अथर्ववेद 6/137/1 - ধর্ম্মতত্ত্ব

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17 April, 2025

अथर्ववेद 6/137/1

 

अथर्ववेद 6/137/1

एक वरिष्ठ वैदिक विद्वान् ने मुझे अथर्ववेद के निम्नलिखित मन्त्र का आधिदैविक और आध्यात्मिक भाष्य करने की चुनौती दी। इस चुनौती के उत्तर में मेरा त्रिविध भाष्य प्रस्तुत है।
यां जमदग्निरखनद् दुहित्रे केशवर्धनीम्।
तां वीतहव्यं आभरदसितस्य गृहेभ्य:॥ (अथर्व.6.137.1)
मेरे भाष्य से पूर्व आप देखें कि प्रसिद्ध वैदिक विद्वानों ने इस मन्त्र का भाष्य किस प्रकार किया है—
क्षेमकरणदास त्रिवेदी—
(केशवर्धनीम्) केश बढ़ाने वाली (याम्) जिस [नितत्नी ओषधि] को (जमदग्नि:) जलती अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष ने (दुहित्रे) पूर्ति करने वाली क्रिया के लिये (अखनत्) खोदा है। (ताम्) उस [ओषधि] को (वीतहव्य:) पाने योग्य पदार्थ का पाने वाला ऋषि (असितस्य) मुक्त स्वभाव महात्मा के (गृहेभ्य:) घरों से (आ अभरत्) लाया है।
इस सूक्त में (नितत्नी) पद की अनुवृत्ति गत सूक्त से आती है। जिस प्रकार से वैद्य जन परम्परा से एक-दूसरे के पीछे शिक्षा पाते चले आये हैं, वैसे ही मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते रहें।
प्रो. विश्वनाथ विद्यालंकार—
(केशवर्धनीम्) केशों को बढ़ाने वाली (याम्) जिष ओषधि को (जमदग्नि:) प्रज्वलित अग्नि वाले वानप्रस्थी (दुहित्रे) दुहिता सदृश कन्याओं के लिये (अखनत्) खोदा, (ताम्) उस ओषधि को (असितस्य) काले साँपों के (गृहेभ्य:) घरों अर्थात् जङ्गलों से, (वीतहव्य:) विगतहविष्क संन्यासी ने (आ अभरत् = आ अहरत्) प्राप्त किया।
[काले साँप अति विषैले होते हैं, प्राय: जङ्गलों में होते हैं। वानप्रस्थी भी वनों में रहते हैं। उदारहृदय परोपकारी वानप्रस्थी केशवर्धनी औषधि को कन्याओं के केश रोग के निवारण के लिये खोद रहते हैं और परोपकारी संन्यासी जब प्रचारार्थ गृहस्थों के घरों में जाते हैं, तो उसे ओषधि को कन्याओं में बाँट देते हैं। असितस्य = अ + सित (श्वेत), काला साँप। मन्त्र में असितस्य दुहित्रे, जमदग्नि:, वीतहव्य: — ये जात्येकवचन के प्रयोग हैं कन्याओं के यदि केश न हों, वे गञ्जी हों, तो उनका विवाह नहीं हो सकता। अत: केशवर्धनी ओषधि को खोद कर, उसका संग्रह कर रखना और उसका वितरण करना सामाजिक अत्युपकार है। वानप्रस्थियों के लिये यज्ञ करने की विधि है, संन्यासी वीतहव्य होते हैं, हवियों से विगत होते हैं।]
पद्मभूषण डॉ. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर—
(जमदग्निः यां केशवर्धनीं दुहित्रे अखनत्) जमदग्नि ने जिस केशवर्धक औषधि को अपनी कन्धा के निमित्त खोदा (तां वीतहव्यः असितस्य गृहेभ्यः आभरत्) उसको वीतहव्य असित के घरों के लिये भर लिया।
आचार्य सायण का भाष्य भी इसी प्रकार का है।
इस मन्त्र का मेरा (आचार्य अग्निव्रत) भाष्य इस प्रकार है—
इस मन्त्र का ऋषि अथर्वा वीतहव्य है। [अथर्वा = प्राणो वा अथर्वा (शत.6.4.2.1), अथर्वाणोऽथर्वणवन्त: थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेध:]
