रामायण का काल - ধর্ম্মতত্ত্ব

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02 February, 2025

रामायण का काल

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का काल

स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

 (वाल्मीकि रामायण के अनुवादक,सम्पादक एवं टिप्पणीकर्त्ता)

👉इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भारत का इतिहास मुसलमानों और अंग्रेजों द्वारा लिखा गया और विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में वही पढ़ाया गया ! अंग्रेज संसार की आयु केवल पांच-छह सहस्र वर्ष ही मानते थे! अत: उन्होंने भारतीय इतिहास को भी पांच-छ: सहस्र वर्षों के भीतर ही सीमित रखने का प्रयत्न किया ! अपनी कपोल-कल्पनाओं के आधार पर पाश्चात्य लेखकों ने वेदों का समय ईसा से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व,महाभारत का समय ईसा से पांच-छः सौ वर्ष और रामायण का समय ईसा से तीन-चार सौ वर्ष पूर्व निर्धारित किया! यह काल गणना सर्वथा असत्य और पक्षपातपूर्ण है! भारतीय विद्वान श्रीराम का जन्म त्रेता के अन्त में मानते हैं ! इस प्रकार वे लोग श्रीराम का समय और रामायण का रचना-काल भी नौ लाख वर्ष मानते हैं! हमारा विचार इस धारणा से भी मिल नहीं खाता! वायु पुराण में उल्लेख है -
त्रेतायुगे चतुर्विंशे रावणस्तपस: क्षयात् !
रामं दाशरथिं प्राप्य सगण: क्षयमीयवान् !!
(वायुपुराण ७०/४८)
अर्थात आचार से पतित होने के कारण रावण २४ वें त्रेता युग में दशरथनन्दन श्रीराम के साथ युद्ध करके बन्धु- बान्धवों सहित मारा गया !
इस श्लोक में श्रीराम का काल २४ वां त्रेतायुग (वैवस्वत मन्वन्तर) बताया गया है! आज तक का गणित यह है -
२४ वें त्रेता से २८ वें त्रेता तक चार युग बीते जिनमें वर्ष हुए -
४३,२०,००० × ४ = १,७२,८०,००० वर्ष
द्वापर के वर्ष ८,६४,००० वर्ष
कलियुग के वर्ष ‌‌ ५,०७० वर्ष
. ------------------------
कुल योग १,८१,४९,०७० वर्ष
इस प्रकार श्रीराम का काल एक करोड़, इक्यासी लाख, उनन्चास सहस्र,सत्तर वर्ष होता है! रामायण श्रीराम का समकालीन इतिहास है! जिस समय श्रीराम राजसिंहासन पर आसीन हो गए थे उस समय महर्षि वाल्मीकि ने अपने ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की थी। अतः रामायण का समय भी इतना ही है ।
रामायण के काल के सम्बंध में यह बाह्य साक्षी है। अन्तःसाक्षी हमने रामायण में ही पृष्ठ ३६५ पर दी है। जो निम्नलिखित है।
वाजिहेषितसंघुष्टं नादितं भूषणैस्तथा ।
रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा गजहयै: शुभै: ।।११।।
वारणैश्च चतुर्दन्तै: श्वेताभ्रनिचयोपमै:।
भूषितं रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभि: ।।१२।।
रक्षितं सुमहावीर्यातुधानै: सहस्रा: ।
राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहों कपि:।।१३।।
जिस भवन के द्वार पर घोड़े हिनहिना रहे थे, जहां घोड़ों पर पड़े आभूषणों की झंकार हो रही थी,जिस भवन के द्वार पर नाना प्रकार के रथादि यान, विमान,उत्तम नस्ल के हाथी और घोड़े विद्यमान थे, जिस राजभवन का द्वार श्वेत मेघ के समान सुभूषित बड़े डील-डौल वाले सफेद चार दांत वाले हाथी * तथा प्रफुल्लित पशु और पक्षियों से सुशोभित था, सहस्रों महाबली और पराक्रमी राक्षस जिस राजभवन की रखवाली के लिए नियुक्त थे- ऐसे राजभवन में हनुमान जी ने प्रवेश किया ।
👉पाद टिप्पणी -
* आज के वैज्ञानिकों को आज से तीन शती पूर्व चार दांत वाले हाथियों का ज्ञान नहीं था। ये चार दांत वाले हाथी आज से ढाई करोड़ वर्ष से लेकर ५५ लाख वर्ष पूर्व तक अफ्रीका आदि में पाये जाते थे । रामायण श्रीराम का समकालीन इतिहास है। महर्षि वाल्मीकि तीन दांत और चार दांत वाले हाथियों से परिचित थे। अतः रामायण की इस अन्त:साक्षी के आधार पर रामायण काल नौ लाख वर्ष से भी प्राचीन सिद्ध होता है । - स्वामी जगदीश्वरानन्द
स्रोत- प्रक्षेप-निवृत्त वाल्मीकि रामायण
अनुवादक, सम्पादक एवं टिप्पणीकार- स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
प्रस्तुतकर्त्ता- रामयतन

👉वाल्मीकीय रामायण का मूल स्वरूप-घ
👉बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में अवान्तर प्रसंग
वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के मुद्दे पर दो विशेषज्ञ विद्वानों का मत हम देख चुके हैं। जैसा कि पहले कहा गया, किसी को खाँटी जिज्ञासा हो और वह थोड़ा श्रम और समय व्यय करने को तैयार हो तो इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की शरण में जाने की ज़रूरत ही नहीं। थोड़ा समय देकर इन दोनों काण्डों की विषय-वस्तु का हम स्वयं जाइज़ा ले सकते हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या!
