ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - विराट्पङ्क्तिस्वरः - पञ्चमः
न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॑त् ।
सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥ Rigveda/10/86/16
स्वर सहित पद पाठन । सः । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् । सः । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसे॒दुषः॑ । वि॒ऽजृम्भ॑ते । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्चदेवता - वरुणःछन्दः - विराट्पङ्क्तिस्वरः - पञ्चमः
न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते ।
सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठ
न । सः । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसे॒दुषः॑ । वि॒ऽजृम्भ॑ते । सः । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
अत्र प्रमाणानि (आधिदैविक पक्ष में) -
इन्द्रः = कालविभागकर्तासूर्यलोकः (म.द.ऋ.भा.1.15.1), महाबलवान् वायुः (म.द.ऋ.भा.1.7.1), विद्युदाख्यो भौतिकाऽग्निः (म.द.ऋ.भा. 1. 16.3)। इन्द्राणी - इन्द्रस्य सूर्यस्य वायोर्वा शक्तिः (म.द.ऋ.भा.1.22. 12) । वृषा = वीर्यकारी (म.द.ऋभा.3.2.11), वेगवान् (म.द.ऋ.भा.2. 16.6), परशक्तिबन्धकः (म.द.ऋ.भा.2.16.4) । वृषाकपिः = वृषा चाऽसौ कपिः । कपिः कम्पतेऽसौ (उ.को.4.145), आदित्यः (गो.उ. 6.12)। कपृत् = क + पृत्, 'पदादिषु मांस्पृत्स्नूनामुपसंख्यानम्' (वा. अष्टा.6.1.63) से पृतना को पृत् आदेश। पृतना = सेना (आप्टेकोष), संग्रामनाम (निघं.2.17), कः प्राणः प्राणो वाव कः (जै.उ.4.11. 2.4)। सक्थि = सजतीति (उ.को.3.154), षञ्ज सङ्गे = आलिंगन करना, सटे रहना (सं.धा.को. पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक), सक्थिभ्यां क्रौञ्चौ-अजायेताम् (जै.ब्रा.2.267) । क्रौञ्चः = रज्जुः (तां.ब्रा. 13.9.17)। रज्जुः = रश्मिः । रश्मयः = रज्जवः किरणा वा (म.द.य.भा.29. 43), रश्मेव = (रश्मा + इव) = किरणवद् रज्जुवद् वा (म.द.ऋ.भा.6. 67.1), प्राणाः रश्मयः (तै. ब्रा.3.2.5.2)। रोमशः = लोमशः (रेफस्य लत्वम्), लोमाः = छन्दांसि वै लोमानि (श. ब्रा.6.4.1.6), पशवो वै लोम (तां. ब्रा. 13.11.11), प्राणा छन्दांसि (तु.मै.सं.3.1.9) । रम्बते = लम्बते (रेफस्य लत्वम्) क्वचित् रम्बते भी रहेगा। निषेदुः = निषण्णाः (निरु. 13.10), नितरां दृढ़स्थित, विश्रान्त, नतमुख, खिन्न, कष्टग्रस्त। ऋषयः - ज्ञापकाः प्राणाः (म.द.य. भा. 15.11), प्रापका वायवः (तु.म.द.य.भा. 15.10), बलवन्तः प्राणाः (म.द.य. भा. 15.13), प्राणा वा ऋषयः (ऐ.ब्रा.2.27; श.ब्रा.7.2.3.5), धनञ्जयादयः सूक्ष्मस्थूलावायवः प्राणाः (म.द.य.भा. 15.14)।
