गुरु विरजानन्द दण्डी जीवन एवं दर्शन - ধর্ম্মতত্ত্ব

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20 March, 2025

गुरु विरजानन्द दण्डी जीवन एवं दर्शन

गुरु विरजानन्द दण्डी  जीवन एवं दर्शन
 

आर्यजाति ने विश्‍व को एक उदात्त दर्शन एवं आदर्श संस्कृति प्रदान की थी । इसीलिए यह पुण्य भारत भूमि विश्वगुरु कहलायी थी। परन्तु जब इसका पतन हुआ तो उसको भी कोई सीमा न रही । कारण क्या था ? इस देश में महाभारत युद्ध के पश्चात्‌ अनेक सुधारक एवं आचार्य हुए। फिर भी रोग का निदान न हुआ। भला, ऐसा क्यों ?


आर्यजाति शास्त्रानुवर्ती है । शास्त्र-विश्वास इसकी रग-रग में व्याप्त हे । सत्शास्त्र ही इसकी सम्पत्ति हैं। अत: शास्त्र को आधार बनाए बिना किसी आचार्य के लिए इस देश में कोई धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक सुधार करना तो दूर रहा, अपनी बात कहने में समर्थ हो पाना भी सम्भव नहीं था। महाभारत के पश्चात्‌ अनार्ष पुस्तकों के प्रचार ने आर्यजाति को पथभ्रष्ट कर दिया। जन सामान्य तो कया, विभिन्न आचार्य एवं समाज सुधारक भी आर्ष-अनार्ष का भेद न समझ पाए। परिणामस्वरूप सुधारक आए और चले गए परन्तु प्रभावहीन रहे। बहुत समय पश्चात्‌ प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज में व्याप्त रोग के इस कारण को समझा था। यदि आर्यजाति को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है, यदि अपनी पहचान को बचाना है, तो विरजानन्द दण्डी तथा उनके शिष्य दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं हे । नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।


जिस दण्डीजी ने इस जाति को बचाने के लिए सतत साधना को और दयानन्द जैसा रत्न दिया, इसने उसी को भुला दिया। दण्डीजी अधिक समय मथुरा, सोरों, अलवर आदि कुछ ही स्थानों पर रहे थे। वहाँ उनके अनेक शिष्य थे। यदि तब उनके जीवन सम्बन्धी जानकारी एकत्रित करने का प्रयास किया जाता तो यह कार्य अत्यधिक सरल था। परन्तु ऋषि दयानन्द के जीवन-काल में किसी ने उन्हीं का विस्तृत विवरण एकत्रित नहीं किया, तो दण्डीजी विषयक खोज करना किसे सूझता ? यह तो स्वार्थ भरा निष्ठर संसार है। बदली कैसे बनी ? बादल कहाँ से आया? जल बरसाने के बाद उस पर कया बीती ? किसी को इससे क्या प्रयोजन ? केवल उसकी अमृतमयी बूँदों से ही मतलब है। यही महापुरुषों के साथ होता है। हम भूल जाते हैं कि उन्हें समझे बिना उस समय का इतिहास समझा नहीं जा सकता।

इतिहास समझे बिना वर्तमान की रक्षा और भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। दण्डीजी के देहावसान के लगभग पचास वर्ष बाद तक उनका कोई स्वतन्त्र जीवन-चरित लिखा नहीं गया। सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 4 अगस्त, 1875 के अपने पन्द्रहवें पुणे प्रबचन में कुछ वावयों में उनकी श्रद्धापूर्वक चर्चा की थी। उन्नीसवीं सदी में ऋषि दयानन्द की जीवनी लिखने वाले गोपालराव हरि, जगन्नाथ भारतीय तथा मांगीलाल कविकिंकर ने उसी आधार पर चन्द वाक्यों में दण्डीजी का स्मरण किया था | नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के संक्षिप्त बंगला लेख में दण्डीजी का नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है। हाँ, ऋषि दयानन्द सरस्वती की अग्रेजी में सर्वप्रथम लघु जीवनी के लेखक दीनानाथ गांगुली ने एक पृष्ठ में स्वामी विरजानन्द का आर्ष-अनार्ष ग्रन्थ विषयक चिन्तन प्रस्तुत किया था। पण्डित लेखराम आर्य मुसाफ़िर की महत्त्वपूर्ण खोज के आधार पर ऋषि दयानन्द का बृहत्‌ जीवन-चरित पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर ने 1897 ई. में उदू में प्रकाशित किया था। तब पहली बार आर्य जगत्‌ को गुरु विरजानन्द के विषय में कुछ जानकारी उपलब्ध हुई थी, वह भी मात्र दस-पन्द्रह पृष्ठों में । पण्डित लेखराम को खोज के आधार पर मेहता राधाकिशन, लक्ष्मण आर्योपदेशक, लाला लाजपतराय, रामविलास शारदा, बावा छज्जूसिंह आदि ने ऋषि दयानन्द के जीवन-चरित लिखें थे, उनमें स्वामी विरजानन्द का जो संक्षिप्त जीबन- परिचय दिया गया है, उसका आधार मात्र यही कुछ पृष्ठ थे। कुछ भी नई जानकारी इन पुस्तकों में नहीं है। भाव तो एक जैसे हैं ही, प्राय: शब्द भी समान हैं । पण्डित लेखराम संग्रहीत विवरण को पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा ने एक बार पृथक्‌ पुस्तिका के रूप में तथा इसका हिन्दी अनुवाद प्रयाग निवासी मुन्शी जगदम्बाप्रसाद ने 1904 ई. में प्रकाशित किया था। उन्हीं दिनों सर्बदयाल तथा उदू मिलाप लाहौर के तत्कालीन सम्पादक रामलाल ने उर्दू में दण्डीजी की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखी थीं। उपलब्ध सामग्री के आधार पर सत्यबन्धु दास, स्वामी सत्यानन्द तथा हरविलास शारदा ने सुललित भाषा में ऋषि दयानन्द के जीवन-चरितों में दण्डीजी पर एक-एक अध्याय लिखा था। देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय द्वारा 1894 इ. में बंगला में लिखे गए स्वामी दयानन्द के जीवन-चरित का हिन्दी अनुवाद पण्डित घासीराम ने जुलाई 1912 में भास्कर प्रेस, मेरठ से प्रकाशित किया था। इस जीवन-चरित में देवेन्द्र बाबू ने ऋषि दयानन्द को पूरी तरह समझने के लिए स्वामी विरजानन्द दण्डी का खोजपूर्ण जीवन-चरित लिखने की आवश्यकता पर बल दिया था। अभी उन्होंने ऋषि दयानन्द के बृहत्‌ जीवन-चरित के चार अध्याय ही लिखे थे कि वे 10 जनवरी,1917 को पक्षाघात से चल बसे परन्तु इस जीवनी में स्वामी विरजानन्द का संक्षिप्त विवरण स्वयं उनका लिखा हुआ है। सर्वप्रथम उन्होंने ही बंगला में दण्डीजी की स्वतन्त्र खोजपूर्ण जीवनी लिखी थी। इस अप्रकाशित पुस्तक का घासीराम कृत हिन्दी रूपान्तर संयुक्त प्रदेश आर्य प्रतिनिधि सभा, लखनऊ ने दिसम्बर 1919 में प्रकाशित किया था। इसके अतिरिक्त तब तक किसी भी भाषा में दण्डीजी के जीवन-चरित लिखने का कोई स्वतन्त्र प्रयास नहीं हुआ था । आर्यजगत्‌ इस महान्‌ कार्य के लिए बंगाली बाबू तथा पण्डित घासीराम का ऋणी है।


स्वामी वेदानन्द तीर्थ तथा पण्डित भीमसेन शास्त्री ने दण्डीजी के जीवनचरित क्रमशः 1954 तथा 1959 ई. में लिखे थे। भीमसेन शास्त्री को पण्डित मुकुन्ददेव लिखित दण्डीजी की जो अप्रकाशित जीवनी हाथ लगी, उससे काफो नई सामग्री उपलब्ध हुई। अच्छा होता यदि तब पण्डित मुकुन्ददेव लिखित जीवन-चरित पुस्तकाकार अथवा किसी पत्रिका में क्रमवार छपवा दिया जाता। प्रयत्न करने पर भी अब यह अमूल्य निधि उपलब्ध न हो सको।


जीवनी-लेखन अति कठिन कार्य हे । रचनाकार पहले कथानायक में अपनी सत्ता विलीन करता है, उसके साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करता है, उसे समझता है। फिर चरितनायक से पूर्णतया पृथक्‌ होता है, वैराग्य प्राप्त करता है, अन्यथा ऐतिहासिक तथ्यों तथा उनके विश्लेषण के साथ न्याय नहीं हो पाता। रचना से रचनाकार स्वयं को जितना पृथक्‌ कर ले, उसको रचना उतनी ही महान्‌ , शाश्वत एवं अमर होती है। स्वयं को चरितनायक से पृथकू करना इतना कठिन है कि देवेद्धनाथ मुखोपाध्याय जैसी दिव्यात्मा भी इसमें पूर्ण सफल नहीं हुई, अन्यथा वे पण्डित लेखराम की कहीं-कहीं इतनी कटु आलोचना न करते। सद्धर्मप्रचारकों को विपरीत परिस्थितियों, अधर्म, मूढ़ता एवं कुटिलता से अहर्निश जूझना पड़ता है, जिससे कई बार उनके स्वभाव में विचित्र दृढ़ता, कटुता एवं उग्रता आ जाती है, जिसे हठ और क्रोध भी कह सकते हैं। यद्यपि लेखक को अपने चरितनायक के प्रति श्रद्धा स्वाभाविक है परन्तु व्यक्तित्व को समझते समय इस वास्तविकता को स्वीकार करना ही चाहिए।


जीवन-चरित लेखकों ने दण्डीजी तथा ऋषि दयानन्द के कुछ वाक्य भावातिरिक अथवा श्रद्धातिरेक होकर लिखे हैं । वे हमें कहीं-कहीं वास्तविकता दूर ले जाते हैं। इसीलिए इस पुस्तक में विभिन्न कथनों को उद्धरण-चिहों में लिखते हुए मुझे संकोच रहा है। वैसे संहिताओं, स्मृतियों, आर्पग्रन्थों, रामायण, महाभारत आदि में कहीं भी उद्धरण-चिह् नहीं हैं। सत्य तो असीम है, उसे उद्धरण-चिहों की क्या आवश्यकता? पण्डित लेखराम संग्रहीत जीवन-चरित में वाक्य बहुत कुछ स्वाभाविक हैं| दण्डीजी के वास्तविक शब्द तो प्रभु जाने पर कम-से-कम उनका भाव तो यही रहा होगा। इसीलिए आवश्यकतानुसार पण्डित लेखराम संग्रहीत जीवन-चरित का सहारा लिया गया है। जहाँ स्वामी बेदानन्द ने संवाद-रचना में कल्पना का सहारा लिया, वहाँ भीमसेन शास्त्री ने कुछ तिथियाँ निर्धारित करने में कल्पना के विशाल आकाश में खूब छलांगें भरी । हुआ होगा, किया होगा, गए होंगे ... आदि से आरम्भ के पृष्ठ भरे पड़े हैं। दण्डी जी विषयक कई बातें केवल कल्पना के आधार पर लिख दी गई हैं । कल्पना का इस प्रकार इतना सहारा लेना इतिहासकार को उसके अधिकारक्षेत्र से बाहर ले जाता है। कहीं-कहीं तिथियों तथा तथ्यों के साथ उनका यह मल्लयुद्ध दुविधा में डाल देता है। दण्डीजी का जन्म-वर्ष तो ऋषि दयानन्द के संकेत से तय हो गया था। कृष्ण शास्त्री से प्रस्तावित शास्त्रार्थ का वर्ष, दयानन्द के मथुरा गमन और दण्डीजी के देहावसान की तिथियों के अतिरिक्त शेष सभी तिथियाँ विभिन्न लेखकों द्वारा अनुमानित रही हैं उनके लिए कोई पुष्ट आधार नहीं है | दण्डीजी काशी, गया, कोलकाता, सोरों आदि स्थानों पर कितने समय ठहरे -इस विषय में आज भी निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। यूँ तो पण्डित लेखराम ने आर्यसमाज मन्दिर जालन्धर नगर (पंजाब) में 18 अप्रैल, 1893 को भाषण देते हुए पहली बार बतलाया था कि दण्डी गुरु विरजानन्द सरस्वती का जन्मस्थान यहीं करतारपुर (जालन्धर) के निकट एक ग्राम (गंगापुर) है, तो भी दयानन्द जन्मशताब्दी मथुरा के अवसर पर फरवरी 1925 ई. में दण्डीजी के जन्मस्थान का पता लगाने पर विचार हुआ था। फिर आर्यसमाज करतारपुर (जालन्धर) के वार्षिकोत्सव पर सितम्बर 1929 में एतदर्थ एक समिति गठित की गई थी, जिसके एक सदस्य महाशय रघुनन्दनलाल 1986 ई. तक जीवित थे। आश्‍चर्य है कि किसी भी जीवनी-लेखक ने गत सत्तर वर्षो में उस समिति को चर्चा तक नहीं की। लगता है 1930 ई. के बाद कोई जीवनी लेखक गंगापुर तो क्या करतारपुर भी नहीं गया अन्यथा महाशय रघुनन्दनलाल से भेंट स्वाभाविक थी। इस पुस्तक में न केवल पहली बार उन तथ्यों का लाभ उठाया गया है, अपितु मेरे मित्र प्रोफेसर त्रिलोचनसिंह बिन्दरा तथा मैंने मिलकर भरसक प्रयत्न कर गंगापुर की स्थिति निश्चित की है। यद्यपि दण्डीजी के विचारों को समझने के लिए सार्वभौम-सभा-विवरणपत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है पर पण्डित भीमसेन ने तो इसे भी उद्धृत नहीं किया। यही स्थिति दण्डीजी के राजा सवाई रामसिंह को लिखे पत्र की है, जिसे इस जीवन-चरित में पहली बार छापा जा रहा है | वेदवाणी में मार्च 1960 में छपे पण्डित युधिष्टिर मीमांसक के लेख का भी लाभ उठाया गया है। इस पुस्तक में दण्डीजी के जन्मस्थान, बंशावली, अलवर गमन, शिष्य मण्डली, लेखों एवं पुस्तकों, मान्यताओं तथा चिन्तन सम्बन्धी पर्याप्त नई सामग्री है। इस प्रकार पण्डित लेखराम, देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी वेदानन्द तथा भीमसेन शास्त्री द्वारा लिखित जीवन-चरितों में जो अधूरापन है, उसे दूर करने का यथासम्भव प्रयत्न किया गया है । प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहीत नई सामग्री से ऋषि दयानन्द सरस्वती के 1860-68 ई. तक के चिन्तन एवं विचारों की गतिमयता को समझने में सहायता मिलेगी । ' प्रतीक्षारत' अध्याय के कुछ उल्लेख तथा टिप्पणियाँ इसका प्रमाण हैं।


कुछ लोग मानते हैं कि इतिहास में प्राय: नामों और तिथियों के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं होता परन्तु मानवता के इतिहास में नाम तथा तिथियाँ भले ही सन्देहास्पद हों, बाकी प्राय: सत्य होता है। वैसे भी जीवन चरित केवल कुछ घटनाओं का क्रमवार वर्णन ही नहीं है अपितु चखिनायक के विचारों एबं चेतना की प्रगति को गाथा भी है। अत: परिस्थितियों एवं घटनाओं का दण्डी स्वामी विरजानन्द, तिथियों और सम्वतों का दण्डी स्वामी आज भले ही विद्यमान न हो परन्तु विचार और चेतना का दण्डी स्वामी, चिन्तन और अनुभूतियों का दण्डी स्वामी, व्याकरण का सूर्य दण्डी स्वामी, दयानन्द का गुरु दण्डी स्वामी ... तो सदैव जीवित रहेगा। उनके जीवन सम्बन्धी अधिक जानकारी बीते समय के धुँधलके में खो गई है। कुछ घटनाओं ने कहानियों अथवा किम्वदन्तियों का आवरण ओढ़ लिया है परन्तु उनके विचारों एवं कर्तृत्व से उनका अस्तित्व अभी भी पहचाना जा सकता हैं। दयानन्द के एक-एक वाक्य में उनका अस्तित्व है। दयानन्द की प्रत्येक विजय उनके अमरत्व का प्रमाण है। अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य के रूप में वे विद्यमान हैं। समय के साथ उनके प्रति विरोध के स्वर गूँगे हो गए हैं। लक्ष्मी की हुँकार तथा भव्य मन्दिरों के घण्टें का निनाद आसमान के सनाटे में खो गए हैं पर विरजानन्द जिन्दा है, जिन्दा रहेगा। न वह विरोधियों से मरा हैं, न समय में उसे नष्ट करने का सामर्थ्य है। जीव की अल्पज्ञता तथा मुद्रण की असावधानियों आदि के कारण पुस्तकों में तथ्यों एवं तिथियों सम्बन्धी अशुद्धियाँ रह जाना स्वाभाविक है। इससे कई बार बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाती है, उदाहरणार्थ एक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा प्रकाशित लाला लाजपतराय की पुस्तक ' दि आर्यसमाज' के आवरण पृष्ठ पर लालाजी का डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर से बी.ए. पास करना लिखा है। लालाजी न तो डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर के छात्र थे, न ही बी.ए. । इसी प्रकार रामविलास शारदा लिखित ' आर्यधर्मे्र जीवन' के प्रथम संस्करण में परिशिष्ट में स्वामी विरजानन्द की संक्षिप्त जीवनी छपी थी। पुस्तक में यथास्थान इस आशय को टिप्पणी दी गई थी। बाद के संस्करणों में दण्डीजी की लघुजीवनी तो नदारद है पर पाद टिप्पणी जीवित है । पुस्तकों में तिथियों सम्बन्धी अशुद्धियों की तो भरमार है। अत: इस पुस्तक में संकलित सामग्री का न केवल यथा सम्भव मूल स्रोतों से मिलान किया गया है, अपितु विक्रमी तिथियों की पड़ताल के लिए कम्प्यूटर पर कुण्डली सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया है। यह पुस्तक लिखते समय मैं डॉक्टर भवानीलाल भारतीय ( जोधपुर), श्रीमती स्नेह महाजन (निदेशक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल्ज, नई दिल्ली तथा पूर्व प्राचार्या, चण्डीगढ़), डॉक्टर रणवीरसिंह ( कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) तथा प्रोफेसर त्रिलोचनसिंह बिन्दरा से निरन्तर विचार-विमर्श करता रहा हूँ | डॉक्टर भारतीय ने काफी सामग्री उपलब्ध करवाई है। समय “समय पर डॉक्टर सुरेन्द्र मेहता, डॉक्टर विक्रम विवेकी (दोनों पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़), डॉ. सुरेद्रकुमार (महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक), आचार्य रामकिशोर शर्मा (सोरों), आचार्य विजयपाल (रेवली, सोनीपत), पण्डित यशपाल आर्यबन्धु (मुरादाबाद), आचार्य स्वदेश, पण्डित ओ३मूप्रकाश त्यागी (दोनों मथुरा) और पण्डित निरंजनदेव आर्योपदेशक का सहयोग मिलता रहा है। करतारपुर, गंगापुर, हरिद्वार, वृन्दावन, मधुरा, आगरा आदि स्थानों पर मेरे भ्रमण के समय अनेक सज्जनों का सहयोग मिला है। मैं सभी का आभारी हूँ। दण्डीजी का चित्र चेन्नई (तमिलनाडु) के श्री बी. के. बारसकर की कलाकृति है। जिन लेखकों की पुस्तकों से लाभान्वित हुआ हूँ उनकी सूची आभार सहित परिशिष्ट 5 में दी है। पुस्तकों के उन्हीं संस्करणों की पृष्ठ संख्या सन्दर्भ एवं टिप्पणियों में उल्लिखित है । युवा विद्वान्‌ प्रिय डॉक्टर राजेनद्र विद्यालंकार ने मुझे इसके प्रकाशन की चिन्ता से मुक्त किया। प्रभु उस पर मंगल वर्षा करें। आलोक-पुरुष दण्डी स्वामी विरजानन्द को पिछले दो सौ वर्षो में अनेक धुरन्धर विद्वान्‌ तथा मनीषी भली प्रकार न समझ सके, उनके विषय में मुझ सदृश सामान्य व्यक्ति ने कुछ लिखने का साहस क्यों किया ? प्रश्‍न स्वाभाविक है। न इतिहास मेरा विषय है, न साहित्य। न संस्कृत व्याकरण, न दर्शन। सत्य यह है कि मैंने बाल्यावस्था में अपने पिताश्री प्रभुदयाल, भ्राताश्री बीरुराम आर्य तथा आर्य विद्वानों से ऋषि दयानन्द सरस्वती की चर्चा सुनी थी। इससे मुझे ऋषिवर तक पहुँचने का प्रयत्न करने को प्रेरणा मिली। तब मैंने उनके परम शिष्य पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी का सहारा पकड़ा। वे मुझे ऋषि -कुटिया के निकट तो ले गए परन्तु अनन्त पथ के उस राही के पास समयाभाव था। उसे यहाँ से जाने को बहुत जल्दी थी। इस कारण मैं उनके माध्यम से ऋषि के निकट से दर्शन करने से बंचित रह गया। सोचा, अब क्या करूँ ? कैसे निकट जाऊँ? दर्शनलाभ करने का अधिकारी कैसे बनूँ? पूछ लिया तो क्या परिचय दूँगा ? तब ध्यान आया कि दयानन्द सरस्वती को समझने के लिए उनके गुरु की शरण में जाना चाहिए | पहले उनका विराट्‌ स्वरूप देख लूँ , फिर उनके माध्यम से दयानन्द के दर्शन करूँ। पूछते-पूछते मैं दण्डीजी तक पहुँचा। मुझे लगा जैसे वे कह रहे हों वत्स! तुम बहुत देर से आए हो। अब तो तुम्हारा जीवन ही बीत गया | पहले आते तो कुछ पा लेते। चिन्तित स्वर में मैंने पूछा, तो क्या यहाँ से - भी खाली हाथ जाऊँगा? उत्तर मिला - नहीं, ऐसा तो नहीं है परन्तु विराट्‌ स्वरूप देखने तथा समझने का तुम में सामर्थ्य नहीं है नस, जो कुछ अन्यों से मेरे विषय में सुन रखा है, उसी को मुझसे पूछकर तसल्ली कर लो। और सुनो! दयानन्द मेरा मानस-पुत्र है । वह महामानव है। तुम उसे देखना चाहोगे तो आँखें चुन्धिया जाएँगी । तुम बोने हो, उस तक पहुँच नहीं पाओगे।


उस आलोक -पुरुष दण्डी विरजानन्द के विषय में जो थोड़ा सुन पाया हूँ , पढ़ा हे, जाना है, वह इन पृष्ठं में ऋषि बोध पर्व के पुनीत अवसर पर आप सब के साथ सांझा करता हूँ। बहुत सम्भव है कि आपका पात्र मेरे पात्र से उत्तम हो और आपके हिस्से में प्रभुकृपा से कुछ अमृतकण आ जाएँ। दण्डीजी से सम्बद्ध नूतन जानकारी, उनके जीवनदर्शन की बेहतर समझ विषयक दिशा-निर्देश तथा आपके अन्य सुझावों की मुझे प्रतीक्षा रहेगी ।- रामप्रकाश (डॉक्टर)


गुरु विरजानन्द दण्डी

समय आने पर जिस दयानन्द के समक्ष सभी पण्डित, आचार्य वैयाकरण, योगी, यति, पादरी, मौलवी, मठाधीश तथा आस्तिक नास्तिक एवं संशयवादी चिन्तक निस्तेज और निष्प्रभ सिद्ध हुए, उसकी प्रतिभा जिस प्रतिभा के सामने हतप्रभ हुई थी, उसके पाण्डित्य ने जिसके पाण्डित्य का लोहा माना था, उसकी विचारशक्ति ने जिसकी विचारशक्ति का अनुसरण किया था; कैसा अद्भुत होगा ऐसी प्रतिभा, पाण्डित्य व विचारशक्ति का स्वामी वह दण्डी साधु!