इसका अर्थ यह है कि इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति प्राण रश्मियों से होती है। ये प्राण रश्मियाँ विभिन्न बाधक रश्मियों के मध्य अविचल भाव से अपना कार्य करने में सक्षम होती हैं, इसी कारण इन्हें अथर्वा कहते हैं। इनको वीतहव्य इस कारण कहा गया है, क्योंकि ये इस सृष्टि यज्ञ में सर्वत्र व्याप्त रहते हुए हव्य का काम करती हैं। पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने इसका देवता ‘नितत्नी’ कहा है, जबकि पण्डित दामोदर सातवलेकर ने इसका देवता ‘नितत्नी वनस्पति’ कहा है।
[वनस्पति = अग्निर्वै वनस्पति: (कौ.10.6), वनानां पाता वा पालयिता वा (निरु.8.3), वनम् = रश्मिनाम (निघं.1.5)]
इसका छन्द अनुष्टुप् होने से इसके दैवत और छान्दस प्रभाव से बहुरंग अग्नि उत्पन्न वा समृद्ध एवं पूर्ण विस्तृत होने लगता है। इसके छान्दस प्रभाव से अग्नि तत्त्व को उत्पन्न वा समृद्ध करने वाली विभिन्न छन्द रश्मियाँ अनुकूलतापूर्वक कार्य करने में सक्षम होती हैं। इसका भाष्य इस प्रकार है—
आधिदैविक भाष्य—
(जमदग्नि:) [जमत् = ज्वलतोनाम (निघं.1.17), प्रजापतिर्वै जमदग्नि: (शत.13.2.2.14), आनुष्टुभ: प्रजापति: (तै.ब्रा.3.3.2.1)] अनुष्टुप् छन्द रश्मियों के प्रभाव से विशेष प्रज्वलित होता हुआ रंग-बिरंगा अग्नि (याम्, केशवर्धनीम्) [केश: = रश्मय: केशा: (तै.सं.7.5.25.1)] इसी कारण महर्षि यास्क ने ‘केशी’ पद का निर्वचन करते हुए लिखा है—
केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति, काशनाद्वा,
प्रकाशनाद्वा केशीदं ज्योतिरुच्यत इत्यादित्यमाह (निरु.12.26)।
विभिन्न प्रकार की प्रकाश रश्मियों को समृद्ध करने वाली जिन गायत्र्यादि छन्द रश्मियों को [यहाँ ‘याम्’ पद बहुवचन अर्थ में एकवचनान्त प्रयुक्त हुआ है।] (दुहित्रे, अखनत्) [दुहिता = दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा (निरु.3.4)] यहाँ दुहिता उस विशाल खगोलीय पदार्थ का नाम है, जो अपने उत्पादक विशाल खगोलीय मेघ से पृथक् होकर दूर चला जाता है और अपने उत्पादक उस खगोलीय मेघ से नाना प्रकार की रश्मियों एवं कणों को दुहता हुआ परिपुष्ट होता रहता है। ऐसा ही पदार्थ कालान्तर में सूर्य आदि लोकों का रूप धारण करता है। उस ऐसे उस विशाल खगोलीय पदार्थ के लिए खोदता है अर्थात् प्राप्त करता है। इसका अर्थ यह है कि अनुष्टुप् छन्द रश्मियाँ सूर्यादि लोकों, विशेषकर उनके केन्द्रीय भागों के निर्माण के लिए गायत्र्यादि विभिन्न छन्द रश्मियों को उत्पन्न, आकृष्ट वा समृद्ध करने लगती हैं, जिससे अग्नि तत्त्व प्रबल से प्रबलतर होने लगता है और उसमें से अनेक प्रकार की किरणें उत्पन्न होने लगती हैं।