इन दोनों काण्डों में दो तरह की सामग्री है‌:
1. अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक की रामयात्रा की कथा में आ चुके कुछ प्रसंगों की पुनरावृत्ति जिनमें इन प्रसंगों के भिन्न, असंगत और अयुक्तिपूर्ण पाठ जोड़ दिये गये हैं।
2. रामकथा से असम्बद्ध और परस्पर भी असम्बद्ध फुटकर पौराणिक आख्यान, राम की यात्रा, रामकथा तक के लिए अवांतर प्रसंग
बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में उपलब्ध वाल्मीकि से जुड़े प्रसंग को केंद्र में रखकर पहले बिंदु का विवेचन पिछले भाग में हो चुका है। अब:
रामकथा से असम्बद्ध पौराणिक आख्यान
बालकाण्ड
सर्ग-1 से सर्ग-4: (पहले विवेचित) वाल्मीकि आख्यान। सर्ग-8-14: दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प, काश्यप-पौत्र एवं विभांडक-पुत्र मुनि ऋष्यशृंग की पौराणिक कथा, राजा रोमपाद के राज्य अंगदेश में दुर्भिक्ष, उससे मुक्ति के लिए अंग-नरेश द्वारा दृढ़व्रती मुनिकुमार ऋष्यशृंग (जिन्होंने कभी किसी स्त्री का दर्शन नहीं किया था) को वेश्याओं की सहायता से अंगदेश लाया जाना और उनके साथ रोमपाद की पुत्री शांता का विवाह। सुमंत्र द्वारा दशरथ को एक भविष्यवाची पौराणिक कथा सुनाये जाने पर दशरथ का अपनी रानियों और मंत्रियों के साथ अंगदेश की यात्रा। रोमपाद से उनकी पुत्री शांता तथा उसके पति ऋष्यशृंग को अयोध्या भेजने का निवेदन। तदनुरूप ऋष्यशृंग का सपत्नीक अयोध्या आगमन। ऋष्यशृंग के निर्देशन में दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सम्पादन। [इसके बाद ही 15वें सर्ग में ऋष्यशृंग की सलाह और उनके निर्देशन में पुत्र-प्राप्ति के लिये दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि अनुष्ठान के सम्पादन का प्रसंग आता है जिसके अग्निकुंड से प्रकट हुआ पुरुष वह खीर प्रदान करता है जिसे खाकर दशरथ की तीनों रानियाँ गर्भ धारण करती हैं, वह रामकथा का अंश ज़रूर है किंतु राम-यात्रा का नहीं।]
सर्ग-32: ब्रह्मापुत्र कुश के चार पुत्रों—कुशाम्ब (कौशाम्बी नगर के संस्थापक), कुशनाभ, असूर्तरजस और वसु--का आख्यान, कुशनाभ की असाधारण रूप-लावण्य-सम्पन्न सौ युवा पुत्रियों पर मोहित वायुदेव द्वारा उनसे पत्नी बनने का प्रस्ताव, जिसे अस्वीकार करने पर कुपित वायुदेव द्वारा उनमें प्रवेशकर उन्हें कुब्जा (कुबड़ी) कर देना। सर्ग-33: महातेजस्वी चूली महर्षि की सेवा में रत सोमदा नामक गंधर्वकुमारी के याचना करने पर महर्षि द्वारा तपशक्ति (मानसिक संकल्प) से उसे पुत्र प्रदान करना। ब्रह्मदत्त नामक उस पुत्र से राजा कुशनाभ की सौ कुब्जा कन्याओं का विवाह होते ही उनके वायु-जन्य वातरोग (कुब्जत्व) का दूर हो जाना और पूर्व-सौंदर्य लौट आना। सर्ग-34: विश्वामित्र के पिता गाधि का आख्यान—ब्रह्मदत्त के साथ सौ पुत्रियों के विवाह के बाद उनके ससुराल चली जाने पर पुत्रहीन राजा कुशनाभ का पुत्रहेतु पुत्रेष्टि अनुष्ठान करना जिससे धर्मात्मा गाधि का जन्म। राजा कुश (प्रपितामह) के कुल में उत्पन्न होने से गाधि-पुत्र विश्वामित्र का ‘कौशिक’ कहलाना। विश्वामित्र की बड़ी बहन ऋचीक मुनि को ब्याही सत्यवती की सशरीर स्वर्ग पधारने