डॉ. रामप्रकाश


बाल्यकाल


आर्यसमाज के इतिहास में पंजाब प्रदेश की प्रमुख भूमिका रही है। पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पण्डित लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, महाशय राजपाल, शहीद भगतसिंह के दादा सरदार अर्जुनसिंह' तथा चाचा अजीतसिंह, भाई परमानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, स्वामी आत्मानन्द आदि ऋषि दयानन्द सरस्वती के कई प्रमुख शिष्य इस्री धरती के रत्न हैं । ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती को जन्मस्थली होने का गौरव भी इसी भूमि को प्राप्त है।


दण्डीजी के पूर्वज पण्डित दयालदास इसी प्रदेश के गुरदासपुर जिले के श्रीगोविन्दपुर ग्राम में 1677 ई. के आस-पास रहते थे। शारद शाखा के भारद्वाज-गोत्रीय इस सारस्वत ब्राह्मण को दिल्ली के मुगल सम्राट्‌ फरुखसियर (1713-19 ई.) ने प्रसन्न होकर जालन्धर जिले में करतारपुर के समीप जागीर के रूप में कुछ भूमि दी थी। करतारपुर से आगे धीरपुर' से एक किलोमीटर की दूरी पर कभी निज्जरों का कुआँ (निज्जड़ों का खूह) था, इसी के आसपास यह भूमि दी गई थी। इसके पास ही बेंई नदी” बहती थी। पण्डितजी के निधन के पश्चात्‌ उनके पुत्र गंगाराम ने अनुभव किया कि वे इतनी दूर रहकर खेती की देखभाल अच्छी प्रकार नहीं कर सकते, अतः करतारपुर के पास अपनी भूमि पर आ गए वहाँ उन्होंने अपनी आवश्यकतानुसार कुछ घर बसा लिए। धीरे धीरे बेई नदी के निकट एक छोटा-सा ग्राम बस गया जिसका नाम उन्हीं के नाम पर गंगापुर पड़ गया। कपूरथला रियासत को सीमा से लगता हुआ यह गाँव जालन्धर जिले में था। अब इस गाँव की भूमि धीरपुर गाँव का भाग है। यहाँ उनके पुत्र कर्मचन्द का जन्म हुआ, जिसने श्रीहरगोविन्दपुर से सदैव के लिए सम्बन्ध तोड़कर गंगापुर में रहना शुरू कर दिया। उसने इस जागीर की अच्छी सम्भाल को।


कर्मचन्द के नारायणदत्त और भानुदत्त (भानु अथवा भानाराम ) दो पुत्र हुए। छोटा पुत्र भानुदत्त शुरू से ही वैरागी प्रवृत्ति का था। उसको गृहकार्यो में कोई रुचि नहीं थी, अतः आयु-पर्यन्त ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर भक्ति में मग्न रहा। वह प्रातःकाल स्नान कर बेंई नदी के तट पर बनी कुटिया में नित्यकर्म किया करता था, इसी कारण इस स्थान का नाम भाने का पत्तन प्रसिद्ध हो गया था । ब्रह्मचारी भानुदत्त बेंई में पानी की गहराई बताकर नदी पार करने वालों की सहायता करता था। स्वयं भी नाव चलाकर लोगों को नदी पार करवा देता था। पण्डित नारायणदत्त ही सभी गृहकार्य सम्पन्न करते थे । जहाँगीर द्वारा अपनी बेगम के नाम पर बसाए गए नूरमहल (जिला जालन्धर) में उनकी ससुराल बताई गई है। वे अच्छे विद्वान्‌ थे। उन्हें संस्कृत का पर्याप्त ज्ञान था। नारायणदत्त के दो पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र धर्मचन्द था। स्वनामधन्य छोटा पुत्र कालान्तर में विरजानन्द दण्डी के नाम से लोक-विख्यात हुआ। इसका पिताप्रदत्त जन्म-नाम व्रजलाल था।' वीतराग संन्यासी स्वामी विरजानन्द दण्डी स्वकुल-परिचय तथा जन्मस्थानादि के विषय में किसी को कुछ नहीं बताते थे। अपने शिष्यों के बहुत आग्रह पर एक बार उन्होंने कहा,  ''सियालकोटाऽमृतसरनामनगरयोरन्तराले इरावती ( रावी ) सन्निहिते ... ग्रामे सारस्वतवैशारदवंशावतंसपणिडत श्रीनारायणदत्ततनूज इदानीं दण्डित्वेन प्रसिद्ध इति'' अर्थात्‌ सियालकोट अमृतसर के मध्य में इरावती (रावी) के निकट ... ग्राम में सारस्वत (शारद शाखा) ब्राह्मण नारायणदत्त का एक पुत्र दण्डी नाम से जाना जाता है।' '' सियालकोट तथा अमृतसर के मध्य रावी के निकट गुरदासपुर जिला है। इसी जिले के श्रीगोविन्दपुर ग्राम में दण्डी जी के पूर्वज पण्डित दयालदास रहते थे। शारद शाखा के सारस्वत ब्राह्मण इसी क्षेत्र में बसते थे। तब करतारपुर (जालन्धर) के निकट इस गोत्र का कोई परिवार न था। इस प्रकार दण्डी जी के इस कथन से कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं फिर भी ग्राम का नाम पता नहीं चलता। पण्डित लेखराम, देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय आदि सभी जीवनी-लेखकों ने गंगापुर को एक स्वर से व्रजलाल (दण्डी विरजानन्द) का जन्मस्थान स्वीकार किया है। मथुरा निवासी पण्डित युगलकिशोर स्वामी विरजानन्द के न केवल शिष्य थे, अपितु बहुत निकट थे। वे भी गंगापुर को ही जन्मस्थान मानते हैं? महाशय कृष्ण सम्पादक प्रताप (लाहौर) तथा लाला देवराज संस्थापक कन्या महाविद्यालय, जालन्धर की उपस्थिति में आर्यसमाज करतारपुर? के 13-15 सितम्बर, 1929 को आयोजित वार्षिकोत्सव पर गुरु विरजानन्द के जन्मस्थान का निर्णय करने के लिए एक समिति बनाई गई थी, जिसके सदस्य आर्यसमाज करतारपुर के कोषाध्यक्ष महाशय रघुनन्दनलाल तथा यमुनादास थे। इस समिति ने भी निकटवर्ती कई गाँवों के वृद्धों से पूछकर गंगापुर को ही जन्मस्थान माना था।'* उनमें से कई सज्जन स्वयं धर्मचन्द, उनके छोटे भाई व्रजलाल तथा उनके दोनों पुत्रों साधुराम व मुकुन्दलाल को जानते थे तथा उनकी गंगापुर वाली भूमि पर पशु चराने जाते रहे थे। यह छोटा-सा गाँव बेंई नदी के निकट होने के कारण प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में जल संकट से घिर जाता था और यही जल संकट उसके नष्ट होने का कारण बना। तब यह परिवार भी अन्य परिवारों को तरह करतारपुर में रहने लग पड़ा था। अपनी खेती-बाड़ी की देखभाल के लिए लगभग प्रतिदिन गंगापुर के थेह आते थे।


गंगापुर गाँव 1797 ई. में नष्ट हो गया था। गाँव तो मिट गया पर नाम अमिट है। इसकी 1850 ई. के बाद के उपलब्ध भूराजस्व रिकॉर्ड में चर्चा नहीं है। धीरपुर के काबुलसिंह रंधावा के पुत्रों ने लेखक को बताया कि गंगापुर का थेह उनकी भूमि में है और खेतों में हल चलाते समय भूमि में से सोना चाँदी के पुराने सिक्के, दीये व बर्तन निकलते थे। इसी प्रकार निजरों के कुएँ के पास के खेत में हल चलाते हुए भानसिंह बाठ को भूमि में से हुक्के को पीतल की नली, बर्तन, मिट्टी के घडे आदि कई अवशेष मिले थे, जिससे यह निश्‍चित है कि गंगापुर गाँव यहीं आसपास स्थित था।” निज्जरों के कुएँ के पास गंगापुर का थेह था -- ऐसा 1929-30 ई. में निकटवर्ती गाँवों के लोगों ने महाशय रघुनन्दनलाल को भी बताया था। निज्जरों के कुएँ वाले खेत भानसिंह बाठ के परिवार से पहले करतारपुर के गुरु धीरमल के अधिकार में थे।


ब्रजलाल की जन्मतिथि के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन हे। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरुवर्य विरजानन्द दण्डी की चर्चा करते हुए पुणे प्रवचन में कहा था कि जब वे गुरुचरणों में उपस्थित हुए ' उस समय उनकी अवस्था इक्यासी वर्ष की हो चुकी थी ।''" यदि ऋषि दयानन्द इतना संकेत न करते तो दण्डी विरजानन्द के जन्मकाल का रहस्य कभी न खुल पाता। ऋषि दयानन्द के सभी जीवनी-लेखक उनका मथुरा आगमन नवम्बर 1 860 का मानते हैं । इस पुष्ट आधार पर स्वामी विरजानन्द दण्डी (ब्रजलाल) का जन्मकाल 1779 ई. का उत्तरार्द्ध (कार्तिक 1836 वि.) बनता है। पण्डित लेखराम और उन्हीं के आधार पर रामविलास शारदा, लक्ष्मण आर्योपदेशक, बावा छज्जूसिंह तथा मेहता राधाकिशन ने इस बालक का जन्म सम्वत्‌ 1854 वि. (अर्थात्‌ 1797 ई.) लिखा है, जो सही तथा तथ्याग्रित नहीं है।'” देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के अनुसार उनका जन्मकाल 1778-79 ई. (सम्वत्‌ 1835-36 वि.) है। भीमसेन शास्त्री ने उनका जन्मकाल 1778 ई. का अन्त (सम्वत्‌ 1835 वि. के उत्तरार्द्ध में पौष मास) तथा जार्डन्स ने 1779 ई. माना है। तब जालन्धर के आसपास का क्षेत्र फैजलपुरिया मिसल के अधीन था।॥ प्राय: माना जाता है कि इस बालक को पाँच वर्ष की आयु में चेचक हुई । परिणामस्वरूप दोनों नेत्रों की ज्योति चली गई। पण्डित लेखराम ने चेचक से आक्रान्त तथा दृष्टिविहीन होने के समय आयु अढाई अथवा पाँच वर्ष लिखी है | क्योंकि स्वामी विरजानन्द को वस्तुओं के आकार तथा सफेद, काला, लाल आदि रंगों का बोध नहीं था, अत: सम्भव है कि वे पाँच साल से कम आयु में ही नेत्रहीन हो गए हों ॥? यह निश्चित है कि न तो वे जन्मान्ध थे, न ही पाँच वर्ष से अधिक नेत्र-ज्योतिवान्‌ रहे । वैसे विधाता का विधान विचित्र है। एक द्वार बन्द होता है तो दूसरा खुल जाता है । बालक नेत्र-ज्योति से तो वंचित हो गया परन्तु विलक्षण स्मृति तथा तीव्र बुद्धि का धनी हुआ। बालक के नेत्रहीन होने पर भी पिता ने उसे आठ वर्ष को आयु में स्वयं आरम्भिक शिक्षा देने का आयोजन किया । अत: पिताश्री से यज्ञोपवीत संस्कार व गायत्री की दीक्षा के पश्‍चात्‌ इस बालक ने शुरू में उनसे संस्कृत व सारस्वत व्याकरण" पढ़ना आरम्भ किया और फिर अमरकोश*' कण्ठस्थ किया। इसके अतिरिक्त पंचतन्त्र अथवा हितोपदेश भी पढ़ा। इस प्रकार तीन-चार वर्ष में उसे संस्कृत बोलने का अच्छा अभ्यास हो गया और यह आवश्यकतानुसार उसकी सामान्य वार्तालाप की भाषा बन गई। भीमसेन शास्त्री के अनुसार स्वामी विरजानन्द को उदू-फ़ारसी लेखनपठन का सम्यकू ज्ञान था। उनका यह मानना कि “वे फारसी लिपि, उर्दू भाषा के लेखन-पठन से परिचित अपनी चक्षुष्मत्ता के काल में ही हो चुके थे, इसमें सन्देह नहीं, '' पूर्णतया निराधार है| पण्डित मुकुन्ददेव के सन्दर्भित वाक्यों में ऐसा लेशमात्र.भी संकेत नहीं है /? तब मौलवी ही मदरसों में उर्दू-फ़ारसी पढ़ाते थे। गंगापुर में ऐसा न कोई मौलवी था, न मदरसा। कालान्तर में स्वामी विरजानन्द ने ये भाषाएँ सीख ली थीं परन्तु प्रज्ञाचक्षु दण्डीजी उर्दू-फारसी लिख और पढ़ भी सकते थे -- इसका कोई प्रमाण नहीं है। ग्यारह वर्ष तक बालक को माता-पिता का संरक्षण प्राप्त रहा। बारहवें वर्ष में पहले पिता और फिर माता दोनों ही इस संसार से चल बसे। अब यह बालक केवल नेत्रविहीन ही नहीं अपितु अनाथ भी हो गया । परमपिता तथा भाई-भावज का सहारा ही शेष रह गया । पितृवियोग के पश्चात्‌ कुछ दिन तो भाई धर्मचन्द का व्यवहार स्नेह भरा रहा परन्तु बाद में भाई-भाभी ने नेत्रविहीन, अनाथ व असहाय बालक के साथ दुर्व्यवहार शुरू कर दिया । वे प्रायः कुवाक्य कहते, दुतकारते तथा अवहेलना करते। उसे अन्न-वस्त्रादि देना भी उन्हें भार लगने लगा। जब भोजन की जगह गाली तथा प्रताडना मिलने लगी तो वह दुखी तथा भविष्य के बारे में चिन्तित रहने लगा ।


तेजस्वी बालक ब्रजलाल आरम्भ से ही स्वाभिमानी तथा उग्र स्वभाव का था। उससे स्वजनों का यह व्यवहार सहा न गया । वह भाई-भाभी को उनके दुर्व्यवहार के लिए कटु आलोचना कर देता था। इसलिए गाँव में कोई-कोई उसे दुर्वासा कह देता था। इस अनुभव का उस पर कालान्तर में ऐसा प्रभाव पड़ा कि इस विरक्त व्यक्तित्व ने फिर कभी किसी से अपनी व्यथा-कथा नहीं कही । शायद वह सर्वनियन्ता इस बालक को पूर्ण वैरागी, दृढ़निश्चयी एवं स्वावलम्बी बनाने के लिए उसके सब सहारे छीन रहा था।


इन विषम परिस्थितियों में भाई-भाभी के घर में रहना मुश्किल हो गया। बहुत सोच-विचार के पश्चात्‌ उसने तेरह वर्ष की आयु में किसी को बताए बिना सदा के लिए पितृगृह तथा पंजाब प्रदेश छोड़ दिया। विद्याजगत्‌ में एक अपूर्व क्रान्ति का सूत्रधार बनने को स्वयं में सम्भावनाएँ संजोए इस बालक के लिए यह अप्रसिद्ध स्थान वैसे भी उपयुक्त स्थल नहीं था। कालान्तर में विकसित होने के लिए उसे अन्यत्र उपयुक्त भूमि खोजनी ही पड़ती । बाल रवि कब तक इस अन्धियारे कोने में पडा रहता ? भाई- भावज तो व्यर्थ ही अपयश के भागी बन गए।


1820 ई. के आस-पास करतारपुर में जन्मी तथा ग्राम बोपाराय (जिला जालन्धर) में विवाहित एक सौ दस वर्षीया माता गोमती देवी ने 1929 ई. में रघुनन्दनलाल समिति को बताया था कि जब वह ग्यारह-बारह वर्ष की थी तब उसके बुजुर्ग बताया करते थे कि धर्मचन्द और उसका परिवार करतारपुर में रहता था परन्तु अपने अन्धे भाई को घर से निकालने की लोक-चर्चा से दुखी होकर वे करतारपुर छोड़कर किसी अज्ञात स्थान पर जा बसे थे और उनकी जागीर भी ठिन्न-भिन्न हो गई थी


असहाय बालक व्रजलाल ऋषिकेश की ओर चल पड़ा। प्राचीनकाल से ही ऋषिकेश पुण्यप्रद पवित्र स्थान माना जाता रहा है। अपेक्षाकृत पंजाब के निकट होने के कारण एक ब्राह्मण बालक का वहाँ जाने का निर्णय स्वाभाविक ही था। तब ऋषिकेश तक न कोई सड़क थी, न ही रेलवे लाइन। एक नेत्रहीन बालक के लिए उस छोटी आयु में इतनी लम्बी पदयात्रा करना सरल नहीं था। निराश एवं दुखी बालक के लिए चारों ओर अन्धेरा था। न जाने कहाँ-कहाँ धवके खाते और कष्ट झेलते यह निरुद्देश्य संतप्त आत्मा लगभग दो-अढ़ाई वर्ष में पैदल ऋषिकेश पहुँची ।


रास्ते में उसे कई साधु, संन्यासी, महात्मा एवं धार्मिक जन मिले । कहते हैं कि एक संन्यासी के साथ कई स्थानों. का भ्रमण तथा कुछ अध्ययन भी किया” किसी धार्मिक व्यक्ति ने इस यात्रा में उसकी कुछ आर्थिक सहायता भी को रास्ते में वह संस्कृत ही बोलता था। इस तरह पन्द्रह वर्ष की आयु में ग्रामानुग्राम विचरता हुआ ऋषिकेश पहुँच गया। मन को शान्ति के लिए उसने ईश-आराधना में स्वयं को लगाने का निश्चय किया।


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ


1. दादा अर्जुनसिंह दृढ़ आर्यसमाजी थे और प्रतिदिन यज्ञ करते थे । सफर में भी यज्ञकुण्ड साथ रखते थे । इस प्रसंग में क्रान्तिकारी यशपाल ने एक अति रोचक संस्मरण अपनी पुस्तक “सिंहावलोकन' के पृष्ठ 23-25 पर लिखा है, जो पढ़े ही बनता है। अधिक जानकारी हेतु द्रष्टव्यः वीरेन्द्र सिन्धु , युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे, पृष्ठ 16-22


2. गुरु अर्जुनदेव ने व्यास के किनारे कुछ भूमि खरीदकर अपने पुत्र एवं उत्तराधिकारी हरगोविन्द के नाम पर यह नगर बसाया था। अब इसका नाम श्रीहरगोविन्दपुर है।


3. करतारपुर भी गुरु अर्जुनदेव ने बादशाह जहाँगीर द्वारा दी गई भूमि पर 1588 ई. में बसाया था। यह जालन्धर नगर से 16 किलोमीटर दूर अमृतसर जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। गुरु नानक का बसाया करतारपुर इससे भिन्न एक दूसरा नगर है।


4. जालन्धर से अमृतसर जाने वाली सड़क पर करतारपुर से आगे दयालपुर का बस स्टॉप है । यहाँ से लगभग तीन किलोमीटर दाई ओर धीरपुर गाँव है।


5. एक समृद्ध निज्जर जमींदार को बेटी ने अपने पिता से कहा कि ससुराल आते-जाते रास्ते में पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। अत: पिता ने थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कई कुँएं बनवा दिए ,


जो निरों के कुँओं के नाम से जाने जाते थे ऐसा ही एक कुँआ दयालपुर में भी था। यह कुँआ गाँव धीरपुर से लगभग एक किलोमीटर काली बेंई की ओर सड़क के किनारे स्थित था। इस कुँएं से गंगापुर का थेह आधा किलोमीटर दूर था। जिस खेत में निज्ञरों का यह कुँआ था, उस पर अब धीरपुर के भानसिंह बाठ का स्वामित्व है। उसने 1990 ई. के लगभग यह कुँआ बन्द कर दिया और इसकी ईटें उठवा दीँ (भानसिंह बाठ से लेखक का निजी साक्षात्कार, अगस्त 2001) |


6. इस नदी में चिकनी और काली मिट्टी होने के कारण पानी का रंग काला दिखाई देता हे । अतः इसे काली बेंई कहते हैं । पहले यह गंगापुर के निकट बहती थी, फिर थेह से लगभग 'एक किलोमीटर दूर चली गई | यह धीरपुर और कुद्दोवाल के पास से गुजरती है।


7. यज्ञयोग ज्योति, मार्च-अप्रैल 1966 ; निरंजनदेव, गुरु विरजानन्द, पृष्ठ 4


8. यज्ञयोग ज्योति के फरवरी और मार्च-अप्रैल 1966 ई. के अंकों में भानाराम को कर्मचन्द का छोटा भाई लिखा है, जो सही नहीं है।


9. नंगल मन्नौर गाँव के निकट बेंई नदी के तट पर भाने का पत्तन था -- ऐसा आज भी पुराने लोग बताते हैं । भाने के पत्तन की निजरों के कुँए से तथा गंगापुर से सीधी दूरी लगभग एक-एक किलोमीटर थी। पंजाब की बोलचाल की भाषा में पत्तन उस स्थान को कहते हः जहाँ नदी पैदल या बेडी द्वारा पार की जाती है ।


10. विरजानन्द ने स्वरचित वाक्यमीमांसा में स्वयं अपने पिता का नाम तथा गोत्र क्रमशः नारायणदत्त और भारद्वाज घोषित किया है (द्रष्टव्य : पृष्ठ 15) । विरजानन्द के वंश सम्बन्धी विस्तृत जानकारी सर्वप्रथम करतारपुर निवासी महाशय रघुनन्दनलाल तथा यमुनादास ने नवम्बर 1929 में ज्चालापुर (उत्तरांचल) निवासी पण्डे ज्वालाप्रसाद (तब आयु 60-65 वर्ष) से प्राप्त की थी (द्रष्टव्य : लाहौर से प्रकाशित उर्दू दैनिक प्रताप, 15 नवम्बर, 1929; यज्ञयोग ज्योति, मार्च-अप्रैल 1966; स्मारिका गुरु विरजानन्द वैदिक संस्कृत विद्यालय, करतारपुर, अक्तूबर 1980) । उससे पूर्व दण्डी जी का पिता प्रदत्त जन्मनाम किसी को भी ज्ञात नहीं था।


11. मथुरा के जन्मना ब्राह्मण दण्डी जी के शिष्यों से शास्त्रार्थ के समय बार-बार पूछा करते थे - ' भवदध्यापको दण्डी कुत्रत्यः किञ्जातीयश्च' अर्थात्‌ ' आपके अध्यापक दण्डी जी कहाँ से हैं और किस जाति के हैं ?' जानकारी के अभाव में शिष्य उत्तर न दे पाते थे। उन शिष्यो की समस्या के समाधानार्थ शिष्य-वत्सल दण्डी जी को यह जानकारी देनी पड़ी (द्रष्टव्य : मुकुन्ददेव, दण्डी जी की जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, पृष्ठ 14) |


12. देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 7 पाद टिप्पणी । भीमसेन ने विरजानन्द-प्रकाश में पृष्ठ 2 पर लिखा है -- '' ऐसा प्रतीत होता है कि ... इस भव्य बालक का जन्म नूरमहल में हुआ था ।'' यह पूर्णतया गलत है । सर्वप्रथम देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय को ही मथुरा के किसी वृद्ध ने ऐसा बताया था परन्तु पण्डित युगलकिशोर की साक्षी के आधार पर वे गंगापुर को ही जन्मस्थान स्वीकार करते हैं।