(ताम्) उन अनुष्टुप् छन्द रश्मियों को (असितस्य, गृहेभ्य:) [असित: = सितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम् (नि.9.25)। गृहम् = गृहा गार्हपत्य: (अग्नि:) (मै.1.5.10), गृहा: कस्माद् गृह्णन्तीति सताम (नि.3.13)] यहाँ गार्हपत्य सूर्य अथवा विशाल खगोलीय मेघ का वह भाग है, जो केन्द्रीय भाग के बाहर कुछ दूर अर्थात् सन्धि क्षेत्र के ऊपर स्थित विशाल क्षेत्र में फैला होता है। यह भाग सन्धि क्षेत्र के माध्यम से केन्द्रीय भाग से तीक्ष्ण विकिरणों को ग्रहण करता रहता है। इसके साथ ही यह भाग सुदूर आकाश से भी अनेक रश्मियों व कणों को ग्रहण करता रहता है। ऐसे विशाल क्षेत्र में विद्यमान अप्रकाशित वायु तत्त्व अर्थात् असुर पदार्थ से (वीतहव्य:, आ, भरत्) इस छन्द की ऋषि अर्थात् प्राण रश्मियाँ सब ओर से प्राप्त करती हैं। इससे संकेत मिलता है कि सूर्यादि लोकों के अन्दर विद्यमान कुछ असुर पदार्थ को प्राण रश्मियाँ देव पदार्थ रूप अनुष्टुप् छन्द रश्मियों में परिवर्तित करती रहती हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है कि सूर्य के बाहरी विशाल भाग में कुछ क्षेत्र अपेक्षाकृत कम तेजस्वी होते हैं, उनमें विद्यमान रश्मियों में से प्राण रश्मियाँ अनुष्टुप् छन्द रश्मियों को ग्रहण करके केन्द्रीय भाग की ओर भेजती रहती हैं। उधर विशाल खगोलीय मेघ में से निर्माणाधीन सूर्यादि लोकों की ओर भेजती रहती हैं।
भावार्थ— इस मन्त्र में खगोलीय मेघों से तारों तथा निर्माणाधीन तारों में उनके केन्द्रीय भागों के निर्माण का विज्ञान दर्शाया है। खगोलीय मेघों से निर्माणाधीन तारे कुछ दूर हो जाते हैं, पुनरपि वे उस विशाल मेघ के केन्द्रीय विशालतर भाग से कुछ विकिरणों, कणों व रश्मियों को निरन्तर ग्रहण करते रहते हैं। इसी प्रकार सूर्य के बाहरी विशालतम भाग से केन्द्रीय भाग अनेक प्रकार के कणों व रश्मियों को प्राप्त करता रहता है। इन प्राप्तव्य पदार्थों में अनुष्टुप् रश्मियों की मात्रा विशेष होती है। ये रश्मियाँ असुर अर्थात् अप्रकाशित वायु रश्मियों से प्राण रश्मियों द्वारा परिवर्तित करके उत्पन्न की जाती हैं। यहाँ बहुत महत्त्वपूर्ण विज्ञान यह है कि यहाँ प्राण रश्मियों द्वारा डार्क ऊर्जा को दृश्य ऊर्जा में परिवर्तित करना बताया है। अनुष्टुप् रश्मियाँ तारों के अन्दर क्रियाशील अन्य गायत्र्यादि रश्मियों की शक्ति को बढ़ाने में सहायक होती हैं, जिससे बहुरंगी प्रकाश की उत्पत्ति होती है।
आध्यात्मिक भाष्य—
(जमदग्नि:) ज्ञानाग्नि से तेजस्वी जीवात्मा (याम्, केशवर्धनीम्) वाक् रश्मियों को उत्पन्न व समृद्ध करने वाले जिस प्राण वायु को (दुहित्रे) [दुहिता = दुहितेव कान्ति: (महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 4.43.2), दुहितेवोषा: (महर्षि दयानन्द ऋग्वेद भाष्य 3.55.12)] कमनीय वाणी के प्रकाशन के लिए (अखनत्) खोदता अर्थात् ताड़ता है। (ताम्) उस प्राणवायु को (वीतहव्यम्) [वीतम् = वीतम् अश्नीतम् (नि.4.19)] इन हव्यरूप प्राण वायु का भक्षण करने अर्थात् उन्हें अपने अन्दर लीन करने एवं स्वयं उनमें व्याप्त होने वाला मन (असितस्य, गृहेभ्य:) अप्रकाशित अर्थात् परावाणी के गृहरूप प्रकृति पदार्थ से (आ, भरत्) सब ओर से प्राप्त करता है अर्थात् मनस्तत्त्व प्रकृति में व्याप्त परा वाणी को पश्यन्ती में परिवर्तित हुए प्राण वायु को ताड़ता है।
पाणिनीय शिक्षा में वर्णित वाणी की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रकरण हमारे इस भाष्य के भावार्थ का संकेत देता है। वह प्रकरण है—
