गीता २/४७ - ধর্ম্মতত্ত্ব

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09 August, 2024

गीता २/४७

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 श्रीकृष्ण उवाच


“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगो ऽस्त्वकर्मणि।।" (गीता २/४७)

(कर्मणि) शुभ कर्म करने में (एव) ही (ते) तेरा (अधिकारः) अधिकार (फलेषु) कर्म फल में (कदाचन) कभी भी (मा) नहीं हो। तू (कर्मफलहेतुः) कर्मफल की इच्छा रख कर कर्म करने वाला भी (मा) मत (भूः) हो, (ते) तेरा (अकर्मणि) कर्म न करने में भी (संगः) संयोग (मा) न (अस्तु) हो।

अर्थ : शुभ कर्म करने में ही तेरा अधिकार हो, कर्मफल में कभी भी नहीं हो। तू कर्मफल की इच्छा रखकर कर्म करने वाला भी मत हो, तेरा कर्म न करने में भी संयोग न हो।

भावार्थ : योगेश्वर श्री कृष्ण की योगदृष्टि ने अर्जुन के चित्त की विक्षिप्त अवस्था देखी कि वह युद्ध से पहले ही युद्ध के फल को निश्चित करके भयभीत हुआ कह रहा है कि युद्ध में कुल के नाश होने से सनातन धर्म नष्ट और धर्म नष्ट होने पर कुल पाप कर्मों में लिप्त हो जाएगा, कुल की स्त्रियाँ दूषित और उनमें वर्णसंकर दोष उत्पन्न हो जाएगा तथा हमारे युद्ध में मर जाने के पश्चात वृद्ध माता-पिता वा संबंधियों को कौन अन्न-जल देगा इत्यादि। अर्जुन के अंग शिथिल, मुख सूखा, शरीर कम्पित, त्वचा में जलन एवं गाण्डीव धनुष उसके हाथ से छूटा जा रहा है। यह चित्त की विक्षिप्त अवस्था है। जिसमें ज्ञान नहीं दिया जा सकता। वृत्ति की अवस्थाओं के विषय में योग शास्त्र सूत्र १/१ व्यास मुनि कृत भाष्य में पाँच अवस्थाओं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध का वर्णन किया है।

रजोगुणी चित्त जब काम, क्रोध, मोह आदि संसारी विषयों में भटकता है उसकी क्षिप्त अवस्था, जब तमोगुणी हुआ चित्त पुरुषार्थहीन हो, कर्त्तव्य पालना में असमर्थ हो जाता है तो वह मूढ़ावस्था तथा जब अनेक सांसारिक इच्छाओं में भटकते हुए चित्त की कामना पूर्ति में विघ्न आता है तब चित्त की विक्षिप्त अवस्था होती है। इन तीन अवस्थाओं में प्राणी द्वारा ज्ञान ग्रहण नहीं होता। एकाग्र अवस्था में ही ज्ञान ग्रहण होता है। चित्त की निरुद्ध अवस्था में योगी सब कर्म बंधनों से छूटकर ईश्वर का दर्शन करता है। अर्जुन की चित्त की इस समय क्षिप्त, मूढ़ एवं विक्षिप्त अवस्था है। कभी तो अर्जुन रजोगुण के प्रभाव से क्षिप्त वृत्ति वाला हुआ संसारी विषयों में फँसा परिवार की चिन्ता कर रहा है कि उन्हें अन्न-जल कौन देगा? कभी तमोगुण के प्रभाव में चित्त की मूढ़ अवस्था वाली वृत्ति द्वारा पुरुषार्थहीन होकर धर्मयुद्ध रूपी शुभ कर्म से मुँह फेर रहा है। और कभी सत्त्वगुण के प्रभाव से उसकी युद्ध न करने की इच्छा पूर्ण नहीं हो रही, तब वह विक्षिप्त वृत्ति वाला होकर दुखी है। प्रकृति के इन तीन गुणों का बड़ा उत्तम वर्णन ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १२६ में है। इन गुणों द्वारा सृष्टि रचना एवं महत् (बुद्धि) तत्त्व पर टिका मिथ्या स्वार्गादि का भौतिक सुख का वर्णन है, जिसे विद्वान् त्याग देते हैं।

