुछ लोगों में राधा का वर्णन मानते हैं। स्वामी दयानन्द ने राधा का अर्थ धन किया है। ऋग्वेद 1/ 22/7 में आये राधम का अर्थ स्वामी दयानन्द ने विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ती राज्य आदि धन के यथायोग्य किया है।

ऋग्वेद 6/9/1 में आये कृष्ण और अर्जुन का अर्थ स्वामी दयानन्द रात्रि और सरलगमन आदि गुण क्रमशः करते हैं। यजुर्वेद 23/18 में आये अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का अर्थ स्वामी दयानन्द माता, दादी और परदादी करते हैं।

8. वेदों में इतिहास होने की मान्यता अज्ञानता का बोधक है। 

अथर्ववेद 3/17/8 में आया है कि जिस प्रकार से ईश्वर ने इस कल्प में सृष्टि की रचना की है, वैसे ही पूर्व कल्प में की थी और आगे भी करेगा। कल्प के आरम्भ में ईश्वर वेदों का ज्ञान प्रदान करता है। इसलिए हर कल्प के आरम्भ में भी वैसे ही करेंगे जैसे करते आये हैं जो लोग वेदों में श्रीराम, कृष्ण आदि का इतिहास मानते हैं। क्या वे यह भी मानेंगे की हर सृष्टि के हर कल्प में श्रीराम को वनवास का कष्ट भोगना पड़ा ? क्या हर कल्प में सीता हरण हुआ ? क्या हर कल्प में कृष्ण को कारागार में जन्म लेना पड़ा ? क्या हर कल्प में यादव कुल का नाश हुआ ? नहीं ऐसा कदापि सम्भव नहीं है । ईश्वर द्वारा सभी सांसारिक वस्तुओं के नाम वेद से लेकर रखे गए हैं, न कि इन नाम वाले व्यक्तियों या वस्तुओं के बाद वेदों की रचना हुई है । जैसे किसी पुस्तक में यदि इन पंक्तियों के लेखक का नाम आता है तो वह इस लेखक के बाद की पुस्तक होगी । इस विषय में मनुस्मृति 1/21 में आया है कि ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक्-पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये। 

इन प्रमाणों से रामभद्राचार्य जी का विचार असत्य सिद्ध होता हैं।  इस पर भी उन्हें शंका है तो आर्यसमाज के द्वार इस विषय पर शास्त्रार्थ के लिए खुले हैं। डॉ০ विवेक आर्य

https://youtu.be/ovL5PY6Q0KI?si=N0SsKff1IOtcjSUL

रामभद्राचार्य
रामभद्राचार्य
रामभद्राचार्य ने बहूत ही अच्छा किया महर्षि दयानंद सरस्वती पर टिप्पणी करके यद्यपि मैं उस टिप्पणी का समर्थक नही अपितु घोर निंदक हूँ। पाखंडी रामपाल ने स्वामी दयानंद जी पर टिप्पणी की थी तब आर्य समाज के 80% व्यक्ति संगठित हुए जिसका परिणाम आज वह जेल मे पड़ा है, आज हमारी सभी सभाओं को, सार्वदेशिक सभाओं, प्रांतीय सभाओं और डी ए वी संस्थाओं को, एवं आर्य निर्मात्री सभाओं को,आर्य महासंघ वालों को, सभी वैदिक विद्वान सन्यासियों, आचार्यों को, वैदिक भजनोपदेशकों को, भजनोपदेशिकाओं को मजबूत संगठन के साथ रामभद्राचार्य जी का घोर विरोध करना चाहिए,
आर्य समाज को एक मंच पर आकर भद्राचार्य जी ने जो झूठ बोला है उसका पर्दाफास करना चाहिये शास्त्रार्थ की चिनौती देनी चाहिये, सभी आर्य जन सौशल मीड़िया पर इनका विरोध करके अपना योगदान दें, ताकी इस झूठ के लिये सरेआम क्षमा मांगे भद्राचार्य। मै जी शब्द का प्रयोग तो‌ नही करना चाहता हूं पर आयु वृद्ध हैं इसीलिए कर रहा हूं, अन्यथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे महान व्यक्तित्व पर इतना बड़ा झूठा आक्षेप लगाने वालों के प्रति मेरा कोई सम्मान नहीं है। रामभद्राचार्य कोई स्वामी नहीं है एक पाखंडी हिंदुओं को मूर्ख बनाने वाला एक बाबा है जो वीआईपी कल्चर में रहता है और राम कथा करने के हिंदुओं से लाखों रुपए ऐठता है