‘‘आत्मा बुद्ध्या समेत्यर्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया
मन: कायाग्निमाहन्ति स: प्रेरयति मारुतम्।
मारुतस्तूरसि चरन्मन्दं जनयति स्वरम्॥
अर्थात् जीवात्मा बुद्धि से अर्थों की संगति करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता, मन विद्युत् रूप जाठराग्नि को ताड़ता, वह वायु को प्रेरणा करता और वायु उर:स्थान में विचरता हुआ मन्द स्वर को उत्पन्न करता है।’’ (महर्षि दयानन्द - वर्णोच्चारणशिक्षा)
भावार्थ— शरीर में आत्मा जब बोलने की इच्छा करता है, उस समय बुद्धि सहित मन प्रकृति में परावस्था में विद्यमान अक्षरों वा पदों को संगत करके पश्यन्ती रूप में परिवर्तित करता है। उसके पश्चात् मन पश्यन्ती को विद्युत् रूप मध्यमा में परिवर्तित करके उसके द्वारा वायु को प्रेरित करके स्वर यन्त्र के द्वारा नाद को उत्पन्न करता है। यही नाद तालु आदि स्थानों के प्रयत्न से वैखरी शब्द को उत्पन्न करता है।
आधिभौतिक भाष्य—
(याम् - केशवर्धनीम्) केशों के समान जिन ज्वालाओं को बढ़ाने वाली ज्वालामुखी को (जमदग्नि:) तीव्र प्रज्वलित अग्नि (दुहित्रे) दूर-दूर तक उषा के समान कान्ति फैलाने वाले और कठिनाई से जिसका धारण किया जा सके, उस लावे के लिए (अखनत्) भूमि के तल को फोड़ता है। (ताम्) उस ज्वालामुखी को (वीतहव्य:) भूगर्भस्थ प्रज्वलित लावा, जिसमें अनेक हव्य पदार्थ व्याप्त रहते हैं, (असितस्य, गृहेभ्य:) पृथिवी गहराइयों में विद्यमान अन्धेरी वा रंगबिरंगी गुफाओं से (आ, भरत) से प्राप्त किया जाता है।
भावार्थ— यहाँ ज्वालामुखी विस्फोट की चर्चा की गयी है। भूमि के अन्दर गहरी गुफाओं में रंग बिरंगा लावा भरा रहता है। उनके आसपास अन्धेरी चट्टानें होती हैं। उस लावे में अनेक हव्य ओषधियुक्त पदार्थ भरे रहते हैं। जब यह लावा तीव्र वेग एवं तीव्र दबाव से प्रज्वलित हो उठता है, उस समय धरती के तल को फोड़कर बाहर आग की नदी के समान बहने लगता है। उस समय ज्वालामुखी, पर्वत के मुख से आग की ज्वालाएँ ऐसे बाहर निकलती प्रतीत होती हैं, जैसे मानो वे ज्वालामुखी पर्वत के लम्बे-लम्बे केश हों। उस समय उस क्षेत्र में उषा केेसमान प्रकाश उत्पन्न होता है। भूगर्भस्थ प्रबल अग्नि एवं वायु के दबाव से केशों केे समान ज्वालाएँ सहसा ही बढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। लावे से उत्पन्न भस्म में अनेक औषधीय गुण होते हैं, जो मनुष्यों के साथ-२ वनस्पतियों के लिए भी उपयोगी होते हैं, जैसे लावे की राख में गंधक होने के कारण ज्वालामुखी के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों में चर्म रोग नहीं होते।
अब आप स्वयं सभी भाष्यों के स्तर की तुलना करके देखें और comment करके बतायें कि आपको कौनसा भाष्य सही लगा और क्यों?
सभी वैदिक विद्वानों से निवेदन है कि यदि वे इस मन्त्र का मेरे भाष्य से अच्छा और तर्कसंगत भाष्य कर सकते हैं, तो उनका स्वागत है।

—आचार्य अग्निव्रत

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