की कथा जो कौशिकी नदी बनकर भूतल पर प्रवाहित है। नेपाल से बिहार तक बहती आज की कोसी ही पुराणकाल की कौशिकी हैं। सर्ग-35—गंगा की उत्पत्ति की विलक्षण कथा। हिमालय सभी पर्वतों का राजा है। उसकी पत्नी मेरु पर्वत की सुंदरी पुत्री मेना है, जिसकी दो पुत्रियों में ज्येष्ठ गंगा हैं और कनिष्ठ उमा। गिरिराज हिमालय का उमा (पार्वती) को तपस्या में रत शिव से ब्याह देना। देवताओं का गंगा को देवकार्य की सिद्धि के लिये गिरिराज से माँग लेना और बाद में स्वर्ग से त्रिपथगा के रूप में अवतीर्ण होकर गंगा का तीनों लोकों में प्रवाहित होना।
सर्ग-36: शिव-पार्वती के सम्बंध में ऊलजलूल कथा। उमा से शिव के विवाह के बाद दोनों का सौ दिव्य वर्षों तक रति-क्रीडा मे निमग्न रह जाना। देवताओं की चिंता--इतने वर्षों के बाद शिव के तेज (वीर्य) से उमा गर्भ धारण कर जो अति-तेजस्वी प्राणी उत्पन्न करेंगी उसका तेज कौन बर्दाश्त करेगा! शिव के पास आकर देवगण की प्रार्थना--आप रति-क्रीडा से विरत हों। शिव का मान जाना किंतु क्रुद्ध हुई पार्वती का देवताओं को शाप—मैं पुत्र-प्रप्ति की इच्छा से पति के साथ रमण कर रही थी, तुम लोगों ने बाधा डाली, तुम्हारी पत्नियाँ भी संतान उत्पन्न करने में अक्षम हो जायेंगी। सर्ग-37: अग्निदेव द्वारा शिव के तेज को गंगा के दिव्य रूप में स्थापित किया जाना और उससे एक पुत्र का जन्म। कृत्तिका नक्षत्र-पुंज की छहों कृत्तिकाओं का नवजात शिशु को दुग्धपान कराकर उसे जीवन देना जिससे उसका नाम कार्तिकेय पड़ना।
सर्ग-38: भृगु मुनि के वरदान से पुत्रहीन इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर (राम के पूर्वज) की दो पत्नियों में से एक, विदर्भकुमारी केशिनी, के एक पुत्र तथा दूसरी (अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री एवं पक्षिराज गरुड की बहन) सुमति से साठ हज़ार पुत्रों के जन्म की अलौकिक कथा। सर्ग-39: सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इंद्र द्वारा चुराया जाना और सगर के साठ हज़ार पुत्रों द्वारा उसे खोजने के लिए पृथ्वी का भीषण उत्खनन। सर्ग-40: एक बार असफल होने पर पिता के आग्रह पर इन पुत्रों द्वारा पृथ्वी का पुन: उत्खनन। पौर्वत्य पृथ्वी के उत्खनन से पर्वताकार विशाल गजराज विरूपाक्ष का दर्शन जिसने अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण कर रखा है और मस्तक हिलने से भूकम्प आता है। दाक्षिणात्य पृथ्वी के उत्खनन से दूसरे विशाल गजराज महापद्म, पाश्चात्य पृथ्वी के उत्खनन से गजराज सौमनस, पृथ्वी के उत्तर खंड के उत्खनन से गजराज श्वेतभद्र का दर्शन। पूर्वोत्तर के उत्खनन से भगवान्‌ कपिल तथा उन्हीं के पास चरते हुए यज्ञ के घोड़े का दर्शन। कपिल को चोर समझकर सगर-पुत्रों द्वारा उन्हें फटकार लगाना और उससे रुष्ट कपिल के मुँह से निकली हुंकार से उनका भस्म हो जाना। सर्ग-41: सगर की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र असमंजस के पुत्र अंशुमान का अपने पितृव्यों द्वारा उत्खनित मार्ग से नीचे पहुँचने पर भस्मीभूत पितृव्यों और पास में चर रहे घोड़े का दर्शन। शोकाकुल अंशुमान की पितृव्यों को जलांजलि देने