अत्र प्रमाणानि (आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक पक्ष में) -
इन्द्रः - राजा (म.द.ऋ.भा.6.29.6), विद्वान्मनुष्यः (म.द.य.भा.26.4), जीवः (म.द.ऋ.भा.3.32.10)। कपृत् कम् सुखनाम (निर्घ.3.6), अन्नम् (निरु.6.35), उदकनाम (निघं. 1.12), सुखस्वरूपः परमेश्वरः (म.द.य.भा.5.18)। पृत् पृत्सु संग्रामनाम (निषं.2.17)। सेना- सिन्वन्ति बध्नन्ति शत्रून् याभिस्सा (तु.म.द.य.भा.17.33)। बलम् (म.द.ऋ. भा.2.33.11), सेश्वरा समानगतिर्वा (निरु.2.11)। क्रौञ्चम् - वाग् वै क्रौञ्चम् (तां.ना. 11.10.19), रश्मिः ज्योतिः (म.द.ऋ.भा. 1.35.7), यमनात् (निरु.2.15), अन्नम् (श.ब्रा.8.5.3.3), एते वै विश्वेदेवाः रश्मयः (श.ब्रा.2.3.1.7)। देवः धनं कामयमानः (म.द.ऋ भा.7.1.25)। लोम - अनुकूलवचनम् (म.द.य.भा.23.36)। रोमा = रोमाणि औषध्यादीनि (म.द.ऋ. भा. 1.65.4)।
आधिदैविक भाष्य -
अभेद्य वेद
मन्त्र 1. (यस्य) जब सूर्य के अन्दर (कपृत्) विभिन्न प्रकार के प्राणों की सेना अर्थात् धारा (स्ट्रीम) एवं उनका संघर्षण वा इंटरेक्शन उस (अन्तरा, सक्थ्या) सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग को जोड़ने वाले उत्तरी व दक्षिणी दृढ़ भागों, जिनसे विभिन्न प्रकार के विकिरणों व प्राणों (वाइब्रेशन्स) की धाराएँ (स्ट्रीम्स) उत्पन्न होती रहती हैं, के बीच (रम्बते-लम्बते) पिछड़ कर ठहर सी जाती है अथवा फैलकर मन्द पड़ जाती है। उस समय (न, सः, ईशे) वह इन्द्रतत्त्व अर्थात् सूर्य में स्थित बलवान् वैद्युत वायु समस्त सूर्य किंवा दोनों भागों के बीच की गति व संगति में तालमेल-सामंजस्य रखने में असमर्थ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य के दोनों भागों अर्थात् नाभिकीय संलयन युक्त केन्द्रीय भाग, जिसमें सतत अपार ऊर्जा उत्पन्न होती रहती है, जिसे सूर्य की भट्टी कह सकते हैं एवं बहिर्भाग की जो पृथक् 2 घूर्णन गति होती है और दोनों के मध्य जो एक ऐसा सन्धि क्षेत्र होता है, जिसके सिरे उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की ओर होते हैं, के बीच सन्तुलन खोने लगता है। इस कारण समस्त सूर्य पर संकट आ सकता है। अब इसी मन्त्र में आगे कहते हैं कि ऐसी अनिष्ट स्थिति कब नहीं बनती और कब यह सूर्य सन्तुलित व अनुकूलन की स्थिति में होता है ?