13. आर्यसमाज करतारपुर की स्थापना 1894 इ. में महात्मा मुन्शीराम तथा पण्डित लेखराम के पुरुषार्थ से हुई थी । जब पण्डित लेखराम उपदेश कर रहे थे तो पौराणिकों ने उन पर पत्थर फैंके | पण्डित जी ने अपनी पगड़ी उतार ली और कहा -- मुझे ये पत्थर खाने में बहुत आनन्द आ रहा है। वह दिन भी आएगा जब आप मेरे मिशन के प्रचार पर पुष्प बरसाएंगे । तत्पश्चात्‌ वहीं आर्यसमाज की स्थापना हो गई।


14. इस समिति की उर्दू में लिखी रिपोर्ट अब उपलब्ध नहीं है। चकगुजरां (जिला होशियारपुर) के निवासी पण्डित निरंजनदेव आर्योपदेशक ने रघुनन्दनलाल से मिलकर इस रिपोर्ट के आवश्यक अंश 31 जुलाई, 1949 को लिख लिए. थे। ऐसा पण्डित निरंजनदेव ने लेखक को जून 2001 में बताया था। इस रिपोर्ट का संक्षेप गुरु विरजानन्द वैदिक संस्कृत विद्यालय, करतारपुर की अक्तूबर 1980 तथा सितम्बर 1981 ई. में छपी स्मारिकाओं में प्रकाशित है। महाशय रघुनन्दनलाल (1891-1986 ई.) ने अपनी रिपोर्ट की ये जानकारी 1980 ई. में स्वयं स्मारिका के लिए दी थी । उनका अपना लेख यज्ञयोग ज्योति के मार्च-अप्रैल 1966 के अंक में पृष्ठ 58-60 पर छपा था। वृद्धावस्था में स्मृति के आधार पर लिखे इस लेख में कुछ अशुद्धियाँ भी हैं।


15. धीरपुर गांव के भानसिंह बाठ (92 वर्ष) सुपुत्र सौदागरसिंह बाठ, अमरसिंह सेखों (81 वर्ष) सुपुत्र नारायणसिंह सेखों, प्रीतमसिंह सेखों (70 वर्ष) सुपुत्र चन्दासिंह सेखों तथा लश्करसिंह रंधावा (55 वर्ष) व चंचलसिंह रंधावा (52 वर्ष) सुपुत्र काबुलसिंह और मल्लियां ग्राम के इन्द्रसिंह (85 वर्ष) सुपुत्र शेरसिंह से लेखक तथा त्रिलोचनसिंह बिन्दरा के निजी साक्षात्कार, मई, अक्तूबर 2001; इन ग्रामवासियों ने हमें वे स्थान दिखाए जहाँ निज्जरों का


कुँआ, गंगापुर का थेह तथा भाने का पत्तन थे।


16. ऋषि दयानन्द, उपदेश-मंजरी (पुणे प्रवचन), पन्द्रहवां प्रवचन; भगवद्दत्त (सम्पादक), ऋषि दयानन्द सरस्वती का स्वरचित जन्म-चरित्र, पृष्ठ 52


17. पण्डित लेखराम संग्रहीत ऋषि दयानन्द के जीवन-चरित (उर्दू) के आरम्भ में ऋषिवर की स्वकथित आत्मकथा वर्णित है । वहाँ पृष्ठ 22 पर 1860 ई. में दण्डीजी की आयु इक्यासी वर्ष लिखी है। अतः पृष्ठ 880 पर दण्डीजी का जन्म सम्वत्‌ 1854 गलती से लिखा गया अथवा छप गया प्रतीत होता है । इसी प्रकार लक्ष्मण आर्योपदेशक ने ' जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द सरस्वती ' के हिस्सा अव्वल, बाब अव्वल के पृष्ठ 27 पर सम्वत्‌ 1917 वि. में दण्डीजी की आयु इक्यासी वर्ष लिखी है परन्तु बाब दोम पृष्ठ 57 पर दण्डीजी का जन्म सम्वत्‌ 1854 वि. लिख दिया | किसी भी जीवनी लेखक का ध्यान इस विसंगति पर नहीं गया -- यह आश्चर्य की बात है।


18. पण्डित लेखराम ने लिखा है कि नारायणदत्त महाराजा रणजीतसिंह के शासनकाल में हुए (द्रष्टव्य : महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज का जीवन चरित्र, पृष्ठ 880) । ऐसा ही राधाकिशन ने लिखा है | यह सही नहीं है नारायणदत्त का देहावसान 1790 ई. के लगभग हुआ था। रणजीतसिंह को गद्दी 1797 ई. में मिली थी और जालन्धर के आसपास के क्षेत्र पर उसका अधिकार 6 अक्तूबर, 1811 को हुआ था | उससे पहले 1794 ई. में ब्यास के दोनों ओर का यह क्षेत्र फेजलपुरिया मिसल (सिंहपुरिया मिसल) के बुधसिंह के अधीन था | जालन्धर 1766 ई. में इस मिसल के मुखिया खुशहालसिंह के कब्जे में आ गया था।


19. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 10 पाद टिप्पणी। जॉर्डन्स तथा हरविलास शारदा ने पाँच वर्ष और पण्डित मुकुन्ददेव ने छह वर्ष लिखा है।


20. दण्डी विरजानन्द के बाल्यकाल के समय पंजाब में सारस्वत व्याकरण का प्रचलन था। यह अनुभूतिस्वरूपाचार्य की 1250 ई. के लगभग की रचना है | इसमें सात सौ सूत्र हैं। पण्डित लेखराम तथा देवेनद्रनाथ ने क्रमशः सारस्वत तथा व्याकरण पढ़ना लिखा है परन्तु मुकुन्ददेव के अनुसार हलन्त पुलिंग तक साधनिका सहित सारस्वत पढ़ी थी । फिर पिता जी दिवंगत हो गए (द्रष्टव्य: दण्डी जी को जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, पृष्ठ 15) ।


21. बौद्ध विद्वान्‌ अमरसिंह की 600 ई. से पूर्व की यह रचना नामलिंगानुशासन नाम से भी जानी जाती है | श्लोकात्मक यह शब्दकोश तीन काण्डों में हैं।


22. भीमसेन शास्त्री, विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 3, 4, 86


23. मुकुन्ददेव, दण्डी जी को जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, पृष्ठ 21


24. हरविलास शारदा ने “चाचा-चाची का घर” लिखा है । सम्भवत इसीलिए जॉर्डन्स भी “चाचा का घर' लिखते हैं । यह सही नहीं है। विरक्त चाचा भानाराम तो आजीवन ब्रह्मचारी रहे, अतः भाई-भाभी का घर ही सही है।


25. हरविलास शारदा ने चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु में गृह-त्याग लिखा है (1/f९ ० Dayanand Saraswati, p.26), जो सही नहीं है।


26. निरंजनदेव, गुरु विरजानन्द, पृष्ठ 6; लगभग 1992-93 ई. में पण्डित निरंजनदेव को टोहाना निवासी पण्डित राजाराम शास्त्री ने चण्डीगढ़ में बताया था कि धर्मचन्द के पौत्र स्वर्गीय जयगोपाल कोटकपूरा में ज्योतिष का कार्य करते थे। उनका कोई पुत्र नहीं था। केवल तीन पुत्रियाँ थीं । राजाराम शास्त्री पण्डित जयगोपाल के शिष्य थे। यह जानकारी पण्डित जयगोपाल ने किसी आर्यसमाज को इसलिए नहीं दी कि फिर वह चर्चा शुरू हो जाएगी कि उनके दादा ने अपने छोटे भाई को घर से निकाल दिया था (पण्डित निरंजनदेव से लेखक का चण्डीगढ़ में साक्षात्कार, 20 अगस्त, 2001) । दण्डी जी का वंशवृक्ष इस प्रकार है :


दयालदास (निवासी श्रीहरगोविन्दपुर )

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गंगाराम (जिसने गंगापुर बसाया)

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कर्मचन्द नारायणदत्त या त त ) | धर्मचन्द व्रजलाल

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(दण्डी स्वामी विरजानन्द) साधुराम व मुकुन्दलाल


27. देवे-द्रनाथ मुखोपाध्याय ब्रजलाल का ऋषिकेश पहुँचने से पूर्व नाना स्थानों पर घूमना तथा कुछ अध्ययन करना संगत नहीं मानते (विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 12 पाद टिप्पणी) । परन्तु गंगापुर से ऋषिकेश तक जाने में दो-अढ़ाई वर्ष लगे थे, अतः मार्ग में इधर-उधर घूमना तथा कई स्थानों पर ठहरना सही लगता है। 28. पण्डित मुकुन्ददेव, दण्डी जी को जीवनी, पृष्ठ 15, इस सज्जन का नाम, स्थान तथा दी गई सहायता राशि कें विषय में कुछ ज्ञात नहीं। 

परिभ्रमण


दो सौ वर्ष पहले का ऋषिकेश आज जैसा निरापद नगर नहीं था। तब यह तपस्वियों की एक बस्ती मात्र था। इसका वास्तविक नाम हृषीकेश (शाब्दिक अर्थ -- ज्ञनेन्द्रियों का स्वामी) ही यह दर्शाता है कि यहाँ केवल वे तपस्वी ही रहते थे जो या तो इन्द्रियों के स्वामी बन चुके थे या बनना चाहते थे। अत: तब जनसंख्या बहुत कम तथा दूर-दूर बसी हुई थी। साधुओं की घासफूस की बनी हुई कुटियाओं के अतिरिक्त ऊँची अट्टालिकाएँ तब कहाँ थीं? न कोई धर्मशाला थी, न आननक्षेत्र। चारों ओर असुरक्षित जंगल थे। हिंसक वन्यपशुओं का सर्वत्र आतंक था। सारी रात इन पशुओं की आवाजें सुनाई देती थीं। ये पशु कभी-कभी इस तरुण तपस्वी व्रजलाल की पर्णकुटी को भी तोड़ देते थे; वह अगले दिन फिर उसका निर्माण कर लेता था। तरुण तपस्वी कन्दमूल खाकर उदरपूर्ति करता। कई बार भूखा ही रह लेता। कभी-कभी किसी मन्दिर में जाकर भोजन कर लेता पर किसी से भी भिक्षा मांगने न जाता। तपश्चर्या की विधि विशेष से अनभिज्ञता तथा गायत्री-जप में अत्यधिक श्रद्धा के कारण ऋषिकेश निवास के तीन वर्षों में इस यज्ञोपवीतधारी व्रजलाल का अधिक समय गायत्री के अनुष्ठान में बीतता था। रात को भी बहुत कम सोता था। प्रातःकाल स्नान के पश्चात्‌ अधिक समय गंगा के निर्मल जल में गले तक खड़े होकर गायत्री-जप करता था। इस प्रकार गर्मी -सदी और भूखप्यास को परवाह किए बिना तीन वर्ष एक लाख गायत्री का अनुष्ठान करते हुए इतना घोर तप किया कि सभी धार्मिक जन विस्मित थे। जैसे विचार दिन में होते हैं, प्राय: नींद में वैसे ही स्वप्न आते हैं। एक रात सोए हुए उन्हें स्वप्न में सुनाई दिया -- “जो तुमको होना था वह हो गया। अब तुम यहाँ से चले जाओ।” अचानक आँख खुलने पर उसने इधर-उधर देखा परन्तु कोई व्यक्ति पास न था। यह अन्तर्मन का नाद ईशप्रेरणा थी। इस पर विचार किया तथा तत्काल ऋषिकेश छोड़ने का मन बनाकर हरिद्वार के लिए चल पड़ा। ऋषिकेश आया नेत्रहीन तरुण ब्रह्मचारी अब प्रज्ञाचक्षु बन गया था | अठारह वर्षे को आयु में उस भयंकर घने जंगल को पार करता हुआ त्रजलाल हरिद्वार पहुँच. गया। कुछ दिन पश्चात्‌ वहाँ उनकी भेंट एक दण्डी संन्यासी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती” से हुई। तब इन स्वामीजी की आयु पचास वर्ष के लगभग थी। मुलतः हरियाणा निवासी" गौड़ ब्राह्मण कुलोत्पन्न यह संन्यासी आनन्दस्वामी दण्डी” के शिष्य थे। स्वामी पूर्णानन्द कौमुदी" के उच्च कोटि के विद्वान्‌ तथा अष्टाध्यायी” आदि आर्षग्रन्थों के श्रद्धालु थे। यही श्रद्धा उनके शिष्यों को भी उनसे विरासत में मिली। स्वामीजी ने सौन्दर्यलहरी' की एक संस्कृत टीका लिखी थी जिसका हस्तलेख और उन्हीं के हाथ से लिखी दक्षिणामूर्ति-संहिता की पुस्तक मथुरावासौ पण्डित गोविन्द चतुर्वेदी” के ज्येष्ठ पुत्र मुकुन्दलाल तथा एक वेदान्त विषयक ग्रन्थ पण्डित गंगादत्त के पुत्र विदुरदत्त के पास सुरक्षित थे। स्वामीजी मथुरा में भी वर्षों रहे थे। दण्डी संन्यासी ूर्णानन्द जहाँ कुटिया बनाकर तपस्या करते थे, वह स्थान दण्डीघाट के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। वहाँ बाद में उनके शिष्य किशनसिद्ध चतुर्वेदी महलवाले (1774-1873 ई.) ने वैशाख बदी 13, सम्वत्‌ 1879 वि. (19 मई, 1822) रविवार को दण्डी घाट का निर्माण करवाया था।


परम वैरागी स्वामी पूर्णानन्दे सरस्वती के तप एवं विद्या की प्रसिद्धि सुनकर तरुण तपस्वी ने उनसे 1798 ई. के आरम्भ (सम्वत्‌ 1855 वि.) में संन्यासदीक्षा ली और स्वामी विरजानन्द सरस्वती नाम पाया। तब उत्तर भारत में संन्यास-दीक्षा के समय सभी संन्यास लेने वालों के हाथ में दण्ड (डण्डा) पकड़वाया जाता था। तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती परम्परा के संन्यासियों के अतिरिक्त शेष सभी संन्यासियों (भारती, पुरी, गिरि, पर्वत, सागर, वन तथा अरण्य) से उसी समय दण्ड छुड़वा दिया जाता था। इन तीनों को छूट थी कि वे चाहें तो शेष जीवन दण्ड धारण करें, न चाहें तो त्याग दें । स्वामी विरजानन्द ने दण्ड धारण किया अतः दण्डी कहलाए। यूँ तो स्वामी पूर्णानन्द के किशन चतुर्वेदी (संन्यस्त कृष्णानन्द), शिवानन्द (1765-1865 ई.), नरहरि बाबा जिनकी मथुरा में कल्लूजी की धर्मशाला के पास समाधि बनी हुई है, खटखटा बाबा जिनके शिष्य ब्रह्मानन्द इटावा वालों ने इटावा में सरस्वती विद्या मन्दिर की स्थापना की, बूटी बाबा आदि अनेक शिष्य थे परन्तु सर्वाधिक विख्यात प्रज्ञाचक्षु नाल ब्रह्मचारी दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती हुए।


संन्यास लेने. के पश्चात्‌ विस्जानन्द दण्डी ने ज्ञानार्जन का विचार बनाया। स्वामी पूर्णानन्द उनके केवल संन्यास गुरु ही नहीं थे; अपितु कुछ अंश में विद्यागुरु भी थे । शास्त्रज्ञान के लिए व्याकरण पर अधिकार आवश्यक था। अतः विरजानन्द दण्डी ने स्वगुरु के पास रहकर व्याकरण पढ़ना आरम्भ किया; सिद्धान्तकौमुदी पढ़ी तथा कुछ अष्टाध्यायी भी कण्ठस्थ की | अष्टाध्यायी के प्रति दण्डीजी के हृदय में यहाँ से ही श्रद्धा जागृत हुई । ब्रह्मचर्य-साधना तथा गायत्रीजप के कारण उनकी मेधा-बुद्धि विकसित हो चुकी थी। उन दिनों उनको काव्य-प्रतिभा जाग उठी और उन्होंने रामचरित सम्बन्धी कई श्लोक रचे । स्वामी विरजानन्द दण्डी ने हरिद्वार निवास के समय एक ब्राह्मण से वरदराज रचित मध्यकौमुदी षड्लिंग पर्यन्त पढ़ी। वे नियमपूर्वक कौमुदी की आवृत्ति सुनते थे। यहाँ रहते हुए उन्होंने कौमुदी कण्ठस्थ कर ली। स्वयं न पढ़ सकने के कारण नेत्रहीन विरजानन्द को शास्त्राध्ययन के लिए दूसरे व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ती थी। पूर्ण एकाग्रचित्त होकर अन्य विद्वान्‌ से सुनकर अपनी तीक्ष्ण स्मरणशक्ति से उसे कण्ठस्थ कर लेते और फिर उस पर मननचिन्तन करते रहते । नेत्रहीनता के कारण बाह्य पदार्थों के रंग-रूप का आकर्षण सम्भव ही न था। दीर्घकाल तक एकनिष्ठ हो किए गए गायत्री-जप तथा ब्रह्मचर्य के प्रभाव ने उनकी चित्त की एकाग्रता और बढ़ा दी थी। इससे स्मरणशक्ति तेज हो गई थी। किसी श्लोक अथवा पाठ को एक-दो बार सुनकर याद कर लेते थे। वे वस्तुतः श्रुतिधर थे। यहाँ दण्डीजी ने निज अध्ययन के साथ-साथ विद्यार्थियों को संस्कृत तथा मध्यकौमुदी पढ़ाना आरम्भ कर दिया। भविष्य में अध्ययन-अध्यापन का यह क्रम सभी स्थानों पर चलता रहा | अध्ययन किया गया विषय अध्यापन तथा मनन से अधिक स्पष्ट हो जाता था तथा चित्त में दृढ़ भी। दण्डी विरजानन्द ने हरिद्वार में लगभग तीन वर्ष व्याकरण ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया । स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने दण्डीजी को कौमुदी पढ़ाकर काशी में महाभाष्य'' पढ़ने के लिए प्रेरित किया। गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर विरजानन्द एक छात्र के साथ अगले ही दिन हरिद्वार से चल पड़े। हरिद्वार से चलकर स्वामी विरजानन्द कुछ समय कनखल रहे। यहाँ भी किसी को सहायता से सिद्धान्तकौमुदी पर चिन्तन-मनन करते रहे तथा विद्यार्थियों को पढ़ाते रहे। कनखल में कुछ पण्डितों से उनका कनखल शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार-विमर्श एवं शास्त्रार्थ हुआ। दण्डीजी ने निर्वचन किया -को न खलस्तरति यत्र स कनखलो नाम स्वर्णदीप्रान्तस्थो ग्राम: अर्थात्‌ कौन नहीं खल तरता है जहाँ, वह कनखल नामक स्वर्‌-नदी (गंगा) के प्रान्त में स्थित ग्राम ।


दण्डीजी की योग्यता से प्रभावित होकर यहाँ के पण्डितों ने उनका यथेष्ट आदर-सत्कार किया तथा उन्हें कनखल ही रोकना चाहा परन्तु वे वहाँ अधिक समय न रुके और आगे चल पड़े।


हरिद्वार से प्रारम्भ हुई इस पदयात्रा का मुख्य उद्देश्य विद्यानगरी काशी में तथा अन्यत्र विद्वानों से विद्यालाभ करना था। इसी हेतु काशी जाने की प्रेरणा उन्हें स्वगुरु स्वामी पूर्णानन्द से मिली थी। यही वचन देकर दण्डी जी हरिद्वार से चले थे।?* तत्कालीन साधु एवं पण्डित प्रायः गंगातट पर बसे विभिन्न नगरों में रहते थे । अत: भागीरथी (गंगा) के तट के साथ-साथ भ्रमण ्ञानोपार्जन में सहायक था। साथ ही साधु-महात्माओं के सम्पर्क से धर्मलाभ होता था। अतः प्रायः साधु गंगा तट के साथ-साथ देशाटन करते थे । स्वामी विरजानन्द ने भी गंगा के किनारे-किनारे भ्रमण किया परन्तु गंगा-परिक्रमा को उनका एक प्रमुख उद्देश्य मानने का कोई प्रमाण नहीं है। पण्डित लेखराम तथा पण्डित मुकुन्ददेवं ने ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया परन्तु भीमसेन शास्त्री ने अपनी कल्पना के आधार पर यहाँ तक लिख दिया -. “वे सम्भवतः कलकत्ते से गंगासागर जाकर गंगा के ऊपर तटानुतट हरद्वार को चल पड़े।'"* यह कल्पना पूर्णतया निराधार है पर गंगा के प्रति सम्मान का भाव हो सकता है।


गंगा-किनारे स्थित कई स्थानों में भ्रमण करते हुए दण्डी विरजानन्द लगभग एक वर्ष में काशी पहुँचे । वे प्राय: कम चलते थे और कई बार कई दिन चलते भी नहीं थे। पदयात्रा में अध्ययन तथा अध्यापन साथ- साथ चलता रहा। किसी से पञ्चदशी'* आदि पढ़ी तो किसी को कौमुदी आदि व्याकरण पढ़ा दिया। मार्ग में उन्हें जो नए-नए विद्यार्थी मिलते, वे उन्हे दो -चार कोस काशी की ओर पहुँचा देते थे। इस यात्रा में भी वार्तालाप पूर्ववत्‌ संस्कृत में ही होता था। उन्हे संस्कृत सहज उपस्थित थी।


मार्ग में दण्डी जी कहाँ-कहाँ ठहरे, किसे “किसे मिले, क्या-क्या कष्ट उठाए -- कुछ भी ज्ञात नहीं । हाँ, भीमसेन शास्त्री के अनुसार वे सोरों अवश्य ठहरे थे परतु इस कथन का कोई पुष्ट आधार नहीं है।' यूं कोई भी यात्री अपनी लम्बी पदयात्रा में अनेक स्थानों पर रात काटता है और विश्राम करता है । निरन्तर अहर्निश तो कोई भी चलने में समर्थ नहीं है । अतः दण्डीजी काशी जाते समय क्या यहाँ रुके थे -.. वह त्रिकालदर्शी सर्वान्तर्यामी जगन्नियन्ता प्रभु हो जानता है । पर वे तट से चार कोस दूर सोरों क्यों जाते, तटस्थ गढ़ियाघाट पर ही रात काट लेते । दण्डी विरजानन्द 1800 ई. के अवसान (सम्वत्‌ 1857 का उत्तरार्द्ध) पर काशी पधारे। तब उनकी आयु इक्कीस वर्ष थी। वे वहाँ एक संन्यासी के आश्रम में ठहरे। भिक्षा मांगने तो कहीं जाते ही नहीं थे, अतः दो-तीन दिन उन्हें निराहार ही रहना पड़ा। तत्पश्चात्‌ उनके पड़ाव पर ही भोजन मिलने लग गया। काशी में विरजानन्द अध्ययनार्थ विभिन्न स्थलों पर कई पण्डितों के पास जाते थे। यहाँ उन्होंने पूर्वोल्लिखित व्याकरण-ग्रन्थों के अतिरिक्त मनोरमा, शेखर, ” न्याय, मीमांसा* और वेदान्त ग्रन्थ पढ़े । दण्डीजी की मेधा तीव्र तथा स्मरणशक्ति अनुपम एवं अद्भुत थी। अतः किसी भी ग्रन्थ को तुरन्त हृदयंगम कर लेते थे। महाभाष्य पढ़ने की इच्छा लेकर इस नगरी में पधारे दण्डीजी को छह-सात महीने के अथक प्रयास से महाभाष्य का हस्तलेख उपलब्ध हुआ, वह भौ पूर्णतया अशुद्ध। उस समय महाभाष्य तथा अष्टाध्यायी सहज प्राप्य नहीं थे । दशग्रन्थी ऋग्वेदियों ? के घर में ही कुछ शुद्ध कुछ अशुद्ध अष्टाध्यायी पढ़ी जाती थी | वे भी इस ग्रन्थ को किसी को दिखाते नहीं थे) तब पण्डितों का सारा श्रम कोमुदी के अध्यापन पर लगता था। अष्टाध्यायी सहज उपलब्ध न होने के कारण उन दिनों कौमुदी पर अध्याय, पाद व सूत्र सम्बन्धी अंक भी नहीं लिखे जाते थे। तब अष्टाध्यायी की शुद्ध प्रति प्राप्त करना अति दुष्कर था। इस प्रसंग में दण्डीजी अपने शिष्यों को कहा करते थे कि पूर्ण पण्डित ही किसी पुस्तक को शुद्ध कर सकता है। उन दिनों महाभाष्य में केवल नवाहिक तथा अङ्गाधिकार"? ही पढ़े जाते थे, अत: दण्डीजी ने भी इतना ही पढ़ा होगा। यह निश्चित है कि काशी रहते हुए उन्होने न सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पढ़ी थी, न ही सम्पूर्ण महाभाष्य । काशी वास के समय दण्डीजी को विद्या प्रदान करने में कौन-कौन सहयोगी हुए _ इसकी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। पण्डित विद्याधर से उन्होंने अवश्य पढ़ा था । काशीस्थ कई पण्डित बहुत संकीर्ण थे। इर्ष्यालु पण्डितों ने पण्डित विद्याधर को दण्डीजी को पढ़ाने से रोकना चाहा परन्तु पण्डितजी स्वामी विरजानन्द से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने रोकने पर भी पढ़ाना बन्द न किया। दण्डीजी ने अलवर-नरेश विनयसिंह को पढ़ाने के लिए अलवर रहते हुए शब्दबोध पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक के अन्त में उन्होंने गौरीशंकर को निम्नलिखित शब्दों में गुरु घोषित किया है ---


