कन्या और ब्रह्मचर्य - ধর্ম্মতত্ত্ব

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11 August, 2024

कन्या और ब्रह्मचर्य

कन्या और ब्रह्मचर्य

ऋषियों ने ब्रह्मचर्य की तपस्या के बल पर ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की। आज भी जिनकी उम्र लम्बी है वे चरित्रवान्‌ हैं, उनकी ही जीत है। ब्रह्मचर्य क्या है ? जब तक इसे ठीक से न समझ लिया जावे तब तक इससे पूर्ण लाभ उठाना और ब्रह्मचर्य की रक्षा करना असम्भव है। ब्रह्मचर्य दो शब्दों से बना है। वीर्य क्या है पहले इसे समझ लें, फिर इसकी रक्षा का प्रश्‍न होगा। जो भोजन हम प्रतिदिन करते हैं उसका पेट में जाकर पहले रस बनता है, जैसे पशुओं के शरीर में दूध बनता है। वैसे ही असली सार शरीर में रहता है। उसी से रसादि धातुएं बनती हैं। भोजन का जो खराब भाग होता है वह मल-मूत्रादि गंदगी.के रूप में शरीर से निकलता रहता है। रस फिर जठराग्नि में पकने के बाद रक्‍त से मांस, मांस से मेद, चर्बी से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से वीर्य सातवीं धातु बनती है। प्रत्येक धातु के बनने में पांच दिन से अधिक समय लगता है। वीर्य के तैयार होने में शरीर के यंत्रों (मशीनों) को विशेष परिश्रम करना पड़ता। इसमें तीस दिन से अधिक का समय लगता है। तब कहीं जाकर यह स्त्री या पुरुष का बीज वीर्य तैयार होता है। 

बूंद रक्‍त (खून) से एक बूंद वीर्य बनता है। लगभग जो भोजन एक मन की मात्रा में किया जाता है उससे एक सेर रक्‍त (लहू) बनता है। एक सेर रक्‍त से एक तोला वीर्य तैयार होता है। यदि एक तोला वीर्य शरीर से निकल जाए तो एक सेर खून अर्थात्‌ एक मन भोजन का सार नष्ट हो गया। एक बार की कुचेष्टा या रतिचार से, वीर्यपात से ।0 दिन की आयु घटती है। अत: हमारे पूर्वज वीर्यरक्षा में जी जान से लगे रहते थे। यही तो बात थी कि पुराने समय में हमारे देश में 00 से पहले कोई नहीं मरता था। अकाल मृत्यु और बालमृत्यु को कोई जानता भी न था। यह तो शरीर का बल है। वीर्य की अग्नि मृत्यु के पंखों (पैरों) को भी जला डालती है। जिसका शरीर वीर्य से भरा है उसे मृत्यु का भय कैसा? अत: वीर्य की रक्षा करो और भीष्म और दयानन्द के समान मृत्युञ्जय मृत्यु को जीतने वाले बनो। महाभारत के युद्ध में पाण्डव तथा कौरव 80 वर्ष से ऊपर के थे। लड़ाई करते थे। उनका चरित्र का ही बल था। अतः हमें ब्रह्मचर्यं का पालन करना चाहिए। ea का ब्रह्मचारी भीष्म कुरुक्षेत्र के मैदान में घमासान युद्ध मचाता है और प्रतिदिन एक-एक हजार सैनिकों को वीरगति प्राप्त कराता है। ऐसी अवस्था देखकर सारा पाण्डव दल घबराता है। पाण्डव योगेश्वर कृष्ण को नेता बनाकर भीष्म की शरण में जाते हैं। उसी से अपनी विजय का रास्ता गिड़गिड़ाकर पूछते हैं।


प्राचीनकाल में कन्या भी ब्रह्मचर्य का पालन करती थी। गार्गी जी का वृत्तान्त लिखता हूं। गार्गी जी जंगल में घूम रही थी तो कुछ लड़की उनको मिली। एक लड़की ने कहा माता जी आपका शुभ नाम क्या है ? आपका आश्रम कहां हैं, आप किस नियत से आई हो और कहां जा रही हो ? देवी मेरा नाम ब्रह्मचारिणी गार्गी है। तपोवन में हमारा आश्रम है। वहां महर्षि याज्ञवक्ल्य के दो महाविद्यालय हैं। एक कन्याओं के लिए और एक कुमारों के लिये। इन दोनों विद्यालयों के बीच में पांच कोश का अन्तर है, वह इसलिए रखा जाता है कि कुमार और कन्याएं परस्पर मिलने न पायें। कामवासनायें बड़ी प्रबल होती हैं। दर्शन मात्र से ही मन में विकार उत्पन्न हो जाता है और शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है। मनु भगवान्‌ जैसे तपोधन ने मनुष्य की इस निर्बलता का अनुभव कर कन्याओं और कृमारों के ब्रह्मचर्यकाल में परस्पर दर्शन और स्पर्श का निषेध किया है । मैं कन्या महाविद्यालय की आचार्या हूं । गार्गी के वृत्तान्त की तरह ही लेखक का अनुभव है । इस प्रसिद्ध देवी ने अपने ज्ञान विज्ञान और बुद्धि कौशल से बहुत बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की। एक उपनिषद्‌ में इनकी और याज्ञवल्क्य जी के शास्त्रार्थ का वर्णन इस प्रकार है- एक बार मिथिलापति राजा जनक के यहां बड़ा यज्ञ हुआ। कुरू और पांचाल देश के बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान्‌ पंडित वहां पधारे। राजा ने यह जानने के लिये कि इस सभा में कौन-सा विद्वान्‌ बड़ा गंभीर ज्ञान रखता है और अच्छा व्याख्याता है। एक सौ गौ के सींगों पर सोने के खोल आवरण चढ़ाकर ब्राह्मण विद्वानों से कहा कि 'तुम में से जो व्यक्ति शास्त्र में अपूर्व कौशल दिखाएगा वह पारितोषिक रूप में इन गायों को प्राप्त करेगा। 

याज्ञवल्क्य को छोड़कर और किसी का साहस न हुआ कि उनको हाथ लगाए। उनका एक शिष्य सब गौएं हांककर याज्ञवल्क्य के घर ले गया। इस बात पर समस्त विद्वानों में हलचल मच गई। राजा के पुरोहित ने उनसे कहा कि तुम अपनी योग्यता दिखाए बिना इस प्रकार दान के पात्र नहीं हो सकते | याज्ञवल्क्य ने इस सभा के समस्त विद्वानों को प्रणाम करके कहा कि मैं स्वयं को ही इस दान का पात्र समझता हूं। जिसको कुछ कहना हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले। उस समय सभा में छ: महानुभाव थे जिनमें गार्गी भी थी। सभी शास्त्रार्थ के लिए समुद्यत हुए। गार्गी जी भी अन्त में हार गई परन्तु उन्होंने बड़ी देर तक ऐसी गम्भीरता और विचार से शास्त्रार्थ किया कि सभा में पधारे सभी लोग वाह-वाह कर उठे और शास्त्रार्थ समाप्त हो गया। प्रेमराज आर्य का विचार है कि प्राचीनकाल के आर्यो के स्वभाव के सम्बन्ध में कई बातें ज्ञात होती हैं। प्रथम यह कि उस युग में आर्यो के विचार में पशु धन सबसे बड़ा धन समझा जाता था।