की इच्छा पर पितृव्यों के मामा गरुड की गंगा को वहाँ लाकर उनके जल से पितृव्यों का उद्धार करने की सलाह। अंशुमान के घोड़ा लेकर ऊपर आने पर सगर द्वारा यज्ञ का समापन और तीस हज़ार वर्ष शासन करने के उपरांत उनका स्वर्ग-गमन। सर्ग-42: सगर के बाद अंशुमान का राज्य, फिर पुत्र दिलीप को राज्य देकर तपस्या हेतु अंशुमान का हिमालय के लिये प्रस्थान। बत्तीस हज़ार वर्षों तक वहाँ तपस्या और देहांत। अपने भस्म पूर्वजों को जलांजलि देकर उनका उद्धार करने की कामना लिये दिलीप का भी अवसान। उनके पुत्र भगीरथ द्वारा गंगावतरण के लिए गोकर्ण तीर्थ जाकर, पंचाग्नि का सेवन करते हुए, एक-एक महीने उपरांत आहार ग्रहण करते हुए, घोर तपस्या। तपस्या से प्रसन्न देवताओं के साथ ब्रह्मा का आगमन। हिमालय-पुत्री गंगा के अवतरण पर पृथ्वी की उनका वेग सहन करने की अक्षमता का ज़िक्रकर ब्रह्मा का भगीरथ को सलाह देना कि गंगा को धारण करने के लिए वे शिव को तैयार करें। सर्ग-43: देवताओं के साथ ब्रह्मा के लौट जाने पर भगीरथ का मात्र अँगूठे के अग्रभाग को पृथ्वी पर टिकाकर खड़े-खड़े एक वर्ष तपस्या कर, शिव को संतुष्ट करना और शिव द्वारा गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने का आश्वासन। गंगा का संकल्प कि वे बृहत्‌ रूप धारण कर अपने वेग से शिव को लिये-दिये पाताल लोक चली जायेंगी। गंगा के अहंकार से कुपित शिव का उन्हें अपने जटामंडल में अदृश्य कर देना। भगीरथ द्वारा पुन: तपस्या। उससे प्रसन्न शिव का गंगा को बिंदुसरोवर में छोड़ना और गंगा का सात धाराओं में विभक्त होकर, तीन धाराओं (ह्लादिनी,पावनी, नलिनी‌) का पूर्व दिशा में, तीन‌ धाराओं (सुचक्षु, सीता और सिंधु) का पश्चिम दिशा में और एक धारा का दिव्य रथ पर आरूढ़ भगीरथ के पीछे-पीछे चलना। देवता, ऋषि, गंधर्व, यक्ष गण का नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा हाथियों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गंगा की शोभा निहारना। गंगा द्वारा उसी समय यज्ञ कर रहे प्रतापी राजा जह्नु के यज्ञपमंडप को बहा ले जाना, कुपित हुए जह्नु का गंगा का समस्त जल पी जाना; देवताओं, गंधर्वों, ऋषियों द्वारा जह्नु की स्तुति कर गंगा को उनकी पुत्री बना देना जिससे प्रसन्न हुए जह्नु का गंगा को अपने कानों के छिद्र से पुन: प्रकट कर देना (जिससे गंगा का जाह्न्वी कहलाना)। अंतत: भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे प्रवाहित गंगा का समुद्र (गंगासागर) में समा जाना और भगीरथ के साठ हज़ार पितरों (सगर-पुत्रों) के उद्धार के लिये रसातल पहुँच जाना। भगीरथ का भी यत्नपूर्वक गंगा के साथ रसातल जाना, पितरों को अचेतावस्था में देखना और गंगा द्वारा उनकी भस्मराशि को आप्लावित कर उन्हें स्वर्ग पहुँचा देना। सर्ग-44: रसातल में ब्रह्मा का प्रकट होना, भगीरथ को गंगाजल से पितरों का तर्पण करने की आज्ञा देना और उन्हें आश्वस्त करना कि जब तक संसार में सागर का जल रहेगा, सगर-पुत्र देवताओं की तरह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे। भगीरथ से यह भी कहना कि गंगा अब तुम्हारी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और भागीरथी नाम से जगत्‌ में विख्यात होंगी। भगीरथ का इस कार्य को सम्पन्न कर अपने नगर लौट जाना। मंगलमय गंगावतरण उपाख्यान की फलश्रुति।
