সামবেদ ১৪৮৮ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

06 November, 2024

সামবেদ ১৪৮৮

 

অধ ত্বিষীমাꣳ অভ্যোজসা ক্রিবিꣳ যুধাভবদা রোদসী অপৃণদস্য মজ্মনা প্র বাবুধে। অধত্তান্যꣳ জঠরে প্রেমরিচ্যত প্র চেতয় সৈনꣳ সশ্চদ্ দেবো দেবꣳ সত্য ইন্দ্রুঃ সত্যমিন্দ্রম্॥ সামবেদ ১৪৮৮ 

পদার্থঃ পূর্ব মন্ত্রে বর্ণিত (অধ) ব্রহ্মদর্শনের মধ্যে (খিষীমান্) কান্তিমান্, ইন্দ্র (ওজসা) বলপ্রয়োগে, (ক্রিবিম্) জীবের বন্ধনরূপ পাঁচ অন্নময় আদি কোষকে (যুধা) বিঘ্ননাশক প্রয়ত্ন দ্বারা (অভি অভবত্) ভেঙে দেন। (রোদসী) দ্যুলোক এবং ভূলোক এবং প্রাণ ও অপান দুইকে (অপৃণদ্) ব্যাপ্ত করেন। তখন (অস্য মজ্মনা) তাঁর বল দ্বারা (প্র বাবুধে) সেই জীবও শক্তিশালী এবং মহান হয়ে যায়। সেই পরমেশ্বর (অন্যꣳ) জীব কে নিজ (জঠরে) গর্ভে, শরণ (অধত্ত) ধারণ করে নেন (ইম্) এবং তাকে (প্র অরিচ্যত) বিশেষরূপে শাক্তিশালী করে এবং (প্রচেতয়) প্রকৃষ্ট রূপে জ্ঞানবান্ করে দেন। (সঃ) সেই (দেবাঃ) দিব্য জ্ঞানবান্ (ইন্দ্রঃ) যোগী জীব (সত্যঃ) সত্য সংকল্প, সত্যরূপ হয়ে (এন) সেই (দেবং) দেব (সত্য) সত্য স্বরূপ (ইন্দ্র) পরমেশ্বর (সঅত্) প্রাপ্ত হয়ে যায়॥ জয়দেব শর্মাকৃত হিন্দি ভাষ্যের বাংলা অনুবাদ

উপাসকের বিষয় এবং ঈশ্বরের মহিমা বর্ণনার কারণে এই অংশটি পূর্ববর্তী বিভাগের সাথে সামঞ্জস্যপূর্ণ। 

ভাবার্থঃ পূর্বমন্ত্রের বর্ণনা অনুসারে, ক্রান্তিমান্ ইন্দ্র (পরমাত্মা) তাঁর বিঘ্ননাশক প্রয়ত্ন দিয়ে বন্ধনগুলি অতিক্রম করেন এবং এর প্রভাব সমস্ত বিশ্বে ছড়িয়ে পড়ে এবং এইভাবে এটি আরও বৃদ্ধি পায়। তিনি অন্যদের তাঁর আশ্রয়ে নেন ও তাদের আরো শক্তিশালী করে তোলে এবং আরো প্রকৃষ্ট রপে সচেতন করে দেন। সেই দিব্য সত্যস্বরূপ আহ্লাদক (প্রসন্নতা উত্পন্নকারী) সেই সত্যস্বরূপ ইন্দ্রকে প্রাপ্ত হয়॥ (ভাবার্থঃ হরিশ্চন্দ্র বিদ্যালঙ্কার)

সামবেদ (কৌথুম) উত্তরার্চিকা ৬।৩।১৮।৩ (রাণানীয়) উত্তরার্চিকঃ ১৩।৬।৩।৩

अ꣢ध꣣ त्वि꣡षी꣢माꣳ अ꣣भ्यो꣡ज꣢सा꣣ कृ꣡विं꣢ यु꣣धा꣡भ꣢व꣣दा꣡ रोद꣢꣯सी अपृणदस्य म꣣ज्म꣢ना꣣ प्र꣡ वा꣢वृधे । अ꣡ध꣢त्ता꣣न्यं꣢ ज꣣ठ꣢रे꣣ प्रे꣡म꣢रिच्यत꣣ प्र꣡ चे꣢तय꣣ सै꣡न꣢ꣳ सश्चद्दे꣣वो꣢ दे꣣व꣢ꣳ स꣣त्य꣡ इन्दुः꣢꣯ स꣣त्य꣡मिन्द्र꣢꣯म् ॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ध꣢꣯ । त्वि꣡षी꣢꣯मान् । अ꣣भि꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । कृ꣡वि꣢꣯म् । यु꣣धा꣢ । अ꣣भवत् । आ꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । अ꣣पृणत् । अस्य । मज्म꣡ना꣢ । प्र꣢ । वा꣣वृधे । अ꣡ध꣢꣯त्त । अ꣣न्य꣢म् । अ꣣न् । य꣢म् । ज꣣ठ꣡रे꣢ । प्र । ई꣣म् । अरिच्यत । प्र꣢ । चे꣣तय । सः꣢ । ए꣣नम् । सश्चत् । दे꣣वः꣢ । दे꣣व꣢म् । स꣣त्यः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । स꣣त्य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् ॥