यजुर्वेद ४०/१ में भी इस सुख में लीन न होने को कहा है। अर्जुन इन गुणों के प्रभाव में डूबा धर्मयुद्ध को त्यागकर ऐसे ही पारिवारिक सुख के चिन्तन में डूब गया है। चेतन जीवात्मा को प्रकृति रचित शरीर आदि इन्द्रियाँ धर्मयुक्त कर्म करने के लिए दी है परन्तु वैदिक उपदेश के अभाव में शरीर में रम रहे प्रकृति के गुणों में जीव डूबकर विक्षिप्त वृत्ति के अधीन हुआ सत्य को भूलकर दुखी रहता है। शरीर से लगाव नहीं होना चाहिए। तथा वह अपने अविनाशी स्वरूप को भूलकर मृत्यु से डरता है। दोनों सेनाओं के बीच अर्जुन की यही दशा है। जिसके प्रभाव से वह अशान्त एवं कर्महीन हो गया है। गीता श्लोक २/४१ में इसे "अव्यवसायात्मिका बुद्धि" अर्थात् बहुत इच्छाओं में रमण करने तथा अनन्त भेदों वाली बुद्धि कहा है। इसी कारण गीता श्लोक २/४५ में श्री कृष्ण ने प्रकृति के गुणों का उपदेश देकर उससे ऊपर उठकर (निस्त्रैगुण्यः) आत्मवान् बनने को कहा। ऐसा नहीं कि वेदों में केवल प्रकृति का ही वर्णन है। वेदों में विस्तार से प्रकृति, जीवात्मा एवं परमात्मा के वर्णन सहित ज्ञान, कर्म एवं उपासना का पूर्ण उपदेश है।

श्री कृष्ण इस उपदेश द्वारा प्रकृति के गुणों से अलग होकर अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि तेरा केवल शुभ कर्म करने में अधिकार है। फल की चिन्ता छोड़ दे, जो तेरे हाथ में नहीं है। अर्जुन को महाभारत में वेद सुनने, यज्ञ करने वाला, संयमी एवं माता-पिता, ऋषि-मुनियों की सेवा करने वाला गुण सम्पन्न महारथी कहा है जो उपदेश का अधिकारी होता है। अथर्ववेद मन्त्र १६/४/२ में कहा- "मत्येषु अमृतः असि" जीवात्मा अजर-अमर है। अथर्ववेद मन्त्र ४/३४/१ में कहा कि अन्न, दूध, जल इत्यादि पदार्थ भौतिक शरीर का भोजन हैं। जीवात्मा इसे ग्रहण नहीं करती। विक्षिप्त चित्त को शान्त करने के लिए जीवात्मा का भोजन "ब्रह्मौदनम्" अर्थात् ब्रह्मज्ञान कहा है। अतः योगेश्वर श्री कृष्ण ने पहले गीता श्लोक २/१२ से २/३० तक वेदों में कहे ब्रह्मज्ञान द्वारा जीवात्मा का अजर, अमर, अविनाशी स्वरूप समझाया जिससे अर्जुन यह समझा कि शस्त्रों अथवा किसी भी तरह जीवात्मा का वध किया नहीं जा सकता। इस उपदेश के पश्चात कर्म करने एवं कर्मफल त्याग का उपदेश दिया। यजुर्वेद मन्त्र ७/४८ में प्रमाण है कि जीव कर्म करता है और ईश्वर फल देता है क्योंकि जब कर्म कर ही लिया तब फल तो मिलेगा ही, जो ईश्वर द्वारा निश्चित है। शुभ कर्मों का फल पुण्य एवं सुख तथा अशुभ कर्मों का फल पाप एवं दुःख है। अतः वेद ने जीव को सुखी रहने के लिए फल की इच्छा त्याग कर केवल धर्मयुक्त शुभ कर्म करने की ही प्रेरणा दी है। श्रीकृष्ण भी यही प्रेरणा देकर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वैसे वेदों में शुभ कर्म के बहुत से आलौकिक फल कई स्थान पर पहले ही कह दिए हैं। जैसे यज्ञ से शुद्धिकरण, यज्ञ द्वारा दीर्घायु, योगाभ्यास द्वारा समाधि, अहिंसा द्वारा सब प्राणियों से विरोध समाप्त इत्यादि।

परन्तु यह शुभ कर्म भी निष्काम करने की आज्ञा दी है। अतः उपदेश तो केवल शुभ कर्म करने का दिया है, फल पर दृष्टि लगाकर अपनी शक्ति व्यर्थ करना अथवा निश्चित किए समय पर फल प्राप्त न होने पर व्याकुल होना, इस प्रकार के अज्ञान से दूर होने को कहा कि "मा फलेषु कदाचन" जीव फल की इच्छा त्यागकर केवल शुभ कर्म पर ही ध्यान दें। ऐसे ही कर्म प्रकृति के तीन गुणों से ऊपर उठा होने के कारण धर्मयुक्त कर्म, कहलाते हैं। कर्मफल के विचार में फँस कर तो कभी भी कोई धर्मयुक्त कर्म नहीं हो सकता। हमारे नेताओं ने १६४८ में युद्ध के मृत्यु आदि भीष्ण परिणामों को सोचकर ही तो सेना को युद्ध रोकने का आदेश कई बार दिया। गीता श्लोक २/४० में अर्जुन को समझाया कि निष्काम कर्म योग द्वारा तो बहुत बड़ा मृत्यु का भी भय समाप्त हो जाता है। जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है। हे अर्जुन! तू प्रकृति के गुणों में फँसा कर्मफल सोच-सोचकर क्यों चिन्तित है।

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