(यस्य, निषेदुषः) जिस निरन्तर दृढ़ तेजस्वी उपर्युक्त इन्द्र के प्राणों की सेना अर्थात् वाइब्रेशन्स की स्ट्रीम्स (रोमशम् लोमशम्) विभिन्न छन्द रूपी प्राणों तथा मरुत् अर्थात् सूक्ष्म पवनों से अच्छी प्रकार सम्पन्न होकर (विजृम्भते) विशेषरूपेण जागकर अर्थात् सक्रिय होकर अपने बल व तेज से सम्पन्न होती है, (सः, इत्, ईशे) तब यह इन्द्र अर्थात् विद्युदग्नि- युक्त वायु सूर्य के दोनों भागों की गति व स्थिति को नियन्त्रित रखने में समर्थ होता है। यह प्राण सेना वा स्ट्रीम उपर्युक्त सक्थि अर्थात् सूर्य के दोनों भागों को मिलाने वाले उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों की ओर स्थित सन्धि भागस्थ दृढ़ भागों के बीच ही उत्पन्न व सक्रिय होती है। (विश्वस्मात्, इन्द्रः, उत्तरः) यह इन्द्र तत्त्व अर्थात् विद्युदग्नियुक्त तेजस्वी बलवान् वायु अन्य तेजस्वी पदार्थों की अपेक्षा उत्कृष्ट व बलवत्तम है। यही बलपति है तथा सृष्टि यज्ञ को उत्कृष्टता से तारने वाला है। (ऋग्वेद 10.86.16)
भावार्थ - जब सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग को जोड़ने वाली दृढ़ स्तम्भ रूपी उत्तरी व दक्षिणी प्राण धाराएँ मन्द हो जाती हैं, तब सूर्य के दोनों भागों में सन्तुलन खोकर सूर्य का अस्तित्व संकटग्रस्त हो सकता है और जब वे दोनों धाराएँ विशेष रूप से सक्रिय व सशक्त होती हैं, तब सूर्य का सन्तुलन उचित प्रकार से बना रहता है।
मन्त्र 2. (यस्य) जब सूर्य के अन्दर (कपृत्) विद्युदग्नियुक्त वायु के
विभिन्न प्राणों की सेना (स्ट्रीम) उस (अन्तरा, सक्थ्या) सूर्य के केन्द्रीय
व बहिर्भाग के मध्य स्थित उनको जोड़ने वाले उत्तरी व दक्षिणी दृढ़
भागों, जिनमें विभिन्न प्रकार के प्राणों (वाइब्रेशन्स) की धाराएँ उत्पन्न
होती रहती हैं, के बीच (रम्बते-लम्बते) चिपककर उनको अपने
नियन्त्रण में लेकर ऊपरी भाग को ऊपर ही लटकाने व धारण करने में
समर्थ होती है, तब (सः, इत्, ईशे) वैद्युत अग्नि युक्त वायु रूपी इन्द्र
इन्हें अर्थात् सूर्य के दोनों भागों को संतुलित रखने में समर्थ होता है अर्थात्
उस समय सूर्य का बहिर्भाग उसके केन्द्रीय भाग, जिसमें नाभिकीय
संलयन की प्रक्रिया सतत चलती है, (यस्य, निषेदुषः) के ऊपर सन्तुलन
बनाये रखते हुए सतत फिसलता रहता है, परन्तु यदि (रोमशम् =
लोमशम्) प्रशस्त बलयुक्त छन्द, प्राण व मरुत् अर्थात् सूक्ष्म पवन(विजृम्भते) खुलकर फैल जाते हैं, तो उनका प्रभाव मन्द पड़ जाता है। जैसे किसी पानी की धारा को जब तीव्र दाब से फेंका जाता है, तो उसमें मारक क्षमता तेज होती है। वह पत्थर को भी छेद सकती है, किसी प्राणी यु को भी मार सकती है, परन्तु जब वही धारा बड़े छिद्र में से प्रवाहित कर दी जाये, तो वह खुलकर फैल जायेगी और उसका मारक वा छेदक प्रभाव मन्द वा बन्द पड़ जाता है। उसी मन्दता की यहाँ चर्चा है।