रामभद्राचार्य अपने वक्तव्य को वापस ले और अपनी अज्ञान रूपी गलती की क्षमा मांगे अन्यथा हमारी आर्य विद्वानों की शास्त्रार्थ के लिए चुनौती स्वीकार करें? रामभद्राचार्य माफी मांगे या करें शास्त्रार्थ/Swami Sachchidanand Ji Maharaj - YouTube

आर्य समाज और स्वामी रामभद्राचार्य का बयान
आर्य समाज के बारे में आज भी पौराणिक साधु संन्यासी उल्टी सीधी धारणाएं बनाने या अफवाह फैलाने का प्रयास करते रहते हैं। कारण कि ऐसा करने से उनका व्यापार फलता फूलता है।रामभद्राचार्य जी के द्वारा यह कहना कि स्वामी दयानंद जी महाराज राम, रामायण ,कृष्ण और गीता को काल्पनिक मानते थे, इसी प्रकार की काल्पनिक धारणाओं के अंतर्गत आने वाला बयान है। यह सच है कि स्वामी रामभद्राचार्य जी स्वयं विद्वान नहीं हैं। परंपरागत ढंग से पौराणिक जगत में उन्हें विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसी का लाभ उन्हें मिल रहा है।
वास्तव में पौराणिक जगत के साधू - संन्यासियों ,मठाधीशों को स्वामी दयानंद जी के संसार से चले जाने के लगभग 140 वर्ष पश्चात भी उनका धर्म चिंतन और वेद चिंतन रास नहीं आ रहा है। ये सनातनी पौराणिक लोगों को विज्ञान के आधुनिक युग में भी जड़तावादी बनाए रखना चाहते हैं। इनका कठमुल्लावाद अतीत में भी हिंदू समाज के लिए खतरनाक रहा है और आज भी बना हुआ है।
स्वामी दयानंद जी महाराज प्रत्येक प्रकार की ठग-विद्या पाखंड और अंधविश्वास का कड़ा विरोध करते थे। जिन्हें पौराणिक साधु संन्यासी आज भी अपनाकर चल रहे हैं। यह अत्यंत दु:ख का विषय है कि 21वीं सदी में भी बड़ी संख्या में लोग कई छली ,कपटी ,पाखंडी, साधु सन्यासियों या धर्म गुरुओं के पाखंड में फंसते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे लोगों को उनके धर्म गुरु जो कुछ भी बता दें, वही उनके लिए " ब्रह्मवाक्य " हो जाता है।
जहां तक रामचंद्र जी के विषय में स्वामी दयानंद जी के विचारों का प्रश्न है तो उन्होंने ना तो राम को काल्पनिक माना है और ना रामायण को काल्पनिक माना है। स्वामी जी महाराज की स्पष्ट मान्यता थी कि यदि किसी मनुष्य को धर्म का साक्षात् स्वरुप देखना हो तो उसे वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करना चाहिये। जिसमें कदम कदम पर धर्म की मर्यादा का पालन करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रयास करते दिखाई देते हैं। स्वामी दयानंद जी महाराज ने रामचंद्र जी के नाम के पहले मर्यादा पुरुषोत्तम और आप्त पुरुष जैसे विशेषण लगाकर यह बताने का प्रयास किया कि रामचंद्र जी ने धर्म की मर्यादा को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास किया। स्वामी दयानंद जी महाराज कदाचित इसीलिए रामचंद्र जी के जीवन को एक धर्मात्मा का जीवन चरित्र मानते थे। स्वामी दयानंद जी ने जब आर्य समाज की स्थापना की तो उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी के शासनकाल में प्रचलित धर्म व संस्कृति को ही वर्तमान समय में स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार महात्मा गांधी से भी पहले स्वामी दयानंद जी महाराज ने राम राज्य की स्थापना की परिकल्पना की थी। यद्यपि गांधी जी ने भी रामराज्य की स्थापना का संकल्प लिया था , परन्तु उनका वह रामराज्य उनके अपने चरित्र के अनुरूप दोगला ही था। जबकि स्वामी दयानंद जी महाराज रामचंद्र जी के चारित्रिक स्तर पर मजबूत और वास्तविक वीरतापूर्ण कृत्यों को हमारे राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। जबकि स्वामी दयानंद जी का राम कहीं से भी दोगला नहीं है, उनकी दृष्टि में राम हमारी शारीरिक, आत्मिक,आध्यात्मिक , सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उन्नति का प्रतीक हैं । सर्वत्र हमारे लिए वंदनीय हैं। इसीलिए प्रत्येक आर्य समाज में आज भी यज्ञ हवन के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और योगीराज श्री कृष्ण जी की जय बोली जाती है।
महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" में वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयनार्थ बालक-बालिकाओं वा विद्यार्थियों के लिए जो पाठविधि दी है, उसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण को भी सम्मिलित किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे–अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यता प्राप्त हो, को काव्यरीति से अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें।’
स्वामी जी महाराज की इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि वह न तो रामचंद्र जी को काल्पनिक मानते हैं और न ही रामायण, कृष्ण और महाभारत को काल्पनिक मानते हैं। उनकी दृष्टि से यदि देखा जाए तो धर्मद्रोही, राष्ट्रद्रोही ,समाजद्रोही तत्वों के विनाश के लिए वह रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन को भारत के राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। उनकी यही सोच थी कि भारत का बच्चा-बच्चा राम बन जाए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस कविता के माध्यम से भारत के बच्चे-बच्चे को राम के रूप में देखने के अपने दिव्य संकल्प को दोहराता है, वह वास्तव में स्वामी दयानन्द जी महाराज का ही चिंतन है। स्वामी जी महाराज के राम संबंधी चिंतन से प्रेरित होकर ही
रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है :-
ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है,
जब पहरे पर स्वयं, धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
आर्य विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के विषय में लिखा है कि ‘इस समय भारत के श्रृंखलाबद्ध इतिहास की अप्राप्यता में यदि भारतीय अपना मस्तक समुन्नत जातियों के समक्ष ऊंचा उठा कर चल सकते हैं, तो महात्मा राम के आदर्श चरित की विद्यमानता है। यदि प्राचीनतम ऐतिहासिक जाति होने का गौरव उनको प्राप्त है तो सूर्य कुल-कमल-दिवाकर राम की अनुकरणीय पावनी जीवनी की प्रस्तुति से। यदि भारताभिजनों को धर्मिक सत्यवक्ता, सत्यसन्ध, सभ्य और दृढ़व्रत होने का अभिमान है तो प्राचीन भारत के धर्म प्राण तथा गौरवसर्वस्व श्री राम के पवित्र चरित्र की विराजमानता से।’ पं. भवानी दयाल जी आगे लिखते हैं ‘यदि पूर्ण परिश्रम से संसार के समस्त स्मरणाीय जनों की जीवननियां एकत्र की जायें तो हम को उन में से किसी एक जीवनी में वह सर्वगुणराशि एकत्र न मिल सकेगी, जिस से सर्वगुणागार श्रीराम का जीवन भरपूर है। आज हमारे पास भगवान् रामचन्द्र का ही एक ऐसा आदर्श चरित्र उपस्थित है जो अन्य महात्माओं के बचे बचाये उपलब्ध चरित्रों से सर्वश्रेष्ठ और सब से बढ़कर शिक्षाप्रद है। वस्तुतः श्रीराम का जीवन सर्वमर्यादाओं का ऐसा उत्तम आदर्श है कि मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि केवल उन के लिए रूढ़ हो गई है। जब किसी को सुराज्य का उदाहरण देना होता है तो ‘‘रामराज्य” का प्रयोग किया जाता है।’
यही चिंतन स्वामी जी का योगीराज श्रीकृष्ण जी के बारे में रहा है। उन्होंने कृष्ण जी को भी भारतीय क्षत्रिय धर्म परंपरा का सर्वोत्तम महापुरुष माना है। इसके विपरीत पौराणिक लोगों ने श्री कृष्ण जी को बहुत ही अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे उनका वास्तविक पराक्रमी स्वरूप धूमिल सा हो गया है। इन लोगों ने रामचंद्र जी के साथ भी कम अन्याय नहीं किया है।