उस समय भी स्त्रियां विद्वान्‌ होती थीं। द्वितीय यह कि प्राचीनकाल में पर्दा न था। स्त्रियां मकान की चार दीवारी के अन्दर न रहती थीं अपितु प्रत्यक्ष सभाओं और शास्त्रार्थो में भाग लेती थीं। उन दिनों में बात शास्त्रार्थ की समिति में उपस्थित करता था। ऐसी समिति किसी यज्ञोत्सव या किसी अच्छे अवसर पर प्रबन्ध करती थी। इन सभाओं में ब्राह्मण अपनी विद्वत्ता की धाक बैठाते थे और सभा के सभ्य सभासदों से प्रशंसित होते थे। लगभग ऐसी ही प्रथा यूनानादि में भी थी। जैसा कि लिखा है कि उस देश के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ हरीडेबिक ने ओपमन्यार के अखाड़े में इतिहास पढ़े थे। ब्राह्मणों में अब भी यह प्रथा है कि जो पंडितों पर अपना प्रभाव जमाना चाहता है वह किसी अच्छे अवसर पर अपना चमत्कार दिखाता है और सबसे अधिक दान ले जाता है।


तारा रानी का वृत्तान्त इसका वर्णन रामायण में है। यह तामिल देश के राजा की बेटी थी और कर्नाटक के महाबलीपुर के राजा बाली से उसका विवाह हुआ था। उसके सौन्दर्य और ज्ञान विज्ञान के गुणों की प्रशंसा इतनी थी कि जितनी किसी बुद्धिमती देवी की संभव हो सकती थी।


मन्दोदरी का वृत्तान्त


यह देवी तमिल देश की पुत्री थी, इसका विवाह लंका के राजा रावण से हुआ था। लंका आर्यावर्त देश के दक्षिण की ओर समुद्र का एक टापू है। इसी को सिंहलद्वीप भी कहते हैं। सौन्दर्य और लावण्य के अतिरिक्त बहुत सी योग्यता और विशेषता इस देवी में पाई जाती थी। जिसका होना बुद्धिमान्‌ और गम्भीर पुरुष अपनी पत्नियों में अवश्य चाहते हैं। जब रावण ने सीता को बल और छल-कपट से उठाकर अशोक वाटिका में बंदी बनाया था तो मन्दोदरी ने कई बार उसकी मुक्ति का यत्न किया था। परन्तु रावण ने एक न सुनी । स्त्रियों को स्त्री पर प्राय: दया आती है। इस दया का आना मनुष्यपन है। शतरंज का प्रसिद्ध खेल जो सदियों से चला आ रहा है और जो संसार भर में प्राय: प्रचलित है, यह भी मन्दोदरी की बुद्धि का चमत्कारपूर्ण कौशल है। इस खेल के निकालने का कारण यह बताते हैं कि रावण युद्ध और हत्या का बहुत उत्सुक था। अतः मन्दोदरी ने अपने चमत्कार से यह खेल निकाला। अभिप्राय यह था कि उसका पति रावण इस खेल में शतरंज के मोहरों को युद्ध में मारकर अपना मन बहलाकर ईश्वर की सृष्टि को बर्बाद न करे। परन्तु रावण की बुद्धि अच्छी नहीं थी। मन्दोदरी ने बहुत प्रयत्न किया। इस बात से यह सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल में भी स्त्रियां पढ़ी लिखी और विदुषी होती थी।


सीता जी का वृत्तान्त


जो प्रसिद्धि आर्या में रामचन्द्र जी की रानी सीता ने पाई वह किसी स्त्री के भाग्य में न आई। विभिन्न आपत्तियों को झेलना, भिन्न-भिन्न परिणामों को देखना, कुलीनता, सज्जनता, ईश्वरप्रदत्त सौन्दर्य की सूक्ष्मता और गुणों की विशेषता यह सारी बातें ऐसी हैं जिनके कारण प्रति पक्ष और प्रति सम्प्रदाय के आर्य इनके नाम को आदर से लेते हैं। हिन्दू सीता का ऐसा मान करते है जैसे ईसाई मैडम मरियम का औरं मुसलमान बीबी फातिमा का। सीता के पिता का नाम महाराज जनक था। वह मिथिला देश का राजा था। जिसे आजकल तिरहुत कहते हैं। इस लड़की के अतिरिक्त उनको और कोई सन्तान न थी। अत: बड़े प्रेम और प्यारे इसकी  पाला पोसा था। सौन्दर्य ओर रूप   लाबोंन्य में उस समय इस देश का कोई और दृष्टान्त न था और विशिष्ट स्तुत्य गुणों ने उसे और भी चमका रखा था। एक बुद्धिमान्‌ का वचन है कि वीर पुरुष के अतिरिक्त गुणवती स्त्री का कोई सानी नहीं है। इस वचनानुसार उसके पिता ने निश्‍चय किया कि जो कोई इस धनुषकमान को जो यह सभा में रखा हुआ है, इस पर चिल्ला चढ़ायेगा वही सीता को प्राप्त करेगा। उस काल में वीरता ही योग्यता समझी जाती थी। समस्त सरदार और क्षत्रिय लड़कियां उन्हीं लोगों को देते थे जो युद्धविद्या में प्राथमिकता प्राप्त करते थे। यह कमान कोई आसान कमान नहीं थी। और न कोई चमत्कार रखती थी। प्रत्युत बड़ी भारी और सुदृढ़ थी कि उसका खींचना कठिन था। ऐरियन नाम का एक इतिहासकार लिखता है कि भारत के लोग कमानों को पांव से खींचते थे। उनका तीर छः फुट लम्बा होता था। ऐसी कमान अब भी पर्वतीय प्रदेशों में पाई जाती हैं। राजा जनक के पास ऐसी कमान ;होना विचित्र बात नहीं है। प्रेमराज लिखते हैं कि सीता के सौन्दर्य और गुणों तथा उनके पिता के धन ऐश्वर्य की प्रसिद्धि आर्यावर्त देश में फैल गई। समीप और दूर के बहुत से राजा श्री जनक जी के दरबार में आने लगे। उस समय रामचन्द्र जी के यौवन का प्रारम्भ था। धनुर्विद्या में उन्होंने पूर्णता प्राप्त की थी। कोई राजा श्री रामचन्द्र जी के अतिरिक्त उस कमान को न खींच पाया। उन्होंने. केवल खींचा ही नहीं अपितु दो भाग भी कर दिए। उनकी परमवीरता को देखकर सीता के पिता ने उसका विवाह रामचन्द्र जी से कर दिया और वह उनको लेकर अयोध्या में चले आये जहां उनके पिता दशरथ का राज्य था। वहां रहते हुए रामचन्द्र जी को थोड़े ही दिन हुए थे कि उनके पिता दशरथ ने अपनी एक रानी के हठ के कारण रामचन्द्र जी को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया। रामचन्द्र जी सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर वहां से चले गए। इलाहाबाद से होते हुए चित्रकूट पर्वत पर पहुंचे। कई वर्षों तक इधर घूमकर अन्ततः पंचवटी में गोदावरी के उद्गम स्थान के निकट ही एक कुटिया बनाकर वहां शेष समय व्यतीत किया। उनके घर से जाने के पश्चात्‌ राजा दशरथ व्याकुल होकर परलोक सिधार गए। तब रामचन्द्र जी को लौटा लाने के लिए भरत व उनकी माता जी उनके पास गए। परन्तु उन्होंने