(न, सः, ईशे) उस समय वह इन्द्र तत्त्व अर्थात् विद्युदग्नियुक्त वायु सूर्य के उन दोनों भागों पर सन्तुलन-सामंजस्य खो सकता है, जिससे सूर्य का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है। (विश्वस्मात्, इन्द्र, उत्तरः) यह इन्द्र तत्त्व ही अखिल उत्पन्न पदार्थ समूह रूपी संसार में सबसे श्रेष्ठतम व बलवत्तम है तथा यह समस्त अन्न अर्थात् संयोज्य परमाणुओं को उत्कृष्टता से तारते हुए जगत् की रचना में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। (ऋग्वेद 10.86.17)
भावार्थ - जब सूर्य के केन्द्रीय व बहिर्भाग के बीच प्रवाहित उत्तरी व दक्षिणी प्राण धाराएँ तीव्र बलवती होती हैं, तब दोनों भागों के बीच की गति व अवकाश का सन्तुलन व सामंजस्य बना रहता है, परन्तु जब वे धाराएँ इधर-उधर बिखरकर दुर्बल हो जाती हैं, तब दोनों भागों के मध्य असंतुलन उत्पन्न होकर सूर्य के अस्तित्व पर संकट आ सकता है।
इन दोनों ऋचाओं का सृष्टि प्रक्रिया पर प्रभाव -
आर्ष व दैवत प्रभाव - इसका ऋषि वृषाकपि इन्द्र तथा इन्द्राणी है।
इसका तात्पर्य है कि विद्युद्वायुयुक्त तीव्र बलवान् सूर्यलोक के भीतरी भाग में स्थित प्राथमिक प्राण रश्मियों से इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति होती है।इस समय प्राथमिक प्राण रश्मियाँ प्रबल रूप में विद्यमान होने से ये कद रश्मियाँ विशेष बलवती होती हैं, इस कारण इनके प्रभाव से भी विशेषव बल उत्पन्न होता है। इनका देवता इन्द्र होने से इन छन्द रश्मियों के द्वारा सूर्यादि तारों के मध्य विभिन्न विद्युत् बलों की समृद्धि होती है अर्थात् विद्युदावेशित कणों की ऊर्जा में भारी वृद्धि होती है।
छान्दस प्रधाव - इनका छन्द निवृत् पंक्ति होने से तारों के बहिर्भाग से
विभिन्न कणों को तारों के केन्द्रीय भाग में ले जाया जाता है और ऐसा करते हुए बाहरी व आन्तरिक भाग में भारी क्षोभ उत्पन्न होता है, पुनरपि उन कणों की पारस्परिक संयोज्यता में वृद्धि होती है। इनका पंचम स्वर सभी क्रियाओं को सतत विस्तृत करने में सहायक होता है।
ऋचाओं का प्रभाव - इन दोनों छन्द रश्मियों का प्रभाव तारों के
केन्द्रीय भाग (जिसमें नाभिकीय संलयन की क्रिया होती है) तथा उसके ऊपर विद्यमान शेष सम्पूर्ण विशाल भाग के मध्य सन्धि क्षेत्र में होता है। ये दोनों भाग परस्पर कुछ असमान गति से एक-दूसरे पर फिसलते रहते हैं। सन्धि भाग के उत्तरी व दक्षिणी भागों में विभिन्न प्राण व छन्द रश्मियों की सुदृढ़ धाराएँ विद्यमान रहती हैं, जो दोनों भागों को परस्पर एक मर्यादित दूरी पर बनाये रखने के साथ-2 विशाल भाग को दृढ़ता से थामे रखती हैं। उन धाराओं में इन छन्द रश्मियों की भी विशेष भूमिका होतो हैं। इनके प्रभाव से वे सुदृढ़ धाराएँ क्रमशः दुर्बल एवं सबल रूप प्राप्त करती रहती हैं। इस कारण तारे का विशाल भाग सन्धि भाग के ऊपर कभी कुछ निकट, तो कभी कुछ दूर होता रहता है अर्थात् दोलन करता रहता है। इसका तात्पर्य है कि केन्द्रीय भाग एवं शेष विशाल भाग के मध्य विद्यमान सन्धि भाग स्प्रिंग की भाँति सूक्ष्म मात्रा में कभी फैलता, तो कभी सिकुड़ता रहता है। इस क्षेत्र में विद्युत् चुम्बकीय बलों की विशेष