विषय: अगले मन्त्र में परमात्मा की महिमा और उपासक का विषय वर्णित है।

पदार्थ

(अध) और (त्विषीमान्) प्रशस्त तेजवाला वह इन्द्र जगदीश्वर (ओजसा) बल से (युधा) युद्ध द्वारा (क्रिविम्) हिंसक जन को (अभि अभवत्) परास्त कर देता है। वही (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (आ पृणत्) जल, तेज आदि ऐश्वर्यों से भरपूर करता है। (अस्य) इस इन्द्र जगदीश्वर के (मज्मना) बल से, यह सब जगत् (प्र वावृधे) प्रवृद्ध होता है। वह जगदीश्वर (अन्यम्) किसी को अर्थात् दुष्टाचारी को (जठरे) भूकम्प आदि से भूमि को फाड़कर उसके पेट में (अधत्त) डाल देता है और (ईम्) कोई अर्थात् सदाचारी मनुष्य (प्र अरिच्यत) इसकी महिमा से बढ़ता है। (सः) वह (देवः) दिव्यगुणी, (सत्यः) सत्य का प्रेमी (इन्दुः) तेजस्वी उपासक (देवम्) प्रकाश देनेवाले, (सत्यम्) सत्य गुण, कर्म स्वभाववाले (एनम् इन्द्रम्) इस परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर को (सश्चत्) प्राप्त करे। हे जगदीश्वर ! आप उस उपासक को (प्रचेतय) प्रज्ञानयुक्त करो ॥


भावार्थ

जो सज्जनों को पीड़ित करते हैं, उन्हें जो जगत् का स्रष्टा, अपरिमित बलवाला, न जीता जा सकनेवाला जगदीश्वर यथायोग्य दण्डित करता है, उसकी सब लोग श्रद्धा और प्रेम से उपासना करके अपने अभीष्टों को पूर्ण करें ॥३॥ इस खण्ड में उपास्य-उपासक विषय का और परमात्मा की महिमा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ तेरहवें अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ तेरहवाँ अध्याय समाप्त॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध समाप्त ॥ ভাষ্যকারঃ আচার্য রামনাথ বেদালঙ্কার


पदार्थ

(अध) और (ओजसा त्विषीमान्) आत्मीय तेज से दीप्तिमान् इन्द्र—परमात्मा (युधा कृविम्-अभवत्) उपासक के हिंसक पाप को५ अपनी सम्प्रहारक शक्ति से अभिभूत होता है—दबा देता है (रोदसी-अपृणत्) प्राण—अपानों को तृप्त करता है (मज्मना प्रवावृधे) बल से६ उसे प्रवृद्ध करता है (अन्यं जठरे अधत्त) अन्य—जो उपासक नहीं उसे जन्म देने वाले संसार के मध्य७—जन्यक्रम के अन्दर रखता है (ईम्-प्र-अरिच्यत) इस उपासक को जन्मक्रम संसार जठर से अतिरिक्त कर देता है—अलग कर देता है (प्रचेतय) हे उपासक तू सावधान हो (एनं सत्यं देवम्-इन्द्रम्) इस सत्यस्वरूप परमात्मदेव को (सत्यः-इन्दुः सश्चत्) नित्य, उपासनारसवान् आत्मा प्राप्त करता है॥ ভাষ্যকার স্বামী ব্রহ্মমুনি পরিব্রাজক


पदार्थ:- यह ‘गृत्समद शौनक' (अध) = अब-गत मन्त्र के वर्णन के अनुसार प्रभु के समीप पहुँचने के पश्चात् (त्विषीमान्) =  कान्तिवाला होता है— दीप्तिवाला होता है— ब्रह्मतेज से इसका चेहरा चमकता । है । (ओजसा) = ओज के द्वारा (युधा) = युद्ध से यह (क्रिविम्) = [नि० ४.५८ killing] =संहारक शत्रुओं को जिन्हें पिछले मन्त्र में 'मृध:'=murderers हिंसक कहा गया था, (अभ्यभवत्) = जीत लेता है। कामादि शत्रुओं को परास्त करके यह (रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को, अर्थात् अपने मस्तिष्क व शरीर को (आ) = सर्वथा (अपृणत्) = पूर्ण करता है। शरीर में रोगादि से कमी को नहीं आने देता और मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की मन्दता से अन्धकार उत्पन्न नहीं होने देता। इसका शरीर नीरोग तथा मस्तिष्क दीप्त बना रहता है। (अस्य) = इस प्रभु के (मज्मना) = बल से [नि० २.१०.२३] यह (प्रवावृधे) = अतिशय वृद्धि को प्राप्त करता है ।


यह गृत्समद (अन्यम्) = विलक्षण, अनिर्वचनीय शक्तिवाले प्रभु को (जठरे) = अपने हृदय [bosom] में (आधत्त) = धारण करता है— अर्थात् उसे अपना सच्चा मित्र [bosom friend] बनाता है तो (ईम्) = निश्चय से (प्र अरिच्यत) = खूब वृद्धि व उत्कर्ष को प्राप्त करता है ।


हे गृत्समद ! तू (प्रचेतय) = इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि (एनं देवम्) = इस देव को जीव (देव:) = देव बनकर ही (सश्चत्) = प्राप्त होता है, (सत्यम्) = सत्य प्रभु को (सत्यः) = सत्य बनकर तथा (इन्द्रम्) = परम शक्तिमान् प्रभु को (इन्दुः) = शक्तिशाली बनकर ही (सश्चत्) = प्राप्त होता है । 


भावार्थ:- हमें उत्कर्ष के लिए प्रभु को ही अपना सच्चा मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । ভাষ্যকার: হরিশরণ সিদ্ধান্তলঙ্কার

সামবেদ ১৪৮৮
ভাষ্যকার জয়দেব শর্মা



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