অথর্ববেদ প্রথম কাণ্ড প্রথম অনুবাক - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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05 December, 2024

অথর্ববেদ প্রথম কাণ্ড প্রথম অনুবাক

 প্রথম সূক্ত : মেধাজননম

[ঋষি অথর্বা দেবতা : বাচস্পতি ছন্দ : অনুষ্টুপবৃহতী]

ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः। वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥

যে ত্রিষপ্তাঃ পরিয়ন্তি বিশ্বা রূপাণি বিভ্রতঃ। বাচস্পতিবলা তেষাং তম্বো অদ্য দধাতু মে॥১॥


पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो पदार्थ (त्रि-सप्ताः) १−सबके संतारक, रक्षक परमेश्वर के सम्बन्ध में, यद्वा, २−रक्षणीय जगत् [यद्वा−तीन से सम्बद्ध ३−तीनों काल, भूत, वर्तमान और भविष्यत्। ४−तीनों लोक, स्वर्ग, मध्य और भूलोक। ५−तीनों गुण, सत्त्व, रज और तम। ६−ईश्वर, जीव और प्रकृति। यद्वा, तीन और सात=दस। ७−चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा। ८−पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्म इन्द्रियाँ, अर्थात् वाक्, हाथ, पाँव, पायु, उपस्थ। यद्वा, तीन गुणित सात=इक्कीस। ९−महाभूत ५, प्राण ५, ज्ञान इन्द्रियाँ ५, कर्म इन्द्रियाँ ५, अन्तःकरण १ इत्यादि] के सम्बन्ध में [वर्त्तमान] होकर, (विश्वा=विश्वानि) सब (रूपाणि) वस्तुओं को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पतिः) वेदरूप वाणी का स्वामी परमेश्वर (तेषाम्) उनके (तन्वः) शरीर के (बला=बलानि) बलों को (अद्य) आज (मे) मेरे लिये (दधातु) दान करे ॥१॥


भावार्थभाषाः -आशय यह है कि तृण से लेकर परमेश्वरपर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सबका तत्त्वज्ञान (वाचस्पतिः) वेदवाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की कृपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तर्यामी पर पूर्ण विश्वास करके पराक्रमी और परोपकारी होकर सदा आनन्द भोगें ॥१॥ 

भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगदर्शन, पाद १ सूत्र २६। स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ वह ईश्वर सब पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि वह काल से विभक्त नहीं होता ॥


टिप्पणी:१−शब्दार्थव्याकरणादिप्रक्रिया−ये। पदार्थाः। त्रि-सप्ताः। तरतेर्ड्रिः। उ० ५।६६। इति तृ तरणे−ड्रि। तरति तारयति तार्यते वा त्रिः। परमेश्वरो जगद्वा। संख्यावाची वा। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये−कनिन्, तुट् च। सपति समवैतीति सप्तन् संख्याभेदो वा। यद्वा, षप समवाये−क्त। त्रिणा तारकेण परमेश्वरेण तारणीयेन जगता वा सह सम्बद्धाः पदार्थाः। यद्वा। त्रयश्च सप्त चेति त्रिषप्ता दश देवाः। यद्वा। त्रिगुणिताः सप्त एकविंशतिसंख्याकाः पदार्थाः। डच्-प्रकरणे संख्यायास्तत्पुरुषस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ५।४।७३। इति समासे डच्। विशेषव्याख्या भाषायां क्रियते। परि-यन्ति। इण् गतौ, लट्। परितः सर्वतो गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। विश्वा। अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्। उ० १।१५१। इति विश प्रवेशे-क्वन्। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शेर्लोपः। विश्वानि। सर्वाणि। रूपाणि। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु ध्वनौ−प प्रत्ययो दीर्घश्च। रूयते कीर्त्यते तद् रूपम्। यद्वा, रूप रूपकरणे−अच्। सौन्दर्याणि, चेतनाचेतनात्मकानि वस्तूनि। बिभ्रतः। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लटः शतृ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमः प्रतिषेधः। धारयन्तः। पोषयन्तः। वाचः। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच् वाचि−क्विप्। दीर्घश्च। वाण्याः। वेदात्मिकायाः। पतिः। पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे−डति। रक्षकः। सर्वगुरुः परमेश्वरः। वाचस्पतिः−षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। बला। बल हिंसे जीवने च−पचाद्यच्। पूर्ववत् शेर्लोपः। बलानि। तेषाम्। त्रिसप्तानां पदार्थानाम्। तन्वः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति तनु विस्तृतौ−उ प्रत्ययः। ततः स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति विभक्तेः स्वरितः, उदात्तस्य ऊकारस्य यणि परिवर्त्तिते। तन्वाः, शरीरस्य। अद्य। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति इदम् शब्दस्य अश्भावः, द्यस् प्रत्ययो दिनेऽर्थे च निपात्यते। अस्मिन् दिने, अध्ययनकाले। दधातु। डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च−लोट्। जुहोत्यादिः। शपः श्लुः। धारयतु, स्थापयतु, ददातु। मे। मह्यम्, मदर्थम् ॥पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी


পুনরেহি বাচস্পতে দেবেন মনসা সহ। বসোপতে নি রময় ময্যেবাস্তু ময়ি তং ॥২॥


पदार्थान्वयभाषाः -(वाचस्पते) हे वाणी के स्वामी परमेश्वर ! तू (पुनः) वारंवार (एहि) आ। (वसोः पते) हे श्रेष्ठ गुण के रक्षक ! (देवेन) प्रकाशमय (मनसा सह) मन के साथ (नि) निरन्तर (रमय) [मुझे] रमण करा, (मयि) मुझमें वर्त्तमान (श्रुतम्) वेदविज्ञान (मयि) मुझमें (एव) ही (अस्तु) रहे ॥२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य प्रयत्नपूर्वक (वाचस्पति) परमगुरु परमेश्वर का ध्यान निरन्तर करता रहे और पूरे स्मरण के साथ वेदविज्ञान से अपने हृदय को शुद्ध करके सदा सुख भोगे ॥२॥


टिप्पणी−भगवान् यास्कमुनि ने (वाचस्पति) का अर्थवाचः पाता वा पालयिता वा−अर्थात् वाणी की रक्षा करनेवाला या करानेवाला किया है−निरु० १०।१७। और निरु० १०।१८। में उदाहरणरूप से इस मन्त्र का पाठ इस प्रकार है। पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मनसा॑ स॒ह। वसो॑ष्पते॒ निरा॑मय॒ मय्ये॒व त॒न्वं  मम॑ ॥१॥ हे वाणी के स्वामी ! तू बारम्बार आ। हे धन वा अन्न के रक्षक ! प्रकाशमय मन के साथ मुझमें ही मेरे शरीर को नियमपूर्वक रमण करा ॥ मन की उत्तम शक्तियों के बढ़ाने के लिये (यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैव॒म्) इत्यादि यजुर्वेद अ० ३४ म० १-६ भी हृदयस्थ करने चाहिएँ ॥ २−पुनः। पनाय्यते स्तूयत इति। पन स्तुतौ−अर् अकारस्य उत्वं पृषोदरादित्वात्। अवधारणेन। वारंवारम्। आ+इहि। आ+इण् गतौ लोट्। आगच्छ। वाचः+पते। मं० १। हे वाण्याः स्वामिन्, हे ब्रह्मन्। वाचस्पतिर्वाचः पाता वा पालयिता वा−नि० १०।१७। देवेन। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्ति- गतिषु−पचाद्यच्। दिव्येन, द्योतकेन, प्रकाशमयेन। मनसा। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति मन ज्ञाने असुन्। चित्तेन, अन्तःकरणेन। वसोः। शृस्वृस्निहीति। उ० १।१०। इति वस निवासे आच्छादने−उ प्रत्ययः। श्वसो वसीयश्श्रेयसः। पा० ५।४।८०। अत्र वसु शब्दः प्रशस्तवाची। श्रेष्ठगुणस्य। अथवा छन्दसि वसुनः धनस्य। पते। मं० १। पालयितः, स्वामिन्। वसोष्पते। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। आदेशप्रत्ययोः। पा० ८।३।५९। इति षत्वम्। नि। नियमेन, नितराम्। रमय। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति रमु क्रीडायाम्−णिच्−लोट्। णिचि वृद्धिप्राप्तौ। मितां ह्रस्वः। पा० ६।४।९२। इति मित्त्वाद् उपधाह्रस्वः। क्रीडय, आनन्दय माम्। मयि। ममात्मनि वर्त्तमानम्। श्रुतम्। श्रूयते स्म यदिति। श्रु श्रुतौ−क्त। अधीतम्, वेदशास्त्रम् ॥


 ইহৈবাভি বি তনূভে আত্নী-ইব জয়া। বাচস্পতির্নি যচ্ছতু ময্যেবাস্তু ময়ি তং॥৩॥ 

इ॒हैवाभि वि त॑नू॒भे आर्त्नी॑ इव॒ ज्यया॑। वा॒चस्पति॒र्नि य॑च्छतु॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥


पदार्थान्वयभाषाः -(इह) इस के ऊपर (एव) ही (अभि) चारों ओर से (वितनु) तू अच्छे प्रकार फैल, (इव) जैसे (उभे) दोनों (आर्त्नी) धनुष कोटिएँ (ज्यया) जय के साधन, चिल्ला के साथ [तन जाती हैं]। (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (नियच्छतु) नियम में रक्खे, (मयि) मुझमें [वर्त्तमान] (श्रुतम्) वेदविज्ञान (मयि) मुझमें (एव) ही (अस्तु) रहे ॥३॥