वचनानुसार वनवास की अवधि समाप्त होने से पूर्व अयोध्या जाने से इनकार कर दिया। श्री रामचन्द्र जी, सीता जी और लक्ष्मण जी सहित पंचवटी में रहते, वन के फलाहार से अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस यात्रा काल में जिस तत्परता के साथ राम लक्ष्मण और सीता के साथ सद्व्यवहार करते थे तथा जिस प्रेमाभाव से उनकी सुध लेते थे, उससे सिद्ध होता है कि आर्य अपनी स्त्रियों का बहुत मान करते थे। राम और लक्ष्मण सीता को कभी अकेला नहीं छोड़ते थे। एक दिन अकस्मात्‌ हिरण का रूप बनाकर एक बच्चा उस मार्ग से गुजरा। सीता का मन उनके रंग-रूप पर मोहित हो गया। उसने रामचन्द्र जी से प्रार्थना की कि महाराज यदि यह मृग मुझे जीवित मिल जाए तो मेरा मन इस वनवास में संतोष पाये। रामचन्द्र जी उसके पीछे गए और उसे जीवित पकड़ने के विचार से बहुत देर की। जिस परं लक्ष्मण जी सुध लेने गए। दुर्भाग्य से लंका का राजा. रावण सीता को अकेली देखकर बलपूर्वक ले गया | इस का कारण यह था कि रावण की बहिन रामचन्द्र जी से विवाह करना चाहती थी। वह बोले कि मेरी पत्नी तो मेरे साथ है, मेरा छोटा भाई लक्ष्मण अपनी पत्नी साथ नहीं लाया। आप उनके पास जाकर यह प्रस्ताव रखिये। जब उसने लक्ष्मण के सामने यह प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मण जी ने भी साफ इनकार कर दिया। परन्तु शूर्पणखा गुप्त रूप से आकर सीता को डराया करती थी। लक्ष्मण ने उसकी नाक काट डाली। विवश होकर रावण उसकी सहायता के लिए आया और सीता को अकेली पाकर ले गया। लंका में ले जाकर कामवासना के वशीभूत होकर उसने कई तरह के जाल बिछाए। यहां तक कि सीता को बन्दी बना दिया। परन्तु सीता की पवित्रता के आगे उसकी एक न चली |


लेखक का विचार यह है कि लड़की का विवाह देखभाल कर करना चाहिये | द्वितीय युवावस्था में विवाह होना चाहिए | जबकि पूरे दाम्पत्याधिकार तथा कर्त्तव्य का ज्ञान होना, तृतीय वीर के साथ विवाह करना चाहिए न कि आभूषण के लोभ में किसी वृद्ध के साथ | चतुर्थ धैर्य, शांति और आज्ञा-पालन से पति के दुःखों में सम्मिलित होना चाहिये | पंचम आपत्ति और कैद में भी पति को न भूलना चाहिए। छोटी-छोटी बातों को मन से न लगाना चाहिए जिससे पति का जीवन आपत्ति में पड़ जाए और स्वयं भी दुःखी होना पड़े। इसकी एक छोटी सी घटना प्रेमराज लिख रहा है। एक लड़की पढ़ी लिखी थी और बहुत अच्छे घर में विवाह कर fear | लड़के के एक नाम 30 किले जमीन थी। ट्यूबवैतर लगा हुआ था और भी बहुत कुछ था। अच्छे परिवार में ब्याही थी। लेकिन लड़की कुसंग में पड़ गई और किसी बदमाश के साथ भाग गई। वह उस लड़की को दिल्ली में ले गया। दिल्ली में दिवान हाल भें एक जलसा था, मैं उस में गया था। एक रिक्शा वाले को मैंने दीवान हाल के LA रुपये किराये के दिये। रिक्शा वाले ने रिक्शा दीवान हाल से पहले ही रोक दी। मैं बोला भाई अभी दीवान हाल नहीं आया है। वह रिक्शा वाला मकान के अन्दर चला गया। इतनी देर में एक लड़की आई और मेरे ` को देखकर रोने लगी। मैंने पूछा बहन क्या बात है ? वह लड़की कहने लगी भाई प्रेमराज मैं तुमको जानती हूं। मैंने अपना जीवन खराब कर लिया और इस रिक्शा वाले के साथ आ गई। अच्छे घर में बियाही थी | लेकिन बुरा विचार बुरी संगत मनुष्य का जीवन बिगाड़ देती है। मेरे तीन बच्चे हैं और मजदूरी पर जाती हूं। अब मेरे दिमाग में यह आता है कि यह जीवन तो खराब कर लिया। आगे के जीवन के वास्ते क्या करना चाहिये। अब मैं मरना चाहती हूं। मैंने देखा वह लड़की पागलों की तरह बातें करती थी। जो उसने किया उसका उसको अहसास हो रहा था। इसलिए बहुत ध्यान से रहना चाहिए। थोड़ी सी बुरी संगत * आदमी का जीवन खराब कर देती है। हमेशा अच्छे विचार रखने चाहिएं। उस लड़की ने अच्छे घर में जन्म लिया और अच्छे घर में Tel और अपनी गलती से जीवन खराब कर लिया। इस प्रकार लड़का-लड़की को बहुत ध्यान से रहना चाहिए। एक तो सीता जी का नाम लेते ही गर्व होता है कि लड़की दो परिवारों का नाम रोशन करती है। सीता ने अपने पिता जनक का नाम सारे संसार में कर दिया और राजा रामचन्द्र का नाम भी सारे संसार में कर दिया। इस प्रकार चरित्रवान्‌ बनें । चरित्र से ऊंची संसार में कोई चीज नहीं है। मैंने बहुत बच्चों को देखा जो अच्छे विचार का बच्चा होता है उसका चेहरा चमकदार मिलेगा और चरित्रहीन का चेहरा मुरझाया। ऊंचे विचार रखने चाहिएं। जिस प्रकार सीता ने कितना कष्ट देखा फिर भी अपने कर्त्तव्य का पालन करती रही | अपने पति का ही ध्यान लगा रावण की जेल में रही और जंगल में ऋषि के आश्रम में रहकर लड़कों को पाला। पाला ही नहीं बल्कि उन्हें युद्ध-विद्या में भी निपुण कर दिया। सीता ने अपने कर्त्तव्य का पालन पूरा किया। इस प्रकार लड़कियों को पक्का ध्यान रखना चाहिए। भगवान्‌ से दूसरा अपने पति को मानना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए। जितनी विद्या पढ़ें उतने सादे विचार रखें। कोई गाली देने वाली लड़की हो उस लड़की से बचकर रहना चाहिए। अच्छे विचार वाली लड़कियों से सम्बन्ध रखें और अपने विचार ऊंचे रखें। कभी भी हृदय की बात अन्य को न बताएं। गंदी बातों से मन में खराबी आती है।