यह बालकाण्ड के 77 सर्गों में से 44वें सर्ग तक आये रामकथा से असम्बद्ध, अलौकिक और असंभाव्य पौराणिक आख्यानों की अतिसंक्षिप्त बानगी है।
बालकाण्ड के शेष सर्गों में समुद्र-मंथन और उससे निकलनेवाले हालाहल (कालकूट) विष, धन्वन्तरि, साठ करोड़ अप्सराओं, वरुण की पुत्री व सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी, उच्चै:श्रवा घोड़े, कौस्तुभ मणि और अंत में अमृत की उत्पत्ति की कथा; कश्यप ऋषि की पत्नियों दिति और अदिति तथा उनसे देवों और असुरों की उत्पत्ति की कथा; गौतम तथा अहिल्या की कथा; गौतम ऋषि द्वारा इंद्र को शाप देने तथा अहिल्या के उद्धार का उपाय बताने की कथा; शतानंद द्वारा विश्वामित्र का वंश-वर्णन; वशिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष; विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की गाय कामधेनु के बलात् अपहरण से दु:खी कामधेनु का वशिष्ठ की आज्ञा से हुंकार भरकर महाबली पह्लव और काम्बोज तथा अपने थन से बर्बर, योनिस्थान से यवन, शकृस्थान (गोबर करने के स्थान) से शक, रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत व किरात सैनिकों को उत्पन्न करना जो विश्वामित्र के सौ पुत्रों में से निन्यानवे का संहार कर विश्वामित्र को अपने बचे हुए एक पुत्र को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिए निकल जाने को बाध्य करते हैं। [रामायण काल में ये पह्लव, काम्बोज, बर्बर, यवन, शक और म्लेच्छ कहाँ से आ गये?] फिर सर्ग-57 से सर्ग-60 तक विश्वामित्र-त्रिशंकु की विस्तृत कथा, अम्बरीष और शुन:शेप की कथा, शुन:शेप को यज्ञ-पशु बनाये जाने के निष्फल प्रयास की कथा, विश्वामित्र की तपस्या और इंद्र-प्रेरित मेनका द्वारा उसे भंग किये जाने की कथा, विश्वामित्र द्वारा पुन: तपस्या करने, इस बार इंद्र-प्रेरित रम्भा द्वारा उन्हें मोहित करने के उद्योग की कथा। ध्यान-भंग होने पर विश्वामित्र द्वारा रंभा को एक हज़ार साल के लिए प्रस्तर-प्रतिमा बन जाने का शाप और अंतत: उनका ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने में सफल हो जाना।
पूरे बालकाण्ड में ऐसे ही अनेक अवांतर प्रसंग भरे हुए हैं जिनमें पौराणिक कथाओं का ठीक पौराणिक शैली में लौकिक-अलौकिक, संभव-असंभव की विभाजन रेखा का अतिक्रमण करते हुए अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक वाल्मीकि के जिस सुगठित और सूत्रबद्ध कथा-विधान के दर्शन होते हैं, ये कथायें उसके विरूपण का आईना हैं। अधिकांश कथाएँ विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण के सामने वर्णित हैं और कई के केंद्र में विश्वामित्र स्वयं हैं। विशेषज्ञ विद्वानों का मत अपनी जगह, आप ख़ुद पारायण करें और तय करें यह रामायण का बालकाण्ड है या विश्वामित्र-काण्ड, जिसमें यत्र-तत्र बालकाण्ड के कथा-सूत्र भी बिखेर दिये गये हैं।
उत्तरकाण्ड