प्रधानता व सक्रियता होती है।
आधिभौतिक भाष्य -
अभेद्य वेद
शान्त्र 1. (यस्य) जिस राजा का (कपृत्) सेनाबल अथवा उसका अन्न- धन का भण्डार (सक्थ्या, अन्तरा) सभी विद्वानों वा धन की कामना करने खाले प्रजाजनों के मध्य उभरते राग-द्वेष रूप संघर्ष के मध्य (रम्बते) पिछड़ जाता है अथवा उनकी विशेष आसक्ति का कारण बन जाता है। (सः, न, ईशे) वह ऐश्वर्यहीन राजा अपने देशवासियों पर शासन नहीं कर सकता है अर्थात् उसके राष्ट्र में अराजकता उत्पन्न हो जाती है, परन्तु (यस्य, निषेदुषः) निरन्तर स्थिरता में आश्रित जिस राजा का सेनाबल अथवा अन्न-धन संसाधन (रोमशम्) जब प्रशस्तरूपेण सब प्रजाजनों के लिए अनुकूल वचनयुक्त एवं प्रचुर औषधि, पशु आदि से सम्पन्न होता है तथा (विजृम्भते) सब प्रजाजनों के लिये यथायोग्य रीति से वितरित किया जाता है तथा यह वितरण व्यवस्था सदा सुचारुरूपेण चलती रहती है, (सः, इत्, ईशे) वही राजा अपने राष्ट्र पर सब ऐश्वर्यों से युक्त होकर शासन कर सकता है। (विश्वस्मात्, इन्द्र, उत्तरः) ऐसे समग्र ऐश्वर्यसम्पन्न राजा का शासन अन्य सभी व्यवस्थाओं से श्रेष्ठ होता है। (ऋग्वेद 10.86.16)
भावार्थ - राजा को चाहिए कि वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये अनुकूल वचनों से युक्त होकर अपनी प्रजा के मध्य पनप रहे राग-द्वेषजन्य असन्तोष एवं संघर्ष को दूर करने का सतत प्रयत्न करे। साथ ही अपने बल व धन का सम्पूर्ण प्रजा के हित में यथायोग्य नियोजन करे।
मन्त्र 2. (यस्य, निषेदुषः) जिस विश्रान्त एवं कष्टग्रस्त राजा का (रोमशम्) प्रशस्त अन्न, औषधि व पश्वादि संसाधन (विजृम्भते) अव्यवस्थितरूपेण खुला रहता है अर्थात् जिसके राज्य में अपव्ययता व वितरण की अव्यवस्था होती है। (न, सः, ईशे) वह ऐश्वर्यहीन राजा अपने राष्ट्र पर शासन करने में समर्थ नहीं होता है।
(सः, इत्, ईशे) वही राजा ऐश्वर्यवान् होकर अपने राष्ट्र पर समुचित रीति से शासन कर सकता है, (यस्य, कपृत्) जिसका सेनाबल तथा अन्न-धन भण्डार (सक्थ्या, अन्तरा) सभी विद्वानों व प्रजाजनों के मध्य उत्पन्न राग-द्वेषजन्य संघर्ष के मध्य (रम्बते) उस राग-द्वेष की भावना को हराकर अर्थात् दूर करके प्रजाजनों को उससे ऊपर उठाता है। फिर वह राजा सभी प्रजाजनों में उस बल व धनादि पालन सामग्री का दृढ़ता से यथायोग्य वितरण करता हुआ अपने पालन कर्म से सभी प्रजाजनों के हृदय में बस जाता है। (विश्वस्मात्, इन्द्र, उत्तरः) ऐसा ऐश्वर्यवान् राजा अपने प्रजाजनों को अपने अन्नादि पदार्थों के द्वारा सर्वविध दुःखों से तारने वाला होता है। (ऋग्वेद 10.86.17)