शकुन्तला


शकुन्तला यह देवी भारत में ऐसी हुई कि जिसके वर्णन से एक प्रसिद्ध कवि कालिदास ने अपने नाटक को शोभायमान किया है। शकुन्तला राजर्षि विश्वामित्र और मेनका की सन्तान थी। कण्व ऋषि ने इसका पालन-पोषण किया था। ये ऋषि हरिद्वार के समीप एक छोटी सी नदी के सामने के तट पर एकान्त स्थान में रहते थे। उनके आश्रम के चारों ओर भांति-भांति के स्वयं उत्पन्न होने वाले फूलों के पौधे थे। कण्व को शकुन्तला अति प्रिय थी। अतः उन्होंने बड़े लालन-पालन से उसे पाला-पोसा था। जो बातें ज्ञानादि की तथा आचार शास्त्र की स्त्रियों को सिखानी चाहिएं वह सब इसे सिखा दी थी। पशु-पालन और पौधों को पानी देना इस लड़की का काम था। जब वह युवावस्था में पहुंची तो अचानक एक दिन राजा दुष्यन्त शिकार करता हुआ उधर आ निकला। कण्व जी उस समय आश्रम में न थे। आतिथ्य के लिए शकुन्तला ने उनका स्वागत किया। आंखों का चार होना था कि दोनों को कामदेव के तीर ने बांध दिया। दृष्टिपात से ही दोनों ने एक दूसरे का रहस्य समझ लिया। उसी समय राजा दुष्यन्त ने अपना वंश कुलादि बताकर कहा कि शकुन्तला मैं आपके साथ गन्धर्व विवाह करना चाहता शकुन्सला औष कण्व की स्वीकृत्ति से दुस्मन्त नेउससे गंधर्ब  विवाह किया। विवाह के पश्चात्‌ राजा कुछ समय तक वहां रहा और पुनः अपनी राजधानी को चला गया। चलते मय शकुन्तला को अपनी .


अंगूठी देकर यह कहा कि कुछ दिन में मैं तुम्हें अपने पास बुला लूंगा। थोड़े समय के पश्चात्‌ शकुन्तला के गर्भ के चिन्ह प्रकट हो गए। शकुन्तला अपने पिता जी के साथ हस्तिनापुर की ओर चली। रास्ते में एक तालाब पर उसकी स्नान करने की इच्छा हुई। स्नान करते समय उसकी अंगूठी तालाब में गिर गई। जब वह अपने पति के पास पहुंची और उसने अपना चिहन न देखा तो उसकी बात को न माना और वन में जो वचन दिये थे उन सबको भुला दिया। राजा ने शकुन्तला को स्वीकार न किया तो उसकी माता आकर उसे वन में ले गई।


यहां पहुंचकर शकुन्तला के एक लड़का हुआ जिसका नाम भरत रखा गया। इस लड़के के साहस का यह वृत्तान्त लिखा है कि वह वन में शेरों से न डरता था। उसके सामने उनके बच्चों से खेलता था। अन्त में जब वह अंगूठी जो शकुन्तला के हाथ से गिर पड़ी थी, किसी प्रकार राजा के पास पहुंची और भरत की वीरता तथा साहस की प्रसिद्धि सुनी तो वास्तविकता जानने के लिए वन में पहुंचा। भरत को अपना बेटा माना और शकुन्तला को साथ लाकर उसे पटरानी बनाया। भरत बड़ा वीर और योद्धा हुआ और भारत के बहुत से भाग को उसने जीता | इसी भरत के नाम से आर्यावर्त देश का नाम भारत पड़ा। प्रेमराज आर्य का विचार है कि धर्म पर रहने वाले को भगवान्‌ जरूर देखता है। जिस प्रकार शकुन्तला की भगवान्‌ ने सुनी और पटरानी बनी। ईश्वर का कानून है कि हम बेझड़े मिलगे, धर्म की कसौटी पर रगड़े मिलगे। लड़की हो या लड़का हो धर्म पर पक्का रहना चाहिए। 


कुन्ती का वृत्तान्त


कुन्ती का नाम आर्यो के इतिहास में ऐसा ही प्रसिद्ध है जैसे रोम वालों में जेस्या का । इस जेस्या के विषय में लिखा है कि इसके दो बड़े लड़के वीर साहसी और देशप्रेमी थे। यह श्रेष्ठ सदाचारिणी थी। यह देवी ईसामसीह से 200 वर्ष पूर्व हुई थी। लिखा है कि एक बार एक स्त्री अपने समस्त आभूषण शरीर पर धारण करके उसके पास आई और अपने आभूषण दिखाकर कहने लगी कि तू भी अपने' आभूषण मुझे दिखा दो। उसने अपने दोनों लड़कों को उसके सम्मुक खड़ा कर दिया और कहा कि इन दोनों आभूषणों के अतिरिक्त मेरे पास और कोई आभूषण नहीं है। RY मुझे तो इन पर पूरा गर्व है। कुन्ती राजा सुर की लड़की थी, जा मथुरा का राजा था। उन दिनों मथुरा का राज्य बड़े राज्यों में माना जाता था। अत: पाण्डव जैसे राजा का जो चन्द्रवंशी कुल का सूर्य था। मथुरा के राजा की लड़की से विवाह करना दोनों के गर्व का कारण था। राजा पाण्डव की दो स्त्रियां थीं। एक कुन्ती दूसरी माद्री। कुन्ती से युधिष्ठिर भीम और अर्जुन तीन लड़के तथा माद्री से नकुल सहदेव दो लड़के उत्पन्न हुए। इस पांचों को प्राचीस इतिहास में पाण्डव कहते हैं। पाण्डु प्रतापी राजा था .कई वर्ष तक उसने बड़ी शान से राज्य किया। अन्त में राज्य छोड़कर हिमालय पर्वत पर चला गया ताकि शेष आयु सपरिवार वहां एकान्तवास में व्यतीत कर सके। पर्वत यात्रा से अपना मन बहलाए।. जब पाण्डु का स्वर्गवांस हुआ तो कुन्ती पांचों लड़कों को लेकर उनके चाचा धृतराष्ट्र के पास चली गई। राजा धृतराष्ट्र ने इनका बड़ा स्वागत किया। महल में अपनी धर्मपत्नी गांधारी के पास उसे रहने का स्थान दिया और उसके बच्चों को अपने बच्चों की भांति पालने लगा। सबकी शिक्षा के लिए गुरु द्रोणाचार्य पूर्ण गुरु मिले थे। परन्तु माता की शिक्षा भी उनको गुरु की शिक्षा से कम लाभदायक न थी। जब पाण्डव प्रथम वार देश निर्वासित हुए तो कुन्ती उनके साथ वनों और जंगलों में फिरती रही। वनों से निकलने के पश्चात्‌ सबके सब वारणावत अर्थात्‌ इलाहाबाद पहुंचे | यहां उनके शत्रुओं ने उनके मारने का एक षड्यन्त्र रचा था कि सभी जलकर राख हो जाते परन्तु उनका बाल भी बांका न हुआ | वहां से धारा नगर में पहुंचे। इस घर में रुदन शोर सुनकर पता किया तो उन्होंने बताया कि इस नगर के निकट वक नाम का एक नरभक्षी जंगली मनुष्य रहता है। उसका आचरण यह है कि प्रतिदिन एक मनुष्य खाकर अपना पेट भरता है। क्रमशः प्रत्येक घर से इस नगर का एक व्यक्ति भोजन की सामग्री सहित उसके पास भेजा जाता है। आज उसको भोजन भेजने की हमारी बारी है। इस पर कुन्ती ने कहा कि तुम कुछ चिन्ता मत करो। मैं आज अपने एक लड़के को भेज दूंगी जो उस नरभक्षी को मार डालेगा। भीमसेन इस काम के लिए नियत हुए और पीपल के वृक्ष के नीचे जहां वह नरभक्षी आकर मनुष्यों को खाता था, जा बैठा। जिस समय वह नरभक्षी आया और चाहा कि उसका भोजन करे वह उससे लड़ने लग गया। बड़ी देर तक दोनों में युद्ध हुआ। अन्त में भीम की विजय हुई। प्रेमराज लिखते हैं कि परमार्थ के वास्ते ही वीर माता ने अपना पुत्र भेज दिया। इस प्रकार का अपना दिल बनाना चाहिए। प्रेमराज आर्य का अपना विचार पुरुष हो या स्त्री प्रथम स्त्री को श्रेष्ठ सन्तान और वीर पुत्रों पर गर्व करना चाहिए न कि आभूषणों पर | द्वितीय माता का शिक्षित होना लड़कों के लिए महारमायन व्रत है । तृतीय घरेलू कार्यों के अतिरिक्त देश की राजनीति मैं स्त्रि सम्मति देती हैं। चतुर्थ स्त्रियों में भययुक्त विचार होने से सन्तान डरपोक बनती है। 