इतिश्रीमत्परमह॑सपरिव्राजकाचार्यश्रीगौरीशंकरशिष्यश्रीविरजानन्दकृतः शब्दबोधो नाम व्याकरणसंक्षेपसंग्रहः ॥


अर्थात्‌ श्रीमान्‌ परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री गौरीशंकर के शिष्य श्री विरजानन्द द्वारा रचित शब्दबोध नामक व्याकरण संक्षेप संग्रह समाप्त हुआ।


आर्षयुग प्रवृत्त होने पर शब्देन्दुशेखर के खण्डन में 1859 ई. (सम्वत्‌ 1916 वि.) में लिखे वाक्य-मीमांसा के मुख्य पृष्ठ पर अंकित हैः


दण्डीजी विरचित 'वाक्य-मीमांसा सं. १९१६ भारद्वाजगोत्रोत्पन्नस्य नारायणदत्तसूनोः गौरीशंकरशिष्यस्य विरजानन्दस्वामिनः कृतिः।


अर्थात्‌ भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न नारायणदत्त के पुत्र तथा गौरीशंकर के शिष्य स्वामी विरजानन्द को कृति।


जिन गौरीशंकर को दण्डीजी ने गुरु स्वीकार किया -- वे कौन सज्जन थे, कहाँ रहते थे, उनसे कब और क्या पढ़ा --- इस सम्बन्ध में किसी इतिहासकार अथवा जीवनी लेखक को कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं हुई । पण्डित लेखराम आर्य मुसाफ़िर को ये पुस्तकें दृष्टिगोचर न हुई, अतः बे गोरीशंकर की चचां करने में असमर्थ रहे। बलदेव उपाध्याय ने “काशी की पाण्डित्य परम्परा ' नामक अपनी पुस्तक में 1200 से 1950 ई. तक के काशीस्थ पण्डितों का विवरण लिखा है पर उसमें गौरीशंकर की कोई चर्चा नहीं है।


दण्डी विरजानन्द के लिए पठन-पाठन सदा परस्पर जुड़े रहे, अतः काशी पहुँचते ही विद्यार्थियों को पढ़ाना आरम्भ कर दिया था। एक अल्पवयस्क अन्धा संन्यासी पढ़ाता है और वह भी काशी में | इस हेतु विद्ठान्‌ तथा विद्यार्थी सभी विस्मित थे। कोई-कोई उन्हें देखने आने लगा, कोई उनकी विद्या की थाह लेने और कोई उन्हें पढ़ाते हुए देखने। इस तरह धीरे-धीरे शिष्य संख्या बढने लगी । सिद्धान्तकौमुदी उन्हें काशी आने से पहले ही कण्ठस्थ थी। जिस पठित-अपठित ग्रन्थ पर चर्चा होती, वे वही पढ़ा देते थे। उनकी अध्यापनशैली काशीस्थ पण्डितों की शैली से कुछ भिन्न थी, अतः सभी पाठशालाओं, मठों, डेरों एवं पण्डित-गृहों में तुरन्त चर्चा का विषय बन गए। जिज्ञासु विरजानन्द काशी के पण्डितों से विचार-विमर्श करते समय कई बार उन्हें अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य से जुड़े व्याकरण विषयक अपने प्रश्नों से निरुत्तर कर देते थे, जैसे- एक पण्डित से उन्होंने प्रश्‍न किया -- पुरस्तादपवादा अनन्तरान्‌ विधीन्‌ बाधन्ते नोत्तरान्‌?! इस परिभाषा के जिस कौमुदी से उदाहरण उद्धृत किए गए हैं, उससे पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती ग्रन्थ (विधियों) से भिन्न विधियों को जानते हो? उन्होंने एक अन्य पण्डित से पूछा -. हलन्त्यम्‌ सूत्र” में दो पद हैं पर इसकी वृत्ति (अर्थ) उपदेशेऽन्त्यं हल्‌ इत्‌ स्यात्‌ में चार पद हें । इन दो पदों को अनुवृत्ति किस सूत्र से आई है? क्या इस प्रकार अन्य सूत्रों की अनुवृत्ति के मूल सूत्र भी बता सकते हो ? विरजानन्द दण्डी के ऐसे प्रश्नों की सर्वत्र चर्चा होने लगी | उनकी विद्टत्ता, व्याकरण-ज्ञान तथा शास्त्रविषयक अपूर्व सूझ की खूब प्रसिद्धि हुई। उन्हें तीस वर्ष से कम आयु में ही काशी के प्रमुख पण्डितों में चौथे अथवा पाँचबें स्थान पर गिना जाने लगा वे इस विद्यानगरी में प्रज्ञाचक्षु स्वामी की उपाधि से विभूषित हुए। अब उन्हें पण्डित-सभाओं में आने-जाने के लिए पालकी-व्यय तथा पर्याप्त दक्षिणा मिलने लगी । उन्हें जो कुछ भेंट होता, वे उसे अपने शिष्यों में बाँट देते थे। काशी में कई वर्ष ठहरकर प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी ने गया के लिए पैदल प्रस्थान किया /? अति श्रम से प्राप्त कुछ अलभ्य पुस्तकों की गठडी साथ थी | अतः भार उठाने के लिए एक व्यक्ति साथ ले लिया।* उन दिनों देश में घोर अराजकता थी। मार्ग में कुछ लुटेरों ने उन्हें घेरकर पकड़ लिया और उन्हें सताने लगे। दण्डीजी संस्कृत में ही बोलते थे। नहुतेरा कहा कि उसके पास केवल पुस्तकें हैं, धन नहीं है परन्तु लुटेरों ने पीछा न छोड़ा। अन्ततः दण्डीजी ने सहायतार्थ संस्कृत में ऊँचे स्वर में बोलना तथा शोर मचाना शुरू किया। संयोग से समीप ही ग्वालियर के कोई सम्भ्रान्त सामन्त अपने सशस्त्र सेवकों तथा एक पण्डित के साथ ठहरे हुए थे। उन्होंने चीत्कार सुनकर अपने सशस्त्र सेवक भेजे, जिनको ललकार सुनते ही लुटेरे भाग उठे। शस्त्रधारियों ने साधु का परिचय पूछा । प्रज्ञाचक्षु ने संस्कृत में उत्तर दिया। सेवक कुछ समझ न पाए। तब सामन्त ने अपना पण्डित सहायतार्थ भेजा। पण्डितजी उनके साथ वार्तालाप से अति प्रभावित हुए तथा स्वामीजी को सादर अपने साथ डेरे पर ले आए। राहजनों से दुखी नेत्रहीन पथिक एक महाविद्वान्‌ संन्यासी है - यह जानकर सामन्त ने उन्हें अपने पास ठहरने का आग्रह किया। स्वामीजी पाँचं दिन वहाँ ठहरे रहे | उनका श्रद्धापूर्वक आतिथ्य किया गया। दण्डीजी ने छठे दिन प्रस्थान किया और गया पधारे।


प्रज्ञाचक्षु स्वामी गया में एक वर्ष या इससे कुछ अधिक समय ठहरे। यहाँ उन्होंने वेदान्त-ग्रन्थों का अध्ययन किया। पूर्ववत्‌ अध्ययन के साथ अध्यापन कार्य भी चलता रहा | मुकुन्ददेव के अनुसार यहाँ उन्होने श्राद्धादि कार्य किए परन्तु इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीँ है [°


दण्डी संन्यासी गया से कोलकाता (पुराना नाम कलकत्ता) के लिए चल पडे । कोलकाता तब ईस्ट इण्डिया कम्पनी शासित बंगाल प्रान्त की राजधानी थी ।7 यह नगरी तब संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों के लिए प्रसिद्ध थी । कोलकाता में उन्होंने साहित्यदर्पण, कुवलयानन्द, काव्यप्रकाश, रसगंगाधर आदि काव्य शास्त्र के ग्रन्थों का अध्ययन किया 3 दर्शन, आयुर्वेद, संगीत,” वीणा-वादन, ” योगासनों तथा कुछ यौगिक क्रियाओं में भी कुशलता प्राप्त की। फ़ारसी में अच्छी योग्यता अर्जित की। शतरंज के कुशल खिलाड़ी बने। यहाँ रहते हुए उन्होंने विभिन्न यन्त्रालयों के मुद्रित पुस्तक सूचीपत्र मंगवाए। एक विद्यार्थी द्वारा उन्हें पढ़वाकर दण्डी जी को विश्वास हो गया कि उन्होंने पढ़ने योग्य सभी पुस्तकें पढ़ ली हैं और अब कुछ ग्रन्थों पर केवल विचार करना शेष है।


काशी में ही मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाने वाले दण्डीजी को कोलकाता में अपार वैदुष्य के लिए बहुत सम्मान मिला। पर्याप्त संख्या में छात्र शास्त्र पढ़ने आते रहे | कई उच्चकोटि के विद्वान्‌ उनके पास विभिन्न विषयों की मीमांसा करने आते थे। अनेक उच्च पदासीन व्यक्तियों से उनकी भेंट हुई। गुणग्राही सज्जनों ने यहाँ उनके ठहरने, आने-जाने आदि की सुव्यवस्था को।


प्रज्ञाचक्षु दण्डी संन्यासी नेत्रहीनों पर कटाक्ष को भद्रता नहीं मानते थे। कवित्व अभिमानी लोलिम्बराज स्वरचित वैद्यजीवन में लिखते हैं --


येषां न चेतो ललनासु लग्नं मग्नं न साहित्यसुधासमुद्रे । 

ज्ञास्यन्ति ते किं मम हा प्रयासानन्धा इव 'वारवधूविलासान्‌॥ 1.6 ॥


अर्थात्‌ “जिनका चित्त ललनाओं में नहीं लगा और जो साहित्य सुधा-सागर में मग्न नहीं हुआ, दुःख है वे मेरे प्रयासों का आनन्द उसी तरह न ले सकेंगे जिस तरह अन्धा वैश्याओं के हावभाव, कटाक्ष आदि अंग चेष्टाओं को नहीं जान सकता ।' इस तुलना में शालीनता का अभाव है।


लोलिम्बराज ने फिर लिखा --


औषधं मूढवैद्यानां त्यजन्तु ज्वरपीडिता: । 

परसंसर्गसंसक्तकलत्रमिव साधवः ॥1.9॥


अर्थात्‌ ' ज्वरपीड़ितों को मूर्ख वैद्य की औषध उसी प्रकार छोड़ देनी चाहिए जैसे भद्रपुरुष पर-पुरुषसंसक्त स्त्री को छोड़ देते हैं ।'


लोलिम्बराज की व्याकरण अनभिज्ञता प्रकट करते हुए दण्डीजी ने कहा कि उसके श्लोक में मूढबैद्यानाम्‌ का प्रयोग हुआ है। कुत्सितानि कुत्सनैः (अष्टाध्यायी, 2.1.52) के अनुसार वैद्यमूढानाम्‌ होना चाहिए ।'


कोलकाता में धन संग्रह की पर्याप्त सम्भावनाएँ थीं पर यह उनकी रुचि का विषय नहीं था। अतः यहाँ उन्हें चाहे कितना भी सम्मान मिला पर वे कुछ वर्ष ही ठहरे। कई उदार सज्जनों ने स्थान, सवारी तथा सेवकादि की व्यवस्था कर उन्हें कोलकाता रोकना चाहा परन्तु विरक्त दण्डी जी विद्योपार्जन का प्रयोजन सिद्ध होते ही एक रात वहाँ से चल पडे चलते-चलते सोरों पहुँचकर विश्रान्त पर डेरा लगा लिया। इस परिभ्रमण काल में दण्डीजी कब कहाँ पहुँचे, वहाँ किस-किस स्थान पर रहे, कितना-कितना समय ठहरे, किस-किस पण्डित से क्या-क्या पढ़ा, किसे-किसे पढ़ाया -- कुछ भी सुनिश्चित नहीं है


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ 1. स्वामी वेदानन्द ने स्वामी विरजानन्द के जीवन-चरित में पृष्ठ 53 पर लिखा है -“'विरजानन्द ! तुम्हारा यहाँ जो कुछ होना था, हो चुका ...।'' अभी तपस्वी ब्रह्मचारी ने न


"संन्यास लिया था, न ही विरजानन्द नाम पाया था। अतः स्वप्न में ' विरजानन्द' शब्द सुनाई देना सही नहीं है । मुकुन्ददेव ने इस स्वप्न का उल्लेख नहीं किया।


2. पण्डित लेखराम तथा मुकुन्ददेव स्वामी पूर्णानन्द का स्थान हरिद्वार बताते हें । देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने स्वामीजी का नाम पूर्णाश्रम और स्थान कनखल लिखा है, जो सही नहीं है। यदि वे पूर्णाश्रम होते तो तात्कालिक संन्यासाश्रम को व्यवस्था के अनुसार उनके शिष्य का नाम विरजानन्द न होकर विरजाश्रम होता। अन्य सभी लेखकों ने पूर्णानन्द ही लिखा है। वे शंकराचार्य प्रवर्तित दण्डी संन्यासी वर्ग के थे। विचित्र संयोग है कि स्वामी विरजानन्द तथा स्वामी दयानन्द दोनों के संन्यास गुरुओं का नाम स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती था परन्तु दोनों भिन्न व्यक्ति थे। दयानन्द के संन्यास दीक्षागुरु महाराष्ट्र के पूर्णानन्द थे । इन हरिद्वारीय पूर्णा से स्वामी दयानन्द की भेंट सम्वत्‌ 1912 वि. (1855 ई.) के आस-पास हुई थी।


3. स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती 1857 ई. की क्रान्ति के समय एक सौ दस वर्ष के थे, अतः उनका जन्म वर्ष 1747 ई. प्रतीत होता है।


4. पण्डित लेखराम ने स्वामी पूर्णानन्द को उत्तरदेशीय पहाड़ के निवासी लिखा है परन्तु मुकुन्ददेव, भीमसेन शास्त्री, भवानीलाल भारतीय आदि उन्हें हरियाणा निवासी मानते हैं।


5. वेदवाणी, मार्च 1960, पृष्ठ 11 टिप्पणी 9; सत्यकेतु विद्यालंकार ने पूर्णानन्द दण्डी के गुरु का नाम ओमानन्द लिखा है (आर्यसमाज का इतिहास, भाग 1, पृष्ठ 696-700) ।


6. रामचन्द्र दीक्षित रचित प्रक्रियाकौमुदी (रचना काल पन्द्रहवीं ई. शताब्दी का पूर्वार्ध) की परम्परा में भट्टोजि दीक्षित विरचित सिद्धान्तकौमुदी एक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ है। सिद्धान्तकौमुदी को बहुधा कौमुदी ही कहते हैं । इसका रचना काल 1640 ई. के लगभग है | यद्यपि इस ग्रन्थ में अष्टाध्यायी के सूत्रों की सम्पूर्ण व्याख्या है परन्तु अष्टाध्यायी के पौर्वापर्ययुक्त विशिष्ट सूत्रक्रम को भंग कर दिया गया है, जिससे उसकी निहित वैज्ञानिकता खण्डित हो गई है | इसीलिए बाद में स्वामी विरजानन्द ने कौमुदी परम्परा को त्याज्य घोषित किया । स्वामी दयानन्द कौमुदी को ' कुमति' कहा करते थे।


7. महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरणक्षेत्र में मानव -मस्तिष्क का अपूर्व आविष्कार है। इसे शब्दानुशासन, पाणिनीयाष्टक अथवा वृत्तिसूत्र भी कहते है । इसके आठ अध्यायों के बत्तीस पादों में 3979 सूत्र हैं । अष्टाध्यायी में सूत्रों के क्रम का विशेष महत्त्व है। एस.के. बेल्वेलकर ने पाणिनि का समय 650 ई. पूर्व माना है । वासुदेवशरण अग्रवाल ईसा पूर्व चौथी शताब्दी मानते हैं । युधिष्ठिर मौमांसक पाणिनि का स्थितिकाल महाभारत के युद्ध से 200 वर्ष पश्चात्‌ अर्थात्‌ लगभग 2900 विक्रम पूर्व आंकते हैं। उनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु नदी के तट पर अटक के पश्चिमोत्तर में शलातुर (शालदित्ता) ग्राम में हुआ था, अतः उनका दूसरा नाम शालातुरीय है।


8. यह शंकराचार्य की कृति है।


9. पण्डित गोविन्द चतुर्वेदी के पिता नवनीत कविवर ने स्वामी विरजानन्द से विद्या ग्रहण की थी । नवनीत के पितामह किशन महलबाले स्वामी पूर्णानन्द के शिष्य थे । पण्डित किशनसिद्ध का निन्यानवे वर्ष की आयु में 1873 ई. में स्वर्गवास हुआ था। मथुरा में दिसम्बर 1959 में आयोजित दयानन्द दीक्षाशताब्दी में पण्डित गोविन्द उपस्थित थे । उनके एतद्‌ विषयक संस्मरणों पर आधारित पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक का एक महत्त्वपूर्ण लेख मार्च 1960 में वेदवाणी तथा टंकारा पत्रिका में क्रमशः पृष्ठ 9-13 तथा पृष्ठ 9-14 पर प्रकाशित हुआ था।


10. वेदवाणी, मार्च 1960, पृष्ठ 11; ये सभी शिष्य मथुरावासी थे। अन्य शिष्यों को जानकारी प्राप्त नहीं है ।


11. पतंजलि का कालजयी ग्रन्थ महाभाष्य पाणिनि की परम्परा में वररुचि कात्यायन के वार्त्तिकों के बाद अष्टाध्यायी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्याख्या-ग्रन्थ माना जाता है। युधिष्ठिर मीमांसक महाभाष्यकार पतंजलि का काल 2000 विक्रम पूर्व मानते हैं (द्रष्टव्यः संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृष्ठ 375) ।

12. मुकुन्ददेव, दण्डी जी की जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, (क) पृष्ठ 16, (ख) पृष्ठ 20


13. भीमसेन शास्त्री, विरजानन्द-प्रकाश, (क) पृष्ठ 20, (ख) पृष्ठ 12; देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ऐसा नहीं मानते (द्रष्टव्य: विरजानन्द- चरित, पृष्ठ 25 पाद टिप्पणी) ।


14. शांकर वेदान्त का यह ग्रन्थ स्वामी शंकराचार्य के अनुयायी विद्यारण्य स्वामी की 1350 ई. की रचना है। उन दिनों संन्यासियों में इसका बहुत प्रचलन था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसे आर्षग्रन्थ स्वीकार नहीं किया, अतः उन्होंने वैशाख 1920 वि. में आगरा में इसकी कथा बन्द कर दी थी।


15. इस विषय में लेखक का मत एवं विश्लेषण आगे पृष्ठ 23-24 पर अंकित है।


16. मनोरमा अथवा प्रौढ़ मनोरमा सिद्धान्तकौमुदी पर भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित व्याख्याग्रन्थ है । नागेश भट्ट (1671-1753. ) ने अपने गुरु हरि दीक्षित के नाम से प्रौढ़ मनोरमा पर शब्दरत्न नामक व्याख्या लिखी थी।


17. शेखरादि नाम से परिभाषेन्दुशेखर, शब्देन्दुशेखर, बृहच्छन्देन्दुशेखर और लघुशब्देन्दुशेखर का बोध होता है । परिभाषेन्दुशेखर पाणिनि व्याकरण के विभिन्न विषयों से सम्बन्धित परिभाषाओं का संग्रह एवं संक्षिप्त व्याख्या है । शब्देन्दुशेखर भी इन परिभाषाओं का संक्षित व्याख्या-ग्रन्थ है । बृहच्छब्देन्दुशेखर और लघुशब्देन्दुशेखर नागेश की सिद्धान्तकौमुदी पर लिखी दो टीकाएँ हैं।


18. मीमांसा छह आस्तिक दर्शनों में से एक है। इसकी वेद में आस्था है और उसे अपौरुषेय मानता है। कर्मप्रधान मीमांसा को पूर्व मीमांसा तथा ज्ञान प्रधान को उत्तर मीमांसा नाम से जाना जाता है। सामान्यतः मीमांसा से अभिप्राय पूर्व मीमांसा ही लिया जाता है । उत्तर मीमांसा वेदान्त है।


19. दशग्रन्थी ऋग्वेदी ब्राह्मण निम्नलिखित ग्रन्थों का अध्ययन करते थे --


संहिता, पदपाठ, क्रमपाठ, ऐतरेय ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, आश्वलायन श्रौतसूत्र, आश्वलायन गृह्यसूत्र, अष्टाध्यायी, निरुक्त-निघण्टु, वेदांग ज्योतिष


20. महाभाष्य के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद नौ आहिकों में विभक्त है, इसे नवाहिक कहते हैं | नवाहिक का शाब्दिक अर्थ है जो नौ दिन में पढ़ा जा सके | अङ्गाधिकार अष्टाध्यायी के छठे अध्याय के चतुर्थ पाद से प्रारम्भ करके सप्तम अध्याय की समाप्ति तक का भाग है। पतंजलि ने महाभाष्य में इसका भाष्य इसी नाम से किया है।


21. परिभाषेन्दुशेखर, 60


22. यह कौमुदी क्रम में प्रथम सूत्र है, जबकि अष्टाध्यायी क्रम में 1.3.3 संख्यक सूत्र है ।


23. पण्डित लेखराम के अनुसार गया के लिए प्रस्थान करते समय दण्डी जी की आयु बाईस वर्ष थी। यह लेख सही नहीं है।


24. मुकुन्ददेव, दण्डी जी की जीवनी, पृष्ठ 22; भीमसेन, विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 15; देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय के अनुसार दण्डी जी अकेले थे (विरजानन्द चरित, पृष्ठ 22 ) ।


25. मुकुन्ददेव, बही, पृष्ठ 23; भीमसेन शास्त्री, विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 16

26. गया में जालन्धर क्षेत्र के पुरोहित रामनाथ तथा देवनाथ मेहरवाड़ दढ़ीवाले से लेखक को मई 2001 में पता चला है कि वहाँ 1850 ई. से पूर्व का इस क्षेत्र का कोई लिखित विवरण नहीं है। अतः मुकुन्ददेव तथा भीमसेन शास्त्री के कथन की पुष्टि नहीं की जा सको।