बालकाण्ड की रामकथा के लिये वाल्मीकीय रामायण से इतर एक बना-बनाया ढाँचा उपलब्ध है। तुलसी का रामचरितमानस तो है ही, अनगिनत देशी-विदेशी राम-कथाओं में भी भिन्न-भिन्न रूपों में यह ढाँचा मिल जाता है। पद्मभूषण फ़ादर कामिल बुल्के की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ एक श्रमसाध्य, सुचिंतित और यथासंभव वस्तुपरक शोध ग्रंथ है जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में किये गये शोध का प्रतिफल है, जिस पर उन्हें पी एच डी की उपाधि मिली थी। कामिल बुल्के बेल्जियम से भारत आये एक ईसाई मिशनरी थे, उनका विवेकसम्मत भारत-प्रेम उनके इस एक कथन से ही स्पष्ट है--संस्कृत भारतीय भाषाओं में महारानी है, हिंदी बहूरानी और अँग्रेजी बहूरानी की सेविका। उन्होंने प्राचीन रामकथा-- वाल्मीकीय रामायण, बौद्ध रामकथा (दशरथ जातक), जैन रामकथा (विमलसूरि कृत पद्मचरित और गुणभद्र कृत उत्तरपुराण)-- अर्वाचीन रामकथा (बलरामदास कृत उड़िया रामायण, कृत्तिवास कृत बँगला रामायण और कश्मीरी रामायण) के अतिरिक्त कम्बोडिया की ‘रामकेर्ति’ तथा तिब्बत, श्याम (थाईलैंड), बर्मा आदि देशों में उपलब्ध रामकथाओं के अनुशीलन से अपना मत स्थिर किया है।
बालकाण्ड की तरह उत्तरकाण्ड की रामकथा का कोई ढाँचा उपलब्ध नहीं है। तुलसी ने अपना उतरकाण्ड भरत-हनुमान्‌ मिलन, राम के अयोध्या आगमन, राम के राज्याभिषेक, वानरों और निषाद की विदाई (जो प्रसंग वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड में ही समाहित हैं), रामराज्य के वर्णन और राम, भरत, लक्ष्मण, और शत्रुघ्न के दो-दो पुत्रों की उत्पत्ति के बाद शेष उत्तरकाण्ड विभिन्न संवादों के माध्यम से तत्व-विवेचन और ज्ञान-भक्ति निरूपण को समर्पित कर दिया है। अन्य रामकथाओं में भी वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड का कथानक लगभग नदारद है। ऐसे में वाल्मीकि के ‘उत्तरकाण्ड’ (?) में उपलब्ध सामग्री की प्रकृति इस काण्ड के प्रक्षिप्त होने या न होने की एकमात्र कसौटी रह जाती है।
वाल्मीकीय रामायण के ‘उत्तरकाण्ड’ (?) की विषयवस्तु का विहंगावलोकन।
उत्तरकाण्ड में कुल 111 सर्ग हैं। यह काण्ड शुरू होता है राम-दरबार में महर्षियों के आगमन और उनसे संक्षिप्त वार्तालाप के साथ। ऋषि अगस्त्य द्वारा रावण के पितामह ऋषि पुलस्त्य के गुणों और उनकी तपस्या का वर्णन। पुलस्त्य-पुत्र मुनि विश्रवा से वैश्रवण (कुबेर) की उत्पत्ति। वैश्रवण की तपस्या तथा लंका में उनका निवास। राक्षस-वंश का वर्णन—हेति, विद्युत्केश और सुकेश की उत्पत्ति। सुकेश के पुत्र माल्यवान, सुमाली और माली की संतति-परंपरा का आख्यान। राक्षसों के संहार के लिए, शंकर की सलाह पर देवताओं का विष्णु की शरण में जाना और विष्णु का आश्वासन। देवताओं पर राक्षसों का आक्रमण और विष्णु की सहायता से उनका संहार एवं उनका पलायन। विष्णु (यहाँ उन्हें श्रुति साहित्य की तरह इंद्र का कनिष्ठ भ्राता दिखाया गया है) द्वारा पीछा किये जाते राक्षसों में माल्यवान का लौट पड़ना, विष्णु से उसका युद्ध, गरुड पर उसका आक्रमण और उनके पंख की हवा से उसका और अन्य राक्षसों का उड़ जाना, फिर लंका की ओर पलायन। किंतु वहाँ से भी भागते-भागते रसातल पहुँच जाना और कुबेर का लंका में