गान्धारी का वृत्तान्त


गान्धारी बड़ी बुद्धिमती और श्रेष्ठ देवी थी। यह गंधार के महाराजा की पुत्री और हस्तिनापुर के अधीश्वर राजा धृतराष्ट्र की रानी थी। चाहे उसका पति चक्षुहीन था परन्तु उसने उसके मान और आज्ञापालन में कोई त्रुटि नहीं आने दी। गांधारी से राजा धृतराष्ट्र के दो लड़के दुर्योधन तथा दुःशासन थे। एक लड़की दुःशला उत्पन्न हुई। उसकी सच्चरित्रता और पवित्रता की यहां तक प्रसिद्धि थी कि आज तक भी लोग उसका दृष्टान्त देते हैं। जब दुर्योधन का पाण्डवों के साथ बिगाड़ हुआ तो इस देवी की बुद्धिमत्ता के कारण राजा ने उसको दरबार में दुर्योधन को समझाने के लिए बुलवाया था। Weg उस हठी और दुष्ट ने जिस प्रकार और बड़ों की बात को न माना। माता की शिक्षा पर भी कान न धरे। अन्त में परिणाम यह हुआ कि कुरुक्षेत्र की भूमि में दोनों का युद्ध हुआ और समस्त कौरव इस युद्ध में मारे गए। इस घटना के पश्चात्‌ जब पाण्डवों को धृतराष्ट्र और गांधारी के दुःखी होने का ज्ञान हुआ तो प्रथम उन्होंने उनकी सान्त्वना के लिए कृष्ण जी को उनके पास भेजा। जब वह वहां पधारे तो उन्होंने मृतकों पर शोक प्रकट करके महाराज को सान्त्वना दी। उसके पश्चात्‌ चाहते थे कि महल में जाकर गान्धारी को धैर्य दे। परन्तु उनका आना सुनकर उससे रहा न गया और वह शोकातुर हो गया। प्रेमराज आर्य का विचार है कि मां-बाप की जो नहीं मानता उसको दु:ख पाना पड़ेगा। अगर दुर्योधन माता की बात मान लेता तो महाभारत युद्ध नहीं होता। 


द्रोपदी का वृत्तान्त


द्रोपदी की कथा लिखते हुए लेखनी की जिहूवा पर छाले पड़ते हैं | यह राजा पांचाल की लड़की थी। समस्त गुणों से युक्‍त ज्ञान-विज्ञान सदाचार के मोती से शोभायमान होकर जितनी प्रशस्ति एक सच्चरित्र देवी में उचित है उसमें सब विद्यमान थे। जिस प्रकार सीता का स्वयंवर धूमधाम से हुआ। द्रोपदी का स्वयंवर भी उससे कुछ कम न था। द्रोपदी के स्वयंवर का समाचार समस्त आर्यावर्त में फैल गया। बड़े-बड़े राजा महाराजा आदि स्वंयवर में पधारे। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पाण्डव निर्वासनावस्था में उन दिनों आरा में एक ब्राह्मण के घर गुप्त रूप से ठहरे हुए थे। स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डव कमीला नगर से पांचाल राजधानी में पहुंचे । स्वयंवर के दिन शर्त पूरी करने के लिए भाइयों की सम्मति से अर्जुन आगे बढ़ा। स्वयंवर की शर्त यह थी कि एक सोने की मछली बनाकर लटकाई गई .थी। उस मछली के चारों ओर एक चक्र तीव्र गति से घूम रहा था। जिस पर दृष्टि कठिनता से ठहरती थी। शर्त यह थी कि जिस वीर पुरुष का तीर चक्र में से निकलकर मछली की आंख में लगे वही वीर द्रोपदी के साथ विवाह करने योग्य समझा जायेगा। संक्षेप यह है कि द्रोपदी सुन्दर वस्त्र धारण करके स्वयंवर सभा में आ गई। जब कुछ महानुभाव असफल होकर बैठ गये तो अर्जुन ने आगे बढ़कर और परमेश्वर का स्मरण करके धनुष उठाया। ऐसा ताककर निशाना लगाया कि तीर ने चक्र से निकलकर मछली को उड़ा दिया। द्रोपदी ने उसी समय पुष्पमाला अर्जुन के गले में डाल दी। राजा ने बड़ी सजधज से द्रोपदी का विवाह किया। कोई न्यूनता न छोड़ी। पाण्डव तब कमीला में रहने लगे। जब राजा धृतराष्ट्र को यह ज्ञान हुआ कि द्रोपदी का स्वयंवर भी पाण्डवों ने जीता है तो उसने उनको हस्तिनापुर बुलाया । हस्तिनापुर पहुंचने पर कौरवों ने पुन: फूट की आग उगली। जब ` द्यूतक्रीड़ा की लत में दोबारा पाण्डवों ने अपना धन और राज्य हरा दिया तो मूर्खताजनित प्रथा में फंसकर निरपराध बेचारी द्रोपदी को दांव पर लगा दिया। तो स्वार्थ का वह बीज जिसके फूटने से देश का विनाश संभव था, मूर्खता के फदे में फंसकर मनबहलाव में बोया गया। लेखक का विचार है कि कभी भी जुआं नहीं खेलना चाहिए। प्रेमराज आर्य की कुछ ज्ञान की बातें पढ़ें। यह बहुत ज्ञान की बात है। कई बार पढ़कर इनका मतलब समझें और लाभ उठायें। मेरी श्रद्धेय तथा प्यारी माताओ, बहनो, बेटियो ! इस प्रकार हैं यह बातें सबसे पहले हमने समझकर ध्यान से देखना है।