27. पण्डित लेखराम ने भी तब कोलकाता को बंगाल की राजधानी लिखा है। इसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1698 ई. में अपने अधिकार में ले लिया था। बाद में यह नगर 1857 ई. से 1912 ई. तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी था।


28. आचार्य मम्मट की कृति काव्यप्रकाश के दस उल्लासों में नाट्य के अतिरिक्त काव्यशास्त्र की समस्त विधाओं का विवेचन है | साहित्य-दर्पण के दस अध्यायों में नाट्य सहित काव्यशास्त्र के समस्त विषयों का निरूपण है। इसके रचयिता कलिंग देश निवासी विश्वनाथ वहाँ के राजा नरसिंहदेव (1279-1306 ई.) के आश्रित कवि थे । अप्पय दीक्षित (1551-1623 ई.) ने कुवलयानन्द में 123 अर्थालंकारों का विस्तृत विवेचन किया है। पण्डितराज जगन्नाथ (1590-1665 ई.) ने मम्मट के काव्यप्रकाश में दोष देखकर अत्यन्त नवीन एवं दोषमुक्त रचना के प्रयास में रसगंगाधर का प्रणयन किया। उन्होंने इस ग्रन्थ में कुवलयानन्द का भी खण्डन किया है। आन्श्रप्रदेश के मुगुंज ग्राम में जन्में तथा शाहजहाँ के आश्रित इस कवि की युवावस्था दिल्ली में व्यतीत हुई। वे 1627 ई. के बाद उदयपुर नरेश जगतसिंह के यहाँ चले गए थे | पुनः शाहजहाँ ने उन्हें दिल्ली बुला लिया था।


29. मुकुन्ददेव प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने दण्डी जी को सितारवादन एबं संगीत में अति निपुण बताया है (दण्डी जी की जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, पृष्ठ 113) । लगता हैकि ऋषि दयानन्द को संगीत का ज्ञान भी दण्डी जी से मिला था।


30, वैद्यजीवन सतरहवीं शती का आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें रोगों तथा औषधियों का वर्णन ललित, मनोहर, सरस व काव्यात्मक शैली में किया गया है।


31. इस उदाहरण से लगता है कि अब तक दण्डी जी ने अष्टाध्यायी का कुछ अध्ययन अवश्य कर लिया था।


32. रात के समय यात्रा पर निकल पड़ने से लगता है कि ग्रीष्म ऋतु होगी ।


33, इस प्रसंग में भीमसेन शास्त्री स्वयं स्वीकार करते हैं -- '' और जो थोड़े संवत्‌ हैं


(यथा -- काशी से गया-गमन, कलिकाता-निवास, सोरों के प्रथम निवास का आरम्भ), वे कल्पना पर आश्रित हैं । उनके लिए निश्चयात्मक सामग्री हमारे पास नहीं है'' (विरजानन्द-प्रकाश, प्राग्वचन, पृष्ठ 19) ।

सोरों वास


सोरों उत्तरप्रदेश के एटा जिले की कासगंज तहसील में भव्य मन्दिरों का एक रमणीक स्थल है। यह नगर कभी गंगा के किनारे स्थित था। अब कई सदियों से गंग-धारा वहाँ से लगभग आठ किलोमीटर दूर हट गई है। किम्वदन्ती है कि यहाँ विष्णु ने वराहाबतार धारण किया था। अत: विष्णु के माने गए चौबीस अवतारों में से इस एक अवतार की मूर्ति यहाँ के वराह मन्दिर में स्थापित है। इसीलिए गंगा के सान्निध्य में बसी यह नगरी वराहभूमि, शूकरभूमि, सौकरव अथवा सोरोंभूमि के नाम से प्रसिद्ध है। मथुरा, वृन्दावन, अलवर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि स्थानों से सोरों का गंगा-प्रवाह अधिक निकट है। न केवल इन क्षेत्रों के ही अपितु गुजरात, काठियावाड तक के धार्मिक जन गंगा-स्नान के लिए सोरों आते हैं। दण्डी जी के समय में सोरों का स्नान घाट गढ़ियाघाट था, जहाँ पचास-साठ मन्दिर तथा यात्रियों के लिए लगभग तीस बड़ी धर्मशालाएँ थीं। कोलकाता से वापसी पर स्वामी विरजानन्द दण्डी ने सोरों काफी समय ठहरना क्यों उचित समझा ? देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय इसका कारण सोरों का '“कोलाहलशुन्य पवित्र और प्रीतिप्रद स्थान '' होना विचारते हैं पर यदि यही मुख्य कारण होता तो वे न कनखल जैसा अत्यन्त निर्जन व एकान्त स्थान छोड़ते और न ही बाद में मथुरा में निवास करते | दण्डीजी ने अपनी पदयात्रा अथवा जीवनकाल में जो पड़ाव चुने -- वे निष्प्रयोजन नहीं थे। अलवर के अतिरिक्त उनका अधिक समय ऋषिकेश, हरिद्वार कनखल, काशी, गया, कोलकाता, सोरों तथा मथुरा में ही बीता। अलवर वे केवल संस्कृत पढ़ाने के लिए ही गए थे। शेष सभी वे पौराणिक तीर्थ हैं जहाँ उन दिनों कर्मकाण्ड के अतिरिक्त शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में व्यस्त जन्मना ब्राह्मण रहते थे। विद्यार्पित विरजानन्द सरस्वती के लिए पठन-पाठन, शास्त्रचर्चा तथा कालान्तर में व्याकरण विषयक शास्त्रार्थो के लिए ऐसे ही स्थल उपयुक्त थे जहाँ संस्कृतज्ञ ब्राह्मण रहते हों और ऐसे ब्राह्मणों का निवास बहुधा गंगा के किनारे इन स्थानों पर ही था। यहीं धार्मिक मेले लगते थे । काशी भारतवर्ष का एक अति प्राचीन विद्या-केन्द्र तथा सांस्कृतिक नगरी थी। मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण, लिंगपुराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण तथा नारदीयपुराण में क्रमश: 411, 226, 190, 170, 112, 15000 और 391 श्लोकों में काशी की स्तुति गाई गयी है।

कृष्ण-जन्मभूमि मथुरा छोटी काशी मानी जाती थी । तब यहाँ की हिन्दू जनसंख्या का लगभग बीस प्रतिशत ब्राह्मण थे । साल में नौ महीने यहाँ एक के बाद एक मेले लगते थे। इसके मन्दिर तथा घाट प्रतिदिन नए तोर्थयात्रियो के समूहों से भरे रहते थे कोलकाता में शास्त्रों के अनेक विद्वान्‌ थे। समय-समय पर यहाँ नई विचारधाराएँ 'पनपती रही हैं। यहीं कालान्तर में ब्रह्मसमाज स्थापित हुआ था। गया का महत्त्व भी किसी अन्य स्थान से कम नहीं था। सोरों क्षेत्र में बहुसंख्या में ब्राह्मण रहते थे। उन्नीसवीं सदी के अन्त में जिला बुलन्दशहर की हिन्दू जनसंख्या का आठवां भाग ब्राह्मण था? एटा जिले के कुल ब्राह्मणों का एक-तिहाई कासगंज और सोरों में रहता था। सोरों परगना का प्रत्येक दूसरा हिन्दू ब्राह्मण था। सोरों में ब्राह्मणों के अढ़ाई हजार घर थे ।* इस प्रकार गंगा के किनारे पर ही अधिकतया सम्भ्रान्त हिन्दुओं का निवास था। किसी भी सुधारक एवं विद्वान्‌ के लिए अपने चिन्तन की स्वीकार्यता हेतु उन्हें स्वमतावलम्बी बनाना आवश्यक था। दण्डीजी ने भी इसी ब्राह्मण वर्ग को सम्बोधित किया था। तब सोरों के हजारों ब्राह्मण संस्कृत से अनभिज्ञ और यज्ञोपवीत रहित थे। सन्ध्या तो पाँच भी नहीं जानते थे ।' मूर्तिपूजा पर ही जोर था। इसलिए अध्ययन-अध्यापन के लिए भी यहाँ पर्याप्त सम्भावनाएँ थीं । अत: काशी और कोलकाता में रहने के पश्चात्‌ सोरोंवास का निर्णय तर्क संगत था।


दण्डी विरजानन्द का अब तक का यह सोरों में कौन-सा पडाव था ? पहला, दूसरा अथवा तीसरा ? भीमसेन शास्त्री के अनुसार दण्डीजी पहली बार हरिद्वार से काशी जाते समय, दूसरी बार कोलकाता से वापस हरिद्वार आते हुए और अब तीसरी बार हरिद्वार से यहाँ पधारे थे? उनकी इस नितान्त भ्रान्त धारणा का कारण उनका हरिद्वार से गंगासागर और वहाँ से फिर हरिद्वार तक की गंगा- परिक्रमा की कल्पना हे ।


पण्डित चैनसुख शर्मा ने कासगंज से देवेद्धनाथ मुखोपाध्याय को लिखा था ““विरजानन्द स्वामी हरिद्वार से गंगा-तट भ्रमण करते-करते गड़ियाघाट में आकर कुछ दिन रहे | वहाँ से सोरों आकर अंगदराम और पण्डित बुद्धसेन को कोमुदी आदि व्याकरण पढ़ाये। सोरों से कासगंज आकर कुछ दिन रहे। इसके पश्चात्‌ कासगंज से सात कोस दूर पर महावट ग्राम में कुछ दिन ठहरे। अन्त में मथुरा की ओर चले गए। सुना है कि यह घटना सिपाही-विद्रोह (1857 ई.) से पहले की है।'** देवेन्द्र बाबू इस लोकश्रुत विवरण को स्वीकार नहीं करते। वे स्पष्ट लिखते हैं -- “ इसके साथ हमारा दो बातों में मतभेद है। प्रथम तो हम इसे ठीक नहीं समझते कि विरजानन्द हरिद्वार से सोरों आए थे क्योंकि हरिद्वार, कनखल छोड़कर और काशी आदि घूमकर वह सोरों आए थे; दूसरे यह ठीक है कि वह सोरों के पीछे मथुरा गये थे परन्तु पहले बार के नहीं बल्कि दूसरी बार के सोरोंवास के पीछे गये थे।''“ देवेन्द्र बाबू की तरह पण्डित लेखराम तथा पण्डित मुकुन्ददेव भी दण्डीजी का कोलकाता से वापस आते समय सोरों ठहरने को उनका तब तक इस नगर में प्रथम वास मानते हैं। यही मत हरविलास शारदा, बावा छज्जूसिंह, स्वामी सत्यानन्द, लक्ष्मण आर्योपदेशक तथा स्वामी वेदानन्द आदि का है। यद्यपि भवानीलाल भारतीय दण्डीजी का गंगाप्रदक्षिणा करते हुए हरिद्वार से गंगासागर तक भ्रमण, फिर वापसी पर काशी में निवास, गया के निकट डाकुओं से पीड़ित होना और सोरों आना लिखते हैं,” तो भी यह दण्डीजी का प्रथम वास ही ठहरता है। भीमसेन शास्त्री के अतिरिक्त किसी ने भी कोलकाता से हरिद्वार वापस पहुँचने तथा वहाँ स्वामी पूर्णानन्द से मिलने को कहीं कोई चर्चा नहीं की। अतः उपलब्ध जानकारी से यही पुष्ट होता है कि दण्डीजी का सोरों में यह प्रथम वास था और वह भी वापसी पर। दण्डीजी का सोरों पधारने का काल निश्‍चित नहीं है। उस समय भी गंगा का प्रवाह सोरों से कुछ दूरी पर था। अतः उन्होंने गंगा किनारे गढ़ियाघाट पर डेरा डाला, फिर सम्भवतः सोरों में विश्रान्त पर चले गए £ यहाँ भी उन्होंने पठन-पाठन आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनके अध्ययन-अध्यापन को काशी को तरह यहाँ भी चर्चा होने लग गई। वे सारस्वत व कौमुदी आदि व्याकरण- ग्रन्थों पर निरन्तर चिन्तन-मनन करते रहते थे। अब तक उनका सारस्वत, कौमुदी आदि से कोई मतभेद नहीं था। अतः सोरों वास में अपने शिष्य बदरिया के अंगदराम,'° सोरों के बुद्धसेन आदि को पूर्ण श्रद्धापूर्वक कौमुदी, चन्द्रिका ' आदि व्याकरण पढ़ाते रहे। अंगदराम पढ़ने के साथ-साथ स्वामी विरजानन्द की सेवा भी करते थे और ध्यान रखते थे कि उन्हें कोई असुविधा न हो। सम्वत्‌ 1889 वि. का वैशाख महीना चल रहा था। दण्डीजी एक दिन गढ़िया घाट पर स्नान के पश्चात्‌ गंगा तट के निकट कम गहरे जल में खड़े शंकराचार्य विरचित विष्णुस्तोत्र'? का पाठ कर रहे थे। तब संयोगवश अलवर नरेश महाराव राजा सवाई विनयसिंह'* वहाँ उपस्थित थे। निर्मल जल में खड़े ब्रह्मचर्य के तेज से देदीप्यमान मुखमण्डलयुक्त साधु के सुरीले मधुर कण्ठ से उत्कृष्ट विशुद्ध संस्कृतोच्चारण श्रवणकर अलवर नरेश ऐसे आकर्षित हुए कि वहीं खड़े रह गए। जब तक दण्डीजी स्तोत्रमाला को आवृत्ति करते रहे, तब तक राजा विनयसिंह मन्त्रमु खडे रसास्वादन करते रहे । राजा ने गढ़ियाघाट पर दण्डी जी की विह्ठत्ता, तेजस्विता एवं त्याग के विषय में जैसा सुना था, उससे भी अधिक पाया | अत: जब पाठ समाप्त कर साधु अपने आश्रम की ओर चलने लगा तो अलवर नरेश ने निकट आकर अभिवादनोपरान्त निवेदन किया --


महाराज! कृपया मेरे साथ अलवर चलिए।


कोन हो तुम ? -- साधु ने पूछा।


अलवर नरेश विनयसिंह हूँ , महात्मन्‌ -- उत्तर मिला |


आप राजा हैं और मैं संन्यासी । आप राजकाज में व्यस्त, मैं पठन-पाठन में । मेरा आप से क्या सम्बन्ध ? क्यों जाऊँ आप के साथ ? ऐसा कह साधु ने अपने डेरे की राह ली।


यह उत्तर सुनकर विनयसिंह बहुत दुखी हुए परन्तु स्वामीजी को अलवर ले जाने की उनकी इच्छा इतनी बलवती हो चुकी थी कि वे स्वयं दण्डीजी के विश्राम-स्थल तक गए और बार-बार संस्कृत में अपना निवेदन दोहराया।' राजा विनयसिंह के विनयपूर्वक अनुरोध का दण्डीजी पर यथेष्ट प्रभाव हुआ। बोले -_ अच्छा, यदि आप प्रतिदिन हमसे संस्कृत पढ़ने के लिए उद्यत हों, तो में अलवर चल पडेगा । राजा ने तुरन्त हाँ कर दी। दण्डी जी ने कहा कि यह अध्ययन नियमपूर्वक होना चाहिये। इस पर राजा ने 'ठीक है, महाराज' कहा तथा प्रतिदिन तीन घण्टे अध्ययन करने का वचन दिया | दण्डीजी ने कहा -- जिस दिन आप पढ़ने के लिए समय नहीं निकालोगे, मैं उसी दिन अलवर छोड़कर चल पडुँगा । अलवर नरेश ने यह भी स्वीकार कर लिया। इन शर्तों पर दण्डीजी राजा विनयसिंह के साथ राजकीय सवारी में बैठकर अलवर चले गए।


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ


1. देवेद्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 24; भीमसेन शास्त्री के अनुसार “ उन्हें तो आत्मानुसन्धान के लिए एकान्तं स्थान और उत्तम जलवायु की आवश्यकता थी और अपेक्षित थे विद्या- ज्ञान-प्रसारार्थ जिज्ञासु छात्र '' (द्रष्टव्य : विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 19) |


2. H.R. Nevill, Bulandshar : a Gazetteer, being Vol.V of The District Gazetteers of the United Provinces of Agra and 0001, Allahabad, 1903, p.74


3. E. R. Neave, Etah : a Gazetteer. being Vol. XII of The District Gazetteers of the United Provinces of Agra and Oudh, Allahabad. 1911. 00-78, 223


4. लेखराम आर्य मुसाफ़िर, महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र ( हिन्दी), पृष्ठ 117

5. भीमसेन शास्त्री, विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 22


6. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, (क) पृष्ठ 24 पाद टिप्पणी, (ख) पृष्ठ 25 'पाद टिप्पणी


7. भवानीलाल भारतीय, नवजागरण के पुरोधा दयानन्द सरस्वती, पृष्ठ 48


8. पण्डित लेखराम ने दण्डीजी का बगीचे में ठहरना लिखा है । तब लहर तथा गढ़िया आस पास दो गाँव थे। गढ़िया गंगा में समा चुका है। अब लहरा शेष है। गंगा लहरा से लगभग तीन किलोमीटर दूर है पर वर्षा ऋतु में लहरा में आ जाती है ।


9. बूढ़ी गंगा के पश्चिम में बदरिया और पूर्व में सोरों है। बहुत पहले बूढ़ी गंगा ही गंगा थी । आजकल बदरिया तथा लहरा दोनों सोरों नगरपालिका के भाग हैं। सोरों निवासी गोस्वामी तुलसीदास की बदरिया में ससुराल थी।


10. अंगदराम (1813-1888 ई.) दण्डीजी के शिष्य एवं भक्त तथा व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित थे । उनको आपने क्षेत्र में बहुत प्रसिद्धि थी। वे 1868 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती से शास्त्रार्थ में हारकर उनके अनुयायी बन गए थे।


11. चन्द्रिका से रामचन्द्राश्रम कृत सिद्धान्त चन्द्रिका अभिप्रेत हे ।


12. सभी जीवनी लेखकों ने विष्णुस्तोत्र का पाठ करना लिखा है परन्तु पण्डित मुकुन्ददेव गंगास्तोत्र पढ़कर महिम्न का पाठ करना बताते हैं। महिम्न अर्थात्‌ शिव महिम्न स्तोत्र पुष्पदन्ताचार्य रचित शिव स्तुति का ग्रन्थ है।


13. अलवर रियासव की स्थापना 1772 ई. में प्रतापसिंह ने की थी। विनयसिंह (15 अक्तूबर, 1808 - 10 जुलाई, 1857 ई.) छह वर्ष की आयु में राजा बने और महाराव राजा सवाई विनयसिंह कहलाए। अंग्रेजी दस्तावेज में उनका नाम "बनीसिंह ' लिखा मिलता है। उनके सिक्कों पर एक ओर मुहम्मद बहादुर लिखा था। विनयसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ उनके पुत्र महाराव राजा शिवदानसिंह ने 1857 से 1874 ई. तक राज किया।


14. अलवर राज्य के प्रधानमन्त्री पण्डित रूपनारायण के सम्पर्क में रहकर राजा विनयसिंह कुछ-कुछ संस्कृत समझना और बोलना सीख गए थे। 

अलवर प्रवास


विरक्त सन्त दण्डीजी अलवर जाना क्यों मान गए? राजा विनयसिंह उन्हे अपने साथ क्यों ले गए? दोनों प्रश्‍न विचारणीय हें । आरम्भ में दण्डीजी का अध्ययन प्रमुख लक्ष्य था और अध्यापन गौण। लगता है अब अध्यापन को वरीयता मिल गई थी। अब वे व्याकरण के अध्यापन में इतने समर्पित हो गए थे कि उन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए सोरों वास त्यागना भी स्वीकार हुआ। इतने ध्येयनिष्ठ गुरु कब-कब इस धरती को सुशोभित करते हैं ? अलवर नरेश की संस्कृत-पठन में रुचि तो थी। उन्होंने अन्तःपुर की रानियों को भी संस्कृत पढ़वाई थी। भले ही स्वार्थी पण्डितों के जाल से बचने के लिए वे संस्कृत सीखना चाहते थे परन्तु स्वयं संस्कृत पढ़ने के उद्देश्य से दण्डीजी से अलवर चलने की प्रार्थना उन्होंने नहीं की थी। यह शर्त तो दण्डीजी ने लगाई थी। वस्तुतः राजा विनयसिंह विद्याप्रेमी तथा विद्वत्सेवी शासक थे। अलवर का अनुपम पुस्तकालय' उनके पुरुषार्थ एवं रुचि का साक्षी है। इसमें संस्कृत ही नहीं, अरबी-फ़ारसी के भी अमूल्य ग्रन्थ संग्रहीत थे। कुरान शरीफ़ की एक प्रति पर पचास हजार और गुलिस्तां पर दो लाख रुपये व्यय कोई विनयसिंह सदृश बिरला राजा ही कर सकता था। उन्होंने दिल्ली के आगा मिरजा नामक मुसलमान को एक-एक अक्षर का एक-एक रुपया देकर गुलिस्तां लिखवाई थी ? विभिन्न भाषाओं के विद्वान्‌ , संगीताचार्य, चित्रकार आदि उनके दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे । खैराबाद (वर्तमान में पाकिस्तान का एक नगर) निवासी ' फ़ज़लहक़ को उस जमाने में तीन सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था | प्रधानमन्त्री पण्डित रूपनारायण, लक्ष्मण शास्त्री, शालिग्राम और शिवप्रसाद सरीखे विद्वान्‌ उनकी सभा में विराजते थे। वे अलवर को विदुष्मती काशी की भाँति विदुष्मान्‌ बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। इसीलिए उन्होंने तप, त्याग, पवित्रता की मूर्ति एवं विमल-बुद्धि-सम्पन्न असाधारण विद्वान्‌ प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द सरस्वती को अलवर पधारने के लिए रजामन्द कर सफल मनोरथ होना चाहा। दण्डीजी अंगदराम के साथ अलवर पधारे। पण्डित लेखराम ने अलवर आगमन की कोई तिथि नहीं लिखी। देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय की ' धारणा यह हे कि विरजानन्द सम्वत्‌ १९०१ से कुछ पहिले ही अलवर में आये थे।'"*