भावार्थभाषाः -जैसे संग्राम में शूरवीर धनुष् की दोनों कोटियों को डोरी में चढ़ा कर बाण से रक्षा करता है, उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपायुक्त दोनों हाथों को [अर्थात् अज्ञान की हानि और विज्ञान की वृद्धि को] इस मुझ ब्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियमपालन में दृढ़ करके परमसुखदायक ब्रह्मविद्या का दान करे और विज्ञान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान् यास्क के अनुसार−निरुक्त ९।१७ (ज्या) शब्द का अर्थ जीतनेवाली यद्वा आयु घटानेवाली अथवा बाणों को छोड़नेवाली वस्तु है ॥


टिप्पणी:३−इह। अत्र, अस्योपरि, अस्मिन् ब्रह्मचारिणि, ममोपरि। अभि। अभितः सर्वतः। वितनु। तनु विस्तारे−लोट्, अकर्मकः। वितनुहि, वितन्यस्व विस्तृतो भव। उभे। ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति प्रगृह्यम्। द्वये। आर्त्नी। आङ्+ऋ गतौ-क्तिन्, नकारोपसर्जनम्। पूर्ववत् प्रगृह्यम्, आर्त्नी, धनुष्कोटी, अटन्यौ धनुः प्रान्ते। आर्त्नी अर्तन्यौ वारण्यौ वारिषण्यौ वा निरु० ९।३९ ॥ ज्यया। ज्या जयतेर्वा जिनातेर्वा प्रजावयतीषूनिति वा निरु० ९।१७। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति जि जये, वा, ज्या वयोहानौ णिच्−वा, जु रंहसि गतौ, णिच्−यक्। निपातनात् साधुः। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति ज्यु गत्याम् यद्वा, ज्या वयोहानौ, णिच्-ट। टाप्। धनुर्गुणेन, मौर्व्या। वाचः+पतिः मं० १ ॥ वाण्याः स्वामी। नि+यच्छतु। नियमतु, नियमे रक्षतु। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥


উপহূত বাচস্পতিরুপাম্মান বাচস্পতিয়তাং। সং শুতেন গমেমহি মা তেন বি রাধিষি ॥৪॥

उप॑हूतो वा॒चस्पति॒रुपा॒स्मान्वा॒चस्पति॑र्ह्वयताम्। सं श्रु॒तेन॑ गमेमहि॒ मा श्रु॒तेन॒ वि रा॑धिषि ॥


पदार्थान्वयभाषाः -(वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी, परमेश्वर (उपहूतः) समीप बुलाया गया है, (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (अस्मान्) हमको (उपह्वयताम्) समीप बुलावे। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (संगमेमहि) हम मिले रहें। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (मा विराधिषि) मैं अलग न हो जाऊँ ॥४॥


भावार्थभाषाः -ब्रह्मचारी लोग परमेश्वर का आवाहन करके निरन्तर अभ्यास और सत्कार से वेदाध्ययन करें, जिससे प्रीतिपूर्वक आचार्य की पढ़ायी ब्रह्मविद्या उनके हृदय में स्थिर होकर यथावत् उपयोगी होवे ॥ इस सूक्त का यह भी तात्पर्य है कि जिज्ञासु ब्रह्मचारी अपने शिक्षक आचार्यों का सदा आदर सत्कार करके यत्नपूर्वक विद्याभ्यास करें, जिससे वह शास्त्र उनके हृदय में दृढ़भूमि होवे ॥४॥


टिप्पणी:४−उप+हूतः। उप+ह्वेञ् आह्वाने-क्त। समीपं कृतावाहनः, कृतस्मरणः। वाचः+पतिः। म० १ ॥ वाण्याः पालयिता, परमेश्वरः। उप। समीपे। आदरेण। ह्वयताम्। ह्वेञ्-लोट्। आह्वयतु स्मरतु। श्रुतेन। मं० २। अधीतेन, शास्त्रविज्ञानेन। सम्+गमेमहि। सम् पूर्वकात् गम्लृ संगतौ−आशीर्लिङि। समो गम्यृच्छि- प्रच्छि०। पा० १।३।२९। इति आत्मनेपदम्, व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति समः क्रियापदेन संबन्धः। संगच्छेमहि, संगता भूयास्म। मा+वि+राधिषि। राध संसिद्धौ। विराध वियोगे लुङि, आत्मनेपदमेकवचनम् इडागमश्च। माङि लुङ्। पा० ३।३।१७५। इति लुङ्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इति माङि अटोऽभावः। अहं वियुक्तो मा भूवम् ॥

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