पहली बात हमारे पास जितना समय है, उस समय को अच्छे से अच्छे और उत्तम से उत्तम कार्य में लगावें। समय को बर्बाद न करें। तास, चौपट, सिनेमा तथा नाटक आदि में समय बर्बाद न करें। कई खेल ऐसे हैं जिनसे शारीरिक व्यायाम होता है, परन्तु प्रायः सिनेमा देखने से आंखें खराब होती हैं। धन की बर्बादी होती है। समय भी बर्बाद होता है और चरित्र भी खराब होता है। हमें जो समय मिला है वह सीमित है, असीमित नहीं है । जैसे घड़ी में जितनी चाबी भरी हुई होती है उतनी ही देर वह चलती है। चाबी समाप्त होते ही घड़ी बन्द हो जाती है। ऐसे ही हमारी श्वास घड़ी चलती है। श्वास खत्म होल ही मरना पड़ता है। फिर कोई जिए या बोल जाए यह हाथ की बात नहीं है। इसलिए यह श्वास निरर्थक बातों में व्यर्थ करना ठीक नहीं है। हमें अपने समय का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।


दूसरी बात आपके लिए बहुत सुगम है। यह है जीवन सादगी से  बिताएं। अपना व्यक्तिगत खर्च कम से कम करें। साधारण भोजन करना चाहिए। साधारण कपड़े पहनें और साधारण मकान में रहना ऐसे जीवन निर्वाह करने की आदत डालें। जब ऐसी आदत बन जाएगी तो आप बढ़िया भोजन भी कर सकते हैं। बढ़िया कपड़े भी पहन सकते हैं और समय पर साधारण से साधारण भोजन भी कर सकते हैं और साधारण मकान में निर्वाह कर सकते हैं। तीसरी बात यह है कि आप जो काम करें उस काम में कारीगरी चतुराई होशियारी बुद्धिमानी बढ़ाते रहें । यह विद्या आप यहां सीख लोगे तो यह सदा आपके पास रहेगी। ऐसा देखने में आया है कि अगर कोई आदमी काम सीख लेता है, उसके यह काम सारी उम्र काम आता है। मैंने बचपन से ही पक्का ध्यान बना लिया था कि कोई काम हो हाथ से करना। जब प्रेमराज खेती करता था सभी काम आप करता था। हल चलाना, दूध निकालना, पानी भरना तथा पशुओं का गोबर तक मैंने गिराया है और दुकान का भी मैंने सारा काम अपने हाथ से किया। सारे जीवन में जिस काम में लगा वही पूरा हुआ। भगवान्‌ की ऐसी कृपा थी। चौथी बात प्रेमराज लिखते हैं कि पराया हक न लेना चाहिए। चोरी, डकैती आदि करना तो बहुत दूर रहा। दूसरों का हक हमारे पास न आये। इस विषय में खूब सावधान रहना है। प्रेमराज लिखते हैं कि यह सारी बात वेद की हैं। यह आप सब जानते हैं कि हमें यह मानव देह बड़े ही शुभ कर्म से मिलता है। अत: इसका एक क्षण भी व्यर्थ खोना बुद्धिमानी नहीं है। इस अमूल्य जीवन में आप बिना विचारे अनेक काम ऐसे कर रहे हैं जिहें नहीं करना चाहिए और उन कामों को नहीं कर रही जिन्हें करना चाहिए। आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इस बारे में प्रेमराज आर्य की यह छोटी सी पुस्तक पढ़ें और लाभ उठायें। मैं कुछ मोटी-मोटी बातें बताता हूं। केवल इन बातों को समझने मानने और इन पर चलने से ही आपका बड़ा भारी कल्याण हो सकता है। यदि आप इस लोक में और परलोक में सच्चा सुख चाहती हैं तो इन बातोंको “मानो और इन्हीं पर चलो।


ईश्वर एक है वह निराकार है, उसका कोई रंग रूप नहीं होता | उसको कहीं भी ढूंढने जाने की आवश्यकता नहीं। वह प्रत्येक काल में है और प्रत्येक स्थान पर है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप अनन्त निर्विकार अनादि अनुपम और सर्वाधार है। जगत्‌ की रचना करनेवाला उसे पालने वाला प्रलय करने वाला सूरज-चांद को बनाने और चलाने वाला, धरती आकाश हवा पानी तथा आग को बनाने वाला, धर्मात्माओं को सुख तथा पापियों को दुःख देनेवाला है। सबको ईश्वर की ही उपासना करनी योग्य है।