इस प्रकार अलवर आगमन का काल 1844 ई. ठहरता है परन्तु हरविलास शारदा ने 1844 या 1845 ई. में तो अलवर छोड़ना लिखा है | भीमसेन शास्त्री ने अलवर गमन को तिथि वैशाख कृष्ण पक्ष सम्वत्‌ 1889 (अर्थात्‌ 1832 ई. के अप्रैल का उत्तरार्ध) मानी है परन्तु प्राग्वचन में अलवर गमन सम्वत्‌ 1879 . वैशाख बदी (1822 ई. के अप्रैल का उत्तरार्द्ध) लिख दिया।* दोनों में दस वर्ष का अन्तर है। कौन-सी तिथि सही मानी जाए? अलवर राजघराने के सोरों में पण्डा पार्वतीवल्लभ से लेखक को ज्ञात हुआ है कि राजा विनयसिंह वैशाख सम्वत्‌ 1889 वि. को गंगा स्नान के लिए सोरों पधारे थे उस वर्ष दो चेत्र थे और वैशाख शुदि सप्तमी (तदनुसार 6 जून, 1832) को सोरों में गंगा जयंती का मेला था। अत: राजा विनयसिंह के साथ दण्डीजी का अलवर गमन जून 1832 में ही निश्चित होता है। दण्डीजी अलवर से भरतपुर गए थे | तब बलवन्तसिंह वहाँ के शासक थे। उनका शासनकाल 1835 से 1853 ई. तक था। उनका देहावसान 1853 ई. में हो गया था। दण्डीजी भरतपुर बलवन्तसिंह के सत्तासीन होने से पूर्व नहीं आए थे। इस प्रकार अलवर छोड़ने का काल तीन-चार वर्ष पश्चात्‌ 1835-36 ई. ही संगत लगता है । दण्डीजी कटरा में जगन्नाथ मन्दिर के निकट एक सुन्दर भवन में विराजमान हुए।* उनके लिए पुस्तकों आदि की व्यवस्था कर दी गई। ब्राह्मण मित्रसेन उनका पाचक नियुक्त हुआ। भोजन सामग्री राजभण्डार से आती थी । स्वेच्छानुसार व्यय हेतु प्रतिदिन एक रुपया राज्य की ओर से मिलने लगा। समुचित व्यवस्था के उपरान्त स्वामीजी अलवर नरेश को पढ़ाने राजकीय सवारी में नियत समय पर महल जाते थे। वे राजा को वरदराज कृत लघु-सिद्धान्तकौमुदी' पढ़ाने लगे। एक दिन राजा ने प्रार्थना की कि कोई ऐसा उपाय किया जाए कि अल्प समय में व्याकरण का अधिक ज्ञान हो जाए। तब दण्डीजी ने उनकी प्रार्थना पर 'शब्दबोध' की रचना की | अलवर नरेश दण्डीजी के स्वभाव एवं वैराग्य से सुपरिचित थे। अत: सेवा-शुश्रूषा में तत्पर रहते थे। उनका दण्डीजी को प्रसन्न रखने का पूरा प्रयत्न रहता था। राजा विनयसिंह की उनके प्रति इस श्रद्धा से अलवर के अन्य पण्डित दण्डीजी से द्वेष करने लगे। उन्हें यह सहन नहीं था कि अलवर नरेश बाहर से लाए गए संन्यासी से विद्याग्रहण करें परन्तु भद्रजन उनका बहुत सम्मान करते थे। यद्यपि विरजानन्द अभी मथुरा निवास जैसे वाक्पटु तथा शास्त्रज्ञ तो नहीं हो पाए थे पर जब भी शास्त्र-चर्चा होती वे इन ईर्ष्यालु पण्डितों को प्राय: निरुत्तर कर देते थे । इन पण्डितों के परास्त होने की तो कोई चर्चा न होती पर यदि दण्डीजी कभी किसी विषय में अटक जाते तो वे पण्डित बहुत कोलाहल करते। ' अन्धा भूल गया' -- ऐसा कहकर अपनी हीन-मनोवृत्ति का परिचय देते। इस तरह वे राजा विनयसिंह के मन में दण्डी जी के प्रति सम्मान कम करने का प्रयत्न करते रहते थे। उनकी इस लीला का दण्डी जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं था।


राजा विनयसिंह तथा बदरिया के अंगदराम के अतिरिक्त अलवर निवासी परमसुख? भी दण्डीजी से नित्य पढ़ते थे तथा उनकी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे। अभी दण्डीजी ने अनार्षग्रन्थों का खण्डन तो शुरू नहीं किया था पर अष्टाध्यायी के प्रति उनकी रुचि उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। उनकी विचार सरणी में अष्टाध्यायी की श्रेष्ठता तथा अनार्षग्रन्थों की अपकारिता झलकने लग गई थी।


अलवर प्रवास के तीन-चार वर्षों में दण्डीजी ने विनयसिंह को नियमपूर्वक शब्दबोध, लघुकौमुदी, विदुर-प्रजागर', तर्क-संग्रह'', रघुवंश'* आदि पढ़ाए जिससे वे सहज संस्कृत बोलने के योग्य हो गए। राजा को एक वीतराग संन्यासी को दिए वचन का अहसास था। कहीं वचन भंग न हो जाए , इसको उन्हें बहुत चिन्ता रहती थी। वे पूर्ण विनम्र भाव से सामान्य विद्यार्थी को तरह पढ्ने आते और पाठ समाप्त होने पर चले जाते। उनके श्रद्धामय विनम्र व्यवहार से कदाचित्‌ ऐसा आभास न होता कि ये वही तेजस्वी नरेश हैं जिनके क्रोध से यदा-कदा समस्त अलवर काँप उठता है और जो आवश्यकता पड़ने पर बिना झिझक एकाधिक व्यक्तियों के शिरच्छेद का आदेश दे देते हैं।


राजा विनयसिंह.पुत्रहीनता के असह्य दुःख से ग्रस्त थे। उधर 1826 ई. में अंग्रेजी सरकार ने अलवर के उत्तरी भाग का एक अलग राज्य बना दिया था, जिसकी राजधानी तिजारा थी और शासक बलवन्तसिंह । राजा की कठिनाइयों का लाभ कई स्वार्थी पण्डित उठाते रहते थे जो अनिष्ट की आशंका का भय जताकर उपचार के बहाने धन बटोरते थे। दण्डीजी को कुपात्र स्वार्थी लोभी पण्डितों का राजसम्मान पसन्द नहीं था। वे केवल सुपात्र की पूजा के समर्थक थे। वे अपने शिष्य विनयसिंह को अनेक कठिन परिस्थितियों में हितकर राय देते थे इसीलिए अलवर से चले जाने पर भी राजा विनयसिंह की श्री चरणों में श्रद्धा पूर्ववत्‌ बनी रही थी । विनयसिंह को पढ़ाने का क्रम वर्षों सुचारु रूप से चलता रहा। एक दिन दण्डीजी निश्चित समय पर पढ़ाने गए तो राजा अनुपस्थित थे। न कोई पूर्व अनुमति, न कोई पूर्व सूचना। कहते हैं कि युवा राजा नाच तमाशा देखते रह गए। यह भी कहा जाता है कि वे किसी आवश्यक राजकार्य में व्यस्त थे। कुछ भी कारण रहा हो, वचन भंग हो गया। दण्डीजी ने कुछ समय शिष्य की प्रतीक्षा की, फिर महल से चल पड़े और अलवर त्यागने का निश्चय कर लिया। अनिष्ट को आशंका से चिन्तित अलवर नरेश ने दण्डीजी के पास जाकर नम्रतापूर्वक क्षमा याचना की। दण्डीजी ने स्नेहपूर्वक कहा, राजन्‌! स्मरण है कि मेरे यहाँ आने से पूर्व गंगा तट पर आपने क्या कहा था? अलवर नरेश, महाराज! अच्छी तरह स्मरण है। मैंने तच्चेन्नियतम्‌ के उत्तर में वरम्‌ कहा था।* दण्डी जी, तो क्या आपने प्रतिज्ञा भंग नहीं की ? अलवर नरेश, दोषी हूँ, महात्मन्‌। दण्डी जी, राजन्‌! आप तो अपनी प्रतिज्ञा भंग कर सकते हैं पर मैं नहीं कर सकता । वचन भंग होने पर न मुझे रुकना चाहिए , न आपको रुकने के लिए कहना चाहिए। आपको स्वयं भी धर्म पर चलना चाहिए और हम जैसों को भी सन्मार्ग पर चलाना चाहिए। आपके स्नेह के कारण आज नहीं जाऊँगा। कल प्रात: चला जाऊँगा । आप कल पधारने का कष्ट न करना, अभी आशीर्वाद दिए देता हूँ.। फिर दण्डीजी ने सेवक से अन्दर रखे फल मंगवाकर फलेन फलितं सर्वम्‌ आदि कहकर राजा के समक्ष फल रख दिए। राजा ने भी तत्काल 2500 रुपये को स्वर्णमुद्रा मंगवाकर श्री चरणों में भेंट की ॥ ४ अगले दिन प्रात: अन्य किसी को बिना बताए कुछ पुस्तकें और मार्ग व्यय के लिए 2500 रुपये लेकर दण्डी जी अंगदराम के साथ भरतपुर के लिए चल पडे । शब्दबोध सहित कई अमूल्य पुस्तकें और कुछ धन वहीं छोड़ गए। आम धारणा है कि दण्डी जी अलवर से राजा को बिना बताए चले गए थे । ऐसा ही पण्डित लेखराम, लक्ष्मण आर्योपदेशक आदि ने लिखा है परन्तु यह सही नहीं हैं | वस्तुतः दण्डी जी राजा विनयसिंह को आशीर्वाद देकर गए थे, न कि सम्बन्ध-विच्छेद कर। इसीलिए राजा विनयसिंह की दण्डी जी के प्रति श्रद्धा बाद में भी यथावत्‌ बनी रही थी । राजा ने पुत्र रत्न प्राप्ति की खुशी में दण्डी जी की सेवा में एक हजार रुपये भी भेजे थे।* कालान्तर में राजा विनयसिंह ने दण्डी जी को पुन: अलवर पधारने की लिखित प्रार्थना के साथ परमसुख को मथुरा भेजा था। तब तक अलवर छोड़े दण्डी जी को जितने महीने हुए थे, पन्द्रह रुपये प्रति मास के हिसाब से राशि तथा एक हजार रुपये अतिरिक्त भेजे गए थे। दण्डी जी ने भेंट तो स्वीकार कर ली थी पर मथुरा छोड़कर पुन: अलवर जाने को रजामन्द न हुए थे।* * कया वचन भंग के अतिरिक्त भी अलवर छोड़ने का कोई कारण था?


कया मतिराम को उसकी योग्यता से अधिक सम्मान दिया जाना तो कारण नहीं बना? कहते हैं कि एक पण्डित मतिराम अलवर आए और उसने राजा के समक्ष घोषणा की कि वह मन्त्र-जप द्वारा पुत्रहीन व्यक्ति को पुत्रलाभ करवा सकता है। दुखी राजा ने स्वीकृति दे दी। मन्त्र-जप हुआ। दैवयोग से 14 सितम्बर, 1845 ई. रविवार को पुत्ररत्न ने जन्म लिया। श्रेय गया मतिराम को। राजा ने प्रसन्न होकर उसे हाथी, घोड़ा, पालकी तथा बहुत धन दिया । देवेद्धनाथ मुखोपाध्याय उस समय दण्डी जी का प्रवास अलवर में मानते हैं। उनका विचार है कि कुपात्र की ऐसी प्रतिष्ठा से दुखी होकर दण्डी जी ने अलवर त्याग का मन बना लिया होगा परन्तु यह निष्कर्ष तथ्याश्रित नहीं है। दण्डी जी तो इस घटना से पहले ही अलवर से जा चुके थे क्योंकि “सवा छियासठ वर्ष के करीब अवस्था' (अर्थात्‌ 1846 ई. के आरम्भ) में उनको सोरों में अस्वस्थता और फिर मथुरा गमन का वर्णन पण्डित मुकुन्ददेव ने लिखा है।” अतः दण्डी जी विनयसिंह के पुत्र शिवदानसिंह के जन्म से पूर्व सोरों चले गए थे। पुत्रोत्पत्ति के समय दण्डी जी भले मथुरा हों या अलवर, एक बात स्पष्ट है कि वे किसी अनुष्ठान से पुत्र प्राप्ति सम्भव नहीं मानते थे अन्यथा मतिराम की इस लीला से अप्रसन्न न होते। दण्डी जी की सोच और मान्यताओं के विषय में यह एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है।


एक प्रश्‍न और। अलवर के संग्रहालय में किसी चित्रकार का बनाया एक जटाजूट उपवीतधारी व्यक्ति का चित्र है। इस चित्र पर व्यक्ति-विशेष का नाम लिखा हुआ नहीं है। जयपुर म्यूजियम के अवरकालीन क्यूरेटर ठाकुर जगदीशसिंह गहलोत ने अलवर से यह चित्र प्रात किया था। फिर यह आर्यगज़ट (उदू साप्ताहिक, लाहौर) के 1926 ई. के ऋष्क में छपा था। क्या यह चित्र स्वामी विरजानन्द दण्डी का है? बिल्कुल नहीं ॥ इस चित्र में यज्ञोपवीत तथा केश दिखाए गए हैं। अलवर वास के दिनों न यज्ञोपवीत था, न केश | दण्डीजी केश रखते थे, ऐसा किसी लेखक ने नहीं लिखा।


पण्डित लेखराम तथा देवेन्द्रनाथ दोनों ही अलवर प्रवास तीन-चार वर्ष का मानते हैं। भीमसेन शास्त्री ने साढ़े तीन साल लिखा है। हरविलास शारदा ने केवल छह महीने लिखा है, जो निश्चय ही गलत है।


स्वामी विरजानन्द दण्डी अंगदराम के साथ अलवर से चलकर डीग (पुराना नाम दीर्घ) व कुम्हेर होते हुए भरतपुर पहुँचे। डीग और कुम्हेर भरतपुर रियासत की तहसीलें थीं और भरतपुर से क्रमश: बत्तीस किलोमीटर उत्तर तथा अठारह किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में हैं भरतपुर अलवर से लगभग एक सौ पच्चीस किलोमीटर पूर्व में स्थित है। तब यहाँ का शासन बलवन्तसिंह के अधीन था। उन्होंने 1835 ई. में शासन सम्भाला था।? अत: दण्डीजी 1835 ई. या इसके थोड़ा बाद ही भरतपुर पहुँच गए थे। दण्डीजी के विद्याबल, विमल चरित्र एवं वैराग्य से अत्यधिक प्रभावित राजा बलवन्तसिंह ने उनकी बहुत सेवा को और स्थाई रूप से भरतपुर ठहरने का उनसे अनुरोध किया। परन्तु दण्डीजी वहाँ केवल छह महीने ठहरे। राजा ने विदाई के समय चार सौ रुपये तथा एक दोशाला भेंट किया।


दण्डी जी भरतपुर से मथुरा होते हुए मुरसान पहुँचे और वहाँ के राजा टीकमसिंह का आतिथ्य स्वीकार किया!" कुछ समय वहाँ विराजमान रहे। शिष्य अंगदराम पूर्ववत्‌ साथ था। मुरसान से बेसवां चले गए। कुछ दिन वहाँ के राजा गिरधरसिंह के अतिथि रहकर पुन: मुरसान होते हुए सोरों विश्रान्त में आ विराजे


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ


1. राजा विनयसिंह द्वार आरम्भ किए गए इस पुस्तकालय में 1944 ई. में आठ हजार पुस्तकें तथा पाण्डुलिपियाँ थी । पुस्तकशाला, चित्रशाला तथा शिलाखाना को मिलाकर 1940 ई. में अलवर का राजकीय संग्रहालय स्थापित किया गया था। पुराने महल में स्थित यह संग्रहालय अब पुरातत्व एवं संग्रहालय निदेशालय, जयपुर के अधीन है।


2. गुलिस्तां शेखशादी को सरल फारसी में लिखी उपदेशात्मक कहानियाँ हैं । इसकी प्रति लिखने वाले का नाम देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने आगाजी लिखा है ( विरजानन्द-चरित, पुष्ठ 34 पाद टिप्पणी), जो सही नहीं है।

3. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, (क) पृष्ठ 52, (ख) पृष्ठ 49-51


4. भीमसेन शास्त्री, विरजानन्द-प्रकाश, क्रमशः पृष्ठ 25, प्राग्वचन पृष्ठ 19; शास्त्रीजी ने इन तिथियों के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दिया।


5. ऐसा सोरों निवासी आचार्य रामकिशोर आर्योपदेशक ने पार्वती वल्लभ पण्डा से पूछकर लेखक को बताया था।


6. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय लिखते हैं -- '* कोई यह कहते हैं कि विरजानन्द के अलवर में रहने के लिए मुन्शीबाग नियत हुआ था परन्तु यह बात ठीक नहीं है '' (द्रष्टव्य : विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 37 पाद टिप्पणी) ।


7. भट्टोजि दीक्षित को सिद्धान्तकौमुदी का उनके शिष्य वरदराज द्वारा मध्यकौमुदी तथा लघु-सिद्धान्तकौमुदी नाम से क्रमशः संक्षेप तथा अति संक्षेप किया गया है । लघु-सिद्धान्तकौमुदी में सिद्धान्तकौमुदी के प्रकरणों के क्रम में परिवर्तन कर उसे बाल-सुबोध बनाने का प्रयत्न किया गया है ।


8. शब्दबोध के मंगलाचरण में लिखा है --


'कमठवीरवरस्य महीपतेरलवराद्युपलक्षितनीवृताम्‌। विनयसिंहमहायशसः कृते क्रियत एष सुशब्दजबोधकृत्‌॥ इस ग्रन्थ के अन्त में लेख है -राज्ञां ख्यातिमतां हि कच्छपतया श्रीर्यत्र संराजते, श्रीमानालवरो द्विषां स विजयी शार्दूलविक्रीडितम्‌। तस्य श्रीविनयेशभूपतिलकस्याऽऽञ्ञावशादुद्धृतः, सारो व्याकरणस्य तेन भगवाउश्रीशंकर: श्रीयताम्‌॥


9. परमसुख को दण्डी जी के जीवनी लेखकों ने प्रेमसुख लिखा है परन्तु वास्तविक नाम परमसुख ही है । दण्डी जी ने भी जयपुर नरेश को लिखे पत्र में इनका नाम परमसुख ही लिखा है । वह जयपुर की धर्मसभा (मौज मन्दिर) के सदस्य भी रहे थे।


10. महाभारत के उद्योग- पर्वं का उपपर्व विदुरप्रजागर व्यवहार कुशल महात्मा विदुर का उपदेश है । धृतराष्ट्र को दिया गया यह व्यावहारिक उपदेश संस्कृत साहित्य में विदुरनीति के नाम से विख्यात है।


11. तर्क॑- संग्रह के रचयिता तेलंगाणा के गारिकापाद निवासी अननंभट्ट को शिक्षा काशी में हुई थी। उन्होंने अपने तर्क-संग्रह पर दीपिका नामक टीका भी लिखी है । उनका स्थितिकाल सतरहवीं सदी का उत्तराद्ध है।


12. कालिदास के इस महाकाव्य के उन्नीस सर्गो में सूर्यवंशी इक्कीस राजाओं का चरित्र वर्णित है । काल-प्रवाह के साथ इस पर चालीस टीकाएँ लिखी गई हैं, जिन में मल्लिनाथ को टीका सर्वप्रसिद्ध है।


13. अलवर अधिपति बख्तावरसिंह की 1815 ई. में मृत्यु के समय उनका भतीजा विनयसिंह तथा अवैध पुत्र बलवन्तसिंह दोनों ही अल्पवयस्क थे । वे विनयसिंह को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे परन्तु इस घोषणा को क्रियान्वित करने से पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गई।

विनयसिंह ने 1824 ई. में सत्ता तो सम्भाल ली परन्तु उनके और बलवन्तसिंह के मध्य विवाद जीवित रहा ( Imperial Gazetteer of India, Vol. ५, pp. 257-58) |


14. दण्डी जी ने कहा था : “यह अध्ययन नियमपूर्वक हो ।' तब राजा विनयसिंह ने वचन दिया था : "ठीक है '।


15. पण्डित मुकुन्ददेव, दण्डी जी की जीवनी, (क) पृष्ठ 27, (ख) यह उत्तर पाकर राजा विनयसिंह पहले तो बहुत निराश हुए; फिर अलवर को संस्कृत शिक्षा का केन्द्र बनाने के लिए प्रधानमन्त्री रूपनारायण के सुझाव पर एक लाख रुपये अलग निकाल दिए ताकि गायत्री की सफल परीक्षा देने वाले प्रत्येक ब्राह्मण को गोदान के पैन्तालीस रुपये दिए जाएं। फिर क्या था! दूर-दूर से ब्राह्मण परीक्षा देने आने लगे (पृष्ठ 59-63) ।


16. भीमसेन शास्त्री यह मानते हैं कि “यह भेंट मथुरा में भेजी गई थी'' (विरजानन्दप्रकाश, पृष्ठ 32, 40 पाद टिप्पणी) । यह भी हो सकता है कि दण्डी जी तब सोरों में हों।


17. भीमसेन शास्त्री के अनुसार पुत्र जन्म दण्डीजी के अलवर छोड़ने के दस वर्ष पश्चात्‌ हुआ (विरजानन्द-प्रकाश,पृष्ठ 32), जो सही है।


18. यही मत पण्डित भगवद्दत्त और पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक का है (द्रष्टव्यः क्रमशः भगवहत्त, ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग 2, पृष्ठ 975; विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 33-34 पाद टिप्पणी) ।


19. Imperial Gazetteer of India, Vol. VII , 9.78; भीमसेन शास्त्री यह मानते हैं कि बलवन्तसिंह सम्वत्‌ 1882 (तदनुसार 1825 ई.) के अन्त में सिंहासनासीन हुए थे (विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 34) परन्तु देवेन्द्रनाथ को मान्यता का इसी पृष्ठ 34 पर पाद टिप्पणी में खण्डन करते हुए उनका 5 फरवरी, 1826 को गद्दी पर बैठना लिखते हैं, जो गलत है। भरतपुर के बलवन्तसिंह तथा तिजारा के बलवन्तसिंह दोनों भिन्न व्यक्ति थे।


20. मुरसान के राजा टीकमसिंह कालान्तर में ऋषि दयानन्द के भी परम भक्त रहे। देशभक्त राजा महेनद्रप्रताप (1886-1979 ई. ) इन्हीं राजा साहब के प्रपौत्र थे। वे आर्यपेशवा राजा महेन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्हें हाथरस के राजा हरनारायणसिंह ने 1885 ई. में गोद ले लिया था। ऋषि दयानन्द द्वारा फरुखाबाद में स्थापित पाठशाला उन्हीं द्वारा वृन्दावन में दी गई भूमि पर स्थानान्तरित होकर गुरुकुल कहलाई थी।


21. पण्डित लेखराम, लक्ष्मण आर्योपदेशक, मेहता राधाकिशन, पण्डित मुकुन्ददेव तथा भीमसेन शास्त्री भी दण्डीजी का अलवर से चलकर भरतपुर और मुरसान ठहरते हुए सोरों पहुँचना मानते हैं । इसे सही न मानने का कोई ठोस आधार नहीं है । स्वामी सत्यानन्द के अनुसार दण्डीजी अलवर से सीधे सोरों आए । वहाँ से मुरसान तथा भरतपुर जा पुनः सोरों लौट आए। देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय के लेखानुसार वे अलवर से सीधे सोरों गए , वहाँ से मथुरा जाते हुए मुरसान और भरतपुर रुके थे।

सोरों पुनर्वास


दण्डीजी ने सोरों पधारकर पूर्ववत्‌ अंगदराम आदि शिष्यों को कौमुदी आदि व्याकरणग्रन्थ पढ़ाना आरम्भ कर दिया। वे अध्यापन के साथ-साथ शास्त्र-चिन्तन एवं ईश-भजन में लीन रहते थे । प्रतिदिन कोई-न-कोई श्रद्धालु दर्शनार्थ आ जाता तथा श्रीसेवा में कुछ भेंट दे जाता था --- इस प्रकार व्यवस्था ठीक चलने लगी।


जीवन की इस लम्बी अवधि के अनुभवों एवं विचार-मन्थन ने उनके गम्भीर चिन्तन को क्रान्तिकारी पुट देना शुरू कर दिया था। तथाकथित शास्त्रज्ञ एवं धर्म के ठेकेदारों के अहम्‌ , प्रपंच, धन बटोरने की लालसा और चालाकियाँ उन्हें खलती थीं । कभी-कभी उनके दम्भ, पाखण्ड और अविद्या से वे बहुत क्षुब्ध हो जाते थे। वे देश-दशा, निर्धनता एवं सर्वत्र फैली अराजकता से सुपरिचित थे। भारत अंग्रेज़ी शासन के शिकंजे में उनके सामने जकड़ा गया था | अंग्रेज के सिखों, जाटों, गोरखों, मराठों तथा हाडा राजपूतों के साथ युद्धों के वे स्वयं साक्षी थे। पंजाब, आगरा अवध प्रदेश, निहार, उधर कोलकाता तक और इधर राजस्थान के कुछ भाग में वे स्वयं विचरण कर चुके थे। इस लम्बे भ्रमण में अनेक स्थानों एवं मेलों में असंख्य लोगों से साधु का सम्पर्क हुआ था। उनका संवदेनशील हृदय न॑ जाने किस-किस दुःख-दर्द, व्यथा एवं पीड़ा से भरा हुआ था, परन्तु इस स्थिति को सुधारने हेतु संघर्ष के मार्ग में नेत्रहीनता तथा आयु बाधक थी । प्रायः उदर-शूल से पीडित रहते थे । कितने ही वर्ष बीत गए । अनेक पण्डितों, राजाओं एवं शिष्यां से सम्पर्क हुआ परन्तु उनकी रिक्त आँखें जिस शिष्य-रत्न को पाकर ज्योतिष्मान्‌ होने के लिए तरस रही थीं -वह अब तक न मिला था। कोई ऐसा न मिला जो उनके भीतर की अग्नि का उत्तराधिकारी बन सके। दुखी होने के अतिरिक्त कुछ और समाधान होता दिखाई न देता था।