निवास। राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी की मुनि विश्रवा से पुत्र पाने की अभ्यर्थना करने पर उनसे रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण का जन्म। रावण आदि की तपस्या के लिये गोकर्ण-तीर्थ की यात्रा। वहाँ घोर तपस्या के उपरांत ब्रह्मा का प्रकट होना और रावण, विभीषण और कुम्भकर्ण को वर देना। रावण के संदेश पर कुबेर का लंका छोड़कर कैलास जाना और लंका में रावण का राज्याभिषेक। रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण तथा उनकी बहन शूर्पणखा का विवाह और रावण के पुत्र मेघनाथ का जन्म। रावण के अत्याचार, यक्षों पर उसका आक्रमण और उनकी पराजय। रावण द्वारा कुबेर को पराजित कर उनके पुष्पक विमान का अपहरण। रावण की शंकर के वाहन नंदी से भिड़ंत, एक हज़ार वर्षों तक उसके द्वारा नंदी का स्तवन, शंकर का प्राकट्य और उनसे रावण को चंद्रहास खङ्ग की प्राप्ति। रावण की समस्त पृथ्वी पर दिग्विजय यात्रा। यमलोक पर उसका आक्रमण, उसके वध के लिए यमराज का कालदण्ड उठा लेना किंतु ब्रह्मा के आग्रह पर उसे लौटा लेना।
रावण और उसके परिजनों की कथा का विस्तार सर्ग-34 तक फैला हुआ है। सर्ग-31 में उसका आगमन नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती नगरी में होता है। वहाँ के राजा अर्जुन को वहाँ न पाकर रावण मंत्रियों सहित नर्मदा में स्नान कर उसके तट पर शिव की आराधना करने लगता है। आख़िर उसकी भिड़ंत अर्जुन से हो ही जाती है। उस समय अर्जुन अपनी स्त्रियों के साथ नर्मदा में जलक्रीडा कर रहा था। उसके हज़ार भुजाएँ थीं। भुजाओं का बल आँकने के लिये उसने उनसे नर्मदा का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया। जल उल्टी दिशा में बहने लगा और शिव की पूजा कर रहे रावण द्वारा शिव को अर्पित पुष्पोपहार बहा ले गया। फिर तो रावणादि राक्षसों से अर्जुन का युद्ध होना ही था। महापराक्रमी अर्जुन ने रावणको हराकर क़ैद कर लिया और माहिष्मती ले गया। किसी तरह पुलस्त्य ऋषि ने रावण को अर्जुन की क़ैद से छुड़ाया (सर्ग-33)।
क़ैद से छूटने पर रावण फिर मदमस्त विचरता किष्किन्धापुरी जा पहुँचा और बालि को युद्ध के लिए ललकार बैठा। महाबली बालि ने उसे पकड़कर काँख में दबा लिया और दूर-दूर तक घूमने लगे। अंत में किष्किन्धा लौटकर उसे उतारा। फिर तो नीतिज्ञ रावण ने अपनी चाटुकारिता से बालि को ख़ुशकर उसे अपना मित्र बना लिया (सर्ग-34)। [इस सर्ग तक ऐसा लगता है जैसे यह रामायण का उत्तरकाण्ड न होकर रावणकाण्ड हो।]
इसके आगे दो सर्गों में हनुमान्‌ की उत्पत्ति और उनके जीवन का वर्णन कर राम के राज्याभिषेक में आमंत्रित राजाओं, वानरों और विभीषणादि राक्षसों की विदाई के युद्धकांड में आ चुके आख्यान की पुनरावृत्ति होती है, जिसे यहाँ अनावश्यक, अंतर्विरोधी और असम्बद्ध विस्तार दिया गया है (इसके पहले की पोस्ट में आ चुका है)। सर्ग-44 से 49 तक लोकापवाद से विचलित राम द्वारा सीता-निर्वासन की कथा वर्णित है (वह भी उसी पोस्ट में आ चुका है)। सर्ग-54 से 57 तक इक्ष्वाकुवंशी राजा निमि और वशिष्ठ का एक-दूसरे के शाप से देहत्याग और वशिष्ठ के अजीबोग़रीब ढंग से, कुछ अश्लील-सी, पुनर्जन्म