ईश्वर और जीव ये दो भिन्न-भिन्न शक्तियां हैं और ये दोनों स्वरूप से सदा भिन्न-भिन्न रहते हैं। कभी एक नहीं हो सकते। हां ईश्वर एक है वह सर्वव्यापक है और जीव असंख्य हैं और एकदेशी हैं। अत: व्याप्त भाव से जीव ईश्वर में ही है और रहेगा। वह कभी ईश्वर से पृथक्‌ नहीं हो सकता। यही सिद्धान्त ठीक है। नवीन वैदान्तियों का अहम्‌ ब्रह्मास्मि कहना ठीक नहीं है। ईश्वर कभी कच्छुआ मच्छर सूकर आदि का अवतार नहीं ले सकता। वह निराकार निर्विकार और सर्वव्यापक है। नस नाड़ी के बन्धन से रहित है। चार वेद जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथा अथर्ववेद है। ये चारों साला ले. सृष्टि, के आदि परमात्मने सृष्टि के आदि में अग्नि आदित्य बायु अंगिरा इन चार ऋषियों के आत्माओं में प्रकट किए हैं । यही चारों वेद ईश्वर की वाणी हैं। इनमें जो भी करना लिखा है वही हमको करना चाहिए। वेद पढ़ने का सबको अधिकार है, चाहे स्त्री शूद्र कोई भी हो। सच्चा मत केवल एक वेद का है। उसे ही मानना और सदा उसी पर चलना चाहिए। मुझे एक भजन याद आ गया, वही लिख रहा हूं। बेबे वेद धर्म पर चाल तेरी हे काया सुख पायेगी।। ऋषि मुनिकृत उपनिषद्‌ तथा शास्त्र आत्मा परमात्मा तथा सृष्टि विद्या को ठीक बताने वाले हमारे धार्मिक ग्रंथ हैं। प्रक्षिप्त को छोड़कर इन ग्रंथों में जो लिखा है उसे मानना चाहिए। ये संस्कृत के ग्रंथ हैं परन्तु महर्षि दयानन्द रचित एक हिन्दी ग्रंथ है। यह ग्रंथ बड़ा ही महान्‌ है। इसमे सृष्टि से लेकर प्रलय तक का प्रत्येक मनुष्य के लिए बहुत ही सुन्दर सुगम रूप से वर्णन किया है। इस ग्रंथ को हमें अवश्य ही पढ़ना चाहिए। इस ग्रंथ का नाम सत्यार्थप्रकाश है और यह आर्यो के पास मिलता है। धर्म और सच्चाई एक ही हो सकती है पर अधर्म और झूठ अनेक होते हैं। हमें धर्म और सच्चाई पर ही चलना चाहिए। अधर्म और झूठ को सदा त्यागना चाहिए तभी हमारा कल्याण हो सकता है वरना नहीं | ईश्वर का भजन करना, वेद शास्त्र को मानना, उनमें लिखी बातों * पर आचरण करना, पंचमहायज्ञादि का करना इत्यादि धर्म में आते हैं। प्याऊ आदि बनवाना, भूखे को भोजन खिलाना, जानवरों को दाने डालना इत्यादि पुण्य में आते हैं। इन दोनों में बहुत थोड़ा अन्तर है औरं उसे समझना बहुत हीं कठिन है। बेईमानी करना, चोरी करना, झूठ बोलना किसी जीव को सताना या मारना आदि पाप में आते हैं। देश काल  काम, कहलाता है वही अधर्म या पाप हो जाता तथा जो पाप कहलाता है वह धर्म या पुण्य हो जाता है। यथा एक सयाने कुत्ते को रोटी डालना पुण्य नहीं उलटा उसे मार डालना पुण्य है। किसी मनुष्य की हत्या करना पाप है पर फौज में शत्रु के आदमियों को मारना और डाकू चोर आदि दुष्ट व्यक्तियों को मारना पुण्य है। काले साप भिरड़ ततैया आदि का जंगल में मारना पाप पर घर में मारना पुण्य है। इसी प्रकार चूहे, Atel, मच्छर, खटमल आदि के कष्ट से बचने के लिए तथा खेती बाड़ी को हानि से बचाने के लिए टिड्डी फडका कातरा आदि को भगाना या मारना भी पड़े तो इसमें कोई पाप नहीं है।


यज्ञोपवीत पहनना स्त्री-पुरुष दोनों का समान अधिकार और कर्त्तव्य है। जो भाई स्त्रियों का यज्ञोपवीत नहीं मानते वे बड़ी भारी गलती में हैं। इस विषय में सारी बात विद्वानों से पूछें। प्रत्येक प्राणी सुख की इच्छा करता है और सबसे लम्बा तथा सबसे बढ़िया सुख मोक्ष है। यह मोक्ष सुख मनुष्य योनि से ही सच्चे ज्ञान और जन्म जन्मान्तर के अत्यन्त शुभ कामों से प्राप्त होता है। मोक्ष को मुक्ति तथा अपवर्ग आदि भी कहते हैं। मोक्ष से जीव को पुन: लौटकर आना पड़ता है। मोक्ष अवधि ब्रह्मा के अनुसार 100 वर्ष अर्थात्‌ 36000 बार सृष्टि की रचना और प्रलय के बराबर समय तक की होती है। हमारे वर्षों में इसकी गणना 31400000000000 वर्ष होती है । अर्थात्‌ मोक्ष होने पर इतने वर्षों तक जीव मोक्ष में रहता है। ये सारी बातें वेद में है। मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा उससे यह सारी बात मिली हैं। प्रेमराज आर्य का अपना विचार है कि जो लोग ईश्वर के सिवाय और पाखण्डों में रहते हैं वह पागल हैं। जैसे राम-राम, कृष्ण-कृष्ण, गंगा-गंगा अथवा हरे राम हरे कृष्ण आदि रटने से कोई लाभ नहीं है । यदि जाप करना हो तो ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म्‌ तथा गायत्री मन्त्र का जाप इनके अर्थज्ञानपूर्वक करना चाहिए। जाप «के उपरान्त यदि आचरण भी शुद्ध हो तो अवश्य कल्याण हो सकता है। किसी भी शुद्ध स्त्री पुरुष के जबकि वे शुद्ध पवित्र होकर भोजन बनायें, हाथ का बनाया भोजन खाने में कोई दोष नहीं है। ईश्वरोपासना पुण्य दान स्वाध्याय सत्संग सदाचार माता-पिता गुरुजनों की सेवा अहिंसा आदि धर्म के दस लक्षणों का पालन करना ये सब मनुष्यों को देव पद प्राप्त कराते हैं। अपने से बड़े जीवित पूर्वजों सदाचारी विद्वानों सच्चे त्यागी महात्माओं, दादा-दादी माता-पिता सास-ससुर आदि की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। इसमें कल्याण समझना चाहिए। मरे हुओं को याद करो, उनके चित्र घरों में लगाओ। उनकी अच्छी बातों पर चलो, बुरी बातों को छोड़ दो। उनके नाम पर श्राद्धादि करने तथा हति आदि निकालने से कोई लाभ नहीं है। बिना विचारे कोई भी काम नहीं करना चाहिए। तीर्थ उसे कहते हैं जिससे तैरा जाए। अर्थात्‌ माता-पिता, सास-श्वसुर, सच्चे विद्वान्‌ महात्मा और संन्यासी तथा वेद शास्त्र आदि तीर्थ हैं। किसी जल स्थल आदि को तीर्थ मानना बड़ी भूल है। ईश्वर की मूर्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह निराकारं है। अतः किसी पत्थर अथवा धातु आदि की मूर्ति बनाकर उसे पूजना व्यर्थ है। यदि मूर्तियों की पूजा करनी है तो माता-पिता सास-शवसुर सच्चे त्यागी संन्यासियों, सच्चे ब्राह्मणों और विद्वानों की चेतन मूर्तियों की पूजा करनी चाहिए। ऐसी-ऐसी चेतन मूर्तियों की पूजा से पुण्य तथा जड़ मूर्तियों की पूजा से पाप होता है। चाहे वह देवी, हनुमान, भैरव, श्यामजी, बाला जी, संतोषी माता आदि किसी की भी मूर्ति क्यों न हो। प्रेमराज लिखते हैं-


प्रत्येक गृहस्थी को पंच-महायज्ञ अवश्य करने चाहिएं। पंच महायज्ञ ये होते हैं :- 

1. ब्रह्मयज्ञ-नित्य प्रात: सायं एकान्त में एकाग्रचित्त भंगवान्‌ की स्तुति प्रार्थना उपासना करने को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं।

2. देवयज्ञ-नित्य दो घड़ी दिन चढ़े तथा दो घड़ी दिन रहे तथा घी सामग्री से वेदमन्त्रों द्वारा हवन करने को देवयज्ञ कहते हैं।