इसी चिन्ता में वे एक बार अति रुग्ण हो गए।' तेज ज्वर के कारण कई दिन अचेत पड़े रहे । चौथे दिन कुछ सुधार हुआ। दण्डीजी ने तुरन्त पढ़ाना शुरू कर दिया। परिणामतः पुनः मूर्च्छित हो गए। शिष्यों ने सेवा-शुश्रूषा को पर व्यर्थ | कहीं एक सप्ताह के पश्चात्‌ कुछ होश आया | बचने को आशा शेष नहीं थी। अतः दण्डीजी ने अपनी कुछ वस्तुएँ शिष्यों में बांट दीं। 'इस शरीर को गंगा में प्रवाहित कर देना '-- इतना ही कह पाए थे कि पुन: मौन हो गए। स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती रही । एक प्रात: उनके एक शिष्य ने एक गाड़ी किराए पर की, दण्डीजी को उसमें लिटाया, ऊपर चादर दे दी और गाड़ी वाले से कहा -- इन्हें गंगाधारा पर ले जाओ। यदि तब तक प्राण बचे रहें तो गंगा के तट पर उतार देना अन्यथा धारा में बहा देना। चालक लगभग नौ बजे धारा पर पहुँच गया परन्तु यह तसल्ली न कर पाया कि अभी प्राण चल रहे हैं या नहीं । अत: प्रज्ञाचक्षु दण्डीजी को गंगा के किनारे उतारकर चला गया। वे एक चादर में लिपटे सारा दिन बेसुध वहीं पड़े रहे ।


सन्ध्याकाल में गढ़ी के एक साधु ने उन्हें अचेतनावस्था में पड़े देखा । उसने तुरन्त महन्त मथुरादास वैरागी? को सूचित किया। वे तभी पाँच-सात साधुओं के साथ वहाँ पहुँच गए। देखते ही पहचान लिया कि अचेतन साधु तो स्वामी विरजानन्द दण्डी हैं। शरीर में अभी प्राण शेष थे। महन्तजी ने एक खाट मंगवाई। दण्डीजी को उस पर लिटाया। शरीर के कुछ भाग पर चादर ओढा दी और उन्हें गढ़ी ले गए। रातभर साधुओं ने सेवा की। प्रात: हुई। दण्डीजी को होश आया। वे उठकर बैठ गए। ओ३म्‌ का उच्चारण किया। यह सूचना पाकर मथुरादास भी आ गए। दातुन आदि के पश्चात्‌ उन्हें मूंग की दाल का पानी दिया गया। वे तीन-चार दिन वहीं ठहरे रहे, सेवा होती रही । तब कुछ स्वास्थ्य लाभ होने पर दण्डीजी ने पुन: विश्रान्त पर स्वस्थान जाना चाहा। मथुरादास रोकना चाहते थे परन्तु दण्डीजी के अनुरोध पर उन्हें गाड़ी में बैठाकर एक साधु के साथ आदर सहित विदा कर दिया।


जब दण्डीजी पुनः अपने आसन पर विराजमान हुए तो उन्हें जीवित देखकर सभी लोग विस्मित हुए । वे तो उन्हें परलोकवासी मान चुके थे। उनकी अनुपस्थिति में मकान का ताला टूट चुका था और उनके वस्त्र, पुस्तकें, भोजनादि की सामग्री आदि सब कुछ जा चुकी थीं। दण्डीजी ने किसी से कुछ चर्चा नहीं को। अब सोरों में रहने का उनका मन नहीं था। गाड़ी किराए पर कर मथुरा जाने का मन बना लिया। संयोगवश एक गाड़ी मिल गई जिसे वापस मथुरा लौटना था। एक परिचित को साथ लेकर गाड़ी पर बैठ मथुरा के लिए चल पड़े।


दण्डीजी ने मथुरा के लिए प्रस्थान तो कर दिया परन्तु कोई पैसा-धेला* 

पास नहीं था। मार्ग में सेवक तथा गाड़ी चालक के लिए भोजन और बैलों के लिए चारे की व्यवस्था न थी। मथुरा पहुँचकर गाड़ी का किराया भी देना था। जिस एक मात्र परम सहायक प्रभु के सहारे किशोरावस्था में पैतृक ग्राम छोड़कर ऋषिकेश की राह पकड़ी थी, आज भी उसी के सहारे स्वस्थान त्याग मथुरा चले हैं। संयोग देखिए। अभी थोड़ी दूर ही गए थे कि दिलसुखराय अपनी घोड़ा-गाड़ी में कासगंज से सोरों आते हुए मिल गए। वे जितने धनवान्‌ थे, उतने ही दण्डीजी के भक्त भी थे। देखते ही गाड़ी रुकवाकर नीचे उतर दण्डीजी को प्रणाम किया और पाँच जयपुरी अशर्फियाँ* श्रीसेवा में भेंट कीं। दण्डीजी ने व्ययार्थ एक अशर्फी के बदले रुपये चाहे | बहुत आग्रह करने पर भी दिलसुखराय ने अशर्फी वापस न ली अपितु जेब में पडे आठ रुपये और भेंट कर दिए। दण्डीजी पहली रात नदरई, दूसरी रात सिकन्दराराऊ (अथवा रती का नगला), तीसरी रात मेडू (हाथरस) और चौथी रात मुरसान ठहरे।' पाँचवें दिन मथुरा पदार्पण किया । वहाँ पहुँचकर उन्होंने ठहरने के लिए गूजरमल' की हवेली का मार्ग पूछा। एक वृद्ध चौबे ने उन्हें वाञ्छित स्थान पर पहुँचा दिया। बैलगाड़ी वाले को किराया और ईनाम देकर विदा कर दिया परन्तु सेवक को सेवा के लिए साथ रख लिया।


अब तक दण्डीजी शुरू के तेरह वर्ष गंगापुर रहे । फिर दो-अढ़ाई वर्ष घूमते रहे | तदनन्तर तीन साल ऋषिकेश में साधना की। अगले पैन्तालीस वर्षा में हरिद्वार, कनखल, काशी, गया, कोलकाता तथा पहली बार सोरों आदि स्थानों पर कितना-कितना समय रहे -- ज्ञात नहीं । कार्तिक 1889 वि. ( अर्थात्‌ जून 1832) में अलवर चले गए। वहाँ साढ़े तीन साल, भरतपुर छह महीने और मुरसान कुछ समय रहे । इस प्रकार सोरों में पुनर्वास के लिए लगभग 1836 ई. में पधारे और फिर 1846 ई. में मथुरा के लिए प्रस्थान किया। अतः सोरों पुनर्वास लगभग नौ-दस वर्ष का रहा। फिर अगले बाईस-तेईस वर्ष दण्डीजी ने मथुरा को सुशोभित किया।


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ


1. पण्डित मुकुन्ददेव के अनुसार तब उनकी आयु सवा छियासठ वर्ष के लगभग थी (दण्डी जी की जीवनी, पृष्ठ 29) । अत: यह घटना 1846 ई. के आरम्भ की है।


2. दण्डीजी का बीमार होना निर्विवाद है। इस भयंकर बीमारी का सभी लेखकों ने उल्लेख किया है। उन्हें अचेतावस्था में गंगातट पर छोड़ आने का वर्णन सर्वप्रथम पण्डित मुकुन्ददेव (वही, पृष्ठ 29-31) और फिर उनके आधार पर भीमसेन शास्त्री (विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 36-39) ने किया है । वर्षो छायावत्‌ साथ रहने वाले बदरिया निवासी अंगदराम तब तक शिक्षा ग्रहण कर चले गए थे। अचेतनावस्था में गाड़ी में भेजने वाले शिष्य का नाम पण्डित मुकुन्ददेव ने नहीं लिखा परन्तु दिसम्बर 1921 में भीमसेन शास्त्री के साथ वार्तालाप में पण्डित अंगदराम बताया था जिसे भीमसेन ने भी सही नहीं माना। उनके अनुसार वे बाद में आए और फिर गढ़ी में सेवा की (विरजानन्द-प्रकाश, पृष्ठ 37-38 पाद टिप्पणी) । देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के अनुसार भी “' अंगदराम ने रुग्ण गुरुदेव की यथोचित सेवा की '! (विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 53) ।


3. मथुरादास बैरागी ने साधु-संन्यासियों के लिए सोरों में अम्बागढ़ के पास तथा सोतुआ ग्राम में गढ़ियाघाट पर कुछ कुटियाएँ बनवाई थीं। ये मथुरादास की कुटी, मथुराजी की गढ़ी, गढ़ी, वैष्णव साधु छावनी अथवा छावनी आदि नामों से प्रसिद्ध थीं। गढ़ियाघाट की गढ़ी में प्राय: सौ-दो सौ साधु ठहरे ही रहते थे । ये दूसरी कुटियाएँ कालान्तर में गंगधारा में समा गई । सोरों में हर की पैड़ी तालाब पर पश्चिम दिशा में अम्बागढ़ अखाड़ा है । पहले यह साधुओं का अखाड़ा था। फिर यहाँ कुश्तियाँ लड़ी जाती थीं।


4. एक रुपये में सोलह आने, एक आने में चार पैसे और एक पैसे में दो धेले होते थे।


5. दिलसुखराय बिलराम निवासी धर्मपरायण एवं सात्विक कुलश्रेष्ठ कायस्थ थे। पहले कासगंज के स्वामी कर्नल जेम्स गार्डन के एजेंट रहे । उसकी मृत्यूपरान्त नील बनाने का कारखाना लगाकर बहुत धन कमाया | इस धन से न केवल कई ग्राम खरीदे अपितु जेम्स के पुत्र से 1859 ई. में कासगंज भी खरीद लिया | उसे 1857 ई. की क्रान्ति में अंग्रेज की सहायता करने के बदले राजा की उपाधि, पाँच हजार रुपये की खिल्‌अत (राज्य की ओर से दी गई सम्मानसूचक भेंट जिसमें वस्त्र तीन से कम न हों)तथा पन्द्रह हजार रुपये वार्षिक कर की रियासत मिली और ऑनरेरी मेजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया।


6. उन दिनों देशी राज्यों में पृथक्‌ मुद्राओं का प्रचलन था। अशर्फ़ी जयपुर की स्वर्ण मुद्रा थी। तब एक जयपुरी अशर्फी का मूल्य बाईस रुपये था।


7. सिकन्दराराऊ तथा रती का नगला छोटी रेलवे लाइन पर स्टेशन हैं | हाथरस जंक्शन के निकट मेडू गाँव स्थित है।


8. दण्डीजी का गूजरमल से पूर्व परिचय था। उनके पूर्वज मिश्र दयानन्द दैवज्ञ को अलवर राज्य में एक जागीर मिली हुई थी । गूजरमल मथुरा में चौक बाजार में रहते थे। मेघा गली में बाजार की चार-पाँच दुकानों के ऊपर उनकी हवेली में दण्डीजी रहने लगे। यहाँ से यमुना कुछ दूर पड़ती थी। दण्डीजी बाद में गतश्रमनारायण मन्दिर तथा केदारनाथ खत्री के मकान में रहे। गतश्रमनारायण मन्दिर परिसर में प्रवेश करते समय बाई ओर जो कमरे थे, उन्हें कचहरी कहते थे। उन्हीं कमरों में दण्डीजी रहते थे। कहते हैं वे कुछ समय दण्डीघाट पर बनी कुटिया में भी रहे थे।

मथुरा निवास


दण्डीजी मथुरा कब पधारे ? उन्होंने यह नगर क्यों चुना ? पाठशाला कब खोली ? ऐसे सभी प्रश्न निश्चित उत्तर मांगते हैं। पण्डित लेखराम, मेहता राधाकिशन, लक्ष्मण आर्योपदेशक तथा बावा छज्जूसिंह सम्वत्‌ 1893 वि. (अर्थात्‌ 1836 ई.) में मथुरा पधारना लिखते हैं, जो सही नहीं है। देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय दण्डीजी का अलवर नरेश के पुत्रजन्मोत्सव (14 सितम्बर, 1845 ई.) के पश्चात्‌ अलवर छोड़ना और फिर लगभग सम्वत्‌ 1903-1904 वि. (1846-47 ई.) में मथुरा पधारकर पाठशाला स्थापित करना मानते हैं। यद्यपि भीमसेन शास्त्री दण्डीजी का अलवर त्याग राजा विनयसिंह के पुत्र जन्म से वर्षा पूर्व घोषित करते हैं परन्तु मथुरा गमन सम्वत्‌ 1902 ग्रीष्मारम्भ (1845 ई.) में लिखते हैं। यही मत जॉर्डन्स तथा दण्डीजी के शिष्य पण्डित उदयप्रकाश के पौत्र सुधाधरदेव का है कि दण्डीजी 1845 ई. में मथुरा पधारे थे।' दण्डीजी के नाम मथुरा के पते पर लिखे गए एकमात्र उपलब्ध पत्र पर “संवत्‌ १९०८ मीति मार्ग सुदि १२' (अर्थात्‌ 14 जनवरी,1851) लिखा से अतः यह निश्‍चित है कि वे 1851 ई. से पूर्व मथुरा पधार चुके थे। पण्डित मुकुन्ददेव के अनुसार जब दण्डी जी सोरों में अस्वस्थ हुए तब वे सवा छियासठ वर्ष के थे। वे गंगा के तट पर दिन भर एक चादर में लिपटे अचेत पड़े रहे थे, * अतः यह मार्च मासान्त अथवा अप्रैल का आरम्भ का समय रहा होगा। फिर वे स्वस्थ होकर एक महीने के भीतर वहाँ से मथुरा चले गए थे। अतः वे मई 1846 ई. (बैशाख 1903 वि.) के आस-पास मथुरा पहुँचे थे।


दण्डीजी द्वारा मथुरा को ही सुशोभित करने का क्या रहस्य है? बीमारी के बाद केबल स्वास्थ्य-लाभार्थ मथुरा आना उपयुक्त एवं बुद्धिगम्य हेतु नहीं लगता। अन से पहले दण्डीजी कई प्रमुख धार्मिक स्थलों की यात्रा कर चुके थे । देसी रियासतों के राजाओं के साथ भी सम्पर्क था। दो-तीन राजा-रजवाड़ों के पास रहकर भी देख लिया था। केवल निजी सुख-सुविधा के लिए कहीं डेरा जमाने वाले साधु वे नहीं थे। न ही वे परावलम्बी थे। भले ही मथुरा कालान्तर में आर्षग्रन्थ अभियान के लिए उपयुक्त स्थान सिद्ध हुआ परन्तु


- देवे्द्रनाथ मुखोपाध्याय का यह मत कि मथुरा को भविष्य में आर्षग्रन्थ अभियान के लिए उपयुक्त स्थान समझकर ही दण्डी जी यहाँ आए थे,” भी सही नहीं लगता । मथुरागमन तक दण्डी जी ने संस्कृत-वाड्मय की मीमांसा आर्षअनार्ष के आधार पर की हो, इसका कोई प्रमाण नहीं है। फिर कारण क्या था ? दण्डीजी अब तक पर्याप्त शास्त्राध्ययन तथा मनन कर चुके थे। लगता है अब वे पढ़ाने को प्राथमिकता देना चाहते थे ताकि कोई ऐसा योग्य शिष्य मिल जाए जो उनकी चिन्तन-परम्परा को भविष्य में जीवित रखे और उसे यथासम्भव विस्तार दे। इस माप-दण्ड पर मथुरा पूरी उतरती थी। इस स्थान से वे सुपरिचित थे। यहाँ न केवल पचासों पण्डित सारस्वत, चन्द्रिका, अमरकोष, शीघ्रबोध, होडाचक्र, भागवत आदि पढ़ाते थे, अपितु आठ-नौ सौ तो स्थानीय विद्यार्थी ही थे। चार सौ के लगभग छात्र अन्य स्थानों से भी अध्ययनार्थ आते रहते थे। ° तीर्थयात्री सेठ-साहूकार, राजा-जागीरदार पण्डितों एवं विद्यार्थियों को श्रद्धापूर्वक दान-दक्षिणा देते रहते थे। कई देसी रियासतें निकट स्थित थीं, जिनके राजा दण्डीजी के श्रद्धालु थे। दण्डीजी के गुरु भाई पण्डित किशनसिद्ध चतुर्वेदी व शिवानन्द आदि यद्यपि वृद्ध हो चुके थे पर अभी जीवित थे और मथुरा में ही रहते थे। किशनसिद्ध चतुर्वेदी का भी दण्डीजी से मथुरा निवास का अनुरोध था। इस नगरी को चुनने के ये ही सम्भव कारण लगते हैं । कहते हैं कि गूजरमल की कोठी पर ही छात्र पढ़ने आने लग गए थे परन्तु दण्डीजी वहाँ डेढ़-दो महीने से अधिक नहीं ठहरे। गतश्रमनारायण मन्दिर के व्यवस्थापक प्रसादीलाल आचार्य के अनुरोध पर उस मन्दिर में चले गए। मन्दिर में प्रवेश करते ही बाई ओर स्थित जिन कमरों को कचहरी कहते थे, दण्डी जी उन्हीं कमरों में रहने लगे। इस मन्दिर में पाठशाला खोल दी गई जो केवल दो महीने चली। प्रसादीलाल के-अठारह वर्षीय पुत्र वासुदेव ने इन्हीं दिनों दण्डी जी से पढ़ना आरम्भ कर दिया। दण्डीजी किसी स्थान-विशेष पर स्थिर होकर अध्यापन करना चाहते थे । अतः उन्हें स्वतन्त्र स्थान की आवश्यकता अनुभव हुई। इसलिए मन्दिर से पाठशाला उठाकर निकट ही कंसखार पर केदार्नाथ'खत्री के दो मंज़िला मकान में ले गए। उन दिनों मथुरा की गली दशावतार में एक नयनसुख जडया स्वर्णकार रहता था। गली के सामने ही उसकी दुकान थी। रत्न जवाहरात का यह निपुण पारखी पढ़ा-लिखा तो कम था परन्तु साधु-संन्यासियों के प्रति गहरा सेवाभाव रखता था। दण्डीजी के विषय में सुनकर वह एक दिन दोपहर बाद दर्शनार्थ गतश्रमनारायण मन्दिर में पहुँच गया और अपना परिचय देकर कहने लगा, महाराज ! मैं नित्य आपकी महिमा सुनता हूँ। आपके पधारने से लगता है कि बेचारी मथुरा के शुभ दिन आ गए हैं। दण्डीजी विनोद में बोले, नयनसुख ! तुम्हारी और मेरी क्या तुलना ? तुम नयनसुख और मैं नेत्रहीन। साथ ही तुम जौहरी भी हो। तुम्हारे यहाँ रहने से मथुरा के दिन नहीं बदले, तो मेरे मथुरा निवास से क्या होगा ? नयनसुख, महाराज सलोक तो मुझे याद नहीं परन्तु भावार्थ यह है कि राजा लोग दूतों से देखते हैं, पण्डित वेद से देखते हैं और गायें नाक से सूंघकर देखती हैं । सामान्य लोग चर्म-चक्षुओं से देखते हैं। फिर भी वे वह नहीं देख सकते, जो आप देख लेते हो। दण्डीजी, सलोक नहीं श्लोक कहा करो। शुद्ध उच्चारण न कर सको तो पद्य बोला करो। श्लोक इस प्रकार है -- चारैः पश्यन्ति राजानो वेदैः पश्यन्ति पण्डिताः । गावो घ्राणेन पश्यन्ति चक्षुर्भ्यामितरे जनाः॥ अच्छा, कल आना परन्तु किसी विद्यार्थी के पाठ के बीच में न बोलना।


दूसरे दिन नयनसुख पुनः उपस्थित हो गया। बोला, दास हाजिर है। दण्डीजी, 'दास' मत कहा करो। अच्छा बताओ, क्या सुनना चाहते हो ? नयनसुख, कुछ जवाहरात के विषय में। दण्डीजी, नयनसुख! सच तो यह है कि पृथ्वी पर अन्न, जल और सुन्दर भाषण ये ही तीन रत्न हैं। पत्थर के टुकड़ों को रत्न मान लेना तो मूर्खता है।' फिर बहुज्ञ दण्डीजी ने उसे विभिन्न रत्नों को परख के विषय में उपदेश दिया । उनकी रत्नपरीक्षा में अदभुत दक्षता देखकर नयनसुख ऐसा विस्मित हुआ कि प्रतिदिन श्रीसेवा में उपस्थित होने लगा। कभी-कभी एक दिन में दो-तीन बार भी दर्शनलाभ कर लेता था। इस प्रकार पाठशाला के स्थानान्तरण से पूर्व ही उसकी श्रीचरणों में प्रीति हो गई। यद्यपि दण्डीजी ईश्वराराधना, चिन्तन तथा अध्यापन के अतिरिक्त अन्य किसी वार्तालाप से बचते थे, फिर भी नयनसुख जडिया के विनम्र मधुर स्वभाव एवं सेवाभाव से प्रभावित हो उस पर दयालु हो गए स्थानान्तरित पाठशाला में आते-जाते पाठ सुनकर उसे व्याकरण का अच्छा ज्ञान हो गया और दण्डीजी के सान्निध्य से शुद्ध उच्चारण सहित संस्कृत


बोलने लगा। दण्डीजी का भक्त बनने के बाद नयनसुख जड़िया की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई। नगर का प्रसिद्ध जौहरी होने के कारण धनी परिवारों में उसका आनाजाना था। वह जिसे भी मिलता, दण्डीजी का श्रद्धापूर्वक गुणकीर्तन करता। कुछ प्रसंग हो, वह दण्डीजी के ही नाम का जप करता रहता था | दण्डीजी के दर्शनलाभ करने हेतु कई श्रद्धालु जड़ियाजी को माध्यम बनाते।


मथुरा के सेठ गुरुसहायमल प्राय: बाहर से आए विद्यार्थियों के भोजनादि को व्यवस्था करते थे। जड़ियाजी से दण्डीजी के पाण्डित्य की ख्याति सुनकर एक दिन सेठजी अपने मुनीम सहित पाठशाला में जा उपस्थित हुए। दण्डीजी पढ़ा रहे थे। मुनीम ने सेठजी की ओर से पाँच रुपये भेंट किए। तदनन्तर सेठजी ने गर्व से पूछा -- महाराज! आपके कितने विद्यार्थियों के वस्त्रभोजनादि का प्रबन्ध करूँ? दण्डीजी को लगा कि सेठ की श्रद्धा नहीं अपितु अहम्‌ बोल रहा है। यह उन्हें अच्छा न लगा। बोले -- मेरा कोई ऐसा विद्यार्थी नहीं है जिसके भोजनादि को व्यवस्था आपको करनी पडे । सेठ के अहम्‌ पर यह चोट थी। नगर में कोई ऐसी भी पाठशाला है, जिसे उसकी कृपा के सहारे को आवश्यकता नहीं है _ यह उन्हें कैसे सहन होता। कुछ-कुछ बोलने लगे | इधर दण्डीजी को भी अध्यापन कार्य में कोई बाधा पसन्द नहीं थी। वे नाराज होकर कहने लगे - आपकी उपस्थिति पढ़ाने में बाधक बन रही है। सेठजी चले गए पर वातावरण में तनाव बना रहा।


भोले भक्त नयनसुख जड़िया के कारण एक दिन फिर ऐसा ही हुआ। मथुरा के रईस केदारनाथ खत्री ने जड़ियाजी से पूछा -- नगर में शतरंज का सर्वोत्तम खिलाड़ी कौन है ? झटपट उत्तर दिया -.. स्वामी विरजानन्द दण्डी | खत्रीजी ने जड्याजी को साथ लिया और जाकर दण्डीजी से शतरंज खेलने की प्रार्थना को। दण्डीजी समय व्यर्थ नष्ट नहीं करते थे। बहुत दुखी हुए। बोले -जडया! यहाँ से चले जाओ। कितनी बार तुम्हें समझाया पर तुम पर कोई असर नहीं होता। गुरुजी को खिन्न देखकर जड़ियाजी को बहुत अफसोस हुआ। अनुनय-विनय करने लगा। करबद्ध क्षमा चाही। दण्डीजी को उस पर दया आ गई। समझाने लगे -- नयनसुख ! मेरा तो इतना ही कहना है कि भोजन तथा भाषण में मर्यादा बरतनी चाहिए? तुम इधर-उधर मेरी चर्चा कर देते हो, इससे मेरे कार्य में विघ्न पड़ता है। एक दिन गुरुसहायमल आ गए। आज इन्हें ले आए इन्हें कह दो, यहाँ शतरंज नहीं है।


केदारनाथ खत्री ने निवेदन किया -- महाराज! शतरंज मैं ले आता हूँ! अब दण्डीजी क्या कहते ? शतरंज लाई गई। दण्डीजी ने आठ प्रकार की शतरंज की चर्चा की। फिर खेल आरम्भ हुआ। दण्डी जी बोले, नयनसुख ! तुम दो काम करना -- जो मोहरा मैं कहूँ वह चलना और लाला जो मोहरा चले वह मुझे बता देना। अच्छा, अब बादशाह का प्यादा चलो। नयनसुख, चल दिया, महाराज। दण्डीजी, लाला क्या चले हैं ? नयनसुख, वह भी बादशाह का प्यादा ही चले हैं। इस प्रकार जड़ियाजी दण्डीजी के आदेशानुसार उनके मोहरे चलाते


रहे | कुछ समय पश्चात्‌ खेल समाप्ति पर था। दण्डीजी ने कहा - अब तक हम दोनों की एक सौ इकहत्तर चालें हुई हैं। मैं अब एक सौ बहत्तरवीं चाल चलता हूँ । दण्डीजी ने घोड़े की किश्त दिलाई । केदारनाथ ने बाई ओर हाथी के पास बादशाह को हटा लिया। तब दण्डीजी कहने लगे -- किश्त ऊंट को भी : लग सकती है परन्तु वजीर की शय दो और कह दो मात। जड्याजी अभी वजीर को छूने ही लगे थे कि केदारनाथ अपने बादशाह की हालत पर हैरान हो गए। वे अनायास बोल उठे - क्या खूब करामाती मात है !