आज रामभद्राचार्य जी जिस प्रकार की बात कर रहे हैं, वह समय के अनुकूल नहीं है। क्योंकि आज सनातन में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को साथ आकर काम करने की आवश्यकता है। अन्यथा विधर्मियों का कुचक्र हम सबको दलकर रख देगा। जिस समाज के सम्मानित लोग इस प्रकार का आचरण करते हैं, उसमें सामाजिक एकता और समरसता का भाव कभी पैदा नहीं हो सकता । जबकि सामाजिक एकता और समरसता का भाव पैदा करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। आर्य समाज की ओर से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज जैसे संन्यासी इसी प्रकार का वंदनीय कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य सभी सनातनियों को एक मंच पर लाना है। ऐसी वंदनीय प्रयासों के मध्य रामभद्राचार्य जी के वक्तव्य से सारा आर्य जगत आहत है।
अच्छी बात यही होगी कि रामभद्राचार्य यथाशीघ्र स्वामी दयानंद जी के प्रति किए गए अपने पाप पूर्ण आचरण पर प्रायश्चित करें , जिससे आर्य समाज और पौराणिक लोगों के बीच किसी प्रकार का वैमनस्य उत्पन्न न हो। यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो फिर उन्हें आर्य जगत के विद्वानों की ओर से दी गई चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
हमारी मान्यता है कि हमारी सांझा शक्ति उन राष्ट्रद्रोहियों के विरुद्ध खर्च होनी चाहिए जो सनातन को मिटा देना चाहते हैं। यदि उससे अलग हमारी शक्ति आपस में लड़ने झगड़ने, आरोप प्रत्यारोप लगाने में खर्च होती है तो माना जाएगा कि हमने इतिहास से शिक्षा नहीं ली है। इसके सबसे बड़े दोषी रामभद्राचार्य जी जैसे लोग ही होंगे। अच्छी बात यही होगी कि स्वामी दयानंद जी महाराज के सर्व समावेशी विशाल व्यक्तित्व को पौराणिक समाज समझे और सनातन के प्रति आर्य समाज की वास्तविक चिंतनधारा के साथ अपने आपको जोड़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे।
ध्यान रहे कि आर्य समाज पौराणिक जगत का धर्मबंधु ही नहीं है बल्कि भारत की वीर परंपरा का संवाहक होने के कारण उसका रक्षक भी है। अपने इसी पवित्र दायित्व का निर्वाह करते हुए आर्य समाज ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सबसे अधिक बलिदान देकर यह सिद्ध किया कि वह राम और कृष्ण का सच्चा अनुयाई है। आर्य समाज के लोगों को यह ऊर्जा अथवा शक्ति तभी प्राप्त हुई थी, जब उन्होंने इन दोनों महापुरुषों के चित्र की पूजा न करके चरित्र की पूजा की थी। इसके विपरीत जो लोग राम और कृष्ण को कमतर करके आंकते रहे, वह कितने ही मोर्चों पर कायरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए।
समय सच को सच के रूप में प्रतिस्थापित करने का है। समय सामने खड़े संकट को देखने का भी है और उन अनेक षडयंत्रों का भंडाफोड़ करने का भी है जो हमको आपस में लड़ाने की युक्तियां खोज रहे हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि जिम्मेदार लोग अपनी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए आगे आएंगे और जो कुछ हो चुका है , उसे सुधारने संवारने का काम करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )



No comments:

Post a Comment

ধন্যবাদ

বৈশিষ্ট্যযুক্ত পোস্ট

যজুর্বেদ অধ্যায় ১২

  ॥ ও৩ম্ ॥ অথ দ্বাদশাऽধ্যায়ারম্ভঃ ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥ তত্রাদৌ বিদ্বদ্গুণানাহ ...

Post Top Ad

ধন্যবাদ