3. पितृयज्ञ-माता-पिता सास श्वसुर आदि बड़ों की सेवा करनी चाहिए।

प्रत्येक गृहस्थी को नित्य दो काम तो अवश्य करने चाहिएं। अधिक शक्ति हो तो अधिक वरना न्यून से न्यून दो पैसे नित्य अवश्य निकालने चाहिएं: और एक वर्ष में जब उनके 7 रुपये कुछ पैसे बन जावें तब पुण्यार्थ उन्हें किसी सच्चे परोपकारी को दे देना चाहिए अपनी शक्ति के अनुसार एक घृत का दीपक सायंकाल घर में नित्य अवशय .जलाना चाहिए | किसी भी जड़ मूर्ति की पूजा से अथवा किसी भी फकीर ओलिया बूझागर सयाना पण्डित पण्डा आदि का ढोंग पाखण्ड बहकाव आदि से सन्तान का होना, बीमार का अच्छा होना, धन बढ़ना, मुकदमा जीतना अथवा अन्य कोई भी मनोकामना पूरी नहीं हो सकती । अतः ऐसे किसी भी. व्यक्ति के जाल में मत फंसो।


प्रेमराज आर्य की लिखी यह बात वेद से मिली हैं। इनको बड़े...गंगा आदि का स्नान, सत्यनारायण आदि की कथा तथा तोबा आदि ये कोई भी कर्मफल को छुड़ा नहीं सकते, अपने शुभकर्मो से ही सुख तथा अशुभ कर्मों से दुःख अवश्य ही मिलेगा | प्रेमराज आर्य के विचार यह हैं कि स्वर्ग और नरक कहीं आकाश में नहीं हैं वरन इस धरती पर ही सुख विशेष का नाम स्वर्ग तथा दुःख विशेष का नाम नरक है। दरिद्रता रोग विषयविलासिता परिवार आदि में कलह मुकदमा बेरोजगारी सन्तानादि की मृत्यु ये नरक हैं और स्वास्थ्य सम्पत्ति ऐश्वर्य सम्मान अच्छे पति-पत्नी अच्छी सन्तान दान पुण्य अच्छे विचार ये स्वर्ग हैं। सभी काम धर्मानुसार धर्म के अनुसार हो तो करना नहीं तो नहीं करना। सत्य और असत्य, सत्य हो तो करना असत्य हो तो नहीं करना चाहिए | बिन विचारे कोई भी काम नहीं करना चाहिए। अपना ही भला चाहना दूसरों का चाहे बुरा हो, यह मनोवृत्ति अच्छी नहीं है। वरन सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। वर्ण जन्म में नहीं होता कर्म से होता है । ब्राह्मणादि वर्ण गुण कर्मों से होते हैं जन्म से नहीं। यदि कोई ब्राह्मण के घर में जन्म लेकर बुरे काम करता है तो वह ब्राह्मण कहलाने योग्य नहीं है। यदि कोई छोटे कुल में जन्म लेकर ऊंचे काम करता है तो वह ऊंच है। ऐसे ही मानना ठीक है | इससे ऊंचा गिरेगा नहीं और छोटा चढ़ेगा। जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था मानने से ऊंचा गिरता है और छोटा उठ नहीं सकता । एक स्त्री जो बुरा सोचती है और बुरा करती है। अपने माता-पिता सास-श्वसुर की सेवा नहीं करती, उल्टा उन्हें दु:ख देती है ' परन्तु नित्य माला फेरती है, मन्दिर में जाती है; सूरज को पानी देती है। धिक्कार है ऐसी स्त्री को। दूसरी स्त्री सब अच्छे काम करती है अपने से बड़े माता-पिता, सास-श्वसुर आदि को प्रसन्‍न रखती है और उनकी सेवा करती है पर मन्दिर में कभी नहीं जाती, माला नहीं फेरती, सूरज को पानी नहीं देती, वह स्त्री दर्शनों के योग्य है और अच्छी है। पहली स्त्री नरक में और दूसरी स्वर्ग में जाएगी।


इस समय हमारे देश में झूठ फरेब छल-कपट हेराफेरी, धोखाबाजी, बेईमानी, बदमाशी अनेक प्रकार की चालाकी तथा ठगी का कोई ठिकाना नहीं रहा है। इस वास्ते तुम्हें बहुत ही सचेत और होशियारी से काम लेना चाहिए। वरना तुम्हारा धन और चरित्र दोनों के ठगे जाना में देर नहीं लगेगी। यह विचार प्रेमराज आर्य के बहुत ध्यान से पढ़कर विचार करना चाहिए।


मासिक धर्म


स्मरण रहे कि जिन दिनों में स्त्रियों को मासिक धर्म आता है उसका वर्णन करना भी इस अवसर पर आवश्यक है।मासिक धर्म क्या है ? यह एक सूर्ख स्याही लिए पतली रक्‍तवत्‌ जो युवावस्था में बलवती स्त्रियों में दो छटांक से पांच छटांक तक प्रतिमास बच्चादानी से निकलती है। हैं जिनसे गर्भ होने का अच्छी प्रकार से ज्ञान हो। प्रथम नियत समय पर मासिक धर्म का न आना, द्वितीय प्रातःकाल जी का मचलना, तृतीय आलसी होकर सुस्ती का होना और कार्य करने में मन न लगना | चतुर्थ कब्ज होकर थूक ज्यादा आना, बैचेनी और निद्रा की अधिकता। पंचम मुख का मुरझा जाना, भोजन से घृणा करना। ये गर्भ के लक्षण हैं। चौथे मास में दूध की भांति मवाद निकलता है। खट्टी चीजों के खाने की.मन में प्रबल इच्छा होती.है। अपवित्र स्वभाव स्त्रियों के मन प्राय: गर्भावस्था में मिट्टी खाने अथवा कोयला खाने पर भटकते हैं। मूर्ख कहत हैं कि बच्चे का मन मिट्टी खाने का है किन्तु यह मिथ्या है। . मिट्टी खाना तो बहुत ही नुकसानदायक है और खट्टी वस्तु भी कम खानी चाहिए। ज्यादातर काम में लगी रहें।


अच्छा यह है कि साधारण भोजन जो स्वभाव के अनुसार हो उसे


खाना और घर के काम धन्धा में संलग्न रहना चाहिए। प्रेमराज आर्य की लिखी बारह बात मानना यह बहुत अनुभव की हैं इनको ध्यान से पढ़ना an दिनों में चिन्ता क्रोध दु:खादि न करना चाहिए। 2. भारी वस्तु न उठायें। 3. अधिक परिश्रम न करें। 4. पैदल यात्रा न करें। 5. रोगी न देखें। 6. भयानक वस्तु भयानक व स्त्री का फोटो न देखें। 7. मादक पदार्थों का सेवन न करें। 8. किसी स्त्री की प्रसव पीड़ा न देखें। 9. तीव्र जुलाब न लें। 0. रक्‍त न निकलवायें। EA अधिक कुनेन अथवा कोई और गरम खुश्क वस्तु सेवन न 2. . कटि को कसकर न बांधें। इन बातों का करना गर्मगत दिनों में निषिद्ध है। साथ ही सर्वथा बैठे रहना अथवा कोई कार्य न करना आदि संक्षेप से समझा जाता na पर ध्यान देना। प्रेमराज आर्य मेरे एक बात याद आ गई। 30-34 वर्ष हो गए। एक स्त्री घास का भरोटा

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