दण्डीजी ने फिर कभी शतरंज न खेली परन्तु केदारनाथ खत्री श्रीसेवा में उपस्थित होने लग गए। उनके प्रबल अनुरोध एवं विनीत प्रार्थना पर दण्डीजी ने गतश्रमनारायण मन्दिर छोड़कर उनका घर किराए पर लेकर वहाँ विराजना स्वीकार कर लिया।


होली द्वार से विश्रामघाट जाने वाली सड़क पर गतश्रमनारायण मन्दिर से लगभग पन्द्रह-सोलह दुकानें पहले छत्ता बाजार में केदारनाथ खत्री का एक दो मंज़िला मकान था। केदारनाथ सरीन खत्री थे। अत: इसे ' सरीनो का घर' कहा जाता था। यह मकान दो रुपये मासिक किराए पर ले स्थायी रूप से वहाँ पाठशाला खोल दी फिर जीवन-पर्यन्त पाठशाला वहीं रही। यहाँ अपनी युगान्तरकारी अद्वितीय पाठशाला खोलकर दण्डीजी ने न केवल इस भवन को अमर कर दिया अपितु मथुरा नगरी को भी गौरवान्वित किया । देवेन्द्र बाबू ने सच लिखा है कि '' यद्यपि यह मकान न तो आकार ही में और न संगठन ही में और न शिल्पकारी ही में रमणीय व चित्ताकर्षक है तथापि वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के प्रसंग मे, भारत के धर्मसंशोधन के इतिहास में यह मकान [चिरस्मरणीय रहेगा।'”? आज भी मथुरा का नाम सुनते ही इस पाठशाला को स्मरण कर असंख्य नेत्र अनायास आभार एवं श्रद्धा से सजल हो जाते हैं। अब दण्डीजी ने निश्चिन्त होकर अध्यापनार्थ सेवकादि की व्यवस्था कर ली। वे छात्रों से कभी दक्षिणा एवं शुल्कादि नहीं लेते थे। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुरूप विद्यादान पूर्णतया नि:शुल्क था। निर्धन विद्यार्थियों के लिए पुस्तकों की व्यवस्था भी करवा देते थे। पाठशाला आय के लिए नहीं थी। श्रद्धालुजन स्वत: ही कुछ भेंट कर जाते थे। वैसे अलवर नरेश विनयसिंह, जयपुर के महाराजा रामसिंह तथा भरतपुर के अधिपति बलवन्तसिंह श्रीसेवा में नियमित रूप से कुछ धनराशि भेजते थे'' जिससे सारा व्यय सहज हो जाता था। यूँ स्वाभिमानी दण्डीजी न स्वयं भिक्षार्थ जाते, न अपने छात्रों को ही भिक्षुक मानते। सर्वसहायक प्रभु के सिवाय किसी की दया पर आश्रित रहना उनके स्वभाव में ही नहीं था। अभी दण्डीजी को इस घर में विराजमान हुए एक महीना पूरा नहीं हुआ था, चौथा सप्ताह चल रहा था कि एक रोचक घटना घटी | एक दिन केदारनाथ खत्री बिना किसी पूर्व अनुमति अथवा सूचना के आ गए। 'पदचाप सुनकर दण्डीजी ने पूछा -- कौन है ? मालिक मकान -- खत्रीजी के मुँह से निकला। ख़बरदार ! मालिक मकान तो में हूँ। तू तो इसकी कमाई खाता है। भटियारे की तरह है -... दण्डीजी बोले | महाराज! आप इस मकान के ही नहीं, मेरे सभी घरों के स्वामी हो । लगभग पचास हजार रुपये की इस सम्पत्ति के मालिक हो -- ऐसा निवेदन कर खत्रीजी चले गए। कहीं किसी चोर-उचक्के अथवा अपरिचित व्यक्ति के प्रवेश की आशंका दण्डीजी को न हुई हो -- इस कारण अनायास मालिक मकान खत्रीजी के मुँह से निकल गया था। गर्वपूर्ण वक्तव्य उनका आशय नहीं था। अत: खत्रीजी का परेशान होना स्वाभाविक था। वे उस दिन भोजन भी न कर सके । दण्डीजी के विशेष कृपापात्र नयनसुख जड़िया से जा सारी बात कह सुनाई और अपनी भूल के लिए दण्डीजी से क्षमा दिलवाने की प्रार्थना की । अगली प्रात: होते ही खत्रीजी पुनः जड़ियाजी से मिले। पूछा -- दण्डीजी ने मेरे विषय में क्या कहा ? काफी कुछ कहा -- जड़िया ने उत्तर दिया। तो भी क्‍या कहा ? खत्रीजी ने चिन्ता से पूछा।


यही कि लाला बावला है - जडियाजी बोले।


यह जानकर खत्रीजी को चैन मिली कि दण्डीजी उसे न धनाभिमानी मानते हैं, न ही हदय से अप्रसन्न हैं। केबल बावला समझते हैं। जड़ियाजी ने उन्हे श्रीसेवा में उपस्थित होने की सलाह दी परन्तु वे साहस न बटोर सके और कहने लगे -- अब निष्प्रयोजन न जाया करुँगा। राजा जोगी अगन जल, थोड़ी राखै प्रीत।


तीन-चार दिन बीत गए। अभी महीना पूरा होने में एक दिन शेष था। दण्डीजी ने एक शिष्य के हाथ किराये के दो रुपये भेज दिए। खत्रीजी ने लेने से बहुत इनकार किया परन्तु शिष्य भी दण्डीजी का आदेश पालन कर के ही माना। खत्रीजी उस छात्र से भी पहले दण्डीजी की सेवा में पहुँच गए। अभिवादन के पश्चात्‌ निवेदन किया --


महाराज! ये दो रुपये सेवक के पास क्यों भेजे ? मासिक किराए के लिए। क्या मालिक मकान भी किराया देते हैं ?

अवश्य | किराया न दें तो मालिक मकान कैसे हुए? अब मेरे लिए क्या आदेश है ? किराया ले लो। इसे मैं अपना अपमान समझता हुँ। किराया न देना मैं अपना अपमान मानता हँ। महाराज! इस नाराजगी का कारण ? मालिक मकात। महाराज! इस मकान को आपके नाम रजिस्ट्री करवा दूँ. ताकि इसे बेचने तथा गिरवी रखने के सर्वाधिकार आप के पास हों।


इसे मैं किराया न लेने से भी अधिक अपमानजनक समझता हूँ.। बस, किराया ले लो, नहीं तो कल मुझे इस मकान में न देखोगे। बेचारे केदारनाथ को न चाहते हुए भी दो रुपये लेने पड़े। साधु से कौन लोहा ले? फिर दण्डीजी अन्तिम सांस तक इसी घर में रहे । इसी सौभाग्यशाली घर में उन्हें अपना मानसपुत्र दयानन्द प्राप्त हुआ।


आरम्भ में दण्डी ज़ी को छह-सात महीने सुपात्र शिष्य न मिल पाए। इसके कई कारण थे। दण्डीजी पहले नए विद्यार्थी की मेधा की परीक्षा लेते थे, फिर उसे अभिवादन करना सिखाते। कुछ विद्यार्थी मन्द बुद्धि थे। ऐसा ही एक विद्यार्थी लगातार तीन दिन तक सिखाने पर भी अभिवादन करना न सीख पाया । प्रणाम को परणाम ही बोलता रहा । फिर पूरा दिन अभ्यास करने पर भी गरुड़ गोविन्द को गड्र गोविन्द कहता रहा। दण्डी जी उच्चारण पर विशेष ध्यान देते थे । अत: ऐसे विद्यार्थी के लिए पाठशाला में ठहरना सरल नहीं था। इधर दण्डी जी भागवतपुराण को व्यासकृत नहीं मानते थे क्योंकि यह व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों, ऋषि निन्दा तथा अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। योगीराज कृष्ण के निष्कलंक जीवन पर भागवतपुराण में आरोपित अश्लील प्रेमालाप उन्हें असह्य था। भागवत और मूर्तिपूजा के खण्डन के कारण मथुरावासी पण्डित प्रायः दण्डी जी के प्रति श्रद्धा-शून्य थे। अत: वे पाठशाला के कार्य में रोड़े अटकाते रहते थे। पण्डित मण्डली कभी उनकी अवहेलना करती तो कभी उनकी विद्वत्ता की थाह लेने का प्रयास करती। इस हेतु ब्रजभूमि के इन पण्डितों ने युगलकिशोर गौड़, जगन्नाथ (जग्गो) चौबे, दामोदरदत्त सनाढ्य, चिरंजीलाल आदि अपने योग्य विद्यार्थियों को कठिन प्रश्‍न सिखाकर भेजना शुरू किया परन्तु परिणाम पण्डितों की आशा के विपरीत निकला। वे दण्डीजी के व्याकरण-ज्ञान, सरल सुबोध व्याख्या, अध्यापन-शैली एवं लगन से ऐसे प्रभावित हुए कि पहले गुरुओं को छोड़कर दण्डीजी से ही पढ़ने लग गए। बस, धीरे-धीरे दण्डीजी की कीर्ति फैलने लगी, पाठशाला लोकप्रिय हो गई और छात्र-संख्या बढ़ने लगी। दण्डी जी प्राय: दण्डीघार आते-जाते रहते थे। वहाँ भी प्रातःकाल छात्रों को पढ़ा दिया करते थे।


पाठशाला में मुख्यतया सिद्धान्तकौमुदी, शेखर, चन्द्रिका, मनोरमा, न्याय, अमरकोश आदि पढाए जाते थे। अभी अष्टाध्यायी का अध्यापन-विशेष प्रारम्भ नहीं हुआ था। हरिद्वार, काशी, गया आदि स्थानों पर रहने के कारण दण्डीजी का उच्चारण अति शुद्ध था। वे उच्चारण-शुद्धता पर बहुत बल देते थे। पढ़ाने का क्रम प्रातः स्नान-ध्यानादि से निवृत्त होकर सायंकाल तक और कभी-कभी रात्रि के नौ बजे तक चलता रहता था। जब तक कोई विद्यार्थी पढ़ना चाहता, उसे पढ़ाते रहते थे। न कभी आलस्य करते, न थकते ।


तब संस्कृत पाठशालाओं में प्रतिपदा (पक्ष का प्रथम दिन ) को नहीं पढ़ाते थे परन्तु दण्डीजी को पाठशाला में प्रतिपदा को भी पढ़ाया जाता था। एक बार प्रतिपदा के दिन पुरुषोत्तम चौबे को उन्हें पढ़ाते देखकर एक पण्डितजी बोले _ दण्डीजी ! प्रतिपदा को क्यों पढ़ाते हो ? इस दिन की पढाई विद्या तो नष्ट हो जाती है । वाल्मीकि रामायण में हनुमानूजी का वचन है कि माता सीता ऐसी शिथिल दिखाई देती थी जैसे प्रतिपदा के दिन पढ़ाई हुई विद्या। दण्डीजी बोले -- ऋषि वाल्मीकि ऐसी अनर्गल बात कभी नहीं लिख सकते। उन्होंने तभी पुरुषोत्तमलाल चौबे से रामायण मंगवाई। उसके सुन्दरकाण्ड में लिखा था --


उपवासकृशां दीनां निःश्वसन्तीं पुनः पुनः ।


ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवामलाम्‌।। 15.19 ॥ अर्थात्‌ उपवास के कारण पतली, दीन तथा बार-बार श्वास छोड़ती हुई सीता को शुक्ल पक्ष के प्रारम्भिक स्वच्छ चन्द्र के समान देखा। .


तस्य सन्दिदिहे बुद्धिस्तथा सीतां निरीक्ष्य च।


आम्नायानामयोगेन विद्यां प्रशिथिलामिव ।। 15.38॥ अर्थात्‌ सौता को देखकर उसकी बुद्धि सन्देहयुक्त हो गई जैसे वेदों से हीन विद्या शिथिल मानी जाती है।


प्रज्ञाचक्षु स्वामी यह जानकर अति प्रसन्न हुए कि रामायण में प्रतिपदा को पढ़ाने का निषेध नहीं है।


1859 ई. का वर्ष दण्डी जी के जीवन में विशेष महत्त्व रखता है। इस वर्ष अजाद्युक्तिः पद के समास पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला विवाद हुआ। भारतीय इतिहास में यह ऐसा समय था जब धर्म के नाम पर अन्धविश्वासों, कुप्रथाओं एवं रूढ़ियों ने राष्ट्र को ग्रस लिया था। जिसे समाज की बेड़ियाँ काटनी चाहिएँ थीं, दुर्भाग्यवश वही विद्वत्‌-समुदाय समाज की जंजीरें कसने पर लगा हुआ था। जनसाधारण के लिए एक-एक संस्कृत शब्द बाबावाक्यं प्रमाणम्‌ था। वेदादि सत्‌-शास्त्र लुप्त हो चुके थे। अष्टाध्यायी के आसन पर सारस्वत, कौमुदी, मनोरमादि विराजमान थीं । धरतीतल के किसी भी विद्वान्‌ के मनो-मस्तिष्क में आर्षग्रन्थों को अनार्षग्रन्थों के अम्बार में से खोज निकाल अलग करने का विचार अंकुरित नहीं हुआ था। ऐसे कुसमय में मथुरा में एक विलक्षण साधु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती विराजमान था। अष्टाध्यायी में उसकी श्रद्धा थी। वेद और वेदानुकूल ग्रन्थों में अत्यधिक आस्थावान्‌ था। पुराणों में आस्था का अभाव था। भागवत महापुराण“ की तीव्र आलोचना करता था, वह भी वैष्णवों के गढ़ मथुरा में | मथुरा विद्यानगरी ही नहीं, धन-वैभव से भी भरी पड़ी थी। पुराणों के खण्डन से पण्डितों को अपना धन्धा चौपट होने की आशंका हुई। यूँ मथुरावास से पूर्व ही कई पण्डित उनके विचारों से परिचित थे। उनके लिए नि:सन्देह यह असह्य था कि उनके अपने घर में ही कोई उनकी मान्यताओं का खण्डन करे । भागवत-पाठी एवं कौमुदी के अध्यापकों के अरिदल से न भागवत का मण्डन हुआ और न ही अष्टाध्यायी का विरोध | बस, प्रचार शुरू कर दिया कि यह सब धर्मग्रन्थों को निन्दा करता है और धर्मशास्त्रों से भिन्न पोथी (अष्टाध्यायी) पढ़ाता है।


इन भागवत तथा कौमुदी पढ़ने-पढ़ाने वाले पण्डितों ने 1859 ई. में दण्डीजी पर अवहेलना एवं निन्दा का ब्रह्मास्त्र चलाया | उनके प्रति अनाप-शनाप बोलने लगे -- यह दण्डी तो जुलाहा है। यह अन्धा जात का छीपा है ।?


अरे, यह कोट पहनता है। यह पाजामा पहनता है।


यह गेरुए वस्त्र धारण नहीं करता। अन्धा दण्डी नास्तिक है । जितने मुँह, उतनी बातें । पूर्णतया असत्य एवं निराधार प्रचार । ओछे हथियार के प्रहार का घाव भले ही गहरा न हो परन्तु यह पीड़ा कहीं अधिक देता है।


नए विद्यार्थियों को रोकने के सब प्रयत्न किए गए। सेठ गोवर्धनदास के गौघाट वाले मन्दिर में उदयप्रकाश भागवत कथा किया करते थे। सेठ जी उन्हें पर्याप्त दक्षिणा तो देते ही थे, मन्दिर भी भेंट करने को उद्यत थे। सेठ जी ने पण्डित जी से कहा, आपने भागवत-निन्दक नास्तिक अन्धे दण्डी से पढ़ना शुरू करके अच्छा नहीं किया। आप पढ़ना ही चाहते हो तो में काशी से पण्डित बुलवा दूँ। उदयप्रकाश बोले, आप दण्डी जी को नहीं समझ सकते। इस जन्म में दण्डी जी के सिवाय मेरा कोई अध्यापक नहीं हो सकता"


दण्डीजी शान्तभाव से निश्चल सब कुछ सहन करते रहे | धीरे-धीरे उनके आलोचक उनके श्रद्धालु बन गए। अन्धविश्वासों, रूढ़ियों व अनार्षग्रन्थों के विरुद्ध संघर्षरत यह महामानव कालान्तर में युग-निर्माता सिद्ध हुआ।


सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ


1. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द--चरित, पृष्ठ 55; भीमसेन शास्त्री, विरजानन्दप्रकाश, पृष्ठ 40 पाद टिप्पणी, 46; J.T.F. Jordens, Dayananda Sarasvati, |. 36;


पण्डित सुधाधरदेव के पुत्र कृष्णदेव शर्मा से लेखक का मथुरा में साक्षात्कार, 18 नवम्बर, 2001


2. वृन्दावन से लिखा यह पत्र ' वेदवाणी ' तथा ' टंकारा पत्रिका ' में मार्च 1960 में अशुद्ध छपा है । मूल पत्र इस प्रकार है --


“' ॥ श्रीराम जी॥


॥ सिद्ध श्री मथुराजी सुभस्थाने दंडि स्वामीजी जोग्य लिखि श्री ब्रंदावन ते सुकुलजी विहारिलाल जी व कीसोरिलालजी के नमोनारायण बंचने जी अपरं च आप के पास आदिमी भेजे हे सो आप आदिमी के साथ जरूर आओगे आजुइ आओगे जरूर ॥


संवत्‌ १९०८ मीति मार्ग सुदि १२''


मूल पत्र की छाया प्रति के लिए द्रष्टव्यः नन्दलाल चतुर्वेदी, कविरत्न नवनीत, पृष्ठ 53; नन्दलाल ने इसे भूल से दण्डी स्वामी का पत्र लिखा है, वस्तुतः यह दण्डीजी के नाम पत्र है ।


3. मुकुन्ददेव, दण्डी जी की जीवनी, सम्पादक डॉ. रामप्रकाश, (क) पृष्ठ 29-30, (ख) पृष्ठ 1-5,8, पण्डित मुकुन्ददेव ने मथुरावासी पैन्तीस-छत्तीस जन्मना ब्राह्मणों के गौत्र, आवास स्थान, आयु , शिष्य संख्या तथा उन द्वारा पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के विषय में रोचक विवरण लिखा है (वही, पृष्ठ 1-5), (ग) पृष्ठ 96-97


4. देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 88-89; मथुरा निवासी प्रभुदयाल मीतल का भी यह मत है (मधुरा में दंडी विरजानंद जी का विद्यालय और स्वामी दयानंद की शिक्षा-दीक्षा, पृष्ठ 8) ।


5. वेदवाणी, मार्च 1960, पृष्ठ 12


6. कंस का वध करने के बाद जहाँ योगीराज कृष्ण ने विश्राम किया, वहाँ गतश्रमनारायण कें नाम से मन्दिर बनवाकर अवागढ़ नरेश ने अपने गुरु प्राणनाथ आचार्य को भेंट किया था। आचार्यजी ने सिद्धान्तकौमुदी की प्राणनाथी टीका लिखी थी। प्रसादीलाल उन्हीं प्राणनाथ के भाई इन्द्रमन शास्त्री के नाती थे हरविलास शारदा ने भूल से इस मन्दिर को कहीं ब्रह्मनारायण मन्दिर और कहीं गौतमनारायण मन्दिर लिखा है।


7. पृथिव्यां त्रीणि रलानि अन्नं तोयं सुभाषितम्‌ । मूर्ख: पाषाणखण्डेषु रत्नता परिकल्पिता।


8. जिहवे त्वं कुरु मय्यादां भोजने भाषणे तथा।


9. पाठशाला सम्बन्धी अधिक जानकारी के लिए द्रष्टव्यः परिशिष्ट 1


10. देवेनद्रनाथ मुखोपाध्याय, विरजानन्द-चरित, पृष्ठ 56


11. राजा रामसिंह तथा राजा विनयसिंह आठ आना प्रतिदिन की दर से पाठशाला के लिए. धन भेजते थे।


12. वैष्णव मतावलम्बी 12 स्कंध, 335 अध्याय तथा 18 हजार श्लोकों के इस भागवत पुराण को महापुराण मानते हैं । यह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध पुराण है । वैसे पुराणों के क्रम में इसका पाँचवां स्थान है | दयानन्द सरस्वती इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। पुणे प्रवचन में स्वामी दयानन्द जे कहा था -- ““ विरजानन्द स्वामी ... भागवत आदि पुराणों का तो बहुत ही तिरस्कार करते थे। '


13. इस भ्रम में फंसकर भीमसेन शास्त्री ने दण्डी जी के पूर्वजों के गंगापुर निवास के विषय में लिख दिया कि वहाँ '“ साथ में शालुओं की छपाई का काम भी होता था ( विरजानन्दप्रकाश, पृष्ठ 2) ।'' यह लेख पूर्णतया निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है। 

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