भावार्थ - ऐश्वर्य के इच्छुक राजा को चाहिए कि वह अपने राष्ट्र को बाहरी आक्रमणादि कष्टों से सुरक्षित रखते हुए पूर्ण पुरुषार्थ के साथ अपने अन्न-धन आदि पालन सामग्री का अपव्यय वा अव्यवस्थित वितरण कदापि न होने दे, बल्कि अपने प्रजाजनों के अन्दर पनप रहे राग-द्वेषजन्य असन्तोष एवं संघर्ष को उचित पालनादि क्रियाओं व आवश्यक होने पर उचित दण्ड का आश्रय लेकर दूर करके सबका हित करने की सदैव चेष्टा करता रहे, जिससे वह सबका पितृवत् प्रिय बना रहे।
आध्यात्मिक भाष्य -
मन्त्र 1. (यस्य) जिस विद्वान् पुरुष का (कपृत्) मन एवं सुखकारी प्राणों का समूह (सक्थ्या, अन्तरा) राग-द्वेषादि द्वन्द्वों में आसक्ति एवं कोलाहल के मध्य (रम्बते) चिपका रहता है अर्थात् उन्हीं में रत रहता है, (न, सः, ईशे) वह अपनी इन्द्रियों पर शासन नहीं कर सकता, बल्कि (यस्य, निषेदुषः, रोमशम्) दृढ़ व ब्रह्मवर्चस् से तेजस्वी होकर अपने अन्तःकरण को प्रणव तथा गायत्र्यादि छन्दरूप वेद की पवित्र ऋचाओं में प्रशस्त रूप से रमण करते हुए (विजृम्भते) स्वयं को सुखस्वरूप परमपिता परमेश्वर के आनन्द में विस्तृत कर देता है, (सः, इत्, ईशे) वही योगी पुरुष अपनी इन्द्रियों पर शासन कर पाता है। (विश्वस्मात्, इन्द्र, उत्तरः) ऐसा जितेन्द्रिय विद्वान् अन्य प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ होता है। (ऋग्वेद 10.86.16)
भावार्थ - विद्वान् पुरुष को चाहिए कि अपने को योगयुक्त करके परमपिता परमात्मा में रमण करने के लिए अपने अन्तःकरण को राग- द्वेषादि द्वन्द्रों से दूर हटाकर प्रणव तथा गायत्र्यादि ऋयाओं के विधिपूर्वक जप द्वारा परमेश्वर की उपासना करने हेतु अपनी इन्द्रियों पर जय प्राप्त करे।
मन्त्र 2. (यस्य, निषेदुषः, रोमशम्) जिस निरन्तर विश्रान्त व खिन्न रहते हुए विद्वान् पुरुष का अन्तःकरण विभिन्न गायत्र्यादि ऋचाओं का जप करते समय अर्थात् उपासना का अभ्यास करते समय (विजृम्भते) इधर- उधर फैलने लगता है अर्थात् अस्थिर होकर इधर-उधर भागता है, (न. सः, ईशे) वह विद्वान् अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता है, बल्कि (यस्य, कपृत्) जिसका मन तथा सुखकारी प्राण समूह (सक्थ्या, अन्तरा) विभिन्न द्वन्द्वों तथा सांसारिक व्यवहार के बीच (रम्बते) स्थिर होकर तपता हुआ एक स्थान पर दृढ़ रहता हुआ निरन्तर परमेश्वर के जप में संलग्न रहता है, (सः, इत्, ईशे) वही विद्वान् योगी बनकर अपनी इन्द्रियों पर शासन करके समग्र ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। (विश्वस्मात्, इन्द्र, उत्तरः) ऐसा योगी स्वयं को सब दुःखों से तारकर अन्य प्राणियों को भी दुःखों से तारने वाला होता है। (ऋग्वेद 10.86.17)
भावार्थ - मुमुक्षु विद्वान् पुरुष को चाहिए कि ईश्वरोपासना वा जप करते समय मन को एकाग्र करके निरन्तर परमेश्वर में मग्न रहे तथा ऐसा करते हुए अपने सम्पूर्ण द्वन्द्वों को जीतकर स्वयं मोक्ष को प्राप्त करके दूसरे प्राणियों को भी दुःखों से दूर करने का प्रयत्न करता रहे।
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