की कथा आती है जो प्रक्षेपकों के दिमाग़ की ही उपज हो सकती है (सर्ग-55—57)। सर्ग-59 में बिना किसी संदर्भ के ययाति और उनके पुत्र पुरु (कौरवों-पांडवों के पूर्वज) की प्रसिद्ध कथा आती है जिसमें विषय-भोग से अतृप्त वृद्ध ययाति अपने युवा पुत्र पुरु को अपना बुढ़ापा देकर उसका यौवन ले लेते हैं और दीर्घकाल तक किये गये विषय-भोग से तृप्त होकर उसका यौवन लौटा देते हैं। अपने पुत्रों में पुरु के द्वारा किये गये त्याग से संतुष्ट उसी को राज्य का उत्तराधिकारी बनाते है।
फिर राम के सामने ब्राह्मण द्वारा प्रतारित एक कुत्ते की न्याय-याचना का प्रसंग आता है जिसमें राम प्रतारक ब्राह्मण को मठाधीश बनने का दंड देते हैं। इस न्याय से संतुष्ट कुत्ता अपने पूर्वजन्म में मठाधीश होने और उसमें निहित अकृत्यों के कारण कुत्ता-योनि पाने का रहद्योद्घाटन करता है।
फिर लवणासुर के अत्याचारों से पीड़ित च्यवन आदि ऋषियों का राम की राजसभा में उपस्थित होकर उसके बल का वर्णन करते हुए उसके कारण अपने त्रास के निराकरण के लिए राम से प्रार्थना करते हैं। राम की आज्ञा से शत्रुघ्न इस अभियान का नेतृत्व करते हैं और 12 सालों के कठिन अभियान से लवणासुर का वध करने में सफल होते हैं (सर्ग-60—69)। इसी अभियान के सिलसिले में दो बार उनका वाल्मीकि आश्रम जाना और सीता के जुड़वाँ पुत्र होने पर उनका दर्शन होता है किंतु अयोध्या लौटने पर वे इसकी कोई सूचना राम को नहीं देते। यह प्रसंग आ चुका है। सात दिन अयोध्या में रहकर वे लवणासुर के मधु राज्य की व्यवस्था सुधारने उसकी राजधानी मधुपुरी निकल जाते हैं। इसी के बाद शम्बूक प्रसंग आता है (सर्ग-73--77)।
इसके बाद राम द्वारा अश्वमेध यज्ञ का आयोजन जिसमें वाल्मीकि के साथ प्रकट होकर सीता पृथ्वी की गोद में समा जाती हैं और राम शोक और पश्चात्ताप में डूब जाते हैं (सर्ग—84-98)। यह प्रसंग भी आ चुका है।
केकय देश से ब्रह्मर्षि गार्ग्य का आगमन और उनसे प्रेरित होकर राम द्वारा भरत के नेतृत्व में सेना भेजकर गंधर्व देश पर आक्रमण, उसपर आधिपत्य और भरत द्वारा वहाँ दो सुंदर नगर बसाकर, अपने दोनों पुत्रों को वहाँ का कार्यभार सौंपकर, अयोध्या लौटना (सर्ग--100—101)। काल का आगमन, उसके द्वारा भेजा गया ब्रह्मा का राम के नाम संदेश जिसे वे एकांत में सुनते हैं और स्वीकार कर लेते हैं (सर्ग-103)। लक्ष्मण द्वारा दुर्वासा के आगमन पर, उनके शाप के भय से इसकी सूचना देने के लिए राम के एकांत का नियम-भंग करना, फलस्वरूप राम द्वारा लक्ष्मण का परित्याग और लक्ष्मण का सशरीर स्वर्गारोहण (सर्ग—105-106)।
कुश और लव का राज्याभिषेक और राम का परमधाम के लिये प्रस्थान। साथ में समस्त अयोध्यावसियों का प्रस्थान (सर्ग-109)। भाइयों सहित राम का विष्णुस्वरूप में प्रवेश और साथ आये अन्य लोगों को ‘सन्तानक’ लोक की प्राप्ति (सर्ग-110)। रामायण काव्य का उपसंहार और फलश्रुति (सर्ग-111)।
विषयवस्तु के अंत:साक्ष्य के प्रत्यक्ष आधार पर हम ख़ुद तय कर सकते हैं, उत्तरकाण्ड मूल वाल्मीकीय रामायण (राम की यात्रा) का प्रक्षिप्त है या मूल रचना का अविभाज्य अंग।

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